कुछ कुछ सपने भी आईने के समान होते हैं और उसमें व्यक्ति को अपना असली और गंवाए रूप को देखकर विचित्र लगता है। ऐसे सपने मुर्दा मन के तहखाने से ए...
कुछ कुछ सपने भी आईने के समान होते हैं और उसमें व्यक्ति को अपना असली और गंवाए रूप को देखकर विचित्र लगता है। ऐसे सपने मुर्दा मन के तहखाने से एक चिंगारी समान उठते हैं। कभी तो सतह पर पहुंचने से पहले ही खाक हो जाते हैं और कभी शोले आग भड़का देते हैं, परंतु जब हम ऐसे आईने समान सपनों में अपना गंवाया हुआ शानदार भूतकाल देखते हैं तो वर्तमान के जंग लगे, गुलाम विचारों पर फीका पड़ने के बदले आईने पर गुस्सा होते हैं और उसे तोड़ देते हैं। रात को मैंने भी एक ऐसा ही आईना देखा और वह अभी तक मेरे सामने है।
मैं एक खंडहर बन गए शहर में खड़ा था। चारों ओर वीरानी और सन्नाटा छाया था। शहर की गली गली में उसकी शान और शानदार भूतकाल के उगे निशान मौजूद थे। आलीशान लेकिन ढह गई जगहों में गीदड़, लकड़बग्घे, नाग और बिच्छू बैठे नजर आए। मैं डरता हुआ छिपता छिपता एक खुले मैदान में आ पहुंचा। चकित रह गया। जमीन पर चारों ओर लाशें फैली थीं। शायद युद्ध का मैदान था और रक्त अभी भी ताजा था। मैं डर गया। मैंने लाश की ओर देखा। सबके चेहरों पर विचित्र मुस्कान थी। सभी चेहरे फूल की तरह खिले थे, फिर भी वे शेर समान लग रहे थे। अपनी कायरता पर मेरा चेहरा शर्म से झुक गया। सभी चेहरे मुझे जाने पहचाने लगे। हर किसी को घूर घूरकर देखते मैं आगे बढ़ता गया।
‘यह कौन है! यह तो मुझे जाना पहचाना लग रहा है। कितना अपनापन है इसमें...’ लेकिन किसी का भी नाम मेरे मन में नहीं आ रहा था। मैं हैरान, परेशान और अचंभित होकर वहीं घूमता रहा। अचानक मेरी नजर एक कम उम्र नौजवान पर पड़ी। मेरी आत्मा आकर्षित हो गई। किसी अनजान शक्ति से आकर्षित होकर उसकी स्वस्थ व मजबूत बांह पर अपना हाथ रख दिया। केवल छूने की देर थी। वह उछलकर उठ बैठा। उसके रोशन माथे पर जरा भी बल नहीं पड़ा, चेहरे पर वही लाजवाब मुस्कान और उत्साह फैला था।
‘‘तुम यहां कैसे आ गए, भाई!’’ उसने प्यार भरे स्वर में पूछा।
‘‘मैं... मैं... मुझे पता नहीं! लेकिन ये सभी कौन हैं?...’’
‘‘तुम इन्हें नहीं पहचानते! कितने आश्चर्य की बात है...’’
मैंने कहा, ‘‘मुझे चेहरे तो जाने पहचाने लग रहे हैं, लेकिन पता नहीं क्यों इनके नाम दिमाग में नहीं आ रहे...’’
‘‘तुम सिंधी नहीं हो क्या!’’
‘‘मैं सिंधी हूं विश्वास कर, मैं सिंधी हूं।’’
उसने फिर से पूछा, ‘‘तुम सिंधी हो उसके बाद भी इन्हें नहीं पहचानते, शायद सिंध में तुम कभी नहीं रहे हो!’’
मैंने कहा, ‘‘मैं सिंध में ही पला बड़ा हुआ हूं, पूरी जिंदगी सिंध का अन्न खाया है और सिंधु का पानी पिया है। मेरा मन सिंध की चीज से ही जुड़ा है...’’
तब वह बिल्कुल अचंभित रह गया, ‘‘क्या हो गया है आप सब को! कौन-सी मुसीबत आई है आप पर! यहां आए मुझे थोड़ा ही वक्त हुआ है, क्या इतनी देर में मेरी जाति, मेरा देश इतना बदल गया कि उनसे उनके शूरवीर दोदो और दर्याखान विस्मृत हो चुके हैं!...’’
उसने मुझे बांह से पकड़कर एक ओर खींचते कहा, ‘‘यहां आओ, इसे पहचानते हो...’’ उसने एक बहादुर जवान की ओर इशारा किया।
‘‘शायद... लेकिन मुझे इसका नाम याद नहीं आ रहा।’’
उसके मुंह से लगभग चीख निकल गई, ‘‘आपने होशू को भी भुला दिया! मेरे सपने में भी नहीं था कि मेरी जाति ऐसी हो जाएगी...’’ कुछ समय पहले उसके चेहरे पर जो लाजवाब मुस्कान और खुशी फैली हुई थी उसकी चमक कम हो गई।
‘‘मुझे पहचानते हो?’’
‘‘तुम!’’ मैंने दिमाग पर जोर दिया, ‘‘हां, लेकिन...’’ मेरा सर नीचे झुक गया, उसके मुंह से कुछ न निकला, केवल मुझे देखता रहा। कुछ देर के बाद उसने कहा, ‘‘मेरा नाम हेमूं है।’’
मैंने तुरंत कहा, ‘‘हेमूं! क्यों नहीं, हेमूं के बारे में तो हम स्कूलों और कॉलेजों के इतिहास में पढ़ते हैं, हेमूं ने अकबर मुगल बादशाह से पानीपत के मैदान में युद्ध किया था।’’
उसके मुंह से ठहाका निकल गया, मैं बहुत शर्मसार हुआ।
‘‘उसका सिंध से क्या संबंध! आपको स्कूलों और कॉलेजों में सिंध का इतिहास नहीं पढ़ाया जाता क्या, मैं हेमूं कालानी का जिक्र कर रहा हूं जो सिंधी था। साम्राज्यवादी अंग्रेजों से सिंध को आजाद कराने के लिए अपनी हम उम्र नौजवानों सिंधी विद्यार्थियों की स्वतंत्रता की हलचल में काम किया था। सखर में रेल की पटरियों को उखाड़कर रेलगाड़ी गिराने के इल्जाम में अंग्रेजों ने उसे फांसी पर लटकाया था।’’ वह चुप हो गया, लेकिन मेरे अंदर कोई सोयी चीज जाग गई थी और कह रही थी : यह तो वह शूरवीर हेमूं है, जिसे अंग्रेजों ने कहा था कि ‘तुम केवल हमसे माफी मांग और वायदा करो कि आगे से स्वतंत्रता की हलचल में भाग नहीं लोगे तो तुम्हारी नौजवानी पर रहम खाकर तुम्हें आजाद कर देंगे। लेकिन उसने उत्तर दिया कि देश के लिए ऐसी लाखों नौजवानियां कुर्बान। अगर मुझे आजाद किया गया तो मैं कभी भी कायर और गद्दार बनकर गुलामी की बेड़ियां पहनकर नहीं बैठूंगा।’’ वह हंसते हंसते फांसी चढ़ गया और उस हेमूं को हमने भुला दिया!
शर्म से मेरी गर्दन नीचे झुक गई। ‘‘सिंध के लोगों ने शायद तुम्हें इसलिए भुला दिया क्योंकि तुम हिन्दू थे।’’
लेकिन उसने मेरी बात पर कोई ध्यान नहीं दिया। वह अपने ही विचारों में बुदबुदा रहा था। अचानक उसने अपने मजबूत हाथों से मेरे गले को खींचकर कहा, ‘‘मैं अपनी सिंध तुम लोगों के हवाले कर गया था, मेरा देश कहां है... मेरे बाद तो आप सब भी डरकर और थककर सो गये... मुझे उत्तर दो... उत्तर दो...’’ मेरे पास कोई उत्तर नहीं था। उसने मुझे जोर से धक्का दिया और मैं मुंह के बल जा गिरा।
आईना अभी तक मेरे सामने है। मैं उसमें घूर घूरकर खुद को देख रहा हूं, पता नहीं क्यों मैं अभी तक उसमें खुद को पहचान नहीं पाया हूं। डरता हूं कि कहीं खुद को पहचानने से पहले आईना टूट न जाये और सपने टूटकर बिखर न जाएं...
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