- (लेखक माखनलाल चतुर्वेदी राष्ट्रीय पत्रकारिता एवं संचार विश्वविद्यालय में सहायक प्राध्यापक हैं) --- देश के लगभग एक हजार केंद्रीय विद्यालयो...
- (लेखक माखनलाल चतुर्वेदी राष्ट्रीय पत्रकारिता एवं संचार विश्वविद्यालय में सहायक प्राध्यापक हैं)
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देश के लगभग एक हजार केंद्रीय विद्यालयों में पढऩे वाले विद्यार्थियों को संस्कृत और हिंदी में प्रार्थना कराई जाती हैं। वर्षों से यह प्रार्थनाएं हो रही हैं। परंतु, आज तक देश में कभी विद्यालयों में होने वाली प्रार्थनाओं पर विवाद नहीं हुआ। कभी किसी को ऐसा नहीं लगा कि प्रार्थनाओं से किसी धर्म विशेष का प्रचार होता है। न ही कभी किसी को यह लगा कि इन प्रार्थनाओं से संविधान की अवमानना हो रही है। यहाँ तक कि केंद्रीय विद्यालय में पढऩे वाले मुस्लिम और ईसाई विद्यार्थियों एवं उनके अभिभावकों ने भी कभी प्रार्थनाओं पर आपत्ति दर्ज नहीं कराई। विद्यालय में पढ़ाने वाले मुस्लिम और ईसाई शिक्षकों को भी कभी ऐसा नहीं लगा कि प्रार्थनाएं किसी धर्म का प्रचार कर रही हैं। किन्तु, अब अचानक से एक व्यक्ति (निश्चित तौर पर उसके साथ भारत विरोधी विचारधारा होगी) को यह प्रार्थनाएं असंवैधानिक दिखाई देने लगी हैं। विनायक शाह नाम के मूढ़ व्यक्ति ने याचिका दाखिल कर कहा है कि केंद्रीय विद्यालयों में 1964 से हिंदी-संस्कृत में सुबह की प्रार्थना हो रही हैं, जो कि पूरी तरह असंवैधानिक हैं। याचिकाकर्ता ने इसे संविधान के अनुच्छेद 25 और 28 के विरुद्ध बताते हुए कहा है कि इसकी इजाजत नहीं दी जा सकती है। एक ओर न्यायालय में अत्यंत महत्वपूर्ण मुद्दे सुनवाई की प्रतीक्षा कर रहे हैं, वहीं माननीय सर्वोच्च न्यायालय ने 'प्रार्थनाओं' को संवैधानिक मुद्दा मान कर उक्त याचिका पर विचार करना आवश्यक समझ लिया है। बड़ी तत्परता दिखाते हुए सर्वोच्च न्यायालय ने केंद्र सरकार और केंद्रीय विद्यालय संगठन से इस संबंध में जवाब माँगा है।
अकसर एक बहस देश में चलती है कि हमारी शिक्षा व्यवस्था को अंग्रेज अफसर मैकाले ने ब्रिटिश साम्राज्य के हित में नष्ट कर दिया। ज्ञान के क्षेत्र में विश्व का नेतृत्व करने वाले भारत की शिक्षा व्यवस्था आज मैकाले की पद्धति से उबर नहीं पाई है। भारत वह देश है, जहाँ तक्षशिला एवं नालंदा जैसे विश्व विख्यात विश्वविद्यालय थे। परंतु, कालान्तर में जितने भी आक्रमणकारी भारत आए, उन्होंने शिक्षा व्यवस्था पर आघात किया। ब्रिटिश साम्राज्य में यह काम और अधिक योजनाबद्ध ढंग से किया गया। अंग्रेजों ने भारत की शिक्षा व्यवस्था को ध्वस्त ही नहीं किया, अपितु उसे अपने अनुसार बदल दिया। इसके बावजूद भारत में यह परंपरा बची रही कि विद्या अभ्यास से पूर्व विद्यार्थी माँ सरस्वती एवं ईश्वर का स्मरण करते हैं। शासकीय हों या निजी विद्यालय, सभी में सबसे पहले कतारबद्ध होकर विद्यार्थी प्रार्थना करते हैं। ज्यादातर प्रार्थनाएं भारतीय ज्ञान-परंपरा से ली गई हैं। यह प्रार्थनाएं विद्यार्थियों को हिंदू बनने के लिए नहीं, अपितु नेक इंसान बनने के लिए प्रेरित करती हैं। उनके अंतर्मन को शक्ति एवं शांति प्रदान करती हैं।
केंद्रीय विद्यालय में होने वाली प्रार्थना है-
'ओ3म् असतो मा सद्गमय,
तमसो मा ज्योतिर्गमय,
मृत्योर्मामृतं गमय।'
यह प्रसिद्ध श्लोक बृहदारण्यक उपनिषद् से लिया गया है। इस प्रार्थना में कहाँ हिंदू धर्म का प्रचार है? यह प्रार्थना कहाँ कहती है कि हिंदू बनो? बल्कि, यह प्रार्थना तो बिना किसी भेदभाव के सब लोगों को सत्य के पथ पर बढऩे के लिए प्रेरित करती है। 'असत्य से सत्य की ओर ले चलो, अंधकार से प्रकाश की ओर ले चलो, मृत्यु से अमरता की ओर ले चलो।' यह भावार्थ है, उक्त प्रार्थना का। यही संदेश तो शिक्षा का है। शिक्षा का उद्देश्य क्या है? मनुष्य के जीवन से असत्य को समाप्त करना। उसे सत्य का साक्षात्कार कराना। अज्ञान के अंधकार से मुक्ति देना और ज्ञान के उजाले में ले जाना। ताकि व्यक्ति ज्ञान के प्रकाश से अपने जीवन को रोशन एवं सार्थक कर सके। मृत्यु (डर) से अमरता (साहस) की ओर ले जाने का काम शिक्षा ही तो करती है। क्या वाकई उक्त प्रार्थना धर्म का प्रचार करती है या फिर शिक्षा के उद्देश्य का प्रतिनिधित्व करती है? वर्षों से उक्त प्रार्थना को इसी संदर्भ में देखा गया। किंतु, जिनके मस्तिष्क संकीर्ण हों और औपनिवेशिक दासिता से जकड़े हों, वह बड़ा सोच नहीं सकते।
इसी तरह, केंद्रीय विद्यालयों में संस्कृत की एक ओर प्रार्थना कराई जाती है-
'ओ3म् सहनाववतु
सहनै भुनक्तु
सहवीर्यं करवावहै
तेजस्विनामवधीतमस्तु
मा विद्विषावहै
ओ3म् शान्ति: शान्ति: शान्ति:।। '
यह प्रार्थना भोजन मंत्र है, जिसे भोजन के पूर्व सामूहिक रूप से गाया जाता है। यह तैतरीय उपनिषद से लिया गया है। इसका अर्थ है- 'हे परमात्मन्! आप हम दोनों गुरु और शिष्य की साथ-साथ रक्षा करें, हम दोनों का पालन-पोषण करें, हम दोनों साथ-साथ शक्ति प्राप्त करें, हमारी प्राप्त की हुई विद्या तेजप्रद हो, हम परस्पर द्वेष न करें, परस्पर स्नेह करें।' क्या याचिकाकर्ता एवं उसके साथ खड़े लोग बता सकते हैं कि इस प्रार्थना से किस धर्म का प्रचार हो रहा है? यह प्रार्थना तो एकता को बढ़ावा देने वाली है। आपस में मिल-जुल कर रहने का संदेश देती है। एक-दूसरे के प्रति द्वेष नहीं अपितु स्नेह करने की सीख देती है। यह प्रार्थना कहाँ सिखाती है कि हिंदू बनो? भोजन के लिए एक-साथ बैठे लोग जब यह प्रार्थना करते हैं, तब वे परस्पर सहयोग से आगे बढऩे के संकल्प को दोहरा रहे होते हैं। प्रार्थना बंद करने से ज्यादा अच्छा होगा कि प्रतिदिन विद्यार्थियों को प्रार्थनाओं का अर्थ भी समझाया जाए। ताकि वह प्रार्थना के मर्म को आत्मसात कर एक सुसंस्कृत समाज के निर्माण में अपनी महत्वपूर्ण भूमिका का निर्वाहन करें।
केंद्रीय विद्यालय में गाई जाने वाली हिंदी की प्रार्थना है- 'दया कर दान विद्या का हमें परमात्मा देना। दया करना हमारी आत्मा में शुद्धता देना...। ' इस पूरी प्रार्थना में एक बार भी हिंदू शब्द या हिंदू धर्म का उल्लेख नहीं आता है। इस प्रार्थना में एक बार भी किसी हिंदू देवी-देवता का नाम नहीं आता है। फिर किस आधार पर यह कहा जा सकता है कि यह प्रार्थना किसी धर्म विशेष (हिंदुत्व) का प्रचार करती है? यह प्रार्थना केवल केंद्रीय विद्यालयों में ही नहीं, बल्कि देश के ज्यादातर विद्यालयों में गाई जाती है। क्या याचिकाकर्ता बता सकते हैं कि इस प्रार्थना एवं उक्त श्लोकों के पाठ से अब तक कितने गैर-हिंदुओं ने हिंदू धर्म स्वीकार कर लिया है? कितने लोग मुस्लिम और ईसाई पंथ से हिंदू धर्म में मतान्तरित हुए हैं? याचिकाकर्ता विनायक शाह भले ही अपने तर्क-कुतर्कों से न्यायालय में यह सिद्ध करने का प्रयास करें कि यह प्रार्थनाएं हिंदू धर्म का प्रचार करती हैं, परंतु देश के असंख्य लोग मानते हैं कि यह प्रार्थनाएं भारतीय ज्ञान-परंपरा का प्रतिनिधित्व करती हैं और उसी का प्रचार करती हैं।
यह पूर्ण विश्वास के साथ कहा जा सकता है कि 1964 से केंद्रीय विद्यालयों में गाई जाने वाली प्रार्थनाओं पर प्रश्न उठाने वाले लोग या तो भारतीय विचार से परिचित नहीं है या फिर उसके विरोधी समूह से हैं। जिन्हें विवाद एवं कलह कराने में आनंद आता है, यह ऐसे ही लोग हैं। याचिकाकर्ता की दलील है कि यह प्रार्थनाएं हिंदू धर्म से जुड़ी हैं, इसलिए उसका प्रचार करती हैं। इस आधार पर वह प्रार्थनाओं को बंद कराने की वकालत सर्वोच्च न्यायालय में कर रहे हैं। तब उन्हें जरा विचार करना चाहिए कि वह क्या-क्या बंद कराएंगे? भारतीयता के दर्शन की छाप तो प्रत्येक जगह उन्हें दिखाई देगी। इस आधार पर तो उन्हें हिंदी भाषा को भी बंद कराना चाहिए। संस्कृत का अध्ययन भी प्रतिबंधित कराना चाहिए, क्योंकि यह भाषा भी तो भारतीयता से संबद्ध है। संस्कृत भाषा भी तो हिंदू संस्कृति एवं धर्म का प्रतिनिधित्व करती है। याचिकाकर्ता को सर्वोच्च न्यायालय की धर्मनिरपेक्षता पर भी प्रश्न उठाने का साहस दिखाना चाहिए। सर्वोच्च न्यायालय का ध्येय वाक्य है- 'यतो धर्मस्ततो जय: ' अर्थात् जहाँ धर्म है, वहाँ विजय है। न्यायपालिका ने यह वाक्य श्रीमद्भगवतगीता से लिया है। महाभारत में इसका अनेक स्थान पर उल्लेख आता है। क्या यह वाक्य किसी धर्म विशेष का प्रचार नहीं करता? देश में किस संस्था या संगठन का ध्येय वाक्य भारतीय ज्ञान-परंपरा से नहीं आता है? केंद्रीय विद्यालय संगठन का ध्येय वाक्य 'तत् त्वं पूषन् अपावृणु' भी हिंदू ज्ञान-परंपरा के वाहक ग्रंथ ईशावस्योपनिषद् से लिया गया है, जिसका अर्थ है- हे सूर्य ज्ञान पर छाए आवरण को हटाएं। देश के अनेक शिक्षा संस्थानों के ध्येय वाक्य भारतीय ग्रंथों से ही लिए गए हैं। इसका क्या यह अभिप्राय है कि यह सब संस्थान हिंदू धर्म के प्रचार के लिए स्थापित किए गए हैं?
धर्मनिरपेक्षता के ठेकेदारों को समझना चाहिए कि इन प्रार्थनाओं से विभेद का संकेत मिलता होता, तब उनके गाए जाने पर प्रश्न उठाना उचित होता। यह प्रार्थनाएं तो जोडऩे की बात कर रही हैं। सामाजिक समरसता एवं परस्पर स्नेह भाव को पुष्ट करने का संदेश दे रही हैं। सत्य तो यह है कि उक्त प्रार्थनाएं किसी धर्म विशेष का प्रचार नहीं, बल्कि भारतीय जीवन मूल्यों का प्रचार कर रही हैं। ये प्रार्थनाएं मानवता की प्रचारक हैं। वितंडावादियों को प्रत्येक मामले में 'धर्म' को घसीटने की अपेक्षा कुछ रचनात्मक दृष्टिकोण का प्रदर्शन करना चाहिए। हर बात को 'धार्मिक चश्मे' से देखकर अपनी सांप्रदायिक सोच को उजागर करना उनके लिए भी ठीक नहीं और शांति से रह रहे समाज के लिए भी ठीक नहीं। वैसे भी सर्वोच्च न्यायालय ने अपने एक निर्णय में हिंदू धर्म की व्याख्या 'संप्रदाय' के रूप में नहीं, बल्कि एक जीवन पद्धति के रूप में की है। हिंदू ग्रंथों से ली गई उक्त प्रार्थनाएं, श्लोक एवं मंत्र भी इस बात की पुष्टि करते हैं कि हिंदू धर्म एक जीवन पद्धति है। वह संकीर्ण नहीं है। दुराग्रही नहीं है। जीवन को बांधने वाला नहीं है। यह प्रार्थनाएं हमारी दृष्टि को संकुचित नहीं करतीं, बल्कि मनुष्यता का मार्ग प्रशस्त करती हैं। यह प्रार्थनाएं हमें उदारमना और श्रेष्ठ नागरिक बनाने में सहायक ही नहीं, अपितु आवश्यक हैं। भारतीय विचारदर्शन से चिढऩे वाले खेमे को भी इन प्रार्थनाओं का पाठ नित्य करना चाहिए, ताकि उनके मस्तिष्क की खिड़कियाँ खुलें और मस्तिष्क में शुद्ध एवं ताजी हवा आ सके।
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भवदीय
लोकेन्द्र
संपर्क :
माखनलाल चतुर्वेदी राष्ट्रीय पत्रकारिता एवं संचार विश्वविद्यालय,
बी-38, विकास भवन, प्रेस काम्प्लेक्स, महाराणा प्रताप नगर जोन-1,
भोपाल (मध्यप्रदेश) - 462011
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