प्र कृति प्राचीन काल से ही मनुष्य को प्रभावित करती रही है। यही कारण है कि संस्कृति विकास के प्रारम्भ से मानव मन में यह प्रश्न उठता रहा है कि...
प्र कृति प्राचीन काल से ही मनुष्य को प्रभावित करती रही है। यही कारण है कि संस्कृति विकास के प्रारम्भ से मानव मन में यह प्रश्न उठता रहा है कि प्रकृति की यह विविधता कहाँ से आई है? इस प्रश्न का उत्तर अतिप्राचीनकाल से ही दिया जाता रहा है। विश्व के विभिन्न भागों में बहुत से किस्से कहानियां इस प्रश्न का उत्तर देने के लिए रचे गए हैं। लगभग सभी धर्मों में सर्वशक्तिमान मानवीय ईश्वर की कल्पना कर प्रकृति व जीवन को रचने का श्रेय उसे दिया जाता रहा है।
19वीं सदी में तर्क व प्रयोग आधारित विज्ञान के विकास के बाद प्रकृति के मानव केन्द्री होने की बात को अस्वीकार कर उसे वस्तुनिष्ठ बताने का प्रयास किया। इस प्रकार प्रकृति को समझाने के दो समान्तर मत होगए एक धार्मिक व दूसरा वैज्ञानिक। धर्मगुरु ईश्वर को प्रकृति व जीवन को रचने का श्रेय देते रहे तो वैज्ञानिक भौतिकी के नियमों को सृष्टि के सर्जन व संचालन का श्रेय देते रहे हैं। दोनों पक्ष एक दूसरे से बेखबर होकर अपने अपने ढंग से अपने समथर्कों के मध्य अपनी बात कहते रहे हैं।
20वीं शताब्दि में कई प्रसिद्ध वैज्ञानिक इस निष्कर्ष पर पहुँचे कि मात्र भौतिक नियमों के आधार पर सृष्टि के सृजन व संचालन को नहीं समझाया जा सकता। उन्हें लगा कि संपूर्ण विश्व एक ही ईकाई है। सम्पूर्ण यूनिवर्स एक ही पदार्थ का बना है जो महाविस्फोट के समय बना था। हमारे होने का ज्ञान या चेतना उसी पदार्थ से उत्पन्न हुई है। वैज्ञानिकों का एक समूह स्वीकारने लगा कि विश्व की सब वस्तुएं अलग अलग दिखाई देती है मगर वास्तव में एक दूसरे से जुड़ी होती हैं। सब का अस्तित्व महासागर रूपी परमब्रह्म की बूंद की तरह है।
रणनीतिक परिवर्तन
इस बात को स्पष्ट करते हुए नोबल पुरस्कार विजेता चिकित्साशास्त्री राबर्ट लान्जा ने खगोलशास्त्री बोब बर्मन के साथ 2007 में जैवकेन्द्रिकता का सिद्धान्त प्रतिपादित किया। इस सिद्धान्त के अनुसार इस विश्व का अस्तित्व जीवन के कारण है। सरल रूप में कहे तो जीवन के सृजन व विकास हेतु ही विश्व की रचना हुई है। अतः चेतना ही सृष्टि के स्वरूप को समझने का सच्चा मार्ग हो सकती है। बिना चेतना के विश्व की कल्पना नहीं की जा सकती। जैव केन्द्रिकता के सिद्धान्त को विश्व के सच्चे स्वरूप को समझने हेतु वैज्ञानिक सोच में रणनीतिक परिवर्तन माना जारहा है। जैव केन्द्रिकता के सिद्धान्त में दर्शनशास्त्र से लेकर भौतिकशास्त्र के सिद्धान्तों को सम्मिलित किया गया है। मानव की स्वतन्त्र ईच्छा शक्ति को निश्चितता व अनिश्चितता दोनों ही तरह से नहीं समझा जा सकता है। विश्व के भौतिक स्वरूप को निश्चित मानने पर इसकी प्रत्येक घटना की पूर्व घोषणा सम्भव होगी और अनिश्चित मानने पर पूर्व में कुछ भी नहीं कहा जासकेगा। जगत में जीव निश्चित व अनिश्चित इच्छा का प्रदर्शन स्वतन्त्र रूप से करता रहता है। इसे जैव केन्द्रिकता द्वारा ही समझा जा सकता है। जैवकेन्द्रिकता की परिकल्पना 20वी ं शताब्दी के भौतिकविद जोह्न आर्किबाल्ड व्हीलर के विचारों पर आधारित है। लान्जा के विचार को प्राचीन रहस्यवादी विचारों से प्रभावित मान कर अधिकांश भौतिकविदों ने उस पर कोई ध्यान नहीं दिया। बाद में कई अन्य वैज्ञानिकों ने आधुनिक वैज्ञानिक तथ्यों के सन्दर्भ में जैव केन्द्रिकता को समझाने का प्रयास किया। सम्बन्धात्मक क्वाण्टम यान्त्रिकी को आधार बनाकर भाषा में प्रस्तुत किया गया। यही कारण है कि विपुल विरोध के बाद भी जैव केन्द्रिकता सिद्धान्त अभी भी विचार का विषय बना हुआ है। जैव केन्द्रिकता सिद्धान्त के अनुसार आइन्स्टीन की स्थान व समय की अवधारणा का कोई भौतिक अस्तित्व नहीं है अपितु ये सब मानव चेतना की अनुभूतियां मात्र हैं। लान्जा का मानना है कि चेतना को केन्द्र में रख कर ही भौतिकी की कई अबूझ पहेलियों जैसे हाइजेनबर्ग का अनिश्चितता का सिद्धान्त दोहरी झिर्री प्रयोग तथा बलों के सूक्ष्म सन्तुलन को विभिन्न स्थिरांक व नियम को सजीव सृष्टि के अनुरूप समझा जा सकता है। वैज्ञानिक आइन्सटीन के समय से ही यूनिफाइड फील्ड थ्योरी के रूप में सम्पूर्ण भौतिकी को एक साथ लाने के लिए प्रयास होते रहे हैं मगर सफलता अभी तक नहीं मिली है। राबर्ट लान्जा का कहना है कि जीवन को केन्द्र रखने पर ही समस्या हल हो सकती है।
जैव केन्द्रिकता सिद्धान्त के पक्षधरों का कहना है कि प्रकृति की प्रत्येक घटना मानव हित में घटित हुई लगती है। पृथ्वी पर अरबों वर्ष पूर्व हुआ उल्कापात भी मानव हित में ही हुआ जिससे डायनोसौर नष्ट होने के कारण स्तनधारियों का तीव्र गति से विकास हो सका। यदि उल्का अपने आकार से कुछ और बड़ी होती या उसके पृथ्वी के वायुमण्डल में प्रवेश होते समय का कोण कुछ अलग होता तो सम्पूर्ण जीवन नष्ट होसकता था। जैव केन्द्रिकता के सिद्धान्त के पक्षधरों का मानना है कि वह उल्कापात मात्र एक दुर्घटना नहीं होकर प्रकृति की पूर्व नियोजित घटना थी।
व्हीलर जैसे भौतिक शास्त्रियों का कहना है कि वर्तमान ही भूतकाल को निरोपित करता है तो विकास को भी पूर्व नियोजित मानना होगा। जैव केन्द्रिकता का सिद्धान्त डार्विन के विकासवाद को स्वीकार नहीं करता। जैव केन्द्रिकता के सिद्धान्त के अनुसार जीवन भौतिकी व रसायनशास्त्र की किसी दुर्घटना का परिणाम नहीं होकता जैसा कि विकासवाद मानता हैं। डार्विन द्वारा आकस्मिक घटनाओं के आधार पर जैव विकास को समझाना बच्चों के स्तर पर तो ठीक है मगर वास्तव में बात उतनी सरल नहीं है। एक स्वनियोजित योजना माने बिना जैव विकास को ठीक तरह नहीं समझाया जा सकता।
प्रेक्षक का महत्व
जैव केन्द्रिकता का सिद्धान्त कहता है कि विज्ञान के रूप में जो भी ज्ञान है वह प्रेक्षण से ही प्राप्त होता है। प्रेक्षण प्रेक्षक पर निर्भर करता है। प्रेक्षक सत्य को चेतना के माध्यम से ही अनुभूत करता है। हमारी बाह्य व आन्तरिक अनुभूतियां एक दूसरे से गुंथी होती है। कणों की गतिविधियां किसी प्रेक्षक की उपस्थिति पर निर्भर करती है। अतः चेतना के कारण ही पदार्थ का अस्तित्व है। यदि चेतना नहीं होगी तो पदार्थ को प्रेक्षित कौन करेगा। कौन जगत के अस्तित्व को स्वीकारेगा? चेतना के वर्चस्व के कारण ही सृष्टि की संरचना, नियम, स्थिरांक व बल जीवन के साथ सूक्ष्म समन्वय बनाए हुए हैं। स्थान व समय हमारी समझ के साधन मात्र हैं इनका कोई भौतिक अस्तित्व नहीं है। जैसे कछुए के साथ उसके शल्क जुड़े होते हैं, वैसे ही स्थान व समय हमारे से जुडे़ है। भौतिकशास्त्री इस बात को स्वीकार करते हैं कि किसी भी कण में कोई भी भौतिक गुण तभी है जब कोई व्यक्ति उस कण का अवलोकन करता है। जैव केन्द्रिकता का सिद्धान्त कहता है कि भौतिक विश्व का विकास पृथ्वी के जीवन के साथ साथ ही उसी तरह चलता है जैसे एक बग्गी के दोनों घोड़े साथ साथ चलते हैं। हमारे लिए सृष्टि का अस्थित्व इन्द्रधनुष जैसा है। इन्द्रधनुष की कोई ठोस रचना नहीं होती है। एक स्थिति विशेष में खड़े होने पर हमें इन्द्रधनुष का आभास मात्र होता है। जैव केन्द्रिकता के अनुसार हमें यह सृष्टि आश्चर्यजनक रूप से जटिल दिखाई देती है क्योंकि हमारा जीवन स्वयं आश्चर्यजनक रूप से जटिल हो गया है। हम मानवों को वर्तमान विश्व बहुत व्यवस्थित व सूचनामय दिखाई देता है क्योंकि मानव ने अपनी चेतना का विकास करने के साथ, जटिल उपकरणों की सहायता से अत्यन्त दूर तक तथा बहुत गहराई से अवलोकन करना सीख लिया है। जैव केन्द्रिकता के पक्षधरों का मानना है कि जैव केन्द्रिकता मात्र एक सिद्धान्त नहीं है अपितु इसकी मान्यताओं को प्रयोगों की कसौटी पर परखा जा सकता है। विश्व में पृथ्वी के अतिरिक्त कहीं भी जीवन नहीं है। वैज्ञानिक उपकरणों द्वारा दूर अन्तरिक्ष की टोह लेने के बाद भी जीवन होने का कोई संकेत अभी तक नहीं मिल सका है। यह बात फर्मी पैराडोक्स के अनुरूप है। अन्तरिक्ष में लगाए गए दूरदर्शक यन्त्र भविष्य में सौरमण्डल के बाहर स्थित ग्रहों के वायुमण्डलों की जाँच कर जीवन के हस्ताक्षरों की टोह वहाँ ऊर्जित या उपापचयी गतिविधियों से लेने का प्रयास करेगें। पृथ्वी के वायुमण्डल में आक्सीजन की अधिकता पृथ्वी पर जीवन की पहचान है। हजारों लाखों ग्रहों का गहन अध्ययन करने पर भी पृथ्वी जैसी स्थिति कहीं भी नहीं मिलेगी। जीवन को बनाने वाले घटक अन्तरिक्ष में भले ही मिले मगर उनका जीवन को बनाने वाला मिश्रण नहीं मिल सकता। जैवकेन्द्रिकता के सिद्धान्त के अनुसार हमारे जीवविज्ञान से अनुरूप विश्व ही हमें दिखाई देता है। हमसे भिन्न विश्व अगर कहीं है तो वह हमें दिखाई नहीं देगा। भिन्न विश्व का जीवविज्ञान वहां जीवों के अनुरूप होने के कारण वहां के जीवों को ही दिखाई देगा।
शताब्दियों से विज्ञान हमें यह सिखाता रहा है कि विश्व ठीक वैसा ही है जैसा हम उसे देखते हैं। विश्व का अवलोकन ठीक वैसा ही है जैसा कि किसी संग्रहालय में रखी वस्तुओं को देखना। यह सोच सही नहीं है। उपकरणों के परिष्कृत होते जाने के साथ साथ विश्व के प्रति हमारी सोच बदलती रही है। इलेक्ट्रान सूक्ष्मदर्शी, सूपर कम्प्यूटर, शक्तिशाली दूरदर्शी जैसे नए आविष्कारों के बाद विश्व पदार्थ की संरचना व अन्तरिक्ष के विषय में हमारी सोच में बहुत परिवर्तन आया है।
क्वाण्टम यान्त्रिकी में किसी स्थिति को मापने का प्रयास उस स्थिति को पूरी तौर पर बदल देता है जिस स्थिति को मापने का प्रयास किया जाता है। स्थगित पसन्द प्रयोग में कण के व्यवहार में प्रयोगकर्ता की इच्छा के अनुसार समय पूर्व परिवर्तन हो जाता है। घटनाओं के पूर्ण होने के दौरान हम अपने अवलोकन को निष्क्रिय मापन माने तो इन अवधारणाओं को समझाना सम्भव नहीं होता है। इसी प्रकार यह नहीं माना जा सकता कि विश्व की घटनाएं सदैव एक सी दिखाई देगी चाहे हम उन्हें कहीं से भी देखें। जैव केन्द्रिकता का सिद्धान्त यहाँ ऐसे विकल्प प्रस्तुत करता है जो वैज्ञानिक अवधारणाओं के अनुरूप भी हैं। ये विकल्प अन्य रहस्यों तथा अन्तर-आत्मा को भी समझा पाते हैं। हमें यह सिखाया गया है कि विश्व का निर्माण आज से अरबों वर्ष पूर्व परमाणुओं तथा अणुओं से हुवा है। अणुओं से ही प्रथम जीवन की उत्पति हुई। जैव केन्द्रिकता का सिद्धान्त विश्व के सजृन की इन धारणाओं को अपुष्ट मान्यताओं पर आधारित मानते हुए स्वीकार नहीं करता। जैव केन्द्रिकता के सिद्धान्तानुसार सृष्टि प्रारम्भ में अत्यन्त सरल थी आज आश्चर्यजनक रूप से जटिल एवं जीवन के अस्तित्व के हित में पूर्णतः सन्तुलित है।
भौतिक सिद्धान्त
सृष्टि का सृजन कैसे हुआ? यह प्रश्न आज भी बना हुआ है। भौतिक वैज्ञानिक व तर्क में विश्वास करने वाले आज भी इस बात को स्वीकार नहीं करते कि चेतना ही विश्व का आधार है। जैव केन्द्रिकता द्वारा वैज्ञानिक तथ्यों का उपयोग कर विश्व की उत्पत्ति और उसकी कार्य प्रणाली को समझाने के प्रयास को ये लोग तथ्यों की गलत व्याख्या मानते हैं। जैव केन्द्रिकता के आलोचकों का कहना है कि यह सिद्धान्त प्राचीनकाल में दिए गए आदर्शवाद के सिद्धान्त को पुनः प्रचारित करने का प्रयास मात्र है। आदर्शवाद का कहना है कि विश्व में जो कुछ भी है वह हमारे मस्तिष्क की ही उत्पत्ति है, उसकी कोई भौतिक सत्ता नहीं है।
भौतिकशास्त्री जैव केन्द्रिकता के सिद्धान्त को कोई नई बात नहीं मान कर कवाण्टम रहस्यवाद के नए लेबल के साथ आदर्शवाद का ही एक रूप बताते हैं। लान्जा द्वारा आकाश के नीला दिखाई देने को मस्तिष्क की गतिविधि मानते हुए उसे व्यक्तिनिष्ठ प्रक्रिया ठहराई जाने को भौतिकवादी तथ्यों का गलत निरूपण मानते हैं। भौतिकवादियों का कहना है कि मस्तिष्क द्वारा आकाश को नीला देखना व्यक्तिनिष्ठ है मगर आकाश का नीलापन प्रकाश के जिस गुण पर निर्भर करता है वह पूर्णतः वस्तुनिष्ठ है। प्रकाश के गुण के अभाव में मस्तिष्क आकाश को नीला नहीं देख सकता। एक ही स्थान पर एक जीव गर्मी व दूसरे द्वारा शीत अनुभव करना भी व्यक्तिनिष्ठ अनुभव है मगर इससे प्रकृति की वस्तुनिष्ठता प्रभावित नहीं होती है। थर्मामीटर मीटर पकड़ कर मनुष्य खड़ा हो या गधा वह तो एक ही तापक्रम बताता है। आकाश का नीला दिखाई देना एक प्राकृतिक भ्रम है। इसका श्रेय चेतना को देकर इसे व्यक्तिनिष्ठ बताना ईश्वरीय भ्रम होगा। भौतिकवादियों का कहना है कि व्यक्तिनिष्ठता अवलोकनकर्ता के गुण के कारण होती है प्रकृति के कारण नहीं।
भौतिकी समर्थकों का कहना है कि लान्जा द्वारा समय व अन्तरिक्ष को मस्तिष्क की उपज मान कर उनके वस्तुनिष्ठ अस्तित्व को नकारना उचित नहीं है। आइंस्टीन का विशिष्ट सापेक्षवाद निरपेक्ष समय के अस्तित्व को नकारता है समय को नहीं। क्वाण्टम यान्त्रिकी में समय व अन्तरिक्ष की अनिश्चितता को उनकी अस्तित्वहीनता नहीं माना जाना चाहिए। समय व अन्तरिक्ष आधुनिक भौतिकी के मूलभूत आधार हैं। हम समय व अन्तरिक्ष के एक सूक्ष्म भाग को ही ग्रहण कर पाते हैं इसका अर्थ यह नहीं निकाला जा सकता कि अवलोकनकर्ता के बाहर समय व अन्तरिक्ष का कोई अस्तित्व नहीं है। भौतिकवादियों का कहना है कि आइंस्टीन की विशिष्ट सापेक्षवाद में इस बात कि स्पष्ट घोषणा की गई है कि अवकाश व समय को मुड़ता हुआ देखा जा सकता है। ऐसी घटनाएं कई बार देखी जा चुकी है और कई बार प्रमाणित की जा चुकी है। विश्व को समेटने वाले अवकाश की वस्तुनिष्ठता व समय की प्रयोगिक समझ में अन्तर है। यह अन्तर वैसा ही है जैसा कि रंग व फोटोन्स की आवृति में होता है। रंग व्यक्तिनिष्ठ व फोटोन्स की आवृति वस्तुनिष्ठ होती है। लान्जा की मान्यताओं को ललकारते हुए भौतिकवादी प्रश्न करते हैं कि क्या रोबर्ट लान्जा उन सभी प्रमाणों को झुठला सकते हैं जो यह बताते हैं कि इस धरा पर मानव का अवतरण अभी हाल ही में हुआ है। हमारी पृथ्वी व विश्व का अस्तित्व तो उससे बहुत पहले से रहा है। इस बात के प्रत्यक्ष प्रमाणों का क्या होगा जो यह बताते हैं कि जीवन की उत्पति सरल रूप में हुई तथा समय के साथ वह विकसित होकर जीवन जटिल होता गया। विकास के इतिहास के अन्तिम चरण में मानव का उदय हुआ है। लान्जा उन जीवाश्मिक प्रमाणों के विषय में क्या कहेंगे जो मुखर होकर जीवन के सरल से जटिल होने की कहानी कहते हैं। जिस वस्तुनिष्ठ सत्य के आधार पर मानव ने इस धरा पर अन्य जीवों की तुलना में अपने को सर्वाधिक शक्तिशाली बनाया है उसे कैसे नकार सकता है।
भौतिकवादी लान्जा के भौतिक स्थिराकों के जीवन के अनुकूल होने की बात को भी स्वीकार नहीं करते। उनका कहना है कि लान्जा अवलोकन की अनुपस्थिति में गणित द्वारा प्रदर्शित वस्तुनिष्ठ विश्व की सच्चाई को नहीं समझ पाए हैं इसी कारण अवलोकन के अभाव में विश्व की सत्यता को ही नकारने लगे हैं। कुछ का तो यहां तक कहना है कि लान्जा विश्व सजृन के मानवकेन्द्री सिद्धान्त (एन्थ्रोपिक प्रिन्सीपल) को
भी ठीक तरह नहीं समझ पाए हैं। विश्व सजृन के मानवकेन्द्री सिद्धान्त का प्रथम प्रतिपादन 1974 में गणितज्ञ ब्राण्डन कार्टर द्वारा किया गया था। इस सिद्धान्त का पुष्टपोषण 1986 में प्रकाशित बर्रो व टिप्लर की पुस्तक दी एन्थ्रोपिक कोस्मोलाजिकल प्रिन्सिपल द्वारा किया गया। उन्ही दिनों विश्व सजृन के मानवकेन्द्री सिद्धान्त के कई रूप सामने आए और मानवकेन्द्री सिद्धान्तों को ‘कठोर’ व ‘कोमल’ दो श्रेणियों में बांटा जाने लगा। मानवकेन्द्री सिद्धान्त के कोमल स्वरूप को विज्ञान के अनुकूल माना जाता है। हमारे विश्व के अधिकांश ग्रह अपने सूर्य के स्वर्णरेखित क्षेत्र में स्थित नहीं है। ग्रह का स्वर्णरेखित क्षेत्र में स्थित होना ही जीवन की उत्पत्ति व विकास के लिए पर्याप्त नहीं हैं। अन्य भी कई शर्तें हैं। इस कारण किसी ग्रह पर जीवन के पनपने की प्रायिकता बहुत कम होती है। भौतिकवादियों का कहना है कि प्रायिकता बहुत कम है तो भी यह प्रश्न अनुत्तरित ही रहेगा कि विश्व को इस बात की क्या आवश्यकता थी कि वह उत्पन्न हो?
स्टेफेन हाकिंग व साथियों का मानना है संसार की उत्पत्ति महाविस्फोट द्वारा हुई। संसार की उत्पत्ति के समय गुरुत्वाकर्षण बल इतना अधिक रहा होगा कि वह समय व स्थान को मोड़ सके। ऐसे में सापेक्षता के सामान्य सिद्धान्त को लागू नहीं किया जा सकता अतः विश्व की उत्पत्ति एक क्वाण्टम घटना रही होगी। विश्व की उत्पत्ति के अनेक इतिहास रहे होगें जिसमें से एक मानवकेन्द्री भी होगा। इस कारण हमें वर्तमान में सभी कुछ मानव पक्ष में लगता है। अन्य कई भौतिकविदों ने भी अलग प्रकार इसे समझाने का प्रयास किया हैं मगर एकमत अभी नहीं बन पाया है। भौतिकविद विश्व सजृन में ईश्वर जैसी किसी अवधारणा का दखल स्वीकारने को तैयार नहीं है। भौतिकविद ऐसी बातों को अवैज्ञानिक मानते हैं। वे अवैज्ञानिक लोगों को विज्ञान के विपरीत रहस्यवाद का प्रचार करने की छूट देने को तैयार नहीं हैं। भाभा परमाणु अनुसंधान केंद्र के डॉ विनोद कुमार वाधवानी का कहना है कि लान्जा ने विश्व सृजन का श्रेय चेतना को दिया है मगर वे यह स्पष्ट नहीं कर पाए हैं कि चेतना है क्या और इसने विश्व सृजन कैसे किया, लान्जा चेतना के निवास हेतु शरीर को अनिवार्य मानते है तो सृष्टि के प्रारम्भ में जीवन ही नहीं था तो चेतना कहाँ थी. वाधवानिस चेतना की अवधारणा से सृष्टि सृजन के सिद्धान्त में किसी प्रकार के रणनीतिक परिवर्तन को नकारते हुए भौतिकी के माध्यम से ही सृष्टि सृजन को समझने पर जोर देते हैं।
भारतीय चिन्तन
19 जनवरी 1896 को न्यूयार्क में बोलते हुए स्वामी विवेकानंद ने सृष्टि की उत्पति व उसकी कार्य प्रणाली की चर्चा की थी। स्वामी जी ने कहा कि प्रकृति बहुत ही सुन्दर है। प्रकृति प्राचीनकाल से ही मनुष्य को प्रभावित करती रही है। यही कारण है कि संस्कृति विकास के प्रारम्भ से मानव मन में यह प्रश्न उठता रहा है कि प्रकृति की यह विविधता कहाँ से आई, प्राचीनतम पुस्तक वेद में भी इस प्रश्न को उठाया गया है। जब सत् असत् कुछ नहीं था, चारों और अंधकार ही अंधकार था तब किसने इस जगत का सजृन किया और कैसे किया? इस रहस्य का समाधान किसी के पास नहीं था तथा यह प्रश्न आज भी बना हुआ है। प्राचीनकाल में ऋषि इस प्रश्न से जूझते रहे हैं। आज यह कार्य वैज्ञानिक कर रहे हैं। स्वामी जी ने कहा कि इसका यह अर्थ नहीं कि प्रश्न का उत्तर नहीं दिया गया। कई बार उत्तर दिया गया और अभी कई बार और दिया जाएगा। हर बार के प्रयास के साथ ही इस प्रश्न का उत्तर पुख्ता होता जाता है। वैदिक वाक्य जब सत् व असत् कुछ भी भी नहीं था का अर्थ है कि तब जगत अर्थात, सूर्य, तारे, नक्षत्र, पृथ्वी, पर्वत, नदी, नगर, ग्राम, मनुष्य, पशु-पक्षी, पेड़-पौधे आदि कुछ भी नहीं था। स्वामी जी ने कहा कि यह बात ऋषियों को पहले से पता थी, सृष्टि की उत्पत्ति का यह सिद्धान्त कैसे बना होगा, इसका अनुमान सहज ही लगा सकते हैं। सृष्टि में चारों ओर नजर दौड़ाने पर देखते हैं कि हर वस्तु एक बीज से प्रारम्भ होती है। विकास करते हुए अपने चरम पर पहुँचती है तथा अन्त में बीज बना कर नष्ट हो जाती है। विशाल वृक्ष भी पहले एक सूक्ष्म अंकुर के रूप में मिट्टी से बाहर आता है, बढ़ते बढ़ते विशाल रूप ग्रहण करता है फिर नष्ट हो जाता है, अपने अस्तित्व के रूप बीज छोड़ जाता है। पक्षी एक अण्डे से अपना जीवन प्रारम्भ करता है और उसका अस्तित्व भी अण्डे द्वारा ही आगे बना रहता है। अण्डे और पक्षी का चक्र बार-बार दोहराया जाता है। समुद्र नदियों के पानी से बनता है, समुद्र से वाष्प बन उड़ा पानी बादल बन बरसता है। वर्षा की एक एक बूंद बीज का कार्य करती है। उसी से नदी बनना प्रारम्भ करती है और उसका अन्त समुद्र में गिरने से होता है। यही चक्र बार-बार दोहराया जा रहा है। हम जानते है कि मिट्टी कि उत्पत्ति पहाड़ों के टूटने से बनी चट्टानों के पिसने से होती है। नदियों के साथ बहकर यह मिट्टी समुद्र में पहुँचती है। समुद्र में जलदाब से दब कर फिर चट्टान व पहाड़ में बदलती है। यह चक्र भी बार-बार दोहराया जा रहा है। स्वयं मनुष्य की कहानी भी तो अण्डे से अण्डे तक ही चलती है।
‘‘नाशः कारणालयः’’
स्वामी जी कहते है कि उपरोक्त उदाहरणों का कोई विरोध नहीं है। इससे यह निष्कर्ष निकाला जा सकता है कि यही सम्पूर्ण सृष्टि का नियम है। कहा जा सकता है कि परमाणु जिस प्रकार बनता है उसी प्रकार ब्रह्माण्ड भी बनता है। यदि यह सच है कि एक ही नियम समस्त जगत् में व्याप्त है तो प्राचीन वैदिक भाषा में यह कहा जा सकता है कि मिट्टी के एक ढ़ेले को जान कर हम ब्रह्माण्ड में उपस्थित सम्पूर्ण मिट्टी को जान लेते हैं। इससे हम सीखते है कि व्यक्त या स्थूल अवस्था कार्य है और अव्यक्त या सूक्ष्म अवस्था उसका कारण है। समस्त दर्शनों के जनक महर्षि कपिल ने बहुत पहले ही कह दिया था कि ‘नाशः कारणालयः’ अर्थात नाश का अर्थ कारण में लय हो जाना है। मनुष्य का मरना उसका पंचभूतों (जिनसे मिलकर मनुष्य बनता है) से मिलना ही है। वर्तमान में प्राप्त रसायनशास्त्र व भौतिकशास्त्र के ज्ञान के आधार पर भी यह कथ्य एकदम सही है। वृक्ष से बीज होता है मगर बीज तुरन्त ही वृक्ष नहीं बन सकता। बीज को भूमि में कुछ इन्तजार करना होता है। अपने को तैयार करना होता है। इसी प्रकार ब्रह्माण्ड भी कुछ समय के लिए अदृष्य अव्यक्त भाव से सूक्ष्म रूप से कार्य करता है। इसे ही प्रलय या सृष्टि के पूर्व की अवस्था कहते हैं। जगत प्रवाह को एक बार अभिव्यक्त होने को, अर्थात उसके सूक्ष्म रूप में परिणिति, उसी अवस्था में कुछ समय रहने और फिर प्रकट होने को एक कल्प कहते हैं। समस्त ब्रह्माण्ड इसी प्रकार कल्पों से चला आ रहा है। बृहतम ब्रह्माण्ड से लेकर उसके अन्तर्गत आने वाले परमाणु तक सभी वस्तुएँ इसी प्रकार तरंगाकार में चलती रहती है।
स्पष्ट है कि ब्रह्माण्ड शून्य से उत्पन्न नहीं होता। बिना कारण के वह नहीं आ सकता। कार्य कारण का ही रूपान्तरण मात्र होता है। जगत एक बार प्रकट होने के बाद स्थूलतर होता जाता है और चरम पर पहुँचकर पुनः सूक्ष्म होने लगता है। स्वामी जी के अनुसार विकासवाद के सिद्धान्त पर भी यही बात लागू होती है। हमें यह स्वीकार करना होगा कि विकास से पूर्व संकोचन होता है। बीज वृक्ष का जनक है मगर साथ ही वृक्ष बीज का जनक है। बीज से वृक्ष बनना विकास है तो वृक्ष से बीज बनना संकोचन।
सृष्टिक्रम का चरम विकास : बुद्धि
स्पष्ट है कि शून्य से कुछ भी उत्पन्न नहीं होता। सभी वस्तुएं अनन्तकाल से हैं और अनन्तकाल तक बनी रहेगीं। वह तंरग की तरह उठती है फिर गिरती है। सूक्ष्म अव्यक्त से स्थूल और स्थूल से सूक्ष्म अव्यक्त यही क्रम चलता रहता है। इस तरह प्रारम्भ अन्त एक ही सिक्के के दो पहलू हैं। क्रमविकास श्रृंखला के दो छोर में एक प्रारम्भिक जीवद्रव्य तो दूसरा मनुष्य है। हम मनुष्य को उन्नत व प्रारम्भिक जीवद्रव्य को अवनत मानते हैं मगर सही यह है कि प्रारम्भिक जीवद्रव्य भी उच्चतम बुद्धि की संकुचित अवस्था है। क्रमसंकुचित बुद्धि पूर्ण मानव बनने तक विकतिस होती रहेगी। स्वामी जी कहते हैं कि यह बात गणित की सृष्टि से भी प्रमाणित होती है। ऊर्जा संरक्षण का नियम कहता है कि ऊर्जा कभी नष्ट नहीं होती, केवल रूप बदलती है। इस भौतिक ब्रह्माण्ड में हम एक परमाणु या ऊर्जा के एक अंश को भी घटा बढ़ा नहीं सकते। फिर बुद्धि क्या है, यदि प्रारम्भ में जीवद्रव्य नहीं था तो हमें स्वीकार करना होगा कि जीवद्रव्य की उत्पति आकस्मिक हुई। ऐसा होने पर हमें यह भी स्वीकारना होगा कि असत् (कुछ नहीं) से सत् (कुछ) की उत्पति सम्भव है। जो कभी सम्भव नहीं है। यह प्रमाणित तथ्य है कि जहाँ आदि वहाँ अन्त भी है और जहाँ अन्त है वहाँ आदि भी है। मानव पूर्ण होकर प्रकृति के नियमों के बाहर चला जाता है तब वह जन्म-मृत्यु के चक्र से भी बाहर चला जाता है। इस सिद्धान्त को जगत पर लागू करने पर हम देखते हैं कि बुद्धि ही इस जगत का प्रभु है। बुद्धि की अभिव्यक्ति ही जगत के एक छोर का दूसरे छोर से समन्वय करती है। सृष्टि रचनावाद (डिजाइन थ्योरी) इसी अभिव्यक्ति का ही एक प्रयास है। स्वामी विवेकानन्द भौतिकवादियों से इस बाद से सहमति व्यक्त करते है कि बुद्धि ही सृष्टिक्रम का चरम विकास है मगर साथ ही इस बात पर जोर देते हैं कि प्रारम्भ भी यही है। हमें बुद्धि मनुष्य के रूप में दिखाई देती है मगर यह पहले से अव्यक्त रूप में थी। यह भी कहते है कि पूर्ण रूप से विकसित मानव के साथ ही सृष्टि का अन्त है। इस जगत में जो बुद्धि अभिव्यक्त हो रही है उस सर्वजनीन सर्व व्यापी बुद्धि का नाम ही ईश्वर है। सृष्टि की उत्पत्ति के रहस्य को जानने के प्रयास आज भी जारी है मगर उपरोक्त स्पष्टीकरण में कुछ भी नया नहीं जुड़ पाया हो ऐसा नहीं लगता। जेनेवा स्थित सर्न प्रयोगशाला में किए गए प्रयोगो के आधार पर जुलाई 2012 में हिग्स बोसोन कणों की उपस्थिति का आभास मिलना तथा उन्हें ईश्वरीय कण कहने का अर्थ यह नहीं है कि सृष्टि के अन्तिम सत्य को जान लिया गया है,विज्ञान ने अब भारहीन कणों को खोजा है इससे भौतिक विज्ञान की सोच में परिवर्तन आने की संभावना है। विज्ञान भारहीन सर्वत्र व्याप्त सर्वजनीन चेतना के अस्तित्व को स्वीकारने की ओर बढ़ रहा है। हिग्स बोसोन कणों की चर्चा करते हुए भौतिक शास्त्री विजनकुमार पाण्डे ने विज्ञान प्रगति के फरवरी 2013 के अंक में लिखा है कि भौतिक विज्ञान अज्ञात को ज्ञात की परिधि में लाता है लेकिन सृष्टि का रहस्य अज्ञात की परिधि में नहीं अज्ञेय के विस्तार में होता है। ईश्वर को वैज्ञानिक शोध से नहीं अपितु अनुभूतिपरक आत्मबोध से ही पाया जा सकेगा। पाण्डे का कहना है कि भौतिक विज्ञान अब उस पथ पर चलने लगा जो उसे ईश्वर की ओर ले जाएगा।
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ईमेल : vishnuprasadchaturvedi20@gmail.com
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