‘अँधेरे में’ मुक्तिबोध की एक श्रेष्ठ कविता है. पर इसको समझने में मुझे बड़ी कठिनाई हुई, इसलिए नहीं कि इसका पैटर्न नया है, शिल्प नया है, वरन् ...
‘अँधेरे में’ मुक्तिबोध की एक श्रेष्ठ कविता है. पर इसको समझने में मुझे बड़ी कठिनाई हुई, इसलिए नहीं कि इसका पैटर्न नया है, शिल्प नया है, वरन् इस कारण कि इसकी काव्यवस्तु और अभिव्यक्ति दोनों उलझी हुई हैं. शब्द-रचना और उसकी व्यंजना में कहीं-कहीं एकान्विति नहीं है. कहीं-कहीं शब्दों के अर्थ जानने के लिए मुझे अपनी बुद्धि लगानी पड़ी है. इससे मुझ पर मनमानेपन का आरोप लग सकता है.
यह पूरी तरह एक राजनीतिक कविता है. कवि की सोच का दायरा राजनीतिक है. इसमें कविता को राजनीतिक परिणाम तक ले जाने के लिए कवि ने कई योजनाएँ की हैं. पर अपने संबोध्य जन तक अपनी सोच, चिंतन और राजनीतिक भावातिरेक को पहुँचाने के लिए कोई योजना नहीं दिखती जो उसे आपाद संवेद्य बना दे. कवि की राजनीतिक संवेदनाएँ जन के मस्तिष्क तक पहुँच कर घिरनी काटने लगती है. कविता की प्रथम पंक्ति दखिए:
जिंदगी के...
‘जिंदगी के’ पद के बाद कवि ने तीन बिंदु रखे हैं. उनके ऐसा करने में कोई बात तो होगी ही. क्या बात हो सकती है? इसे समझने में मस्तिष्क झनझना उठता है. मुक्तिबोध ने कहीं कहा है कि मेरी कविताएँ शिक्षित वर्ग के लिए है. अब यहाँ एक शिक्षित का यह हाल है तो अशिक्षित वर्ग की क्या दशा होगी? जबकि भारत में मार्क्सवाद के प्राणाधार ये अशिक्षित ही हैं. सुधीश पचौरी ने एक जगह उल्लेख किया है कि मुक्तिबोध यह मानते थे कि उनकी कविता किसी की समझ नहीं भी आ सकती है.
कविता की काव्यवस्तु के राजनीतिक होने में कोई हर्ज नहीं. अभी कुछ दिन पहले गोरखपुर में एक पुस्तक विमोचन समारोह में वरिष्ठ साहित्यकार रामदेव शुक्ल ने कहा कि आज की कविता बिना राजनीति के नहीं लिखी जा सकती. यह अवस्था कभी भक्तिकाल में थी जब भक्ति के बिना कोई कविता नहीं लिखी जा सकती थी. किंतु सन् साठ-सत्तर के दशक में मुक्तिबोध ने अपनी इस श्रेष्ठ कविता के लिए विषय राजनीति ही चुना था- शोषक-शोषित की राजनीति. इसके लिए उन्होंने पैटर्न चुना- मिल-मजदूर की हड़ताल का. सन् साठ-बासठ के आस पास नागपुर के एम्प्रेस टेक्सटाईल मिल-मजदूरों ने वेतन में वृद्धि के लिए स्ट्राइक की थी जिसमें पुलिस को गोलियाँ चलानी पड़ी थीं. कविता में जिक्र है कि इसमें मार्शल लॉ भी लगा था, किंतु तत्कालीन आलोचक इसका कोई जिक्र नहीं करते.
मुक्तिबोध ने यह कविता एक विशेष मनोदशा में लिखी थी. यह मनोदशा थी मध्यप्रदेश सरकार द्वारा, प्रदेश के स्कूलों की पाठ्य पुस्तक के लिए लिखी गई उनकी इतिहास-पुस्तक को प्रतिबंधित कर देने से उनको लगे सदमा की. वह इससे बहुत क्षुब्ध हो उठे थे. इसे उन्होंने सत्ता, पूँजीपति, शोषकों की साजिश समझी. वह अपने मित्रों से इस प्रतिबंध की बातें करते समय उग्र हो जाते थे. गले की नसें फूल जाती थीं. उन्हें भय हो गया कि कहीं प्रदेश अथवा देश में फासिस्ट शासन न स्थापित हो जाए. प्रेमचंद के ‘सोजेवतन’ पर भी प्रतिबंध लगा था, और कंपनी सरकार कोई उदार सरकार न थी. लेकिन वह सदमे में नहीं आए थे.
कविता का भाष्य :
पहले कविता में प्रवेश:
यह है कविता का सार-संक्षेप:
यह कविता फैंटेसी शिल्प में लिखी गई है. इसमें कवि किसी जुलूस का एक कल्पना-चित्र बनाता है. वह स्वयं भी इस कल्पना-चित्र का एक हिस्सा हो जाता है. रात में निकाले गए जुलूस के साथ मशालें भी हैं. मशालों से प्रसारित ज्योति, पास के तालाब, पहाड़ी और वृक्षों के शिखरों की फुनगियों पर चमक उठती है. मशालों के आगे बढ़ते रहने से धीरे-धीरे वृक्षों के झुरमुट के पास का अँधेरा जब पूरा छँट जाता है तो कवि को लगता है कि किसी खोह या गुफा का द्वार खुल गया हो. रात साफ नहीं है, कोहरे के अवगुंठन में है. जब मशालें बुझने लगती हैं तो उनकी श्वेत जयोति लाल होने लगती है. इसी समय कवि को (मशालों की) लाल रौशनी में नहाया हुआ एक रहस्य-पुरुष दिखता है. वह लुभावने चेहरे वाला है. कवि उसे अपनी अभिव्यक्ति कहता है. फिर मशालें बुझ जाती हैं. तब कवि को लगता है जैसे उसे किसी सूली पर टाँग दिया गया हो. और उसका शरीर किसी खड्ड में डाल दिया गया हो अचेतन अवस्था में.
यह जुलूस किसने और क्यों निकाला है, इसका यहाँ कोई स्पष्ट संकेत नहीं. किंतु कवि का जुलूस के दरम्यान लाल रंग में नहाए हुए रहस्य-पुरुष को देखने और उसे देख कर काँपने लगने फिर रौशनी के बुझ जोने पर मृत्यु के समान बोध से भर अचेत होकर शून्य के खड्ड में गिर जाने की अवस्थाएँ कुछ कहती हैं. यह कोई सामान्य जुलूस नहीं हो सकता. संभव है यह जुलूस राजनीतिक हो जिससे मुक्तिबोध प्रभावित हो रहे हैं, क्योंकि वह भी राजनीति से संबंधित हैं.
अब कविता को लें
कविता की प्रथम पंक्ति ‘जिंदगी के...’ से व्यंजित होता है कि कवि किसी सोच में पड़ा है. दूसरी पंक्ति “कमरों में अँधेरे” से प्रतीत होता है कि वह अपनी जिंदगी को कमरों में बँटा पाता है. पर जिन्दगी के कमरों में बँटे होने के अभिधार्थ से इसका अर्थ नहीं सुलझता, क्योंकि यह कविता है. मेरी समझ से कमरों का लक्ष्यार्थ ही लिया जा सकता है, और वह लक्ष्यार्थ होगा कवि का व्यक्तित्व. मनोविज्ञान में
व्यक्तित्व के खंडों में बँटे होने की बात की जाती है.
मेरी समझ से कवि की इस तरह की प्रतीति चेतन अवस्था में संभव नहीं है. ऐसा तभी संभव है जब कवि परिवेश से कटा भावातिरेक में डूबा हो या स्वप्न में हो. कवि यहाँ भावातिरेक में नहीं है, किसी सोच में डूबा है. सोचते सोचते कदाचित उसे एक झपकी आती है और वह स्वप्न में खो जाता है. इसीलिए मैंने प्रथम पंक्ति के बिंदुओं में छिपे आशय का अर्थ किया है- “स्वप्न में देखे गए”. इस तरह प्रथम दो पंक्तियों का अर्थ हुआ- “जिंदगी के, स्वप्न में देखे गए कमरों में अँधेरे”. कविता को फैंटेसी में ढालने का यह बड़ा ही सुंदर प्रयोग है
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कवि यह कविता अपनी चेतनावस्था में लिख रहा है. उसे अपनी झपकी में देखे स्वप्न का स्मरण होता है. वह अपनी अभिव्यक्ति को पाने की इच्छा को लेकर उसका एक कल्पना-चित्र बनाता है. “ वह स्वप्न में, अपनी जिंदगी को कमरों में या व्यक्तित्व-खंडों में बँटी देखता है. उन कमरों में (व्यक्तित्व-खंडों में) अँधेरा है अर्थात् अभिव्यक्ति अस्पष्ट है. अँधेरे में ‘एक कोई’ (अभिव्यक्ति की चेष्टा में कवि की चेतना) है जो लगातार चक्कर लगा रहा है (व्यक्तित्व-खंडों का तल-स्पर्श कर रहा है). कवि को उसके पैरों की आवाज (व्यक्तित्व-खंडों की नाड़ियों का आलोड़न) बार-बार सुनाई देती है (अनुभव होता है). पर वह दिखाई नहीं देता. लगता है जैसे वह किसी तिलस्मी खोह (व्यक्क्तित्व-खंड भी तिलस्मी खोह ही है) में कैद है. खोह की भीत के उस पार से (व्यक्तित्व-खंडों के दूसरे छोर से) खोह का (व्यक्तित्व-खंड का) घनीभूत और रहस्य-भरा अंधकार (अभिव्तक्ति की अस्पष्टता) बहुत पास से ध्वनि के समान (अंतर्ध्वनि से) अपने अस्तित्व को अनिवार जनाता हुआ (अभिव्यक्ति की सीमा तक पहुँचता) घूम रहा है (उद्बुद्ध हो रहा है)). कवि चाहता है, वह उसके अस्तित्व से परिचित हो ले. जब किसी विचार या धारणा की कभी सटीक अभिव्यक्ति नहीं मिलती तो विचारक का सम्पूर्ण व्यक्तित्व उसे पाने में लग जाता है. विचारक के व्यक्तित्व के हर खंड में उसकी अनुगूँज सुनाई देने लगती है. यही स्थिति यहाँ कवि की है.
उसके (‘कोई एक’ के) होने के भान से कवि का हृदय धक्-धक् करने लगता है. उसका हृदय उससे पूछ उठता है, वह कौन है जिसकी पगध्वनि सुनाई तो देती है पर वह दिखाई नहीं देता. स्वप्नस्थ कवि जिस कमरे में बैठा है, उसकी दीवारें बहुत पुरानी हैं. उनके पलस्तर फूले हुए हैं. कमरे में अकस्मात एक फूला हुआ पलस्तर टूटता है और उसमें से चूने भरी रेत गिरती है. फिर फूली पपड़ियाँ ऐसे टूटती-खिसकती हैं कि उससे दीवार पर एक बड़ा चेहरा बन जाता है. उसमें खुद ही मुख, नुकीली नाक, भव्य ललाट और दृढ़ ठुड्डी बन जाती है, वह एक अनजानी अनपहचानी आकृति होती है. उसे देख कवि के मुख से निकल पड़ता है, कौन है वह, जो दिखता तो है किंतु पहचान में नहीं आता? उस आकृति को देख उसे कोई स्मृति आती है और उसके मुख से निकल पड़ता है, कौन, मनु?
इस कविता के लिखने के कुछ ही पहले मुक्तिबोध ने “कामायनी एक पुनर्मूल्यांकन” का लेखन पूरा किया था. लगता है उनके मन में अभी भी कामायनी के मनु की स्मृति ताजा थी. अतः दीवार पर बनी आकृति को देख उन्हें मनु की याद आ गई.
कवि ने, कमरे में उक्त ‘कोई एक’ के पद-चापों को सुनते हुए, उत्सुकतावश कमरे के बाहर की ओर रुख किया. उसने देखा, शहर के बाहर, पहाड़ी के उस पार तालाब आदि घुप्प अँधेरे में डूबे हैं. तालाब का जल निस्तब्ध है. पर सहसा उसके तम से श्याम हुए जल के भीतर से एक श्वेत आकृति उभरती (तालाब में मशाल की ज्योति पड़ती है जो कोहरे में कुछ ऊपर उठ कर एक आकृति-सी बनाती है) है और जल के ऊपर कोहरे की चादर मे लिपटा एक बड़ा चेहरा फैल जाता है. वह चेहरा मुसकुराता है, अपनी पहचान बताता है (अस्पष्ट संकेतों द्वारा). किंतु कवि हतप्रभ है. वह कुछ समझ नहीं पाता. अधोप्रकट पंक्तियों के मशाल की दूर से आती रोशनी तालाब के जल पर पड़कर चमक उत्पन्न करती है जो पास आते जाने से बढ़ती जाती है और कोहरे पर प्रत्यावर्तित होकर एक चेहरे-सा दिखने लगती है.
तभी कवि के आश्चर्य की सीमा नहीं रहती जब वह देखता है कि तालाब के आस पास के अँधेरे में डूबे हरे हरे वन-वृक्ष चमक उठते हैं, वृक्षों के शीश पर बिजलियाँ नाच उठती हैं अर्थात उनकी फुनगियों पर प्रकाश की किरणें चमचमा उठती हैं, पेड़ों की शाखाएँ और डालियाँ एक दूसरे से टकरा उठती हैं (जुलूस के तेजी से चलने से उपार्जित हवा के कारण) जैसे एक दूसरे पर अपने सिर पटक रही हों. तभी लगा वृक्षों के पीछे अँधेरे में छिपी किसी तिलस्मी खोह का का द्वार अकस्मात धड़ से खुला जो (अँधेरे रूपी) एक पत्थर से बंद था. वृक्षों की ओट में पसरे अँधेरे को भेद कर मशाल की रोशनी सामने आ गई.
इसके आगे कविता में प्रयुक्त डॉट बिंदुओं से यह राज खुलता है कि ज्योति की ये रश्मियाँ किसी जुलूस के साथ चल रहे मशालों की हैं (इसके प्रभाव का वर्णन पहले स्रोत का परिचय बाद में). यह जुलूस रात में निकला हुआ है. इन डॉटमूलक बिंदुओं के विश्राम के बाद कवि कुछ यों अनुभव करता है:
मशालों की अजीब-सी लाल लाल रोशनी (पास से देखने हर बुझती हुई मशाल जो अभी बुझी नहीं है, से निकलने वाली रोशनी लाल होती है) प्रकृति के हर अंतराल के विवर के अँधेरे में घुस रही है. अर्थात जहाँ जहाँ अँधेरे का वास है उन सभी जगहों के अँधेरे में प्रवेश कर रही है. लाल-लाल रोशनी के कारण बाहर फैला कोहरा भी लाल-लाल दिखता है. इस कोहरे में कवि को, सामने लाल कोहरे में नहाया हुआ एक पुरुष दिखाई देता है जो साक्षात रहस्य है या कहें गहन रहस्य से भरा हुआ है. कवि की दृष्टि में उस रहस्य-पुरुष का ललाट तेज और प्रभा से युक्त है (अभिव्यक्ति के प्रकट होने के मुहाने पर होने से उसकी रहस्यमयता और अधिक हो गई है. क्षितिज के उषा-किरण-सी वह लाल है.) उसे देख कर कवि के शरीर में अद्भुत थरथराहट उत्पन्न हो जाती है (इस थरथराहट के अद्भुत होने से प्रतीत होता है कि यह थरथराहट वास्तविक से भिन्न है. इसमें भय के साथ कुछ और विकार भी मिश्रित हैं). वह रहस्य-पुरुष गौरवर्ण है. उसकी आँखें दीप्ति से भरी हैं. मुख सौम्य है. संभावित स्नेह-सा अर्थात जिस प्रिय में प्रेम की संभावना हो (अपने को ठीक ठीक अभिव्यक्त करना एक बडी बात है. एक परिपक्व कला है. ठीक ठीक अभिव्यक्ति आने को हो तो उसके आह्लाद का रूप कुछ ऐसा ही होता है.) ऐसे प्रिय के रूप को देख कर कवि एक विलक्षण आशंका से भर जाता है (आशंका इसलिए कि अभिव्यक्ति की प्रसन्नता कहीं प्रतिकूलता में न बदल जाए. यह भूलना नहीं चाहिए कि मुक्तिबोध लोकतंत्र को भी उतना ही महत्व देते हैं जितना मार्क्सवाद को. शंका है उनकी अभिव्यक्ति के रूप में दोनों समवेत न हों, कोई इतर रूप हो) उस भव्य, अजानुभुज (जिसके हाथ उसके घुटने तक पहुँचते हैं) को देखते ही कवि साक्षात एक गहन संदेह से भर जाता है (गाँधी भी आजानुभुज थे). अभिव्यक्ति, कवि जिसके पाने की चेष्टा में है, क्षितिज से उगते सूरज की तरह लाल और रहस्य से भरी है. परंतु उसके मन में सूरज के उगने का आह्लाद नहीं है. उसे शंका है सूरज उगेगा या नहीं याने उसकी अभिव्यक्ति उसे मिलेगी या नहीं. कहीं उनपर काले बादलों (अनर्गल साहित्यिक आंदोलनों) का साया न पड़ जाए.
मुझे कवि की शंका यों दिखती है. कवि मार्क्सवाद से प्रभावित है जहाँ अभिव्यक्ति पर अधिनायकवाद का पहरा है और वह व्यक्ति की स्वतंत्रता के भी पक्ष में है, जो लोकतंत्र का मूल्य है. कवि किस अभिव्यक्ति की तलाश में है? यह स्पष्ट नहीं.
पर कविता की अगली पंक्तियों से स्पष्ट होता है कि उस रहस्यमय व्यक्ति को कवि अपनी अब तक की न पाई गई अभिव्यक्ति मानता है- याने वह अभिव्यक्ति, जिसे कवि अभी पा नहीं सका है. कवि उसे अपनी संभावनाओं (अपने होने), उसमें निहित प्रभावों (जो दूसरों को भावित कर सके), प्रतिमाओं (अपने रूपों) की और अपने परिपूर्ण के आविर्भाव (जिसमें कवि का पूरा व्यक्तित्व उच्छल हो) की पूर्ण अवस्था मानता है. कवि को लगता है वह रहस्य-पुरुष उसके हृदय में रिस रहे उसके ज्ञान का तनाव है, और उसकी आत्मा की प्रतिमा है.
वह रहस्य-पुरुष कवि की आत्मा की प्रतिमा है, यह वक्तव्य तो समझ में आता है पर कवि का यह काव्य-वक्तव्य, “हृदय में रिस रहे ज्ञान का तनाव”, कुछ अनूठा है. मुक्तिबोध के लिए ज्ञान एक तनाव है. भारतीय परिप्रेक्ष्य में ज्ञान तनाव नहीं है. ज्ञान बुद्ध को हुआ था, उनकी चेतना सम हो गई थी. उनकी पूरी जिंदगी समरसता से भर गई थी. और यहाँ ज्ञान मुक्तिबोध को तनावग्रस्त कर रहा है. सीधी सी बात है, मुक्तिबोध ज्ञान के पश्चिमी अर्थ को लेते हैं जहाँ उसका अर्थ होता है सूचनाओं का संग्रह. अगर इन सूचनाओं में कोई अपने विचारों के लिए पुष्टि ढूँढ़ने जाए तो अन्य विचारों से जोड़ बैठ न पाने पर केवल तनाव ही हासिल हो सकते हैं. एक और बात, मुक्तिबोध यह भी महसूस करते हैं कि उनकी सूचनाओं (तथाकथित ज्ञान) के तनाव उनके हृदय में रिस रहे हैं. जबकि हृदय भावों का आश्रय है तनावों का नहीं. तनाव हृदय के द्रवण में विलुप्त ही होते है.
उक्त तमाम प्रतीतियों के बाद भी कवि आश्वस्त नहीं है, लगता कि वह रहस्य-पुरुष उसके मन की उक्त विभिन्न अवस्थाएँ हैं. वह इन्हें गंभीर पश्नों के रूप में ले रहा है. कवि के लिए ये प्रश्न गंभीर तो हैं ही खतरनाक भी हैं. वह इसी सोच के तनाव में है कि मशालें बुझ गईं मानो बाहर के गुंजान और जंगलों से आती हुई हवा ने फूँक मार कर उन्हें बुझा दिया हो (किसी प्रतिकूल परिस्थिति के कारण). कवि को लगा जैसे उसने (हवा ने, विपरीत विचारवालों ने, संभवतः शोषकों ने) उसे पकड़ कर अँधेरे में मौत की सजा दे दी हो. मशालों की ज्योति के बुझने से अँधेरा कवि को और गहरा गया लगा जो उसे अधिक पीड़दायक हो उठा, इतना कि उसे मौत का अहसास-सा होने लगा..
उस क्षण, मशालों के बुझ जाने से कवि को लगा मानो उसकी आँखों पर काले डैस (काली स्याही से जिसका प्रयोग लिखते समय किया जाता है) के समान अँधेरे की एक काली पट्टी बँध गई हो. मशालों के बुझने से वह जहाँ जैसा था उस स्थिति में खड़ा रह गया मानों उसे किसी खडी पाई की सूली पर टाँग दिया गया हो. उसे ऐसा भी लगा कि उसे किसी शून्य विंदु के खड्ड में अचेतन स्थिति में गिरा दिया गया हो. इस उक्ति से यही लगता है कि कवि अपने कमरे में अचेत होकर गिर गया.
समाज में कवि ने अपनी अर्थात शोषित वर्ग की बहुत-से विरोधी शक्तियों की पहचान की है. उन्हीं से उनको अधिक डर है. मुक्तिबोध को समाज और व्यक्ति में भी द्वंद्व दीखता है, हालाँकि वह अलग-अलग दोनों को मानने वाले थे.
आलोचन:
कविता का भाष्य करते समय मैं स्थलीय आलोचनाएँ भी देता चला हूँ. पर उसका संबंध अर्थ को स्पष्ट करने से ही अधिक है, कविता के काव्य-गुण से नहीं. इसकी काव्य-वस्तु कवि की कूट-बुद्धि से संयोजित लगती है. “जीवन के कमरे” एक कूट-पद है. जीवन को कमरों के रूप में कैसे देखा जाए, बौद्ध आचार्य नागार्जुन से राजा मिनांडर ने पूछा. आचार्य आप किससे आए हैं? आचार्य ने कहा, ‘‘रथ से’’. राजा ने आगे पूछा, क्या पहिया रथ है? ‘नहीं’, आचार्य ने कहा. जीवन के इन कमरों के बारे में भी ऐसे प्रश्न उठाए जा सकते हैं जो काव्येतर नहीं होगा. विभिन्न काल-खंडों मे कवि का जिया जीवन कवि के जीवन के कमरे नहीं हो सकते. उसके फेफडे, हृदय आदि भी कमरों की तरह व्यवहृत नहीं हो सकते. अतः मैंने इन कमरों को उनके व्यक्तित्व-खंड माना है. यह काव्य-गत चिंता के मेल में है. कवि की इस कल्पना में कोई काव्यगत-सौंदर्य नहीं दिखता.
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