प्रविष्टि क्र 13 संस्मरण – कुछ यारों के ! कुछ दुश्मनों के !! यशवंत कोठारी मैं फिर खतरा उठा रहा हूँ, याने संस्मरण लिखने की ठानी है. लिखना त...
प्रविष्टि क्र 13
संस्मरण –
कुछ यारों के !
कुछ दुश्मनों के !!
यशवंत कोठारी
मैं फिर खतरा उठा रहा हूँ, याने संस्मरण लिखने की ठानी है. लिखना तो बहाना है बाकी तो सब हिसाब चुकाना है. उम्र के इस मोड़ पर हिसाब चुकता कर देना चाहिए न जाने किस गली में जिन्दगी की शाम हो जाये.
अपने जीवन की पहली याद मुझे तब की है जब मुझे एक निजी स्कूल में भरती कराया गया था, एक कार्यक्रम में मैं बोल नहीं पाया तो मगन जी व् चंद्रमोहन जी मास्साब ने मुझे एक कमरे में बंद कर दिया था, तब से ही मैं बोलने में कमज़ोर रह गया. नाथद्वारा कसबे से कुछ दूरी पर बिछु मंगरी पर पिताजी की एक चक्की थी मैं वहां पर खाना लेकर जाता था. पिताजी के खाना खाने के बाद मैं टिफन लेकर आता था. शाम के लिए आटा, दाल या सब्जी भी लाने का काम मेरा ही था, यह रोज़ का नियम था, नागा होने पर एक बार इतने जोर से झापड़ पड़ा की पजामा गीला हो गया. ऐसा ही एक झापड़ तब भी पड़ा था जब मैंने चार लाईन की कोपी मांगी थी, मेरी कमज़ोर अंग्रेजी का कारण चार लाईन की कापी थी. थोड़ा बड़ा हुआ तो पता चला की घर में हम सात भाई बहन है, कमाई कम खर्च ज्यादा. मुकदमा बाजी एक आवश्यक कर्म कांड. दो बहनें बड़ी.
अपनी दुबली पतली मरियल काया के कारण मुझे टिड्डा शब्द से ही संबोधित किया जाता था. लेकिन इस टिड्डे में पढ़ने की बड़ी इच्छा थी सरकारी स्कूल में भरती हो गया. फार्म भरने से लगाकर फीस की व्यवस्था सब कुछ खुद ही कर डाला. ताकि खर्च कम से कम हो और पढाई चले. एक बार एक तालाब में गिर गया, एक बार राजसमन्द झील में भी गिरा लेकिन डूबा नहीं. भाई लोग निकाल कर ले आये. तभी से पानी से डरता हूँ. आज भी तैरना नहीं सीख पाया. समुद्र के किनारे भी डरता ही रहता हूँ. लाल रंग से भी बहुत डर लगता है. मौत से मेरे साक्षात्कार बाद में भी हुए. कमज़ोर स्वास्थ्य के कारण बीमारियों ने मेरा पीछा कभी नहीं छोड़ा. एक बार दवा रिएक्शन कर गयी. मरते मरते बचा. एक बार पान में तेज़ किमाम खा गया भयंकर पसीना व् ह्रदय की तकलीफ हुयी. एक बार रस्ते में ही स्कूटर की भयंकर टक्कर हुयी. मगर मैं बच गया. कमज़ोर बदन के बावजूद खेलना –कूदना एक आवश्यक कर्म कांड की तरह किया.
घर पर दादाजी से मैंने बहुत कुछ सीखा. वे अक्सर मुझे लेकर खेतों पर चलते, वापसी में गाय के लिए बाज़रा, रजका चारा लाना. गाय को दुहने के लिए बछड़े को पकड़ना. बछड़े को खट्टी छाछ की नाली देना. ये सब काम करना. कुछ समय बाद दादाजी ने मुझे एक सेकंड हेंड कोट खरीद दिया, जिसे मैं बरसों पहनता रहा. दादाजी बीमार होकर चले गए. उनके साथ ही मेरा भी एक हिस्सा हमेशा के लिए मर गया.
घर में नल या बिजली नहीं थी. पानी कुएं से भर कर लाते थे. कपड़े धोने के लिए माँ व् बहन नदी या नहर पर जाती थीं. लकड़ी का चूल्हा जलता था, कंडे भी थापे जाते थे. लालटेन, चिमनी ही रौशनी के साधन थे. पढाई के लिए रात को रौशनी की तलाश में हम लोग किसी लाइट वाले घर की और जाते थे, बाद में घर में सिंगल पॉइंट बिजली ले ली थी. हमारा परिवार सामान्य निम्न मध्यम वर्गीय था, लेकिन बड़ा परिवार था, सो समस्याए भी बड़ी थी. माँ दिन रात लगी रहती थी. मैंने माँ को कभी बीमार पड़ते नहीं देखा और एक बार जो बीमार हुयीं तो हम सबको छोड़ कर ही चली गयीं. हम पांच बेटे रोते ही रह गए. किसी के हाथ से पानी भी नहीं पिया. माताजी के जाने के पहले दादाजी व् काकाजी चले गये थे. घर की स्थिति धीरे-धीरे बिगड़ने लगी थी. हम भाई बहन घर की आर्थिक स्थिति सुधारने कई प्रकार से मदद करने लगे. खेतों को लोगों ने खा लिया था. हम लोग कागज़ की थैलियां बनाने लगे, कभी-कभी मूंगफली को छील कर कुछ पैसे कमाने लगे. मैंने पोस्ट ऑफिस के बाहर बैठ कर तार लिखे, फी तार चार आन. मैं इन्तजार करता कोई गाँव का आदमी अपने मुंबई के पते पर तार लिखवाए-father serious come soon या mother expired come soon. कैसा विचित्र विरोधाभास ?
एक दो बार एक बूढ़े ने शारीरिक शोषण भी किया, लेकिन मैं पढ़ने में होशियार मान लिया गया था. शाम को श्रीनाथजी मंदिर की तरफ से भी एक परीक्षा हुयी जिसमें मुझे पहला स्थान मिला और पहली बार पांच रूपये का इनाम मिला.
पढाने वाले अध्यापक बहुत कठोर थे. बाज़ार में इधर उधर घूमते देख लेते तो अगले दिन कक्षा में मलामत करते थे. हिन्दी के भगवती प्रसादजी, इंग्लिश के तिलकेश्जी व् गणित के मास्टर साब से बड़ा डर लगता था. लेकिन आज याद करता हूँ तो उसी कठोरता ने सब सिखा दिया. जीवन की कठोरता को आत्मसात करने का मौका मिला. हिंदी को अनिवार्य हिंदी के रूप में बारहवीं तक ही पढ़ पाया. अंग्रेजी भी अनिवार्य इंग्लिश के रूप में ही पढ़ी. वैसे हायर सेकंड्री तक विज्ञान–गणित पढ़ी, लेकिन कमज़ोर पास हुआ, फिर कालेज में जीव विज्ञान पढ़ा मगर मेडिकल तक नहीं पंहुचा. फिर जयपुर के राजस्थान विश्व विद्यालय के रसायन विज्ञान विभाग से एम. एस. सी. हुआ. बी. एस. सी. में पूरे प्रदेश में कुल बारह प्रथम श्रेणी में पास हुए थे सो सब जगह प्रवेश मिल गया था, मगर केमिस्ट्री ठीक लगी. जयपुर में मैं अपने मामाजी के यहाँ रह कर पढ़ा और समय आराम से कट गया, मुझे राष्ट्रीय मेरिट छात्र वृत्ति मिल गयी जिससे मुझे आर्थिक रूप से नहीं जूझना पड़ा. इसी राशि का कुछ हिस्सा घर चलाने में भी लगा.
मैं शोध करना चाहता था लेकिन नहीं हो पाया. वेयर हाउसिंग कोर्पोरेशन में परिणाम आने से पहले ही नौकरी लग गयी. मुझे गंगा पुर में लगाया गया, लेकिन मेरा मन नहीं लगा. एक रात को बोरिया बिस्तर लपेट कर मैं वापस जयपुर आ गया. लगी लगायी नौकरी छोड़ देने के कारण घर वाले नाराज़ हो गए, लेकिन जल्दी ही मुझे कोलेज एजुकेशन का तार मिला-
Appointed temporary lecturer at government college, Didwana.
मेरी तो बल्ले बल्ले हो गयी. घर परिवार में भी ख़ुशी छा गयी, बिरादरी में कोई पहली बार उच्च पद पर लगा था. लेकिन यह नौकरी अस्थायी थी, उन दिनों सरकार गर्मी की छुट्टियों से पहले निकाल देती थी ताकि पैसा बचाया जा सके. स्थायी नौकरी लोक सेवा आयोग से लगती थी.
वे गर्मी के दिन, वे बेरोजगारी के दिन. नाथद्वारा में आवारा-गर्दी के दिन हम कुछ यार दोस्त बाज़ार में रबड़ते फिरते, चंदे की चाय पीते और सपने देखते. लेकिन इन सपनों को हकीकत में भी बदलना था. इसी बीच मुझे स्कूल व्याख्याता की नौकरी पीपाड़ शहर में मिली. मैं गया लेकिन मन नहीं लगा, इसी बीच रोज़गार विभाग ने मुझे एक साक्षात्कार का अवसर दिया. आयुर्वेद कालेज में विज्ञान अध्यापकी का. मैंने साक्षात्कार दिया. तभी मुझे वापस कालेज शिक्षा विभाग ने अस्थायी प्राध्यापक के रूप में डीडवाना में लगा दिया. मैंने ज्वाइन किया. मगर तभी मुझे आयुर्वेद कालेज उदयपुर में स्थायी प्राध्यापकी मिल गई. ये वो समय था जब नौकरी के लिये ज्यादा भटकना नहीं पड़ता था. रोज़गार विभाग व् कालेज शिक्ष विभाग मेरिट से काम दे देता था. मुझे भी प्रार्थना पत्र नहीं देना पड़ा, बाद में लोक सेवा आयोग से चयन हो गया. अक्टूबर १९७२ से जुलाई १९७९ तक मैं आयुर्वेद कालेज उदयपुर रहा. फिर केंद्र सरकार ने राष्ट्रीय आयुर्वेद संस्थान बनाया तो सचिवों की एक टीम उदयपुर आई और हम लोगों का चयन आयुर्वेद संसथान हेतु कर लिया गया. केंद्र सरकार की नौकरी, स्थान्तरण नहीं बस और क्या चाहिए. लेकिन सब कुछ अच्छा और सुंदर नहीं था. उदयपुर में भी और जयपुर में भी ब्राह्मण(जातिवाद) वाद, फिर आयुर्वेद-वाद और बचे हुए लोग निम्न-कोटि वाले. रसायन वाले मुझे आयुर्वेद का समझते, आयुर्वेद वाले मुझे विजातीय मानते जो एक पद रोक कर बैठा था. लम्बा उपेक्षित जीवन जिया मैंने. साहित्य में भी हिंदी का एम. ए. नहीं होने कारण हर जगह घुसपैठिया समझा गया.
चलो अब मैं नौकरी धंधे को छोड़ता हूँ और साहित्य की पूँछ पकड़ता हूँ.
साहित्य का केंद्र कलकत्ता से बनारस हुआ, बनारस से इलाहबाद, इलाहबाद से दिल्ली और दिल्ली में साहित्यकार साहित्य के अलावा सब कुछ रचते हैं. दिल्ली-वाद ने हिंदी रचनात्मक साहित्य का बड़ा नुकसान किया है.
स्कूल के दिनों से ही कोर्स के अलावा पढ़ने का कीड़ा लग गया, नाथद्वारा में जिला पुस्तकालय था, मैं सदस्य बन गया, इसी प्रकार वहां साहित्य मंडल नामक संस्था थी मैं उसका भी सदस्य बन गया, स्कूल में एक हिंदी क्लब बना मैं उस में भी घुस गया. इस प्रकार पढ़ने का कीड़ा मेरे अंदर घुस गया जो आगे जाकर किताबी कीड़ा बना व और आगे जाकर साहित्य का बड़ा कीड़ा बन गया. उन दिनों कुशवाहा कान्त, पम्मी दीवानी, मस्त राम मस्ताना, कर्नल रणजीत, गुलशन नंदा, सुरेन्द्र मोहन पाठक आदि की धूम थी हम लोग भी इनको ही पढ़ते थे. फिर एक रोज़ जिला पुस्ताकालय के विट्ठल्जी मास्टर साब व् मुझे प्रेमचंद की किताब दी. साहित्य मंडल में भगवती प्रसादजी ने देवकी नंदन खत्री से परिचय कराया. मैंने अपना दिमाग इन में घुसा दिया. धीरे धीरे टैगोर की रचनाओं से परिचय हुआ. फिर शेक्शपियर के अनुवाद जो रांगेय राघव ने किये थे, पढ़ने का मौका मिला. लोक कथाएं भी खूब पढ़ी गयी. शाम के समय जब पुस्तकों के आदान प्रदान हेतु जाते तो पढ़ी गयी किताबों पर चर्चा भी होने लगी. इन पुस्तकालयों में पत्रिकाएं भी आती थी. घर पर धर्मयुग आने लगा. हम लोग एक होटल से शाम को आधी कीमत पर एक स्थानीय दैनिक भी लेने लगे. पढ़ने का यह कीड़ा इतना जबरदस्त था कि कहीं भी कुछ भी कागज़ का टुकड़ा जिस पर नमकीन खा रहे होते उसे भी एक बार पढ़ जाता. सरिता, मुक्ता दिनमान, सारिका, नव-भारत टाइम्स, पराग, बाल भारती, इलस्ट्रेटेड वीकली से परिचय हुआ. बच्चों की चंदामामा सब से ज्यादा पढ़ी जाती थी. इस पत्रिका के लिए वाचनालय में छीना-झपटी आम बात थी. उम्र बढ़ रही थी शरीर में परिवर्तन आने लगे थे. विपरीत लिंग के प्रति कौतूहल होने लगा था. लेकिन एक तरफ़ा प्यार का यह दौर जल्दी गुजर गया. मैं पढाई में ही व्यस्त रहा. बी. एस. सी. में प्रथम आया, एम. एस. सी. में भी पोजीशन आई सो जिन्दगी आसान हो गयी.
अभी तक साहित्य का मामला केवल पढ़ने तक ही सीमित था. पत्र पत्रिकाओं में लेखकों के फोटो देखना भी अच्छा लगता था. मेरे अध्यापकों में से भी कोई लेखक न था. लेकिन हिंदी व् इंग्लिश में कक्षा में मेरे लिखे निबंध पढ़ कर सुनाये जाने लगे थे. मैंने कुछ मित्रों के वाद विवाद भाषण लिख दिए. पत्र वाचन के पेपर लिख दिए और वे इनाम पा गए. अभी मैं एक अच्छी नौकरी को ही तरजीह दे रहा था, ताकि घर की नींव मज़बूत हो जाये. बहनों की शादियाँ हो गयी थी. मैं अपने भाइयों को भी पढाने की कोशिश में था.
डीडवाना, पीपाड़, जयपुर के चक्कर लगा कर अब मैं एक स्थायी नौकरी पा गया था, वेतन कुछ कम था लेकिन स्थानान्तारण का लफड़ा नहीं था. किसी नेता के हाथ पैर जोड़ने की जरूरत नहीं पड़ी. कुंवारा था. एक कमरा रसोई किराये पर ले ली थी. एक भाई को पढ़ने के लिए यहाँ उदयपुर ले आया था. एक नयी साइकल खरीद ली थी, जिन्दगी आराम से खरामा खरामा चलने लगी. खूब खाली समय था. मैं पत्रिकाएं व् पुस्तकें फिर पढ़ने लगा. मैंने महसूस किया इन अख़बारों व् पत्रिकाओं में छप कर आ रहा है वैसा तो मैं भी लिख सकता हूँ, बस मैंने धर्मयुग का पता नोट कर लिया, एक रचना लिखी, हाथ से ही उसे फेयर किया, वापसी का लिफाफा लगाया और डाल दिया. ये दिन १९७३-७४ के थे. आश्चर्य !घोर आश्चर्य !! एक माह में ही स्वीकृति पत्र मिल गया, मैंने अकड के साथ यह स्वीकृति पत्र मित्रों को दिखाया. कुछ दिनों के बाद एक पत्र और आया –आपकी रचना अगले अंक में छप रही है. फिर छपी रचना की वाउचर प्रति आई. मैंने कौतूहल वश कई धर्मयुग ख़रीदे की सभी में मैं छपा हूँ या नहीं. कैसे भोले और मासूम दिन थे वे.. साला मैं तो लेखक बन गया रे. चेतक सर्कल पर एक अनजाने से आदमी ने पान की दुकान पर पूछा-
आप ही यशवंत कोठारी हैं?
मैं चौंका –जी कहिये
आपको धर्मयुग में पढ़ा था. आपने एक नया शब्द दिया –चमचत्व. मैं तो निहाल हो गया.
साहित्य की चादर लम्बी थी. मैंने व्यंग्य के फटे में टांग अड़ा दी. हरिशंकर परसाई, शरद जोशी, श्रीलालशुक्ल, शंकर पुणताम्बेकर, अशोक शुक्ल, श्रीकांत चौधरी व् अन्य कई लेखकों की रचनाएँ व् पुस्तकें ढूंढ ढूंढ कर पढ़ना शुरू किया. कुछ लघु पत्रिकाएं भी पढ़ी. जो पारिश्रमिक आता उस से किताबें खरीदी, पत्रिकाओं में प्रकाशित रचनाओं की फ़ाइल् बना ली. काम चल निकला. शरद जोशी से कई बार मिला. उदयपुर, जयपुर व् मुंबई के एक होटल में दो बार मिला. ऐसा स्नेही सज्जन लेखक दूसरा नहीं देखा. आजकल के सम्पादक- लेखक तो बस.... बोसिज्म के मारे हैं.
धर्म वीर भारती, कन्हैलाल नंदन, महेश दर्पण, जयसिंह राठौर, अनिल दाधीच, हनुमान गालवा, रामावतार चेतन, ओम थानवी, आनंद जोशी, दुर्गा शंकर त्रिवेदी आदि ने खूब छापा.
उन दिनों धर्मयुग में छप जाना याने बाकी की पत्रिकाओं के रास्ते भी खुल जाना . धीरे-धीरे मैं भगवान भरोसे बढ़ने लगा. जयपुर आने के बाद लेखन बढा, परिवार बढा. मैंने लेखन को अतिरिक्त आमदनी की तरह लिया. माह में साग सब्जी का खर्चा निकलने लगा. मैंने स्थानीय अख़बारों में कालम लिखे. एक ही रचना को बार-बार छपाया ताकि कुछ पैसे और आ जाये. यह सब चलता रहा. मैं हिंदी का छात्र नहीं था इसलिए साहित्यकार बिरादरी ने अछूत समझा. नौकरी में आयुर्वेद-वाद व् ब्राह्मण-वाद के कारण अछूत रहा, और केमेट्री वालों ने साफ कह दिया - आप तो आयुर्वेद की संस्था में हो. यहाँ तक कि मुझे राजस्थान विश्व विद्यालय में प्रायोगिक व् सैद्धान्तिक परीक्षक भी नहीं बनाया गया, मगर मैंने साहित्य का दामन नहीं छोड़ा. वक्त गुजरता गया. बनास में काफी पानी बह गया. द्रव्यवती नदी, कुम्हारों कि नदी गायब हो गयी. शहर, प्रदेश, देश तेजी से बदला. आपातकाल के तुरंत बाद मैंने कुछ कवितायेँ सायक्लो-स्टाइल करके इधर उधर भेजी. एक कविता कादम्बिनी में छपी. मित्रों के लिए मैं पहले दरजे का, दुश्मनों के लिए तीसरे दरजे का, व् खुद के लिए दूसरे दरजे का लेखक बन गया. जो सम्पादक छापते उनका भला, जो नहिं छापते उनका भी भला. रचना वापस आने पर भी बुरा नहीं लगता. आकशवाणी ने बहुत कम बुलाया कुछ झलकियाँ प्रसारित हुयीं. एकाध नाटक भी. दूरदर्शन ने अवसर दिया और मैंने लाभ उठाया. राजस्थान पत्रिका व् दूरदर्शन में मेरे लम्बे साक्षात्कार आये. पत्रिका ने एक लम्बा साक्षात्कार छापा. सुरजीत सिंह ने लिया था.
बीच-बीच में लम्बे अन्तराल आये. घर गृहस्थी, नौकरी के झमेले भी चलते रहे. नाथद्वारा जाना भी कम हो गया. मगर मन वही रमता था. १९८० के आसपास मेरे पास इतनी रचनाएँ हो गयी की एक संकलन बन सकता था. मैंने इस और प्रयास शुरू किये. अस्वीकृतियों का अनुभव बड़ा काम आया. कई प्रकाशकों ने मना कर दिया मगर मैंने हिम्मत नहीं हारी. वैसे, आज भी सम्पादक लेख वापस कर देते हैं खैर.
पुस्तक छपी और शानदार छपी. आवरण के लिए ब्लॉक रामचरण शर्मा व्याकुल ने दिए, बेचने का काम चम्पालाल रांका ने संभाला. मैंने समीक्षा के लिए प्रयास किये. अकादमी ने कुछ आर्थिक सहयोग दिया, और मैं पुस्तक लेखक बन गया. इस प्रकार “कुर्सी सूत्र” बाजार में आ गई. फिर दूसरा संस्करण भी हुआ. फिर सिलसिला चल निकला दिल्ली के प्रभात प्रकाशन ने अवसर दिया. “मास्टर का मकान” पुस्तक का जिक्र जरूरी है. इस रचना को कई संपादकों ने रिजेक्ट कर दिया, लेकिन अंत में धर्मयुग में किनारा मिला, बाद में अकादमी के आर्थिक सहयोग से छपी और राजस्थान साहित्य अकादमी के कन्हेयालाल सहल पुरस्कार के लायक समझी गयी. बच्चों और प्रोढ़ों के लिए भी लिखा. स्वास्थ्य पर, विज्ञान पर भी लिखा, कॉलम लिखे, फीचर एजेंसीज के लिए भी लिखा और लिखता रहा. बहुत कुछ इधर उधर हो गया. किसी ने पैसे दिए किसी ने नहीं दिये मगर लिखना नहीं छोड़ा.
कुछ मित्र इतने नाराज हैं कि वे हर तरह से नीचा दिखाते हैं, किसी लेखक को नीचा दिखने का आसान उपाय ये है की उसकी रचना को नक़ल घोषित कर दो, करवा दो. मेरे साथ भी यहीं हुआ, लेकिन हाथी चलता रहता है और पशु चिल्लाते रहते हैं. हिंदी साहित्य में आदमी अपनी औकात को सुधारने के लिए क्या-क्या नहीं करता. यह मैंने साहित्य के दलदल में आकर ही समझा. कुछ वर्ष परेशान रहा फिर मैं भी यही सब करने लगा. जल्दी ही उनकी अक्ल ठिकाने आ गई, जिन्होंने जवानी में आग लगाई थी वे सब बुढ़ापे में शुभ कामनाएं देने लगे, प्रेम दिखाने लगे. बिना पूछे छापने लगे. मौका मिलते ही पहचानने लगे. जिस तरह औरत ही औरत की सबसे बड़ी दुश्मन होती है ठीक उसी तरह लेखक ही लेखक का सबसे बड़ा दुश्मन होता है. विष्णु प्रभाकर ने कहा है-लेखक लेखक से घृणा करता है.
एक प्रसंग और. राजभाषा समिति का सदस्य बना तो मीटिंग में देखा मंत्रीजी ने मासिक पत्र को एक अख़बार की शक्ल दे दी. पूछने पर अधिकारियों का जवाब आया –कौन देखता है. मैंने मंत्री जी से पूछा तो बोले –हिंदी में स्टैण्डर्ड वर्तनी बनाओ.. बात आगे बढ़ी तो मंत्री जी उठकर चले गए. सरकार हिंदी के बारे में यही सोचती है. और हर सरकार यही सोचती है.
इधर फेसबुक पर गज़ब का धमाल है. हर व्यक्ति कवि है यह माध्यम मुझे भी रुचा, हिसाब चुकाने की सबसे सुरक्षित व् आसान जगह. बड़े लेखक तक घबराते दिखे. कब कौन भाटा फेंक दे, बाल्टी भर के कीचड़ उछाल दे. लेकिन मज़ेदार जगह है. लगे रहो मुन्ना भाई व् बहनों. कभी तो लहर आएगी.
यारों ने हाथों हाथ लिया तो दुश्मनों ने कोई कोर कसर नहीं छोड़ी. जयपुर के चौड़े रास्ते का वही महत्व है जो दिल्ली के दरिया गंज का है. हम लोग याने पूरण सरमा, अरविन्द तिवारी, प्रेम चंद गोस्वामी, मोहनलाल जैन, बाबूलाल अग्रवाल, फारुक अफरीदी, कन्हैया अगनानी, आदि नियमित मिलते थे. साहित्य और छपने की सम्भावनायें ढूंढते रहते थे. कभी-कभी शैतानियाँ भी करते थे. एक लेखक संगठन भी बनाया मगर चला नहीं. एक संस्था भी बनायीं जो जल्दी ही दम तोड़ गयी. किसी अन्य नाम से शिकायतें भी कर देते थे, एक से ज्यादा नाम से लिखने की भी संभावना तलाशी गयी. यह सब चलता रहा. मेरे खिलाफ अकादमी अध्यक्ष को भी भरा गया, मगर मेरा कोई खास नुकसान नहीं हुआ. एक लेखक ने एक महिला की पुस्तक स्ववित्त-पोषित रूप में छपवा दी और बोनस में खुद की एक पुस्तक भी छपवा दी. मगर दोनों की एक भी प्रति नहीं बिकी. एक फाउंडेशन के इनाम की अग्रिम सूचनाएं मिल जाती. इस बार पुरस्कार क को मिलेगा जैसे समाचार चल जाते. नैतिकता और ईमानदारी का पाठ पढाने वाले हम सब कितने नीच और गिरे हुए हैं यह साहित्य ने ही दिखाया, सिखाया, सैकड़ों उदहारण दे सकता हूँ. मगर सर बचाना ज्यादा जरूरी है. एक शाल, अंगोछे, रूमाल, कागज के प्रमाण पात्र के लिए कैसे-कैसे हथ-कंडे हैं हम लोगों के पास? यदि नकद राशि भी है तो देने वाले का मंदिर बना देंगे या दाता चालीसा लिख देंगे, या नकद राशि को निर्णायकों को चढ़ा देंगे. दो पांच लाख का इनाम लेने बाद भी एक अंगोछे व् इक्क्यावन रूपये के इनाम के लिए गिडगिड़ाते हैं, ये कैसे नाखुदा है, मेरे खुदा.
फिर भी अभी भी लेखन जारी है, किताबें छप रही हैं. विदेश हो आया. बस ये कि साहित्य और विज्ञान के समंदर के सामने मैं रेत में खेलता रह गया, तैरना न सीख सका.
यारी और दुशमनी का यह सफ़र निरंतर जारी है - दुश्मनों – यारों.
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यशवंत कोठारी, ८६,लक्ष्मी नगर ब्रहमपुरी, बाहर, जयपुर -३०२००२,मो-९४१४४६१२०७
लेखक परिचय ( ३-५ १९५०) नाथद्वारा में जन्म –चार उपन्यास, १५ व्यंग्य संकलन सहित ४० पुस्तकें, प्रकाशित, राजस्थान साहित्य अकादमी का सहल पुरस्कार व् अन्य कई सम्मान, ३० से ज्यादा शोध प्रबंधों में शामिल. राजभाषा समिति, साहित्य अकादमी के पूर्व सदस्य, अमेरिका के २० विश्व विद्यालयों का भ्रमण राष्ट्रीय आयुर्वेद संसथान से एसोसिएट प्रोफेसर-रसायन विज्ञान, व् मैनेजिंग एडिटर –जर्नल ऑफ़ आयुर्वेद के पद से स्वैच्छिक सेवा निवृत्ति, २०१७ व् २०१८ के लिए पद्मश्री के लिए गृह मंत्रालय द्वारा नामांकित.
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