प्रविष्टि क्र 7 (थर्ड जेंडर पर संस्मरणात्मक कहानी ) अभिशप्त हैं हम डॉ लता अग्रवाल यात्रियों से ठसाठस भरी बस में मेरी निगाह अपने लिए थोड़ी सी ...
प्रविष्टि क्र 7
(थर्ड जेंडर पर संस्मरणात्मक कहानी )
अभिशप्त हैं हम
डॉ लता अग्रवाल
यात्रियों से ठसाठस भरी बस में मेरी निगाह अपने लिए थोड़ी सी जगह तलाश रही थी। शायद कहीं टिकने भर की जगह मिल जाय। ताकि बार बार लगे वाले ब्रेक और उससे होने वाली उलझनों से बच सकूँ। हम महिलाओं की समान अधिकारों की लड़ाई ने पुरुषों के मन में हमारे प्रति प्रतिद्वंद्विता का भाव जो भर दिया है अतः उनसे सहानुभूति की उम्मीद रखना व्यर्थ है कि कोई सज्जन उठकर मुझे आपनी जगह दे दे। ऐसे ही तर्कों से खुद को समझा रही थी कि तभी एक आवाज कानों में टकराई-
"दीदी यहाँ आ जाइये। "
मैं झट से सीट की ओर बढ़ी तथा पट से अपने लिए स्थान सुनिश्चित कर लिया। फिर सभ्यता के नाते सोचा मानवता पूर्ण व्यवहार के लिए उस इंसान को धन्यवाद कह दूं।
"धन्यवाद! "
कहते हुए जैसे ही मेरी नजर इस आवाज की दिशा में मुड़ी मैं भौंचक्की रह गई।
"एं.....! यह क्या...? ,यह तो किन्नर है!हाय कहाँ फंस गई! अब क्या करूँ...?"
एक पल पहले जो जगह मिलने की ख़ुशी थी कोफ़्त में बदल गई। पूरे शरीर में भय और संकोच की फुरफुरी भर गई। आस पास चोर निगाहों से देखने लगी जैसे मुझसे कोई अपराध हो गया। फिर मन ही मन बस ड्रायव्हर को कोसने लगी, क्यों जगह न होकर भी झूठी दिलासा देकर सवारी बैठा लेते हैं, कम से कम महिलाओं का तो ध्यान रखना चाहिए। मैं मन ही मन सोच रही थी लोग मुझे ही घूर रहे है, मैं हंसी की पात्र बनकर रह गई। मनोविज्ञान ने काम करना शुरू कर दिया। अब समझ आया यहां यह एक सीट कैसे खाली रह गई....? एक पल को लगा उठ जाऊं... मगर फिर अन्य परेशानी का ख्याल आया।
दरअसल मैं भी गलत नहीं थी किन्नर की जो छवि हमारे मन में बैठी है वह बहुत अच्छी नहीं , लोगों की गाढ़ी कमाई को पल में ऐंठ लेते हैं। बेटी हुई तो 5001, बेटा हुआ तो 21000 एक बार को सराफ मोल भाव कर ले मगर इनसे कोई उम्मीद रखना फिजूल है। ज्यादा कुछ कहने पर लहंगा उठाकर अपने श्रापित जीवन की झांकी दिखाने में इन्हें कोई झिझक नहीं।
किसके यहां सन्तान का जन्म हुआ..? किसके यहां ब्याह..?कौन कितना कमाता है...? इनका सूचना तंत्र बड़ी मुस्तैदी से कम करता है। कभी सोचती थी तालियां ठोक लोगों का दिल दुखा पैसे ऐंठने से बेहतर है सरकार इन्हें कोई गुप्तचर विभाग सौंप दे।
बिंदु, हेलन, जयश्री टी, कटरीना सभी को मत देती उफ! उनकी वो अदाएं, मर्दों से उनकी छेड़-छाड़ की बेहयाई भी शर्मिंदा जो जाये। और जब उनकी मुद्राएं तांडव में बदल जाएँ तो बद्दुआ और गाली से कान भी हथियार डाल दें ऐसे किन्नर के इतने निकट बैठना जिंदगी का पहला अनुभव था। इससे पहले तो वे मेरे लिए विचित्र प्राणी ही रहे , यही समाज में देखा और सुना था।
सोचा पुरुषों के धक्के खाने से बेहतर है यहीं बैठी रहूँ। मन से आवाज आई ये कैसा संकोच ले बैठी हो , पढ़ी लिखी हो...क्या फर्क पड़ता है तुम्हारे पड़ोस में कोई स्त्री है, पुरुष है या कोई किन्नर , ओ फिर स्त्री पुरुष से भरी इस बस में किसने तुम्हारी परेशानियों को समझा ...? जिसे तुम किन्नर समझ उपेक्षित कर रही हो उसमें अपेक्षाकृत कहीं अधिक मानवता है। अब तक मेरे प्रश्नों ने मुझे भीतर तक झकझोर दिया। खुद पर ग्लानि होने लगी । अपने बिखरते आत्मविश्वास को समेटते हुए उसकी और देखा अब तक शायद उसने मेरी उलझन को भांप लिया था सो वह खिड़की के बाहर देखकर होंठों में कोई गीत गनुगुनाने लगी। मानो मेरी उपेक्षा की पीड़ा को भुलाने की कोशिश कर रही हो। अपनी आवाज में आत्मीयता लाते हुए मैंने पूछा-
"कहाँ जा रही हो?"
"आपको मुझसे बात करने में कोई एतराज तो नहीं ....मेरे प्रश्न के जवाब में उसका प्रश्न था।"
मुझे लगा मुझपर व्यंग्य किया , खुद को संयत कर बोली -
" जानती हूँ, तो क्या हुआ ?"
आत्म प्रेरणा ने मुझे संबल प्रदान किया अब मेरे मन में कोई भी भय या संकोच नहीं था बल्कि उसके प्रति जिज्ञासा थी।
"कहाँ जा रही हो ? "
"शिवपुरी । दीदी वाकई आपको कोई एतराज नहीं? "
"एतराज क्यों होगा भला तुम भी तो औरों की तरह इंसान ही हो...इंसान की बस सोच अच्छी होनी चाहिए क्या फर्क पड़ता है कि वह स्त्री हो ...पुरुष...या ....। "
मेरे इतना कहते ही उसके भीतर घुमड़ रही पीड़ा धीरे धीरे बाहर आने लगी।
" मैंने सोचा आप भी औरों की तरह मुंह फेर लेंगी......। लोग पता नहीं हमसे क्यों परहेज करते हैं । आख़िर! हमको भी उसी ठाकुर ने बनाया है। हम भी किसी की बहन , बेटी हो सकती हैं मगर नहीं समाज में हमें सिर्फ हिजड़े के नाम से जाना जाता है।"
कुछ समय पहले तक मैं भी उसी समाज का हिस्सा थी। भला हो मेरी अंतरात्मा ने मुझे इस अपराधबोध से बचा लिया।
तभी जोरदार झटके के साथ बस रुकी ड्रायव्हर ने ब्रेक लगाया था शायद ...बस किसी महिला के लिए रोकी थी कंडक्टर कह रहा था-
" आइये मेडम! अंदर बहुत जगह है।"
कंडक्टर की बात सुन मैं तो आस पास जगह तलाशने लगी मगर वह ताली ठोकते हुए बोली-
" आय -हाय! देखो तो बस में जरा भी जुगे नई है फिर भी मुआ भरेई जा रिया है। बेचारी औरत जात आफत उठाये उससे उसको क्या...बड़ा आया जगह देगा। हरामी कहीं का! इन नासमिटों ! को तो नंगा कर पुट्ठे पर इत्ते डंडे मारो की सब भूल जाये। "
बात तो सही कही थी उसने मगर अंदाज जरा किन्नराना था।
"तुम्हारा नाम क्या है?"
"बुलबुल नाम है मेरा दीदी। "
मुझे लगा मैं बुलबुल का विश्वास जीतने में कामयाब हो गई हूँ।
"कहाँ की रहने वाली हो बुलबुल ? मेरा मतलब तुम्हारे माता पिता कोई घर तो होगा । "
दर्द की स्याही में डूबे उसके शब्द मुझे उससे जोड़ते जा रहे थे। वह (गले में हाथ रखते हुए बोली) बोली-
" सच्ची के रयी दीदी मैं अच्छे खानदान से हूँ। "
"गुना के ठाकुर परिवार से...पांच भाइयों का बड़ा परिवार है।"
हमारी बातों में व्यवधान हुआ बुलबुल की रिंगटोन बज उठी -'कजरारे कजरारे.....। '
"हाँ ! शबीना बोल "
"........…....."
"अये दा! मैं बस मैं बैठ गई री, तू सुब्बे फोन काय को नई उठाई। "
"…....."
"चल अब मैं मंगल को आके तेरे से बात करती रख अब।"
"बुलबुल तुम इन लोगों के बीच कैसे आई ?"
"घर में ही दाई के हाथों मेरा जन्म हुआ। पैसे से उसका मुंह तो बंद कर दिया। दो साल तक तो माँ ने किसी को पता नहीं चलने दिया, वो मुझे अपनी निगरानी में रखती। उसने रिश्तेदारों में जाना छोड़ दिया। मगर किस्मत.... पड़ोस वाले को जाने कैसे खबर लग गई उसने उन लोगों को खबर कर दी।"
उसकी आवाज में दर्द की गहराई मैं महसूस कर पा रही थी। वहीं मेरी जिज्ञासा चरम पर थी।
"फिर? "
"फिर क्या आ गई इन लोगों के बीच। शुरू में दिन रात रोती थी "
"क्या तुम्हारे माता पिता ने नहीं रोक तुम्हें ले जाने से ?"
"माँ तो माँ होती है , बहुत रोई, भाई तब सभी छोटे थे। हाँ बाप को जरूर ठाकुरों वाली नाक प्यारी थी। फिर कोई भी क्या करता उनको तो अधिकार मिला हुआ है।"
"क्या यहाँ भी किसी को दया नहीं आई , एक मासूम बच्ची को माँ बाप से जुदा कर। "
" यहां आकर न दया मर जाती है, उलटे रोने पर गन्दी गलियां मिलती हैं।"
" क्या घर वालों ने फिर कोई खोज खबर नहीं ली तुम्हारी?"
" बस माँ आई दो तीन बार उसकी यहाँ बेज्जती होती थी , धीरे-धीरे उसने आना बंद कर दिया अब सब भूल गए। माँ तो रही नहीं बापू है मगर बीमार , गई थी देखने।"
मैं देख रही थी रास्ते में जितने भी धार्मिक स्थल आये बुलबुल वहां श्रद्धा से सर झुकना नहीं भूली।
"क्या तुम यहां खुश हो? "
" ऐसे माहौल में भला कौन खुश रह सकता है जहां कहने सुनने को कोई अपना न हो। सच्ची के रई दीदी ! भगवान ऐसा जीवन किसी को न दे बहुत तकलीफ होती है।"
बस फिर रुकी कोई स्टॉप आया शायद । बाहर तीन पुरुष खड़े थे उनकी निगाह बुलबुल को देख वहीं टिक गई। कुछ देर पहले संजीदा हो अपना दर्द बयां कर रही बुलबुल तालियां ठोक बोल पड़ी -
"ऐय बाबूजी ! ऐसे मति न देखो मैं तुम्हारे कोई काम की नहीं। "
वे तीनों झेंपकर दूसरी और देखने लगे, मैंने भी अपनी नजरें झुका ली। बस ने फिर रफ्तार पकड़ी और बातों ने भी।
" तुम्हारा तो कोई स्थायी रोजगार नहीं फिर कैसे चल पाता है खर्च?"
" पैसा तो बहुत है दीदी बस कोई खर्चने वाला नहीं है।"
"कैसे भाई ! हमारे यहां तो दो लोग मिलकर कमाते है तब भी घर की रस्सा-कशी चलती रहती है। "
" वहः एक एक कर सारे नेग गिनाने लगी बेटी होने पर ...., बेटा होने पर ...., फिर किसी सेठ, मंत्री या किसी बड़े आदमी से ज्यादा भी मिल जाता है।"
" रिश्तों की कमी तो महसूस होती होगी ?"
"रिश्तों का सुख नसीब में नहीं एक भाई बनाया था, एक दिन बहुत सा रुपया लेकर भाग गया नासमिटा ।
फिर एक गरीब लड़की को पढ़ाया उसकी शादी में पैसा खर्च किया सोचा घर बस जायेगा तो दुआ देगी।"
"तो "
" शादी होकर वह भी अपने घर की हो गई। कभी याद नहीं करती। अब सोच लिया जो करना है अपनी कौम के लिए करना है। इस अभिशापित जीवन से उन्हें मुक्ति दिलाना है।"
हाँ सचमुच अभिशापित ही तो है यह जीवन, दिखने में खूबसूरत व्यक्तित्व, उतनी सुंदर मन की भावना ,धर्म -कर्म के प्रति अटूट आस्था, नारी सुलभ मन , पुरुषों सी दबंगता सभी कुछ तो है अगर नहीं है तो भौतिक सुख से जुडी वो इंद्रिय... क्या समाज की नागरिकता पाने के लिए इतना पर्याप्त नहीं.....? शरीर में डेढ़ दो इंच की बुनावट कम भी रह जाये तो कौन कयामत हो जायेगी।
फिर मानव समाज ने तो उसे धोखा ही दिया।
"इस लिए दीदी मैंने अपने समाज की पांच बेटियां गोद ली हैं। चाहती हूँ इन्हें घर घर जाकर तालियों की थाप पर न नाचना पड़े। ये अपनी अलग पहचान बनाएं, घर मास्टरजी आते हैं पढ़ाने। देखना दीदी ! इन्हें अवसर मिला तो ये सीमा पर भी अपना हुनर बताएंगी। आप आना दीदी देखना मेरा आंगन बेटियों की किलकारी से कितना आबाद है।"
" अवसर मिला तो मैं जरूर आऊँगी बुलबुल तुम्हारी बेटियों से मिलने।"
बातों का सिलसिला जारी था मगर गन्तव्य पर बस पहुंच चुकी थी।
"अच्छा बुलबुल चलती हूँ, तुमसे बातें कर बहुत अच्छा लगा। अपनी बेटियों को मेरा प्यार देना। दुआ करूंगी वे तुम्हारे हर सपने को साकार करें। "
मेरा इतना कहते उसका चेहरा गर्व से चमक उठा।
"दीदी ! आप कितनी अच्छी हैं, भगवान सलामत रखे आपको, तुम्हारे बच्चे जुग जुग जियें, सुख पाएं सच्ची! दिल से के रई। " कहते हुए वो मेरी बलैया ले रही थी। बस में सबका ध्यान हमारी और था मगर अब मुझे कोई भय कोई संकोच नहीं था।
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परिचय -
डॉ लता अग्रवाल
शिक्षा - एम ए अर्थशास्त्र. एम ए हिन्दी, एम एड. पी एच डी हिन्दी.
जन्म – शोलापुर महाराष्ट्र
प्रकाशन - शिक्षा. एवं साहित्य की विभिन्न विधाओं में अनेक पुस्तकों का प्रकाशन| पिछले 9 वर्षों से आकाशवाणी एवं दूरदर्शन पर संचालन, कहानी तथा कविताओं का प्रसारण पिछले 22 वर्षों से निजी महाविद्यालय में प्राध्यापक एवं प्राचार्य का कार्यानुभव ।
सम्मान –
१. अंतराष्ट्रीय सम्मान
प्रथम पुस्तक ‘मैं बरगद’ का ‘गोल्डन बुक ऑफ़ वार्ड रिकार्ड’ में चयन
विश्व मैत्री मंच द्वारा ‘राधा अवधेश स्मृति सम्मान |
" साहित्य रत्न" मॉरीशस हिंदी साहित्य अकादमी ।
२. राष्ट्रीय सम्मान –
अखिल भारतीय लघुकथा प्रतियोगिता अजमेर में राष्ट्रीय शब्द्निष्ठा सम्मान, समीर दस्तक चित्तौड़ से साहित्य गौरव सम्मान, बाल कहानी पर स्वतंत्रता सेनानी ओंकारलाल शास्त्री पुरस्कार सलूम्बर , महाराज कृष्ण जैन स्मृति सम्मान, शिलांग ,श्रीमती सुषमा तिवारी सम्मान,भोपाल, प्रेमचंद साहित्य सम्मान,रायपुर छत्तीसगढ़ , श्रीमती सुशीला देवी भार्गव सम्मान आगरा, कमलेश्वर स्मृति कथा सम्मान, मुंबई ,श्रीमती सुमन चतुर्वेदी श्रेष्ठ साधना सम्मान ,भोपाल ,श्रीमती मथुरा देवी सम्मान , सन्त बलि शोध संस्थान , उज्जैन, तुलसी सम्मान ,भोपाल ,डा उमा गौतम सम्मान , बाल शोध संस्थान, भोपाल , कौशल्या गांधी पुरस्कार, समीरा भोपाल, विवेकानंद सम्मान , इटारसी, शिक्षा रश्मि सम्मान, होशंगाबाद, अग्रवाल महासभा प्रतिभा सम्मान, भोपाल ,"माहेश्वरी सम्मान ,भोपाल ,सारस्वत सम्मान ,आगरा, स्वर्ण पदक राष्ट्रीय समता मंच दिल्ली, मनस्वी सम्मान , अन्य कई सम्मान एवं प्रशस्ति पत्र।
73 यश बिला भवानी धाम फेस - 1 , नरेला शन्करी . भोपाल - 462041
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