दोहे सुशील यादव के....... दीप उधर भी जल रहा ,थका-थका मायूस.....। गन्ना सहित किसान को ,सरकार रही चूस…..।। मंदिर बनना राम का ,तय करते तारीख......
दीप उधर भी जल रहा ,थका-थका मायूस.....। गन्ना सहित किसान को ,सरकार रही चूस…..।। |
मंदिर बनना राम का ,तय करते तारीख.....। चतुरे-ज्ञानी लोग क्यों,जड़ से खायें ईख…..।। |
इस सूरत का आदमी,पायें कभी-कभार.....। बिना-गिने ही नोट को,सौपे गंगा धार…..।। |
गुण को पीछे छोड़ कर ,अवगुन करे बखान.....। राजनीति के छल-कपट, लंपट खुली दुकान…..।। |
मजहब मेरे मुल्क का,ऐसा कुछ हो जाय.....। जब -जब भूखा मैं रहूं,तू खाए पछताय…..।।
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क्यों बेमतलब पीटते ,फटे-फटे से ढोल.....। नाहक छोडो राम को ,केदार बबम बोल…..।। |
दुनिया तो समझी नहीं,नहीं समझते आप.....। मुझे अगर है जानना ,मेरे कद को नाप…..।। |
तेरस के हो तोहफे ,खुशियां मिले अपार.....। विनती करें कुबेर से ,भरा रहे भंडार…..।। |
पहन मुखौटा बैठना ,करना बस आराम.....। आप लगे है छीनने ,तुलसी से सिय-राम…..।। |
गांधी ! मिल घर गोडसे ,पूछते कुशल क्षेम.....। इसे नोट महिमा कहें ,या मानवता प्रेम…..।। |
चौथ-चाँद करवा अभी ,छलनी ओट निहार.....। साजन तुमसे मांगती ,सुख जीवन आधार…..।। |
बन्द किया जो आपने ,ढक्कन वो तो खोल.....। राम- रसायन स्वाद को ,चख लें सब बेमोल…..।। |
रथ चुनाव का है खड़ा ,चलकर तू भी बैठ.....। नखरा भारी आड़ में ,मतदाता की ऐंठ…..।। |
रावण हरदम सोचता,सीढ़ि स्वर्ग दूं तान ...। पर ग्यानी का गिर गया ,गर्व भरा अभिमान…..।। |
सदा लक्ष्य पर छोड़िये,निज भाषा का तीर ....। तब जाकर बदले कहीं,हिंदी की तस्वीर ।।…..।। |
रावण बाहर ये खड़ा ,भीतर बैठा एक.....। किस-किस को अब मारिये, सह-सह के अतिरेक…..।। |
एक शराफत आइना ,ले के बैठा यार.....। दुनिया रही कराहती ,कहो न तुम बीमार…..।। |
लक्ष्य निशाने साधिए ,शीतल वचन समीर..... । हिंदी का होगा भला ,बदलेगी तस्वीर…..।। |
कहीं ढपली की गूंज है , कहीं नगाड़ा थाप.....। फिरतु फगुनाय फिर रहा,कहाँ घूमते आप…..।। |
हममे ये संस्कार हो ,होली हो शालीन.....। किसी ड्राइंग रूम का ,बिगड़े ना कालीन…..।। |
नोटबन्दी हुई वजह , हाथ जरा है तंग.....। वरना हम भी डालते ,अमिट असीमित रंग…..।। |
होली जैसी गालियां ,आम हुआ सब ओर.....। कहो इसे हुड़दंग या ,कहीं चुनावी शोर…..।। |
लिखो समय के भाल पर ,फागुन के सुर गीत.....। हर व्यथा के गाल हो, ख़ुशी अबीर प्रतीत…..।। |
फागुन में क्यों साँवरे ,मन आकुल हो जाय.....। बिना कहे सब जानती ,सखी नेह लिपटाय…..।। |
मन की जैसी धारणा ,वैसा ही उत्साह.....। जलन की चिंगारी लगी ,वो घर हुआ तबाह…..।। |
अपने बस में अब नहीं ,बस में करना आज.....। बिखरा है कुनबा सभी ,टूटा हुआ समाज…..।। |
बूढ़े बरगद ने पढा ,पोथी- ज्ञान किताब.....। एक सड़क की चाह में ,तुमने किया हिसाब…..।। |
कितनी करके नेकियाँ ,दिए कुए में डाल.....। अगर बचा हो आब तो,तू ही जरा निकाल…..।। |
बैरागी मन गा रहा ,विरहा व्याकुल गीत.....। जाने अब किस हाल में,तुम हो मेरे मीत…..।। |
कुछ दिन का तुमसे हुआ ,विरहा,विषम,वियोग.....। तब जाना कहते किसे,जीवन भर का रोग…..।। |
चलना दूभर है कहीं,थके हुए हैं पांव.....। हांडी तेरी काठ की,करे अधमरा गांव…..।। |
तेरा होना इत्र सा ,देता था अहसास.....। तेरे बगैर यूँ लगे,चला गया मधुमास…..।। |
जर्जर कितने हो गए ,मजबूती आधार.....। जो तुमको धोखा लगे,वही हमारा प्यार…..।। |
रावण करता कल्पना ,सोना भरे सुगन्ध ....। पर कोई सत कर्म सा,किया न एक प्रबन्ध…..।। |
कौन छुआ बुलन्द शिखर,कौन हुआ भयभीत.....। समय-समय की बात है ,समय-समय की प्रीत…..।। |
दुविधा में दिखने लगे ,दिव्य जहां प्रकाश.....। समझो मिले उसी जगह , बाबा घासीदास…..।। |
मंदिर- द्वारे छोड़ के ,भटक रहा है राम.....। फिर थोड़े विश्वास का,अलख जगा गुमनाम…..।। |
उम्मीद लगा बैठते ,गुठली के हों दाम.....। सीख गए वे बेचना ,बात-बात में राम…..।। |
नींद भरी थी आँख में ,खुली रही लंगोट.....। कोई तपसी दे गया ,जी भर पीछे चोट…..।। |
इक रावण को मारकर ,करते हो कुहराम..... । भीतर फिर से झांक लो , साबुत कितने राम…..।। |
जनता बहती धार में ,बिखरा टूट जहाज..... लहरें भी करती कहाँ ,कितनी देर लिहाज…..।। |
आप लगा के बैठते ,अति नीरस अनुमान।.....। फिर से लंका जीत ले ,थका हुआ हनुमान।।…..।। |
संकट, विपदा,त्रासदी ,सबका एक निदान.....। भक्तो भगवा ओढ़ के ,खूब लगाओ ध्यान…..।। |
होना -जाना कुछ नहीं ,बस कर अपनी भौक.....। जितना चरना चर लिया ,बिन बघार बिन छौंक…..।। |
आशा का दीपक जला,तम में हुआ अधीर.....। शांत रहो उजला दिखे,हिंदी की तस्वीर…..।। |
बदला चरित्र आपका ,रचते-रचते स्वांग.....। जिधर कुआ-पानी नहीं,उधर घोलते भांग…..।। |
मंदिर धजा उतार के ,पहिने हैं लँगोट.....। प्रभू नाम की जाप के ,पीछे कितने खोट…..।। |
उम्मीदों के दौर में ,तुम भी पालो ख़्वाब.....। कैशलेस हो खोपड़ी,'बाबा छाप'खिजाब…..।। |
हैरान यही देखकर ,बदल न पाए लोग.....। पाखंडी-पापी चढ़े ,छप्पन- छप्पन भोग…..।। |
दीमक बन के खा रही ,दीमागी भूगोल.....। दुनिया कल भी गोल थी ,दुनिया अब भी गोल…..।। |
पंछी बैठे छाँव में,उतरा दिखे गुरूर.....। आसमान ऊंचाइयां,कतरे पँखो दूर…..।। |
थूक-थूक के चाटना, आज यही है रीत.....। सत्ता-कुर्सी चाह की ,घुटन भरी है प्रीत…..।। |
चतुरे कुछ तो लोग हैं ,संयम अपरंपार.....। बिना नोट के खींच लें,मायावी संसार…..।। |
संसद में इस बात पर, है मचा घमासान.....। नोट नाम का काग ही, ले उड़ भागा कान…..।। |
व्यभिचारी मारो वहीँ,अवगुण रहे न शेष.....। हाथ दुशाशन से बचे,रजस्वला के केश…..।। |
बेटे से पद छीनता,कितना बाप कठोर.....। यौवन ययाति सा मिले,बात यही पुरजोर…..।। |
हलके हमको ले रहे,होंगे भारी चीज.....। समय आपका मान लें ,सीखें अदब तमीज…..।। |
माया कलयुग में जहां ,दिखे नोट की छाप.....। सार दौलत बटोर के ,हुए वियोगी आप…..।। |
खंगाल रहे क्यों मिया ,नियम और कानून.....। फतवा एक निकालिये ,सब लो भट्टी भून…..।। |
फिर मेढक को तौलने ,क्यों आये हो आप.....। टाँग आपसी खींचना, बन पंचायत खाप…..।। |
ज्ञान गणित के फेल हैं ,फेल जोड़ औ भाग..... । राजनीति की मिर्च से ,लगती है जो आग…..।। |
फूटे करम बिहार के,आग लगी कंदील.....। किसको सूझे देखना ,पैरों कांटे कील…..।। |
अपने मकसद पास वो,बाकी दुनिया फेल.....। रखता जला मशालची ,खून पसीना तेल…..।। |
सन्नाटे की गूंज है ,केवल हो अहसास ..। बैठ लुटा के आसरा, जीवन के अवकाश ।। |
मिला किसे है आजतक,सच्चा प्यार समूल.....। अब अतीत क्या खोदना ,दब जाने दो भूल…..।। |
राहत जिसे मिला नहीं ,ये वंचित से लोग ....। छप्पन इंची खा गया ,छप्पन-छप्पन भोग .।। |
मन के भीतर मच गया ,सुबह -सुबह कुहराम ....। तन के खातिर नाम पर ,माया मिली न राम ।।…. |
एक अजूबा आज भी ,दिखता है सब ओर ।. असफलता में नाचता ,झूम झूम के मोर ।।… |
छोटे-छोटे दिन हुए ,बड़ी-बड़ी सी रात.....। शीत सुबह के कोहरे ,सिहरन का आघात…..।। |
सोते से अब जागिये ,होने को है देर.....। नफरत के बारूद का ,बिछा हुआ है ढेर…..।। |
खाते छप्पन भोग थे,अब खाने मुहताज.....। ताजमहल की अप्सरा,दफन हुई मुमताज…..।। |
महाकाय सी छवि बनी,दिखता कहीं न काम.....। बातो की बस छूरियां,संकट रहता राम…..।। |
राम-रसायन घोल के ,जी भर करना प्रीत.....। मन आपा मत खोइये ,स्तिथि चाहे विपरीत…..।। |
मजहब का परचम दिखा , खून लगा ये दाग.....। तुम मशाल क्या ढूढते ,लगी हुई जब आग…..।। |
संयम की मिलती नहीं,हमको कहीं जमीन.....। लुटी-लुटी सी आस्था ,है अधमरा यकीन…..।। |
माधों किस मिटटी बने ,तुम हो मेरे यार..... । नेता जड़े दुलत्तियाँ , समझे हो उपकार…..।। |
अगहन के दिन आलसी ,कंपकपाती पूस.....। नेता आकर जीम लो,कंबल वाली घूस…..।। |
चलती चक्की देख कर ,रोया दास कबीर.....। माया छलनी नोट भी ,कहे अपना फकीर…..।। |
कोई भी अब सामने ,नहीं चुनौती शेष.....। लंका पूरी ढह गई ,बचा नहीं लंकेश…..।। |
कौन किया है बोल ना ,पानी तेरा खून.....। मिटा-मिटा जज्बात है ,लुटा-लुटा जूनून…..।। |
आत्मचिंतन सुई पकड़,ज्ञानी डाले सूत.....। तप किस तपसी ने किया ,मल के राख भभूत…..।। |
देख जुलाहा हाथ की , तिरछी-खड़ी लकीर.....। ऊपर ने बुन क्या दिया,उलझी सी तकदीर…..।। |
लोह ताप से भूलता ,अपनी खुद तासीर.....। खुद बिरादरी से पिटे,कभी न बोले पीर…..।। |
नीयत नेक किया करो ,अपने सारे काम.....। बाबा घासीदास का ,इतना ही पैगाम…..।। |
पार लगाने अब कहाँ ,आए घासीदास.....। मन का वही जगा अलख ,जग में भर विश्वास…..।। |
हाथो में चिनगारियां ,फुलझड़ियों के नाम.....। बारूदी बस्ती हुई ,सरहद है बदनाम…..।। |
संभव सा दिखता नहीं,हो जाना आसान.....। शुद्र-पशु,ढोंगी-ढोर में ,व्यापक बटना ज्ञान…..।। |
जनमानस की मैं कहूँ ,कोई कहे न और.....। मुझको चिता खा रही ,मुंह छिने तू कौर…..।। |
सक्षम वही ये लोग हैं,क्षमा मांगते भूल.....। शंका हमको खा रही ,बिसरा सके न मूल…..।। |
साल नया है आ रहा,हो न विषम विकराल.....। संयम उर्वर खेत में, बीज-व्यथा मत डाल…..।। |
की थी हमने नेकियां,नोट कुएं में डाल.....। उस नेकी की फाइलें ,पुलिस रही खंगाल…..।। |
सदमे में है आदमी ,सहमे-सहमे लोग.....। कोई भूखा है कहीं ,हाथों छप्पन भोग…..।। |
अच्छे-अच्छे दिन गए ,संग चने के भाड़.....। बिन बरसे तुम भी चलो ,सावन और अषाढ़…..।। |
हम विकास क्या देखते ,असफल रहे उपाय.....। झाँक सके वो आकड़े,पब्लिक दिया बताय…..।। |
मंजिल तेरी पास है ,ताके क्यूँ है दूर.....। चुपड़ी की चाहत अगर , ज्ञान जला तंदूर…..।। |
जिससे भी जैसे बने ,ले झोली भर ज्ञान.....। चार दिवस सब पाहुने ,सुख के चार पुराण…..।। |
तीरथ करके लौट आ,देख ले चार धाम.....। मन भीतर क्या झांकता ,उधर मचा कुहराम…..।। |
मिल जाये जो राह में, साधू -संत -फकीर.....। चरण धूलि माथे लगा ,चन्दन-ज्ञान-अबीर…..।। |
आस्था के अंगद अड़े ,बातों में दे जोर.....। तब -तब हिले पांव-नियम ,नीव जहाँ कमजोर…..।। |
कारावास मिला उसे,कर देगा उद्धार.....। जली-कटी सी रोटियां,होगी फाइव-स्टार…..।। |
कब-कब,किस-किस नाम से,होता रहे बवाल.....। एक निशानी प्यार की ,रखो जरा सम्हाल…..।। |
चल विकास की बात कर, तुझको रोके कौन.....। नहीं खोलते मुँह कभी ,रहते हरदम मौन…..।। |
खाने को मुहताज वे ,परसे छप्पन भोग.....। शंका उनको खा रही ,थे जो भूखे लोग…..।। |
शासक ही बहरा हुआ,बेमतलब उल्लेख.....। सोया है प्रहरी जहां,दुर्घटनाएं देख…..|। |
दंगल दिखा कमा गए ,भारी भरकम नोट.....। प्रभु हमारे दिमाग वो ,फिट कर दो लँगोट…..।। |
हमको कौन हिला गया ,चुप बैठे थे मौन ।..... मन बबूल से छिल गया,अर्थहीन सागौन ।। |
पुरखो की आशीष में,सुख के खुलते द्वार .....। कल तर्पण याचक अभी ,डाल सही संस्कार ।।… |
अवसर तुमको है मिला ,पितर करो सम्मान ।. दुविधाओं के द्वंद से ,निकलो भी यजमान ।। |
जिनकी संगति में पले , वैतरणी के पास । फुर्सत का तर्पण मिले, यही अधूरी आस।।… |
फूटे करम बिहार के,साथ नहीं कंदील.....। जो अन्धेरा देख ले ,पैरों कांटे कील…..।। |
दुनिया तो समझी नहीं,नहीं समझते आप.....। मुझे अगर है जानना ,मेरे कद को नाप…..।। |
मन इतना उजला नहीं ,जितनी रही कमीज.....। देख समझ के बोलना ,सीखो कहीं तमीज…..।। |
इत्र-फरोश बने सभी , आदम बदबूदार.....। नेताओं के रूप में ,निभा रहे किरदार…..।। |
बाग़ हरे अब हों भले ,मन मुरझाया फूल । वादा टहनी टूटती ,काँटों सहित बबूल।। |
अंगद के जैसा जमे,उखड़े ना ये पाँव.....। सौ बार लुटे गजनवी ,उजड़े ना ये गाँव…..।। |
बच्चा तडफा भूख से ,मातायें बेहाल.....। साफ सियासत की नहीं,घटिया होवे चाल…..।। |
कांटो का मौसम कहीं,आज हुआ अनुकूल.....। हाथ बचा के तोड़ ले,देख गुलाबी फूल…..।। |
नाहक रोना-पीटना,नासमझी फरियाद.....। तेरे पीछे घूम कर ,हुआ समय बर्बाद…..।। |
संयम की हर धारणा ,हो जाती निर्मूल.....। कांटा ही उपजे वहां ,बोया जहाँ बबूल…..।। |
माथे किसने लिख दिया ,स्याही अमिट कलंक.....। राजा कभी न बन सका ,मन से रहता रंक…..।। |
जागी उसकी अस्मिता,उठा आदमी आम.....। कीमत-उछले दौर में ,बढ़ा हुआ है दाम…..।। |
सब बत्तीसी झड़ गई ,अकड़ गई है भाग.....। खुले बदन इस पूस में,कैसे आवे आग…..।। |
नोट बन्दी नियम तहत,लाया चार हजार.....। दो दारु की भेट चढ़ा,गया दो जुआ हार…..।। |
हैं खूनी छीटे पड़े ,पत्थर महज जनाब.....। रहे सलामत देख लो,कुर्सी सहित खिताब…..।। |
सत्तर बीते साल तब ,आया हमको होश..... । कैसे मूक बधिर रहे ,बैठे थे खामोश…..।। |
खोया क्या हमने यहाँ ,पाया सब भरपूर.....। जाने क्यों तब भी कहे ,दिल्ली है अति दूर…..।। |
अपनी दूकान खोल के,कर दे सबकी बन्द.....। राजनीति के पैंतरे ,स्वाद भरे मकरन्द…..।। |
किसकी नीयत कब कहें ,आना है भूचाल.....। लोभी- लंपट दुष्ट को ,कलयुग स्वर्णिम काल…..।। |
हम भी नहा-निचोड़ के ,बैठे हुए शरीर.....। दिमाग लेकिन देखता , अधनंगी तस्वीर…..।। |
एक शराफत आइना , समझ दिखा यार.....। चल- फिर सके मरीज या,बेसुध-बीमार…..।। |
कॉलर नही कमीज में,पेंट नही जेब.....। नँगा होने तक रचो,नया नित फरेब…..।। |
तुलसी घिस चन्दन तिलक,निर्णय रघुबीर.....। राम -राज दिन वो फिरें ,बिना नोक तीर…..।। |
जिस भाषा जो बोलता ,करो तुम दहाड़.....। हिम्मत से अब काम लो ,ताकते जुगाड़…..।। |
निर्णय को अब बाँट दो,जहाँ दिखे अतिरेक.....। बीच अधीर धीरज तुम ,चुनना कोई एक…..।। |
मंदिर बनना राम का ,आये याद चुनाव.....। बस तत्परता से भरें ,हर माहौल तनाव…..।। |
डर से कोई छुप गया ,लेकर हाथ गुलाल.....। मैं भी सम्मुख क्यों रखूं ,निर्मोही के गाल…..।। |
पता नहीं ये रास्ता ,किधर -किधर को जाय.....। कोई कहे विकास पथ ,संसद कभी पठाय…..।। |
चाँद सतह पर हो गया ,बूढा मातादीन.....। बोतल दारु सब खतम,हाथो भी नमकीन…..।। |
बरय दिवाली के दिया,नइये कछु अंजोर.....। करिया-करिया कस दिखे,टिकली-विकली तोर…..।। |
सुलगे-रमचे गोरसी,ओधा करे कपाट.....। बेचे माल बनारसी ,बिना तराजू बाट…..।। |
विपदा कभी छुई नहीं,घिरे कभी न क्लेश.....। दूर हुए यशवंत तुम ,यादें हैं अब शेष…..।। |
जब हो जाए रोकना ,मुश्किल से आवेग.....। साधू -सन्तों का हुआ ,विचलित मन उद्वेग…..।। |
पाये प्रभु हम आपसे ,कितने भी दुत्कार.....। हम आखिर में जानते,होना है उपकार…..।। |
लेकर मन की आस्था ,चढ़ा रहे हैं फूल.....। सदा यहीं माथा लगे ,मिटटी-चन्दन धूल…..।। |
मन के भीतर बोलता ,साधु !साधु सा बोल.....। पर बाहर आ पीटता ,अहंकार के ढोल…..।। |
बिना फसल डारन कती ,खातु करम के खाद.....। पांच बछर धर घुमत हन,आवेदन फरियाद…..।। |
कहीं तकाजे उम्र के ,कुछ नादानी भूल.....। मेरे अपने तोड़ते ,मेरे बने उसूल…..।। |
गोदान नहीं तो नहीं,वैतरणी हो पार.....। कुछ पुराण से सीख ले,बहुत हुआ व्यापार…..।। |
जिसे चला तू काटने ,वे तेरे ही लोग.....। करा इलाज हकीम से,बरसो का ये रोग…..।। |
प्रतिपल मेरे नाम का ,जपता माला कौन.....। मार-काट हिंसा सदा ,वो ही रहता मौन…..।। |
मकसद कब पूरा हुआ ,रहे अधूरे काम.....। सुख की मिलती छाँव तो,लेता मन विश्राम…..।। |
फिरे कैदियों दिन यहां,गया रामअवतार.....। बाहर करना रह गया ,भीतर का उपचार…..।। |
खिसक गई है आज क्यों,पैरों तले जमीन। हर करतूत मियाद पर,पाती सजा यकीन ।। |
जाने कैसे लोग ये ,होते रहे शिकार।. बौने से कद में दिखा ,प्रभु जैसा अवतार।। |
सौदा-सच्चा मत कहो ,घाटे का व्यापार.....। बाबाओं के फेर में ,अस्मत लुटे बजार…..।। |
आतंक तहों झांकिए,बाबा छाप त्रिशूल। भगआ-खाकी आड़ ले,सुविधा में मशगूल।। |
मेरा बस चलता नहीं,इनकम करता खोज.....। दावत इनको दें तभी ,जब हो मृत्यु भोज…..।। |
जन-सेवा की बात पर,बना बैठा सरताज। वैभव सारा रह गया ,गिरी काल की गाज।। |
सावधान रहिये सदा ,जब हों साधन हीन.....। कानून-नियम नीच का,रखना कठिन विधान।।…..।। |
सुलग रही है बस्तियां,शहर मचा कुहराम।. छूरी वाले हाथ हैं ,बगल दबे हैं राम…..।। |
अफवाहों के पैर में ,चुभी हुई जो कील.....। व्याकुल वही निकालने ,बैठ गया सुशील…..।। |
अफवाहें मत यूँ उड़े ,मन हो लहू-लुहान.....। मंदिर सूना भजन बिन,मस्जिद बिना अजान…..।। |
मेरे घर में छा गया, मेरा ही आतंक.....। राजा से कब हो गया ,धीरे-धीरे रंक…..।। |
हाथ लगी जब चाबियां ,निकले नीयत खोर.....। बन के भेदी जा घुसे ,लंका चारों ओर…..।। |
समय यही माकूल है ,रह लो उस पासंग.....। सोच समझ के तौलता ,भाई है बजरंग…..।। |
रहते हाँ सोए सभी,जनमत हरदम लोग.....। कौन जगाने आ सका,पाँच साल का रोग…..।। |
जिस पर तुझे गुमान था,है बीमार हकीम.....। जड़ी बूटियाँ या दवा ,समझे कौन सलीम…..।। |
भूली बिसरी याद कुछ,कोई छेड़ प्रसंग.....। भटका लोक जहान से,माया-मदिरा संग…..।। |
मेरे भीतर मर गया ,पढा-लिखा इंसान ।. उस दिन से नेता सभी ,बाँट रहे हैं ज्ञान ।।…..।। |
सहमा सोया आदमी,बहुत सहा अपमान ।. लेकिन फिर भी कह रहा,भारत यही महान ।। |
पास कभी तो था नहीं,कौड़ी और छिदाम । आज उसी की कोठियां,भरे-भरे गोदाम ।। |
ऐनक टूटा आँख का,कब सुन पाया कान । तेरा बन्दर बाप जी ,है चतुर बदजुबान ।। |
सुलगाते ही सोचते ,धूप- अगर-लोभान.....। मंदिर बज ले घण्टियाँ ,मस्जिद होय अजान…..।। |
निकला जगत खरीदने,कौड़ी हाथ छदाम.....। इस माया संसार का,किसके पास लगाम…..।। |
लिख-लिख के पाता गया,ढेरों ढेर खिताब.....। फुरसत में बुनता रहा ,एक जुलाहा ख़्वाब…..।। |
हिंसा औ प्रतिशोध का,व्यापक सह व्यापार.....। जिसके पास लगाम है ,करता अत्याचार…..।। |
काँटा राह चुभे नहीं,कारज कठिन दुश्वार.....। तेरा अडिग सुहाग हो ,अमर रहे बस प्यार…..।। |
पुरखों के तारक बने,प्रेम सजग व्यवहार.....। इस जीवन में आपको,मिले खुशी भंडार…..।। |
अनुरागों से कर सको,जिस कीमत अनुबन्ध.....। नफरत के माहौल में ,ढूंढो प्रेम सुगंध…..।। |
जलते जलते बच गया ,आहत अमन सुहाग.....। मन की बस्ती में लगी ,नफरत की फिर आग…..।। |
प्रजातन्त्र की रीढ़ को ,मिले कहाँ आराम ....। विधायक जहाँ हो रहे ,सरे आम नीलाम…..।। |
एक नुमाइश वोट की,जीती बाजी हार.....। बदला मन में चोट का ,रखना सदा उधार…..।। |
वोट दिखाकर आदमी,हो जाता मशहूर.....। भरोसा मगर आपसी ,होता चकनाचूर…..।। |
लूटा जैसे गजनवी ,गया खजाना हाथ.....। पीट-पीट के रह गए ,अपने-अपने माथ…..।। |
सब का मालिक एक है,क्या गुजरात बिहार । चारो-खाने चित हुई ,जनता की सरकार ।। |
देख समझ के बोलिये ,नाविक-खेवनहार। पास हमारे वोट हैं,करते तुम तकरार।। |
मन में अदभुत शांति का ,आवे कभी विचार । दौरा कर गुजरात का ,विधायक ले उधार ।। |
किस किस को अब है यहाँ,मुश्किल वाला दौर.....। कल की बातें और थी ,अब की है कुछ और…..।। |
सीढि स्वर्ग पहुचा सके ,किया रावण विचार.....। आड़ मगर आता गया ,खुद का ही व्यभिचार…..।। |
मन ने मन से बात की ,खुला रहा इतिहास.....। कुछ गौरव की बात थी ,दिया किसी ने त्रास…..।। |
कौन -कौन आ बैठते,माया रूप जहाज.....। ना कुनबे की छाँव ना,नियमो भरा समाज…..।। |
बैठी हूँ मैं छोड़ के,सभी नियम-संकोच.....। जिस दिन से दरिंदा मुझे ,राहों लिया दबोच…..।। |
हम बच्चो को दे रहे ,कैसी ये तालीम.....। मौजूदा माहौल से, नफरत करे सलीम…..।। |
गिनती की हैं रोटियां,मतलब के रखवाल.....। जनता अपने खून में,पाती नहीं उबाल…..।। |
आओ मिल कर बाँट लें ,वहमों का भूगोल.....। अगर कसैला स्वाद है ,चीनी ज्यादा घोल…..।। |
संकट, विपदा,त्रासदी ,सबकी एक ही जात.....। जब ये आवें साथ में ,जगत हुआ बौरात…..।। |
अपने मकसद डालता,देख परख के घास.....। जो कल उनके आम थे ,आज वही है ख़ास…..।। |
इक रावण बाहर खड़ा ,भीतर बैठा एक.....। किस किस को तुम मारते ,सह-सह के अतिरेक…..।। |
किसकी है सरकार जी , कौन लूटता देश.....। कल की आहात द्रोपदी ,बाँध चुकी है केश…..।। |
ओढ़ पहन के बैठिये,नैतिकता की खाल.....। जनता केवल है खड़ी,चौराहे बे-हाल…..।। |
आओ चल कर ढूढ ले ,गुमा हुआ संस्कार.....। तेरे -आगे मैं झुकूं ,मेरे पालनहार…..।। |
भाई -चारा छीनता,चारे की सब देन.....। मर्यादा की खींच दी ,जनता ने फिर लेन…..।। |
रहने हो हर बात को ,सदा आपसी-बीच.....। पाप घड़ा जिस दिन भरे,दोनों हाथ उलीच…..।। |
पानी-पानी सब तरफ ,चित्र खींच लो आप.....। विपदा के माहौल में ,चारो ओर विलाप…..।। |
महुआ खिला पड़ौस में,मादक हुआ पलाश.....। लेकर मन पछता रहा ,यौवन में सन्यास…..।। |
संकट में हो निकटता, दुःख में रखना नेह.....। ख़ुशी ख़ुशी मैं त्याग दूँ,माटी माफिक देह…..।। |
काशी मथुरा घूम के ,घूम देहरादून.....। देख बिहार यही लगे ,अदभुत है कानून…..।। |
होना -जाना कुछ नहीं ,बस कर अपनी भौक...। मन माफिक तो चर लिया ,बिन बघार बिन छौंक…..।। |
किस माथे टीका लगा,किसको लगा कलंक.....। कौन बना राजा उधर ,कौन यहां पे रंक…..।। |
चुनती है जनता जिसे,देकर भारी वोट.....। हैरत देके खैरियत,पूछे कभी न चोट…..।। |
रहने दो हर बात को ,निजी आपसी तौर.....। कुछ खाने के दांत हैं ,दिखलाने के और…..।। |
जिसको चाहत से चुना,देकर भारी वोट.....। उस जनता की खैरियत,पूछे कभी न चोट…..।। |
छाँव पलक मैं पालती,रखती तुझे सहेज.....। भाई निर्मल नेह को, धूप न लगती तेज…..।। |
ले चुनाव-रथ घूमते ,देने को सौगात.....। निकले कैसे बाढ़ में ,थमने दो बरसात…..।। |
सोने की हो बालियां , चाह न मोती हार.....। साजन तेरा बाह ही ,जीवन का उपहार…..।। |
बंधन समझ न राखिया ,बहन रही जो भेज.....। पाकर भाई धन्य हूँ ,उत्तम दान-दहेज…..।। |
इस कमरे में बन्द है ,बरसो का इतिहास.....। आकर तुम भी खोल लो ,मजहब बातें ख़ास…..।। |
अंतस डाका डालकर ,चलता दिखा बसंत.....। यादों के पत्ते झरे ,जिसका आदि न अंत…..।। |
भीतर मन की राख में ,ढूंढ जरा सी आग.....। सारी दुनिया गा रही ,तू भी गा ले फाग…..।। |
ढपली गूंज कहीं- कहीं, कहीं नगाड़ा थाप.....। फगुनाय फिरतु फिर रहा ,कहाँ घुमाते आप…..।। |
भूख गरीबी झेलती . जनता है बेहाल.....। अपना सिक्का ढालने,बिठा रही टकसाल…..।। |
उपलब्धी के नाम जब ,हो जाए अभिमान.....। दूर इलाके जा कहीं,चिंतन तम्बू तान…..।। |
इतने सीधे लोग भी ,बनते हैं लाचार.....। कुंठा मजहब पालते ,कुत्सित रखें विचार…..।। |
दिन में गिनते तारे हम ,आँखों कटती रात.....। लक्षण जवानी के नहीं ,सठियाने की बात…..।। |
सरहद रखवाली लगे ,अपने वीर जवान.....। उनके हक में त्याग दें ,खर्चीले अरमान…..।। |
जिस दिन से बन्दी हुआ,साधू लिपटा भेष.....। इस धरती पर ज्ञात है,अवगुण रहे न शेष…..।। |
आखिर में बन्दी हुआ ,साधू लिपटा भेष.....। अत्याचारी ज्ञात हो ,अवगुण रहे न शेष…..।। |
पत्थर दिल पिघले कभी ,कर लेना संवाद.....। बन्द नहीं होता कहीं ,साँसों का अनुवाद…..।। |
संग तुम्हारा छोड़ के,कहीं न जाती नाथ.....। गठबन्धन निभती रहे ,राजनीति के साथ…..।। |
भरसक अपना है अभी,इतना महज प्रयास.....। रूठी जनता से मिले ,वोट हमी को ख़ास…..।। |
कल थे वे जो रूबरू ,जन सेवक बन बीच.....। आज अपनी नीयत से,बन बैठे हैं नीच…..।। |
रेखा कभी कहाँ खिंची,परंपरा के खेल.....। हरदम जला मशालची,देखत तेली तेल…..।। |
मुन्नी बनकर आज जो ,गली-गली बदनाम.....। टूटा पत्ता डाल का ,कल आवे किस काम…..।। |
चलता रहा चुनाव में,भेट-व्यवहार दाम.....। आज अचानक रोक के,खीचन लगे लगाम…..।। |
आज आदरणीय परम,रूठ गए हैं आप.....। लायक सपूत से कभी ,रूठा करता बाप बाप…..।। |
आहत मन से देखते ,कुछ अनबन कुछ मेल.....। सायकल की मान घटी ,पटरी उत्तरी रेल…..।। |
बेटा करता बाप से ,इतनी फकत गुहार.....। दिलवा दो अब सायकिल ,पंचर दियो सुधार…..।। |
लिखने वाले लिख रहे ,तरह तरह आलेख.....। सबके अपने मन-गणित,अलग-अलग उल्लेख…..।। |
विकसित होते राज में,है विकास की गूंज.....। एक दूजे टांग पकड़,तंदूरी में भूंज…..।। |
कितनी है संभावना ,फैला देखो पाँव.....। सीमित होती आय की,चादर जिधर बिछाव…..।। |
हरि को भज या,हाथ मल ,हो आ चारो धाम.....। बिना नोट के साल भर ,घोडा बिना लगाम…..।। |
पन्ने बिखरे अतीत के ,सिमटा देखा नाम.....। बैठी रहती तू सहज ,पलक काठ गोदाम…..।। |
हमको तुमसा आदमी,मिलता कभी-कभार.....। बिना जान पहिचान के ,देता नोट उधार…..।। |
शक्कर मिले न नोट बिन,जानो गुड़ का स्वाद.....| बिना हवन बटने लगा , सरकारी परसाद…..।। |
जिसको हम समझा किये ,मन के बहुत करीब.....। आखिर मे बन वो गया ,आडे प्यार रकीब…..।। |
मन भौरा मंडरा रहा ,तुझे समझ के फूल.....। यही अक्ल की खामियां ,बचपन मानो भूल…..।। |
मन भी कुछ बौरा गया ,देख आम मे बौर..... । बिन तुझसे मिल भेंट के ,हलक न उतरे कौर…..।। |
नोट-शहद क्या चांटना,चिल्हर गुड़ का स्वाद.....। बैंकों से बटने लगा, सरकारी परसाद…..।। |
कर्तव्य न जाने तनिक ,जो मागे अधिकार.....। रुइया कानो डाल के, बैठी है सरकार…..।। |
हरि को भज या हाथ मल ,हो आ चारो धाम.....। बिना नोट के साल भर ,घोडा बिना लगाम…..।। |
बन मे सूखी लकडियाँ ,घर मे सुलगे देह.....। धुंआ- धुआ होता रहे ,मन उपजा संदेह…..।। |
मौन जुलाहा कह गया ,ले धागा औ सूत.....। ताने से तन ढांक ले ,बाने से मन भूत…..।। |
साई कभी करो जतन ,दे दो राख भभूत.....। पीढी को जो तार दे ,अकेला हो सपूत…..।। |
लकड़ी मे जस घुन लगे ,लोहे मे तस जंग.....। यश -अपयश सब साथ है ,भले-बुरे के संग…..।। |
तू भी बन के देख ले ,पंडित ,पीर फकीर.....। राम -रहीम दुआर मे ,कौन गरीब -अमीर…..।। |
नफरत के इस कुम्भ मे ,खोज प्रेम लेवाल.....। जिसके भीतर 'मै' घुसा ,उतरे तो वह खाल…..।। |
गली-गली मे जीत का ,सिक्का तभी उछाल.....। हो खजांची बाप अगर ,घर मे हो टकसाल…..।। |
मत माथा अब पीट तू,कर मत तनिक मलाल.....। उपर वाला देख रहा,छप्पर है किस हाल…..।। |
अंग-अंग है टूटता,छलनी हुआ शरीर.....। कब छोड़ोग बोलना,अपना है कश्मीर…..।। |
जिस झंडे की साख हो,अहम सितारा-चाँद.....। आखिर वही झुका-झुका ,शरीफजादा मांद…..।। |
परिचय अपना जान लो ,पाकिस्तानी लोग.....। बीमारी उपचार भी ,जान-लेवा हम रोग…..।। |
सठियाये हो पाक जी ,बोलो करें इलाज.....। आतंक की गोद उतर ,चल घुटने बल आज…..।। |
बेहद सुशील बोलता ,सीमा-सरहद छोड़.....। मन भीतर कइ घाटियाँ ,जगह-जगह हैं मोड़…..।। |
सत्तर बरस ओढ़-पहिन ,चिथरागे जी कोट.....। प्रभू नाम तो जापते ,मन में कतको खोट…..।। |
साल-नवा, उतरे मुडी, बइठे हवस सियान.....। कांदी-बदरा तै लुअस,बइहा ले गे धान…..।। |
खेत ज्ञान रोपा लगा ,लूबे अब्बड़ धान.....। राचर ब्यारा ज्ञान के ,लगाय रखव मितान…..।। |
तोर भरोसा जागही ,हमर देश के शान.....। खोच बीड़ी अधजरहा,किंजरय मगन किसान…..।। |
समझ हमे चट्टान सा ,नजर लिए हो फेर.....। प्रेम बरसाय देख लो ,हम माटी के ढेर…..।। |
मौन पीठ में लादकर ,चलता है ये कौन.....। जंगल सारा जल गया,बचा-खुचा सागौन…..।। |
लौटेगा कब मालया ,गर्म रखो तन्दूर.....। मारो डंडे पाँव में , उतरे सभी गुरूर…..।। |
मेरे माथे जड गया ,मुझसे जुडा सवाल.....। Sले हाथों में उस्तरा ,बजा गया वो गाल…..।। |
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