स्त्री होने का अर्थ // सुशील शर्मा

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मैं स्त्री के ऊपर कई साल से कविता लिखने की कोशिश कर रहा हूं मैं अक्सर पुरुष होने के नाते यह समझने की कोशिश में लगा हूँ कि एक महिला होने का क...

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मैं स्त्री के ऊपर कई साल से कविता लिखने की कोशिश कर रहा हूं मैं अक्सर पुरुष होने के नाते यह समझने की कोशिश में लगा हूँ कि एक महिला होने का क्या मतलब है। लेकिन हर बार जब मैं अपनी कलम उठाता हूं, मुझे डर लगता है कि मैं उन भावों को परिभाषित करने में सक्षम भी हूँ या नहीं या शब्दों में एक ऐसी तस्वीर पेंट कर दूँगा, जो मेरे पुरुष अहंकार को संतुष्ट करती हो ,एक ऐसी तस्वीर जो नरम स्वर ध्वनियों और कमजोर शारीरिक बल सहनशीलता की मिसाल त्याग की प्रतिमूर्ति या जो पुरुष करने में सक्षम नहीं है या जो पुरुष के बूते से बाहर है उन भावों को शब्दों में पिरोकर एक स्त्री का चित्र खींच  दूंगा ,सब लोगों की वाहवाही तो मिलेगी किन्तु लेखन के साथ न्याय नहीं होगा। ।एक स्त्री होने के बारे में लिखना मुश्किल है।" मेरा मानना है कि "स्त्री " शब्द का वास्तव में कोई मतलब नहीं है, क्योंकि यह हमेशा पुरुष  के विरोध में परिभाषित होता है। हमने कभी स्त्री को देह से अलग कर परिभाषित करने की कोशिश नहीं की उसमें हमने कभी मनुष्य नहीं देखा सिर्फ लिंग देखा है और शायद इसी कारण कोई भी स्त्री को सही परिभाषित नहीं कर सका क्योंकि उसकी परिभाषा हमेशा पुरुष के सापेक्ष रही है।  एक पुरुष होने का मतलब है कि आप अपनी स्थिति पर नियंत्रण रखना चाहते हैं, तो एक महिला होने से दूसरे लोगों की उम्मीदों पर निर्भर रहना पड़ता है।

हजारों वर्ष पहले, जब वेदों का बोलबाला था, भारतीय समाज में स्त्री-पुरुष के बीच भेदभाव नहीं बरता जाता था। इसके फलस्वरूप समाज के सभी कार्यकलापों में दोनों की समान भागीदारी होती थी। पुराणों के अनुसार जनक की राजसभा में महापंडित याज्ञवल्क्य और मैत्रेयी नामक विदुषी के बीच अध्यात्म-विषय पर कई दिनों तक चले शास्त्रार्थ का उल्लेख है। याज्ञवल्क्य द्वारा उठाए गए दार्शनिक प्रश्नों का उत्तर देने में विदुषी मैत्रेयी समर्थ हुईं।

मेरे अनुसार एक पुरुष की पहुंच के बाहर की बारीक संवेदनाओं का अनुभव एक स्त्री कर सकती है। पुरुष अपनी बुद्धि से संचालित है जबकि नारी अपनी आंतरिक संवेदनाओं से संचालित होती है। स्त्री रूपी रचना अद्भुत है । यही हर पुरुष की ताकत है , जो उसे प्रोत्साहित करती है। वह सभी को खुश देखकर खुश रहतीँ है। हर परिस्थिति में हंसती रहती है । उसे जो चाहिए वह लड़ कर भी ले सकती है। उसके प्यार में कोई शर्त नहीं है। उसका दिल टूट जाता है जब अपने ही उसे धोखा दे देते हैं ।स्त्री होने का अर्थ है अपने सुन्दर दिल के अनुसार व्यवहार करना  क्योंकि स्त्री का दिल कभी हार नहीं मानता उसमें हर सपने ,हर रिश्ते को अपनाने और संतुष्ट करने की क्षमता होती है। स्त्रियों के सपने उनकी महत्वाकांक्षाएं और सम्बन्ध वास्तविक धरातल से जुड़े होते हैं। इस संसार में स्त्रियों ने वो कठिन  काम किये हैं जो पुरुषों के लिए शारीरिक और मानसिक तौर पर लगभग असंभव हैं। मगर हर परिस्थिति से समझौता करना भी ये जानती है।

विश्व के कई विषयों का वैज्ञानिक विश्लेषण करके समझने में पुरुष समर्थ था। लेकिन उसके लिए पास में ही रहने वाली नारी की बारीक संवेदनाओं को समझना संभव नहीं हुआ। जो चीज अबूझ होती है, उसके प्रति डर पैदा होना स्वाभाविक है। इसी भय के कारण पुरुष ने नारी को अपनी नजर ऊंची करने का भी अधिकार नहीं दिया, उसे दूसरे दर्जे का बनाए रखा। इसमें पुरुष का शारीरिक बल काम आया। फिर अपने बुद्धि-बल से उसने ऐसा कुचक्र रचा जिसके प्रभाव में पडक़र नारी को सदा पुरुष की छत्रछाया में रहना पड़ा। सामाजिक प्रक्रिया हमेशा जरूरत पर आधारित होती है। अलग-अलग लोगों की अलग-अलग जरूरतें होती हैं। इसी आधार पर लोग एक साथ आते हैं और एक समाज बनाते हैं, उसी आधार पर हम समाज के नियम बनाते हैं कि कैसे हम दूसरों के अधिकार क्षेत्र में घुसे बिना अपनी जरूरतों को पूरा कर सकते हैं। तो महिलाओं को अपनी स्त्री-प्रकृति की विशिष्टता को खोने नहीं देना चाहिए। सफल होने की कोशिश में आप पुरुष मत बनिए, क्योंकि पुरुष बुरी तरह से अपने जीवन का अर्थ तलाश रहे हैं। आगे चलकर हो सकता है औरतों का मोहभंग हो जाए, लेकिन कम से कम जीवन के शुरुआती दौर में तो एक महिला कई तरीके से पुरुष के जीवन को एक मायने देती है। यह पुरुष के लिए बेहद महत्वपूर्ण होता है।

आज के समाज में महिलाओं पर दबाव बहुत बड़ा है और स्त्रियां पुरुषों की दृष्टि में अपने को साबित करने के लिए उच्च आकांक्षाओं और प्रतिमान लक्ष्यों तथा  पुरुष के समान दिखने या उनसे ज्यादा श्रेष्ठ मानकों पर खरा उतरने के लिए उनके साथ  प्रतिस्पर्धा के लिए तत्पर हैं उनका यह कार्य प्रशंसनीय है किन्तु इसमें वह स्वयं के अस्तित्व को छोड़ कर पुरुष जैसा बनने या दिखने या काम करने की मानसिकता उन्हें पीछे धकेल रही है ,उन्हें ये सोच अपूर्णता की और ले जा रही है। अनादि काल  से लेकर अभी तक की महिलाओं का इतिहास अगर हम देखें तो सिर्फ वही महिलाएं अपने अस्तित्व को समग्रता पर ले जा पैन हैं जिन्होंने कभी भी पुरुष जैसा बनने की कोशिश नहीं कि बल्कि स्त्री के अस्तित्व के साथ वो अनूठे काम किये हैं जो पुरुष के लिए लगभग असंभव हैं। हम हमेशा स्त्रियों से "सिद्ध करो कि तुम बेटे से बेहतर हो "या पति से बेहतर हो या पुरुष से बेहतर हो "कि अपेक्षा करते है और स्त्रियां इस अपेक्षा पर खरी उतरने की कोशिश में स्वयं के अस्तित्व को भूल जाती हैं। स्त्री या पुरुष का अलग अलग अस्तित्व ही इस जगत का आधार है और कोई भी व्यक्तित्व अपने आप में पूर्ण नहीं होता है। सभी का अपूर्ण होना ज्यादा दिलचस्प है क्योंकि  "परिपूर्ण" व्यक्ति होने के बजाय के स्वयं के अस्तित्व का होना ही सौंदर्य का प्रतीक है।  और स्त्री का सौंदर्य उसके अपने अस्तित्व को पहचानने में हैं न कि पुरुष जैसा बनने में।  

मैं इस मिथक में विश्वास करने से इंकार करता हूं कि सभी महिलाएं एक सामान्य बंधन साझा करती हैं। सच्चाई यह है कि हम सभी एक दूसरे से बहुत अलग हैं। हम प्रत्येक विशेषाधिकार और अलग जीवन अनुभवों के साथ रहते हैं।

सभी महिलाओं को एक ही प्रकार की चीज समझ कर साझा करने के बजाय,हम अगर उसके मादा जननांग को अलग करके देखें तो शायद महिला या स्त्री या औरत को समझने में आसानी होगी । हरेक समाज के पुरुष और स्त्रियों के रहन सहन और जीवन स्तर के कई शोधों से यह निष्कर्ष निकालता है कि महिला को कभी भी लैंगिक आज़ादी नहीं मिली है वह हमेशा से लिंग भेद का शिकार रही है और इसका दोष हम ईश्वर के ऊपर मढ़ने से नहीं चूकते कि स्त्री को तो उसने ही कमजोर बनाया है "दूसरे शब्दों में, अगर हम बात करें तो सामाजिक संदर्भ में  आप कौन हैं, आप कैसे सोचते हैं और आप क्या करते हैं। और इन विचारों, व्यवहारों और संबंधों के साथ  में, हम सभी सामाजिक संदर्भ का हिस्सा बन जाते हैं। इन सब व्यवहारों में हम लिंग भेद करते है। " क्या एक ऐसा समाज हो सकता है जहां पुरुष और महिलाओं के समान स्थान हैं? विडंबना यह है कि हर स्थान पर जैविक शरीर के लिंग के अनुसार से स्त्री और पुरुष के स्थान और व्यवहारों का निर्णय किया जाता है उसमें ईश्वर की समानता के स्त्रियां अपने व्यक्तित्व से इतर इतने सम्बन्ध ओढ़े रहती है कि उनका वास्तविक अस्तित्व स्वयं उनके लिए ही एक अबूझ पहेली बन जाता है वो एक माँ ,बेटी ,पत्नी ,चाची ,भाभी और न जाने कितने संबंधों को इतनी शिद्दत से निभाती हैं कि उसका जो वास्तविक स्वरुप ईश्वर ने उसे दिया है वो कहीं खो जाता है। और इन व्यवहारों के  इर्दगिर्द अपनी सारी जिंदगी झोंक कर एक पतिव्रता ,अच्छी मां ,अच्छी पत्नी और न जाने क्या क्या उपमाएं लेकर और इस संसार से विदा हो जाती हैं। वह कभी अपने को पहचान ही नहीं पाती कि वो कौन है। स्त्रियों द्वारा अपने  अस्तित्व को क्यों नकार दिया जाता है ये मनोविज्ञानियों के लिए शोध का विषय होना चाहिए।

स्त्रियां जीवन में अपने नैतिकता और मूल्यों से जीतीं हैं और ये नैतिक मूल्य ही उनको महानता की और प्रेरित करते हैं यही मूल्य आपको दुनिया में महत्वपूर्ण कुछ करने के लिए उत्साहित करते हैं। बच्चों के रूप में, हमें हमेशा नैतिक व्यक्ति होने के लिए कहा गया था और हमारे मूल्यों को समझने के लिए शिक्षित किया गया है । मुझे लगता है, जब हम बड़े होते हैं हम उन महत्वपूर्ण गुणों को भूलते जाते है उन मूल्यों को जो हमें यह सिखाते हैं कि ईश्वर की बनाई सृष्टि में सब जीवित और अजीवित कृतियों को समानता का अधिकार है।  दुनिया की आधी आबादी महिलाओं की है. उन्हें पूरा सम्मान दिए जाने की जरूरत है. समाज को बार बार इस बात को समझाने की जरूरत है कि महिलाओं की कितनी हिस्सेदारी होनी चाहिए।

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रचनाकार: स्त्री होने का अर्थ // सुशील शर्मा
स्त्री होने का अर्थ // सुशील शर्मा
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रचनाकार
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