जीवन तो एक सिलसिलेवार संघर्ष है, एक जंग है. यह वह लड़ाई है जो लड़ते हुए भी कोई जीत नहीं पाया है. पर इस जद्दोजहद के दौरान आशावादी विचारों ...
जीवन तो एक सिलसिलेवार संघर्ष है, एक जंग है. यह वह लड़ाई है जो लड़ते हुए भी कोई जीत नहीं पाया है. पर इस जद्दोजहद के दौरान आशावादी विचारों वाले योद्धा प्रयास करते हुए अंधेरी सुरंगों से रोशनी को ढूंढ ले आने की कोशिश करते हैं और क़ामयाब भी होते हैं.
पर इसके लिए सोच में ठहराव जरूरी है!
पानी में हलचल हो तो अपना अक्स भी साफ दिखाई नहीं देखा जा सकता. सुख के झोंके, दुख की आंधियाँ मौसम के बदलाव के साथ तब्दील होकर आती जाती है. समय के साथ समस्याएं आएंगी, समाधान ढूंढने पड़ेंगे. सर्दी होगी तो हीटर का या ब्लैंकेट का बंदोबस्त करना होगा, और गर्मी में एयर कंडीशनर व् पंखे की जरूरत पड़ती है यह भी सोचना पड़ेगा.
कहते हैं जब तक पानी हमारे पाँवों के नीचे से नहीं गुजरता तब तक हमारे पैर गीले नहीं होते!
तो आइए आज इस मंच पर हम सिंध के अदीब श्री शौकत शौरो जनाब की कहानियों के संग्रह खोई हुई परछाई (रात का रंग-सिंधी में) दिन की रोशनी में देखें, सुनें और ज़ायका लें.
संध्या कुन्द्नानी ने इस संग्रह का अनुवाद हिंदी में ’खोई हुई परछाई’ के नाम से किया और उसे मंज़रे-ए-आम पर स्थापित किया है. इस संग्रह में 46 कहानियाँ हैं और मैंने उनमें से कुछ कहानियों के विशिष्ट किरदारों में औरत और मर्द किरदार की तन्हाई और धरती के दर्द को अभिव्यक्त करने की कोशिश की है.
संग्रह में लिखी भूमिका में श्री हीरे शेवकानी जी ने कई कहानियों का विश्लेषण करते हुए उन्हें Low key symphony की लहरों के साथ तुलना की है.
शब्दों में भी शब्द संगीत होता है! पर उस संगीतात्मक लय को सुनने के लिए शोर में भी खामोशी की आवाज़, उस आवास की गूंज को सुनने की दरकार है. यह वह आवाज़ है जो हमें खुद से, उस ताकत से जोड़ती है जिसके हम अंश है. उस Low key symphony का आनंद लेने के लिए बहुत सारे और माध्यम भी है जो हमारे लिए हमारे भीतर हैं, और वही हमारी रहबरी करने के लिए अधीर हैं.
क्या कभी किसी ने बाहर से अंदर का रास्ता पाया है? अपने अंदर उतर कर वह symphony सुनना इंसान के बस में है. शर्त फिर भी वही, सोच में ठहराव् ! थिरता की अवस्था.!
इसी कड़ी में एक कड़ी जोड़ते हुए श्री जगदीश लछानी जी ने जनाब शौकत हुसैन की कहानियां को अंतः चेतना प्रवाह (literature of stream of consciousness) के प्रभाव की बात की है.
मैं भी इस बात से सहमत हूँ, कि बहुत सी कहानियों में पराएपन, तन्हाई और ज़हनी संघर्ष के दौर में बेदिली और बेबसी का इज़हार है. इंतहाई निराशाजनक मायूसी के माहौल से गुजरते हुए एक थका हारा इंसान जीवन से हार मानते हुए अपने सभी हथियार फेंक देता है, ऐसे जैसे जीवन में बहुत कुछ खोने के बाद कुछ भी न बचा हो.
मैंने इस विषय के लिए संग्रह से खास कहानियों के किरदारों को सामने लाने की कोशिश की है. काली रात-लहू की बूँदें, सुरंग, दर्द की लौ, गुम हुई परछाई व् भूखा सौन्दर्य.
काली रात लहू की बूँदें, कहानी पढ़ते मुझे लगा कि कहानी का किरदार अपनी ही सोच के जाल में कैदी होकर अपने ज़हनी यातना भोगता है. डर, तनहाई, नफ़रत के बावजूद वह एक खौफनाक मुस्कान चेहरे पर लिए, अपनी प्रेमिका को दहशत भरे अंदाज में डराने का प्रयास करता है. और खुद को तसल्ली देते हुए सोचता है-’ वह निश्चित ही समझती होगी कि मैं दिमाग का संतुलन गँवा बैठा हूँ.’ यहां भी किरदार अपनी ही सोच की कैद में उलझा हुआ है.
भीड़ में इंसान कभी अपने आप को तन्हा समझे, कभी बेवस और कभी लाचार होकर खौफ का शिकार बने तो समझना चाहिए कि उसकी हालत ठीक नहीं. या तो वह अपने वश में नहीं, या बहुत ज़्यादा ज़ख्मी है- भले ही वह अपने मन में कितने भी ठहाके क्यों न लगा ले. जब वही ठहाका बाहर निकलता है तो खोखले झुनझुने की तरह बजने लगता है. किरदारों के और कई जज्बे इसी तरह लफ्जों से झांकते हुए अपने आप को व्यक्त कर रहे हैं. जैसे-
‘खुले दिल से हंसते-हंसते ठहाका लगाना एक खुशी और बेफिक्री को ज़ाहिर करता है. उसके विपरीत दूसरा ठहाका होता है, जो अंदर की पीड़ा को छुपाने के लिए लगाया जाता है. यह भी एक कारण है मायूसी का…..!
मायूसी इंसान को अपने भीतर समेट लेती है, और वह अपने आप में ही सिकुड़ जाता है- उसे न किसी का साथ भाता है, न मज़ाक, न मुस्कान. इन हालत में इज़ाफा तब ज्यादा होता है जब वह बेरोज़गारी की चादर से अपने आप को ढक लेता है. उम्मीद और आसरे सभी बेमतलब के जान पड़ते हैं, बेबसी मुंह उठाकर चिढ़ाने लगती है. रिश्ते सब सौदे बन जाते हैं... लगता है जिंदगी जिंदगी नहीं सौत बन गई है!
सुरंग कहानी मैं भी शौकत शोरो का पात्र बाहरी आन- बान का मालिक है, भले ही उसकी जेब खाली हो, पर जबरदस्ती मुस्कुराने पर उसका बस है. नौकरी बाकी नहीं बची, ऑफिस का अदना कर्मचारी हमदर्दी जताता है- पर जनाब के तेवर इस उद्धरन में देखिए---
‘यह बेवकूफ क्या समझता है? नौकरी न होने के कारण मैं पागल जैसा हो गया हूँ?” यह है जिंदगी जहां इंसान की ज़हनी हालत शायद जीवन में मात पर मात हासिल मिलने के कारण बेवजूद हो जाती हैं. फिर बात वहीं आ कर खत्म होती है जहां से शुरू हुई-कि इंसान अपने ही ज़हनी विचारों का कैदी है’.
दर्द की लौ कहानी में भी दोनों मर्द और औरत किरदार यकसी हालत में होने के कारण एक जैसा दर्द सहते है, पीड़ा के पुल पार करते हैं. फ़क़त इतना ही नहीं, पाठक भी उन किरदारों के साथ हमसफर होकर उनके हर अहसास में शरीक होता है, वही अहसास जीता है, वही पल भोगता है.
उसी तार से बुनी हुई है यह कहानी, जहां आशिक अपनी महबूबा रूबी से बिछड़ने के बाद तन्हाई का शिकार हो जाता है. उलझे हुए धागों की तरह उसके विचार उसे सिनेमा हॉल की ओर वक्त काटने के लिए धकेल कर ले जाते हैं. जीवन से बेज़ार आदमी के विचार भी निराले होते हैं, मौत उसे बहुत करीब नज़र आती है. तन्हाई उसका मुकद्दर बन जाती है, जब साथ देने के वादे पूरे नहीं हो पाते, या निभाए नहीं जाते. कारण जो भी हो. अपने नज़रिए से मर्द किरदार देखिए क्या सोचता है ……!
‘ वादे झूठी गारंटी की तरह है. वादों की भला क्या अहमियत. रूबी और मैने कितने वादे किए, क्या हुआ? आज उनका तालुक बीते हुए कल सा है. हमारा प्यार जो कल सच था आज उसकी कोई मायने नहीं. कल जो सब कुछ था, आज कुछ भी नहीं.”
कहानी वही जो अपने आपको किरदारों के माध्यम से लिखवाती जाए और एक प्रवाह में बहते हुए झरने के समान कल कल बहती जाए. जिंदगी के खुरदरे रास्तों पर चलते चलते शौकत शोरो की कहानियों के किरदार भी कभी लड़खड़ाते हैं, तो कभी गिर कर संभाल उठते हैं. कभी मौन में सिसकते हैं, तो कभी बीच रास्ते में ठहाका लगा कर अपने खोखले वजूद पर आंसू बहाते हैं.
यह भी एक अजीब इत्तेफाक है, कि 45 कहानियों के संग्रह में, कहानियां जो मेरे हिस्से में आई हैं, उनमें से बहुत सी कहानियों के पात्र अपनी ही ज़हनी हालात के तंग किले में कैद लगे. लगभग abstract माहौल! वही तन्हाई वही घुटन, वही मायूसी!
बस बेबसी में विचारों के किले को बनाना और फिर उन्हें डाह देना, इस मायूसी के सिवा उनके पास अगर कुछ बचा है तो बस सिर्फ आंखों में आब जो इस बात का गवाह है कि यादें कैसे उनके जहन से लिपटी हुई हैं, मन की दीवारों से चिपकी हुई हैं.
हद से ज़्यादा एहसास और जज्बाती होने की वजह से आदमी अपने आसपास के माहौल में खुद को बिचारा, कमजोर, व् कायर करार कर देता है. subject to self pity....!
लगता है तन्हाई और दुख को एक दूसरे से जुदा करना नामुमकिन है, क्योंकि ऐसे दौर में न तो शख्स को अपने विचारों पर और न ही खुद पर कोई अख्तियार होता है.
ये है मन की पीड़ा और उसकी याचना के स्वर ! उन्ही की रौ में बहते हुए मैंने भी उनकी पीड़ा महसूस की, कुछ पलों के लिए जी. इसे मैं दिल का दर्द कहूं, या धरती का दर्द कहूं... सोच में हूँ... ! नारी का हृदय भी तो धरती के समान विशाल होता है, जिस में हर रंग के संस्कार और भाव भरे हुए रहते हैं.
शौकत शोरो के लेखन में भाषा का सौंदर्य, शब्दों का रख-रखाव, और गुफ्तार की शैली भी अति सुंदर और निखार भरी है. साथ में दर्ज किये हुए मुहावरे, personification, alliteration, transferred epithet....बखूबी इस्तेमाल किये गए हैं.
खोई हुई परछाई कहानी में से कुछ उद्धरन चिन्ह, भाषा के सौंदर्य को अभिव्यक्त करते हुए पाए गए हैं उन्हीं में से कुछ यहाँ दर्ज है...
रास्ता सुनसान और खामोश है
जैसे कोई कहे कि मैं मौन पहाड़ी पर शोर भरा मंजर देखने के लिए खड़ा था!
पहाड़ी मौन …
रास्ता सुनसान और खामोश….
शोर में मंज़र का देखना और सुनना
बचपन में हमें उस्ताद सिखाया करते थे-
I slept on a restless pillow ...
मेरी बेचैनी तकिए को ट्रान्सफर की गई!
यह याद आज भी ज़हन से चिपकी हुई है.
फिर आगे गुम हुई परछाई का एक अंश-
रास्ता अनंत है और पाँव हैं पत्थर के….! सुंदर अभिव्यक्ति!
पत्थर के विशिष्ट लक्षण पैरों पर ट्रांसफर किये गए हैं.
बेहद सुंदर और निखार लाने वाली भाषा पाठक को सराबोर करती है इसमें कोई शक नहीं.
आगे लिखा है--
घुटनों के ढक्कन भी पत्थर के हैं, और टांगों में जान ही नहीं.
ऐसा क्यों होता है? कब होता है? जब इंसान के ज़हन में अंधेरा बस जाता है, दिल दिमाग के सभी रोशनदान बंद हो जाते हैं. शौकत के शब्दों में--
कितना अंधेरा है अपने आप को नहीं देख सकता…. नीचे.. नीचे.. और नीचे.. चारों तरफ से दबाव है!’
बेबसी की हालत में अंधेरा वजूद का हिस्सा बन जाता है. परछाई का कहीं नामोनिशान नहीं होता. बस किरदारों में एक अप्रतिमता देखने को मिलती है. वही मनोस्थिति, वही बेचारगी...!
दोनों मर्द और औरत किरदारों की तन्हाई उनकी गुप्तार के माध्यम से शिद्दत से महसूस की जा सकती है.
बाकी धरती का दर्द... दामिनी के दर्द में देखा जा सकता है. नारी की वेदना आज भी किताब के खुले पन्नों की तरह सामने है. आज के हालत हमारे आस-पास ही मंडराते हैं.
गुरबत एक लाचारी, भूख एक नासूर!
यह दर्द नारी के हिस्से में आता है. अलग अलग परिस्थितियों की शिकार औरत, कभी बच्चों के लिए खुद को कुर्बान करती है, तो कभी बीमार पति की दवा दारु के लिए दूसरे मर्द की रखैल बनकर रहती है.
- पेट की भूख उससे वह सब कुछ कराती है, जिसे देखकर यकीनन धरती के सीने में भी दरारें पड़ती होंगी. सीता माता भी धरती में समा गई, पर फिर राम के आगोश में नहीं जा पाई.
किसी ने खूब कहा है-
मुझे कहां मालूम था सुख और उम्र की आपस में बनती नहीं
कड़ी मेहनत के बाद सुख को घर ले आया तो उम्र रूठ गई!
तरक्की के बावजूद शायद अग्नि परीक्षा आज भी औरत के हिस्से में ज्यादा पाई जाती है.
भूखा सौन्दर्य नामक कहानी में चार बच्चों की माँ ‘अनार गुल’ अपने छोटे बच्चे को दूध पिलाकर अपने खरीदार के कमरे में आकर पलंग पर लेट जाती है- एक बेजान बुत की तरह, फ़क़त सौ रुपयों की खातिर.
गुरबत उसकी लाचारी और बेबसी बन गई!
फिर वही बात- भूख जो कराये वह कम है.
पैसे की खनक क्या कुछ नहीं खरीद लेती...ये ज़मीरों की बातें हैं, सौदागरों के शहर में आए दिन देखने- सुनने को मिलती है.
कहानी में खरीदार का उस औरत से सवाल यह था-“तुम्हारा पति तुम्हें कैसे दूसरे मर्द के पास छोड़ देता है?”
“पेट, बाबू साहब, भूखे पेट के दोज़ख को भी भरना है.” औरत ने दुख भरे लहजे में जवाब दिया.
भूख के कितने ही स्वरुप सामने आते हैं. इंसान तो हांड-मास का पुतला, स्वार्थ की दहलीज़ पर अपने सुख के खातिर बेबसी के मजबूर किले में घुसकर, क्या कुछ नहीं लूटता है, सब जानते हैं.
इस तत्व पर कमलेश्वर जी की कलम खूब इन्साफ करती है “ ताज महल से ज़्यादा खूबसूरत परिवार नामक संस्था का निर्माण करने वाली औरत खुद उसी में घुट घुट कर दफ़न होती है, सबके लिये सुख और शुभ तलाश करती औरत अपने ही आँसुओं के कुँओं में डूबकर आत्महत्या करती है।“
इंसान का जिस्म है, ज़हन है, फिर भी वह बेबस है. उसके अंदर की महरूमियाँ निरंतर बहते हुए पानी की तरह रवां होती हैं. भला पानी के प्रभाव को भी कभी तिनका रोक पाया है?
जिंदगी को बेनकाब करना कितना कठिन है?
शब्दों में शायद अब उतनी ऊर्जा नहीं जो महसूस किए गए जज्बे को ज़ाहिर कर सके. किसी की आंखों में ख़ुशी की किरणें झिलमिलाती हैं तो किसी की आंखों में गम की तासीर देखी जाती है. महसूस किए हुए जज्बे फिर भी शब्दों में अधूरे ही रह जाते हैं.
एक संवेदनशील दिल, दूसरे दिल के दर्द को समझ पाती है महसूस कर सकती है. उन्वान की तहों में घुसकर किरदारों के साथ हमसफर होते हुए मैंने भी जो महसूस किया उसे शब्दों में अभिव्यक्त किया....!
जिस दिन से उस दिल के करीब से गुजरा हूँ मैं
अब तक उसी आग में ‘देवी’ जल रहा हूँ मैं
आखिर न कहकर एक नया आगाज कहूं तो बेहतर होगा…... हर कहानी अपने भीतर एक नई कहानी का अंकुर लिए हुए होती है, जो एक नया पौधा बन जाता है. कहानी दर कहानी यह सिलसिला चलता रहता है. साहित्य जगत में अनुदित साहित्य में सिंधी भाषा की कहानियों के किरदार भी अपनी भाषा, एवं जज्बों को ज़ाहिर करने में पीछे नहीं हटते, इस गंगो-जमनी धारा में अपना योगदान देने में पीछे नहीं हटते. आपसे, हमसे, और खुद से संवाद करते रहते हैं.....! बस....
देवी नागरानी
10 अप्रैल 2017 (अन्तराष्ट्रीय सिंधी दिवस)
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