वर्षांत की कविताएँ

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सुशील शर्मा विदा वर्ष 2017   साल 2017 तुम उतर गए खूंटी से पर मुझे दे गए बहुत कुछ। बहुत प्यारी यादें। बहुत प्यारे अपने छोटों का स्ने...

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सुशील शर्मा


विदा वर्ष 2017
 

साल 2017
तुम उतर गए खूंटी से
पर मुझे दे गए बहुत कुछ।
बहुत प्यारी यादें।
बहुत प्यारे अपने
छोटों का स्नेह
बड़ों का आशीर्वाद।
शिक्षा में अध्यापन
साहित्य में सृजन।
समाज में अपनापन।
तुम्हारी ये विरासत
संभाल कर रखूँगा
और सौंप दूंगा
आनेवाले कल को।
विदा जाओ हे साल
तुम हमेशा रहोगे
मेरे स्मृति पटल पर अंकित
शुभ्र चाँद की तरह।
----.
निश्चल छंद
23  मात्रा
16 ,7 पर यति
चरणान्त में गुरु लघु
क्रमागत दो चरण तुकांत

सपनों की दुनिया में चाहत ,तेरे संग।
जीवन का सबक अधूरा है ,दर्द मलंग।
बनते बिगड़ते हालात में ,मन के रंग।
ग़मों के दौर में खुशियां ,कटी पतंग।

मदन छंद
24 मात्राएँ
14 ,10 पर यति
चरणान्त में गुरु लघु
क्रमागत दो चरण तुकांत

मौत ने जिंदगी को फिर  ,किया कितना प्यार।
मौत के प्रति दिखा प्रतिपल ,प्राण का आभार।
निर्मम बना है काल चक्र ,कम्पित भूमण्डल।
हर क्षण लगता आतंकित ,मरता कुछ हरपल।

----.
शब्दों को कुछ कहने दो


शब्द का अहसास
चीख कर चुप होता है ।
उछलता है मचलता है और
फिर दिल के दालानों में
पसर कर बैठ जाता है।
भावों की उफनती नदी
जब मेरे अस्तित्व से होकर गुजरती है।
तो शब्दों की परछाइयां
तुम्हारी शक्ल सी
बहती है उस बाढ़ में।
ओस से गिरते हमारे अहसास
शब्दों की धूप में सूख जाते हैं।
चीखती चांदनी क्यों ढूंढती है शब्दों को।
सूरज सबेरे ही शब्दों की धूप से
  कविता बुनता है।
वेदना के अखबार में
कल शब्दों के बाजार लगेंगे।
तुम भी कुछ खरीद लेना उन
  शब्दों की मंडी से जहां विभिन्न
नाप और पैमाने के शब्द बिकते हैं।
और फिर लिखना उन उथले
  औने पौने शब्दों में अपनी
चुराई अभिव्यक्ति।
बाजार के शब्दों में तुम नहीं लिख सकते
कि तुम उसे कितना चाहते हो।
न ही लिख सकते हो
कि आज सूरज क्यों उदास है।
न ही लिख सकते हो उस भूख
  की भाषा जो उस बच्चे के पेट
  के कोने से उपजी है जो कचरे के डिब्बे में
माँ की रोटी ढूंढता है।
अगर तुम्हारे अंतर्मन से
शब्द उभरें तो लिखना कि
मैं अकेली और तुम तनहा से
  तारों में कहीं अब दूर बैठे है।
लिखना कि मैं तारों में तुम्हें खोज लेती हूँ।
और चांद को बीच में रख कर
  हम दोनों प्रेम करते है।
शब्द अगर तुम्हें मिलें तो
उन्हें बगैर ठोके पीटे एक
  कविता लिखना जिसमें
मन के भाव,अर्थ की सार्थकता
और कविता होने की आस हो।
शब्द अगर तुम्हें किसी समंदर
  या नदी के किनारे डले मिलें
तो उन्हें करीने से उठाना
प्यार से सहला कर अपने
मन के भावों से मिलने छोड़ देना।
तुमसे गुजारिश है प्यार भरी
  शब्दों में तुकबंदी मत ढूंढो
तुकबंदी में सत्य सदा तुतलाता रहता है।
मन की वेदना की चीखें तुम्हारे
तोतले शब्दों से परिभाषित नहीं होंगी।
तुम्हारे शब्दों के सांचे
उन चीखों को निस्तेज बना देंगे।
सोचना तुकबंदी में तुतलाते शब्द
तर्क तथ्य और सत्य से कितने दूर खड़े हैं।
कुछ रहने दो कुछ बहने दो
शब्दों को भी कुछ कहने दो।
-----.
वो काली रात

उस काली रात में
हवा में उड़ता जहर
अंधाधुंध भागते पैर
कटे वृक्ष की तरह
गिरते लोग
भीषण ठंड में
सांसों में अंदर
घुलता जहर
हर कोई नीलकंठ
तो नहीं हो सकता
जो निगल ले
उस हलाहल को
  रोते बिलखते बच्चे
श्मशान बनती
भोपाल की सड़कें
बिखरे शव
और लहराता
एंडरसन
किसी प्रेत की तरह
अट्ठहास लगाता
उड़ गया
हमारे खुद के
पिशाचों की मदद से
पीछे छोड़ गया
कई हज़ार लाशें
आर्तनाद,चीखें
अंधे,बहरे
चमड़ी उधड़े चेहरे
लाखों मासूमों को
जो आज भी
भुगत रहे हैं
उन क्षणों को
जब एक जहर
उतरा था
भोपाल की सड़कों पर।
----.
हाइकु-112

नदी पर हाइकु

हजार दुख
सहती है नदियां
बहती रहीं।

सूखती नदी
करती हैं सवाल
मुझे क्यों मारा।

घटती रेत
मरती हुई नदी
बनी है सोख्ता।

एक थी नदी
आने वाली पीढ़ियां
सुने कहानी।

बचा लो नदी
वरना न बचेगी
आगे की सदी।

कटता पेड़
लगता है अपना
कोई मरा है।

सजा है मंच
पर्यावरण पर
कित्ते भाषण।

विकास पथ
नदी बनी मैदान
कालोनी कटी।

मेरा शहर
हाथ लिए आरी
छांव तलाशे।

एक चिड़िया
पेड़ के ठूंठ पर
नीड़ में बैठी।

हाइकु-113
संविधान

देश की आन
हमारा संविधान
ग्रंथ महान।

ये संविधान
गीता और कुरान
भाग्य विधान।

सिद्ध संकल्प
अदभुत प्रकल्प
नही विकल्प

भारतीयता
जीवन की शुचिता
है राष्ट्रीयता।

हमारा देश
संप्रभु गणराज्य
  है अविभाज्य।

राष्ट्रीय ध्वज
लहराता तिरंगा
रंग बिरंगा।


  हाइकु-114
प्रेम


प्रेम की स्याही
दिल का कागज
तेरा ही नाम।

मन की माला
खिसकते मनके
तेरा ही जाप।

ध्यान में तुम
मुस्कातीं लहरातीं।
बैचेन हम।

बाहर नहीं
भीतर हृदय में।
बैठें है हम।

मान भी जाओ
अब तो हां कह दो।
यूं न सताओ।

सच है बात
तुम बिन साजन
कटे न रात।

सांझ सबेरे
मुखरित चेहरे
स्वप्न घनेरे।

बुंदेली हाइकु-115
सुशील शर्मा

कायरे जाड़ो
काय मो फाड़ रयो
ठुठरा रयो।

डर को भूत
मन मे घुसो जैसे
हवा को जाड़ो।

रात को रुआं
भुनसरे को जाड़ो
परो है आड़ो।

खेत पूछ के
खिरेना है जात है
उल्टो खात है।

मन को सुआ
जपे तोहे मनमे।
मिलहो कब।

हाइकु-116


वक्त की घड़ी
अब भी धड़कती
सीधी सी खड़ी।

रात है लंबी
सर्द बेजा सबेरा
चीखते पल।

दिन का माथा
कोहरे का लबादा
ओस खामोश।

बहती नदी
किनारे पर बैठा
सोचता तुम्हें।

तुम्हारा मन
चिड़िया सा चहका
मैं क्यों बहका।

तुम्हारे लिए
रेत पर उकेरे
मन के भाव।

हाइकु-117

श्रम का स्वेद
माथे पर झलके
ओस मानिंद।

शब्द आकृति
अंतर्मन के भाव
बनी कविता।

दिल के साफ
बेशुमार धोखे में
फंसोगे आप।

जीवन खेत
लहलहाता प्रेम
रिश्तों का पानी

जीवन खेत
लहलहाते रिश्ते
स्नेह का पानी

राम मंदिर
राममय मंदिर
तेरे अंदर।

Buds are ope
My heart beats for you
You know not


कलियां खिलीं
मेरा दिल धड़का
तुम्हें है पता?


  हाइकु-118
रिश्ते


चंद है रिश्ते
उम्र भर की पूंजी
आपका रिश्ता।

दर्द के कांटे
रिश्तों से ऊग कर
मन में चुभें।


दिल के रिश्ते
चाहते है खुशियां
लेना न जानें।

रिश्तों से बंधी
कही अनकही सी
ये जिंदगानी।

नेह तलाशें
स्वार्थों की पगडंडी
मरते रिश्ते।

बड़ा शहर
हर एक आदमी
अकेला खड़ा।

जिस घर में
माँ बाप है हँसते
ईश बसते।

----.
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रवि श्रोत्रिया

उठो तुम्हें है दिया जलाना
उठो तुम्हें है है  दिया जलाना
उठो तुम्हें है देश देश बनाना
तुमसे जन मन तुमसे जन गण
तुम ही हो मानस का तन मन
तुम ही जन-जन की आत्मा हो
परमात्मा का अंश तुम्हीं हो
चेतना तुम ही, सक्रियता तुम
आंदोलन की हो क्रांति तुम्हीं
बोलना तुम ही सीखना तुम्हीं
हंसना भी तुम सिसकियां तुम्हीं
जीवन की इस मर्यादा में
जड़ भी तुम हो  तुम ही जीवन
तुम ही विकास उत्साह तुम्हीं
कृषि की आत्मा भी तुमसे है
यौवन का अट्टाहस तुम तो

बूढ़े का हंसना तुम हो
बच्चे की कोमल हंसी तुम्ही,

जन जन की आशा भी तुम हो
इन आशाओं का बोझ बहुत
करने होंगे तुमको प्रयत्न
दूर लक्ष्य है कठिन रास्ता

हार मान कर बैठ ना जाना ।
उठो तुम्हें है दिया जलाना ।।
उठो तुम्हें है देश बनाना ।।
तुम वर्तमान तुम ही भविष्य
जो भूत हुआ वह बीत गया
अब तक जो हुआ सामने है
आगे की संरचना तुम हो
इस लोकतंत्र में लोग तुम्ही
तुम ही चुनाव, मतपत्र तुम्ही
तुम ही नेता वोटर भी तुम
मतगणना स्थल भी तुम हो
हार जीत से व्यथित न हो
हारते तुम्ही जीते भी तुम
गर जीत गए तो काम करो
हारे तो खोजो कहाँ कमी
जीवन में छोड़ निराशा को
तुम उठकर पुनः पर्यत्न करो
कायम रखो तुम जिजीविषा
तुम से ही मिलती सही दिशा
पथ भ्रमित नहीं, पथ के ज्ञाता
प्रेरणा के स्रोत बनो भ्राता
भ्रस्टाचारी के इस युग में

सोच समझ कर कदम बढ़ाना।
उठो तुम्हें है दिया जलाना ।।
उठो तुम्हें है देश बनाना ।।
--
विद्यानगर टाउनशिप
,
| ravishrotriya@gmail.com

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जीतेन्द्र वर्मा


कुछ नए हाइकु

शब्दों का जादू


बाह ज़िन्दगी
बन्दर का तमाशा
नाचते हम

रात सफ़र
बीता चलते हुए
कहां पड़ाव

मिला कीजिए
होली ईद न सोचे
रोज़ मिलिए

एक तस्वीर
तुम्हारी उभरती
बंद आँखों में

रचे जो गीत
तुम्हारी बातें जैसे
दिल में लिखे

तेरी तस्वीर
जीती जागती जैसी
है महफूज़

एक तस्वीर
तुम्हारी उभरती
बंद आँखों में

रात बिता दी
याद ने आते हुए
सुबह न थी

रचता गीत
तुम्हारे लिए सिर्फ़
पढ़ लो ज़रा

हम जो मिले
गीतों के झुरमुट में
गीत ज़न्दगी

गीत ज़िन्दगी
बजाती मन वीणा
बोले अन्खियां

कोयल बोली
मेघा हैं चहुंओर
ओ चितचोर

मिले मुझसे
कुछ इस तरह
"मिले थे कभी"

रात जो रोई
न आया पास चांद
मैं भी  रोया

बहुत पीर
अब जीना दुश्वार
सहला जाते

पानी बरसा
अश्रुओं की बारिश
याद तूफ़ान

छोड़ क्यों गए
दे के यादें अपनी
तड़पने को?

गाता हूँ गीत
सिर्फ तुम्हारे लिए
सुनलो ज़रा

ख़ुशी के पल
जी लो मोहब्बत से
जीना ज़िन्दगी

कहा मुझसे
कान मे ज़िन्दगी ने
आइ लव यू

चल दी हवा
कुछ ऎसी जो यहां
उड़े उसूल

दिन भर जला
शाम को घर लौटा
सूरज थका

बुझाएं आग
जो लगी है अंदर
आग बुराई

वही बाहर
जो दीखता  अंदर
अंदर जाने

खेलता खेल
अपने से ही खेल
  ढूँढता 'खुद'
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डॉ० 'कुसुमाकर' आचार्य

    
ग़ज़ल 
                   
साध सबकी हो पूरी जरूरी नहीं।
हर नशा हो अंगूरी जरूरी नहीं।
            . साधना अपनी जब तक कि पूरी न हो,
              चैन की साँस लें ये जरूरी नहीं।
तन में , मन में . जिगर में , समाये हो तुम ,
बात से यह अयाँ हो जरूरी नहीं!
                 दो दिलों में सदा प्यार पलता रहे,
                   दूर होवे ए  दूरी   जरूरी नहीं।
टुकड़े-टुकडे है बेशक मेरी जिन्दगी ,
पर कहानी ए आधी अधूरी नहीं.।

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चंद्र सेन


. अपनापा इक तुझसे है और इक साझापन खुद से,
किससे रूह की बात करें और किससे फरियाद।

एक ठिकाना सूरज है और एक ठिकाना धरती,
जलती-बुझती साँसे रोयीं किस चौखट के बाद।

बूढा बचपन और जवानी सबकी अपनी अलग कहानी,
विदा हुए जीवन की संध्या लेकर भूली याद।

अपना इक घर वो भी था और ये भी है घर अपना,
वो भी खाली-खाली गुज़रा यही कहाँ आबाद।

सागर का हर कोना प्यास अम्बर बहुत उदास,
सदियों का बेनाम सफर है दोनों का संवाद।

किसको किससे मिली दिलासा किसकी किसको आस,
रिश्ते-नाते हुए अदालत जीवन सारा वाद।


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धर्मेन्द्र अरोड़ा ''मुसाफ़िर''

*दवा से जो नहीँ होते*
वज़्न-1222 1222 1222 1222
अर्कान - मुफ़ाईलुन मुफ़ाईलुन
मुफ़ाईलुन मुफ़ाईलुन
काफ़िया-आम
रदीफ़-होते हैं
दवा से जो नहीँ होते दुआ से काम होते हैं!
जहाँ में आज भी ऐसे करिश्मे आम होते हैं!!
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गलत राहों से जीवन में हमेशा दूर तुम रहना!
बुरे हर काम के देखो बुरे अंजाम होते हैं!!
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निराला सा चलन देखा जहाँ में आज लोगों का!
बगल में हैं छुरी रखते जुबाँ पे राम होते हैं!!
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दिलों में इस ज़माने के पनपती साज़िशें हरदम!
बशर की जान के तो बस ज़रा से दाम होते हैं!!
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समझते हैं कहाँ ज़ालिम हमारे दर्द को अब भी!
जो'हँस-हँस कर वो' पीते हैं लहू के जाम होते हैं!!
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रखो किरदार की दौलत हमेशा ही ज़माने में!
समय के साथ जो चलते उन्हीं के नाम होते हैं!!
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मुसाफ़िर इस गज़ल में भी पते की बात को कहता!
भरोसा हो जिन्हें खुद पर नहीँ नाकाम होते हैं!!
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मुरसलीन साकी. 

 
  शोल ए प्यार को इस तरह हम हवा देंगे ।
  खुद भी जल जायेंगे सारा जहां जला देंगे।

नफरतें खींच कर दिलों से हम ।
  फूल इक प्यार का खिला देंगे ।

जिस तरह रात सितारों से मिला करती है।
  यूं ही बिछड़ों को हम मिला देंगे ।।

यूं संवारेंगे अपने मकतल को ।
  हम तो कातिल को भी रुला देंगे।

नाल ए दिल सुनायेंगे जिस दम।
  सुन के साकी को सब दुआ देंगे।।

मकतल- कत्ल करने की जगह
  नाल ए दिल- दिल की कराह

  
  लखीमपुर खीरी उ0प्र0
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शुभांकर सिंह


तेरी नजर में मैं ही गलत हूँ
सही हमेशा तुम्ही सोचते हो ।।
मेरा कायदा वायदा गलत है ।
गलत है मेरी बड़ी निगाहें ।
निगाहों से सोचना गलत है ।।
गलत है मेरी हर एक आदत
तेरा इबादत भी तो गलत है।
मेरा जुबान खोलना गलत है ।
तेरे विषय में बोलना गलत है।
तिल तिल कर टूटना गलत है ।
तुझसे कभी रूठना गलत है ।
तेरी नजर में  मैं ही गलत हूँ ।।
तेरा उससे मिलना भी तो सही है।
मिल के मचलना भी तो सही है ।
फिर मुझसे लड़ना , मेरा रूठ जाना ।
तेरा फिर कभी मनाने न आना ।
सभी कुछ सही है ।।
तेरा जुल्फ खोले नाव में जाना
पानी से अटखेलियाँ भी सही है ।
हर एक मोड़ पर मैं ही क्यों गलत हूँ
उसी मोड़ पर जब तुम बिल्कुल सही हो ।।
जवाबे हुनर है मुझे भी तो आता
गलत को सही  मैं सभी को बताता
  मेरी धड़कनों का अलग ही हुनर है
तेरी जिंदगी अब मेरा भी सफर है ।।
सही और गलत को किनारे करूँगा ,
तेरे संग ही पूरा सफर मैं करूँगा।।
मगर मैं तेरी नजर में गलत हूँ ,
गलत था गलत हूँ गलत ही रहूँगा ।।
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राहुल प्रसाद


शोधार्थी(एम फिल)  गुजरात केंद्रीय विश्वविद्यालय

वो भी मेरे प्यार में है  मैं भी उसके प्यार में
प्रेम में जडे रहे
और हम खड़े रहे
उसी के सोच-सोच में  रात-दिन पड़े रहे
आँख भी नहीं थकी, उसके इन्तजार में
वो भी मेरे प्यार में है, मैं भी उसके प्यार में

सूनी सी बगिया थी जो बहार बन गयी
बूँद-बूँद जल यहाँ भी फुहार बन गयी
दौलत ये ख़ुशी की बेशुमार बन गयी
नफरतें भी मिट गयी अब दुलार बन गयी
ख़ुशी मेरी प्रीत की है
बात मेरी जीत की है
संसार के आदि से चल रही रीत की है
रोम-रोम खिल गया
मुझे प्रेम मिल गया
मिल गए बिछुड़े जो, भटकते संसार में
वो भी मेरे प्यार में है, मैं भी उसके प्यार में
 
अमूर्त थे जो भाव मन के वो भी अब सिहर उठे
और शांत सागर में उफनती लहर उठे
शर्म से हुए थे लाल न झुकी नजर उठे
भोर से ही बैठे थे  तीसरे पहर उठे
सुधियाँ सब खो गयी
और रात हो गयी
ओंठों से नहीं मगर आँखों से बात हो गयी
कब सांझ से निशा हुई
कब प्रभात हो गयी
बात-बात बढ गयी  गाँव-गाँव शहर में
वो भी मेरे प्यार में हैं  मैं भी उसके प्यार में

जिन्दगी हमारी ज्यों मधुबन सी हो गयी
सुगंध से भरी हुई  चन्दन सी हो गयी
बहार से भरी हुई  सावन सी हो गयी
सब राग द्वेष मिट गया पावन सी हो गयी
प्रेम एहसास है
यहाँ ख़ुशी का वास है
सभी ख़ुशी से हो यहाँ, सभी को प्रेम हो यहाँ
जिन्दगी में प्रेम बस
सभी के सुमार हो
यही दुआ हम करे   मंदिर मजार में
वो भी मेरे प्यार में है, मैं भी उसके प्यार में
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संस्कार जैन


मेरा चुप रहना मेरी मजबूरी
तुम भी हो चुप मैं भी हूं
फर्क बस इतना है की
तुम्हारा चुप रहना तुम्हारी मर्ज़ी है,
और मेरा चुप रहना मेरी मजबूरी...
----.
अतीत को मुड़कर देखा है...

आज इस राह पर चलते,
अतीत को मुड़कर देखा है।
समय के साथ खुद को और,
दुनियां को बदलते देखा है।
कुछ सपनों को हकीकत और,
कुछ हकीकत को सपनें बनते देखा है।
एक अनजान को अपना,
तो अपनों को अनजान बनते देखा है।
यूँ तो इंसान बड़ा मतवाला है,
पर वक़्त के आगे उसे भी मजबूर होते देखा है।।


Sanskar Jain


Department of Pharmaceutical sciences, Dr. H. S. Gour Central University, Sagar (M.P.) 470002
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मिथिलेश_राय


हवा सर्दियों की पैगामे-गम ले आती है!
वक्ते-तन्हाई में तेरा सितम ले आती है!
तूफान नजर आता है अश्कों में यादों का,
तेरी चाहत को पलकों में नम ले आती है!
------.
किस बात पर तुमको गूरूर हो गया है?
हर सितम भी तेरा मगरूर हो गया है!
जागी हुई है चाहत दीदार की मगर,
अब ख्वाब भी तेरा हूजूर हो गया है!
-----.

होते ही शाम तेरी प्यास चली आती है!
मेरे ख्यालों में बदहवास चली आती है!
उस वक्त टकराता हूँ गम की दीवारों से,
जब भी यादों की लहर पास चली आती है!
--------.
पास हो कर भी जरा सा दूर हो तुम!
हुस्न पर अपने बहुत मगरूर हो तुम!
तेज हैं तलवार सी तेरी निगाहें,
बेवफाओं में मगर मशहूर हो तुम!
----.

मुझसा कोई तेरा दीवाना नहीं होगा!
मुझसा कोई तेरा परवाना नहीं होगा!
हार चुका हूँ मंजिल को तकदीर से लेकिन,
मुझसा कभी मशहूर अफसाना नहीं होगा!
------.
कभी तो किसी शाम को घर चले आओ!
कभी तो दर्द से बेखबर चले आओ!
रात गुजरती है मयखाने में तेरी,
राहे-बेखुदी से मुड़कर चले आओ!

क्यों तुम शमा-ए-चाहत को बुझाकर चले गये?
क्यों तुम मेरी जिन्दगी में आकर चले गये?
हर गम को जब तेरे लिए सहता रहा हूँ मैं,
क्यों तुम मेरे प्यार को ठुकराकर चले गये?

मुक्तककार- #मिथिलेश_राय

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जितेन्द्र कुमार


जाने वाले वर्ष को विदाई
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इस ठंडी में वर्ष पुराना ठिठुर-ठिठुर कर गुजर गया।
टंगा हुआ था जो खूँटी पर वो कैलेंडर उतर गया ॥
गुजरा हुआ वर्ष जाने कितनी ही यादें छोड़ गया
कितनी आशाएँ पूरी कीं, कुछ उम्मीदें तोड़  गया
किसी की किस्मत कन्नी काटी, भाग्य किसी का सँवर गया
टंगा हुआ था.......
किसी से शिकवा गिला किसी से मान गया कोई रूठ गया
जुड़ गया दिल से दिल किसी का, हृदय किसी का टूट गया
किसी का प्रियतम घर को लौटा, मीत किसी का शहर गया
टंगा हुआ था..........
इस दुनिया की रीत यही है इक आये इक जाता है
अटल सत्य है गमन-आगमन क्यों कोई घबराता है
ऐसा तो कोई भी नहीं जो आकर जग में ठहर गया
टंगा हुआ था जो खूँटी पर वो कैलेंडर उतर गया
---------------------०००----------------------
सावधान रहो
-------------
अनजान  राह, अँधेरे  हैं, सावधान रहो।
कदम-कदम पर लूटेरे हैं, सावधान रहो ॥
हर एक आँख में गिद्धों की नज़र बसती है,
असहाय  पक्षि  को घेरे हैं,  सावधान रहो।
भेड़िये खाल में हिरन के घूमते हैं यहाँ,
सभी ही  घात  में तेरे हैं, सावधान रहो।
कौन अपना है यहाँ, किस पर भरोसा करना,
सभी  तो  स्वार्थ के  चेरे   हैं, सावधान रहो।
ये शहर है यहाँ पर शान्ति की उम्मीद न कर,
यहाँ  आतंक  के  डेरे  हैं, सावधान  रहो॥
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गीत बनो तुम, हम वीणा के तार की भाषा बोलेंगे
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प्यार के काबिल बनो अगर तो प्यार की भाषा बोलेंगे।
युद्ध की बात करोगे तो हथियार की भाषा बोलेंगे ॥
कर स्पर्श हृदय का देखो मलयज जैसे शीतल हैं,
माथा  ठनकाओगे  तो  अंगार की भाषा बोलेंगे।
जनता ने पद दिया तुम्हें तो जनता का कल्याण करो,
आखिर कब तक आप यूँ भ्रष्टाचार की भाषा बोलेंगे।
दर्द किसी का, किसी के आँसू और किसी की मजबूरी,
हम अपनी कविता में इस संसार की भाषा बोलेंगे।
तेरे मन की रूखी धरती हरी-भरी हम कर देंगे,
बात तो करो सावन की बौछार की भाषा बोलेंगे।
इस सूने संसार को भी  संगीतयुक्त कर देंगे हम,
गीत बनो तुम, हम वीणा के तार की भाषा बोलेंगे ॥
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                                                आज़मगढ़

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अक्षत मिश्रा


याद कर लक्ष्य को
                                           --
रात में जब नींद आए,तो याद कर लक्ष्य को,
त्याग दे नींद को, निकल जा पीछे छोड़ने अपने अंतर्द्वन्द को
                             याद कर लक्ष्य को ||
याद है लक्ष्य अगर , कर न अगर न मगर,
भूल जा छाव को और त्याग दे आराम को
                             याद कर लक्ष्य को ||
भूल जाये लक्ष्य अगर,देख जरा भीड़ को,
देख अपने आपको, द आ जाए लक्ष्य अगर ,
देकर महत्व परिश्रम को साकार कर लक्ष्य को     
                             याद कर लक्ष्य को ||
कठिनाइयां रोके रास्ता अगर,तू रुकना नहीं मगर ,दे जवाब कठिनाइयों को,
देकर महत्व धैर्य को देकर महत्व परिश्रम को  
                         याद कर लक्ष्य को ||


आज हम उड़ान क्यों न भरें
             
आसमान छूने की चाहत दिल में भरें
जुनून का जज़्बा चाहत में लिए
विश्वास की लहरें रगो में भरें
                 आज हम उड़ान क्यों ना भरें 
राम सा तेज आँखों भरे
भगत सिंह सा जोश सांसो में भरें
गाँधी सा धैर्य स्वभाव में भरे
                 आज हम उड़ान क्यों ना भरें
दुनिया को न दिखने के लिए
ना किसी को हराने के लिए
सिर्फ खुद को साबित करने के लिए
फिर वो साहस वो जज़्बा रगो में भरें
                 आज हम उड़ान क्यों ना भरें      
चिंता और भय जैसे दीमक को त्यागते हुए
राम से सच्चे पथ पर चलते हुए
रावण की तरह शत्रुओं को पराजित करते हुए
मन के महासागर में जल की तरह अथाह सिर्फ सफलता का विचार भरें
                   आज हम उड़ान क्यों ना भरें
मंज़िल को ये कहने के लिए
कि मैंने तुझे नहीं जीता अपनी खुशियों के लिए
तूने मुझे जीता है मेरी रगों में भरे जुनून और साहस के लिए
कभी ना हारने का हृदय में संकल्प भरे
                   आज हम उड़ान क्यों ना भरें

लक्ष्य है विशाल तो क्या मैं ना उससे डरता हूँ,
मैं उंचाईयों से ना डरता हूँ,
मैं रात से ना डरता हूँ ,
अँधेरे से भी लड़ता हूँ॥
अगर भरोसा खुद में तो मैं काल से ना डरता हूँ
ठान कर अगर लडूं तो सूर्य सा हो जाता हूँ,
ना कोई निकट भी आ सके,
ना आँख उठा के देख सके।।
रफ़्तार वो पकड़नी है की रफ़्तार भी ना पकड़ सके,
इस धरती पे तो क्या मुझे,कोई ब्रह्मांड में न रोक सके॥
अगर विघ्न आये भी तो मैं ना उससे डरता हूँ,
वो अपना काम करता है,मैं अपना काम करता हूँ,
वो फिर पराजित होता है,मैं फिर से आगे बढ़ता हूँ॥
अपनी असफलताओं को मैं उस दिन था भूल गया,
जिस दिन मैंने खुद को सबसे कामयाब था मान लिया॥
खुशियों की बूँदों ने आज मुझे इस तरह भीगा दिया,
मानो चाहतों का बादल आज खुदाने मुझपर ही बरसा दिया,
क्योंकि अपना भविष्य आज मैंने
खुद की कलम से लिख लिया,और अपना जीवन
आज अपनी चाहतों से भर दिया॥


0000000000000000000000000000000

धर्मेन्द्र निर्मल


निर्मल गीत  ( स्वच्छता अभियान  पर )
1.
हम ................
होंगे नंबर वन
ये तो होना ही था
ये तो होना ही है
ये तो होके रहेगा
ये तो होना ही है
कर लेंगे आदत में
शामिल
स्वच्छता होगी ही
हासिल
ये तो होना ही था
ये तो होना ही है
ये तो होके रहेगा
ये तो होना ही है

सड़कें गलियां
घर दुकान सब
ऐसे चमकेंगे
जैसे त्यौहार हो
यूस करेंगे
डस्टबिन का
स्वच्छ भारत रखेंगे
जैसे उपहार हो .. ये तो होना ही था ये तो होना ही है

रोकेंगे टोकेंगे
समझायेंगे हम
स्वच्छता का पाठ
पढ़ायेंगे हम
एक नया भारत
लेकर आयेंगे
भारत का ताज
अपना रायपुर बनायेंगे ....ये तो होना ही था ये तो होना ही है

2.
रायपुर  नंबर वन है
नंबर वन है रायपुर
दूर कोसों गंदगी से
गंदगी से कोसों दूर

स्वच्छ भारत का  निर्माण करने चले हैं
एक नए युग को हम आज गढ़ने चले हैं
सज रही है दुल्हन सी हरी धानी धरती
स्वच्छ संकल्प अपने संवरने चले हैं
स्वच्छता का स्वागत है
स्वच्छता तो आदत है
स्वच्छता से नाता अपना
स्वच्छता दस्तूर ......................

स्वच्छता से क्या लाभ सबको बताएंगे
डस्टबीन का यूज करना हम समझायेंगे
यहाँ वहाँ कहीं भी जो फेंकते हैं कचरा
रोकेंगे टोकेंगे प्रेम से मनायेंगे
करते है जो ठानते हैं
हम तो बस ये मानते हैं
पक्का हो इरादा तो
लक्ष्य नहीं दूर .......................

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जयति जैन "नूतन"

देश का किसान

पंद्रह सौ लगाकर, मेहनत कर
कितना कमा पाता है,
यह देश का किसान है नूतन
कितना बचा पाता है ?
----------
फ़सल के लिये कर्ज लेकर
ब्याज भी नहीं चुका पाता है
यह देश का किसान है  नूतन
हज़ार लगाकर पांच सौ भी नहीं कमा पाता है !
----------
गर्मी में खूब पसीना बहाता,
सर्दी में ठिठुर के मर जाता है
यह देश का किसान है नूतन ,
दो वक्त की तरकारी भी नहीं खा पाता है !
--------
दो जोडी नये कपडे बनवाने में
खर्चे का बार बार सोचता है
यह देश का किसान है नूतन
फटे कपडों में हर मौसम जी लेता है !
--------
छोले राज़मा का स्वाद भी
इन्हें पता तक नहीं होता है
यह देश का किसान है नूतन
सूखी रोटी और चटनी भी खा लेता है !
--------
पिज़्जा, बर्गर और मोमोस का
नाम तक नहीं जानता है
यह देश का किसान है नूतन
जो इन्हें बनाने की सामग्री उगाता है !
---------
नेता आते हैं दिलासे दे जाते हैं
राजनीति कर वोट कमाते हैं
यह देश का किसान है नूतन
गरीबी में जन्मा गरीबी में मर जाता है !
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गरीब अमीर, अमीर गरीब बन जाते हैं
ये वो हैं जो वही के वही रह जाते हैं
यह देश का गरीब किसान है नूतन
दुर्दशा कैसी हो, हर हाल में मुस्कुराते हैं !
-----------
खुद भूखे सो जायें मगर
पशुओं को तीन बार खिलाते हैं
ये देश के त्यागी किसान है नूतन
एक बाप का फर्ज निभाते हैं !
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0000000000000000000000000000000

रुचि प जैन

बचपन के दिन

जाने वो दिन कहाँ उड़ गए,
जब हम बोलते कम और हँसते ज़्यादा ,
जब हम खाते कम और खेलते ज़्यादा ,
जब हमारे दुश्मन कम और दोस्त थे ज़्यादा ।

जाने वो दिन कहाँ उड़ गए,
जब हम माँ का पल्लू पकड़ सारा दुख भूल जाते,
उसकी उँगली पकड़ सारी दुनियाँ घूम आते,
जब दोस्तों की टोली के साथ खेलने जाते,
तब माँ के पुकारने पर ही वापस आते।

जाने वो दिन कहाँ उड़ गए,
जब घर की रौनक़ ही हम से थी,
जब कोई भी वस्तु एक जगह नहीं टिकती थी,
पर न जाने कैसे सुबह वो अपने ही स्थान पर विराजमान होती थी,
जब ख़ुशियाँ इतनी होती थी,
कि सबको बाँटते फिरते थे,
हाय वो बचपन के दिन जाने कहाँ उड़ गए।

जाने वो दिन कहाँ उड़ गए,
जब छुपन छुपाई खेला करते,
हर घर के कोने कितने परिचित से लगते,
जब खेलते ज़ंजीर और सतौलिया ,
हर मैदान भी हमको घर सा लगता,
जब जाते सब मिलकर पिकनिक,
माँ के छोले पूरी का स्वाद निराला लगता।

जब स्कूल और गृहकार्य से बड़ा दुख न था कोई,
तब घड़ी भी लगती थी अत्याचारी,
साल कर नेत्र गिना देते थे हम सारी बीमारी ,
जब छुट्टियों में सुबह पाँच बजे ही उठने की करते थे तैयारी,
मोटी मोटी आँखों से माँ से करते थे विनती,
अनुमति मिलते ही शुरु हो जाती खेल की तैयारी,
चारों पहर हमको तो थी बस खेलने की बीमारी,
सर्दी गरमी भी न रोक सकी हमको,
उनसे भी थी दोस्ती पुरानी।


आज फिर से वो दिन जीने की ख्वाइश उमड़ी है,
फिर से अंदर बच्चे ने अँगड़ाई ली है,
हर गिले शिकवे आज छोड़ देते है,
दोस्तों  और बच्चों के साथ वो दिन फिर से जी लेते है
उड़ गए थे जो समय के साथ कहीं ,
उन्हें आज हक़ीक़त बना ही देते है,
आज बचपन के वो दिन फिर से जी ही लेते है।

0000000000000000000000000000000

ज्योति चौहान

वो नन्हा सा हँसता खिलखिलाता फ़रिश्ता  ,
ज़िन्दगी में खुशी की वो एक फ़ुआर,
खिलौनों के बीच में बैठा  ,बुनता एक निराली दुनिया,
बड़े लोगों- सी  बातें बनाता , वो सबको हँसाता,
है कृष्णा का एक स्वरुप,
अपनी सारी डिमांड प्यार से रखता, हमें मनाता
कभी नए कपड़े , कभी नए जूतों से खुश होता
कभी माँगता चॉकलेट , तो कभी नए खिलौने,
नये वस्त्र धारण किये, लगता कृष्ण सा मनमोहक
घुटने चलता, हकलाता, डांस करता,
  रखता सबका पूरा ख्याल,
प्यार और मासूमियत से भरा,
उस तोते में है मेरी जान,
जितना करूं उसके लिए,  लगता  मुझे उतना ही  कम,
जिन्दगी में बहुत कुछ सिखाता,
परेशानियों का हँसकर सामना करना,
"जिंदगी कितनी सुँदर है, जीना है पूरी तरह"  -एहसास वही मुझको  कराता
मेरी दुनिया में उजाला वो लाता,
भूल गयी मैं अपने सारे ग़म उसकी दुनिया में खोकर,
खुशकिस्मत है वो, जिसके घर में हो एक छोटा सा फ़रिश्ता,


0000000000000000000000000000000

प्रिया देवांगन "प्रियू"

बचपन
********
छोटे छोटे बच्चे हैं हम , मिलजुल कर सब रहते हैं ।
खेल खेल में भले झगड़ ले , भेदभाव नहीं करते हैं ।
पढ़ लिखकर विद्वान बनेंगे, नया इतिहास रचायेंगे ।
नये नये सृजन कर हम , भारत को स्वर्ग बनायेंगे ।
छोटे हैं तो क्या हुआ, हममें भी समझदारी है ।
भारत माता के प्रति, हममें भी जिम्मेदारी है ।
नहीं झुकने देंगे तिरंगा, चाहे जो कुछ हो जाये ।
अड़े रहेंगे अपनी जगह पर, चाहे तूफान आ जाये।

पंडरिया  (कवर्धा )
छत्तीसगढ़

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  डॉ.प्रमोद सोनवानी पुष्प

    
" बाल दिवस मनायेंगे "

   -----------------------------
जन्म दिवस चाचा नेहरू का ,
उसको अमर बनायेंगे ।
मिल-जुलकर हम प्यारे बच्चे ,
बाल दिवस मनायेंगे ।।
जो बच्चे पढ़ने-लिखने को ,
हरदम तरसा करते हैं ।
दीन-हीन निर्बल हैं बच्चे ,
पीड़ा कितना सहते हैं ।।
उन बच्चों को ढूंढ़-ढूंढ़ कर ।
हम तो खूब पढ़ायेंगे ।।1।।
इस दुनिया में हैं बहुतेरे ,
ऐसे मासूम बच्चे ।
भटक रहे हैं गाँव-गली में ,
भूखे -प्यासे बच्चे ।।
उन मासूम बच्चों को हम तो,
अपनापन दिखलायेंगे ।।2।।
नन्हे-मुन्ने हैं जो लाचार ,
जिनका  क्या  कसूर ।
दो रोटी के लिये जो हरपल ,
बोझ उठानें को मजबूर ।।
चलो-चले हम उन बच्चों को ।
मिलकर न्याय दिलायेंगे ।।3।।
मैले-कुचले कपड़े पहनें ,
आँखों में बहता है पानी ।
ढूंढ़ते हैं कचरे में बचपन ,
उनकी यही कहानी ।।
ऐसे प्यारे बच्चों को हम ।
प्यार -दुलार लुटायेंगे ।।4।।
     
             तमनार/पड़ीगाँव-रायगढ़(छ.ग.)
0000000000000000000000000000000

राजकुमार यादव

जो हुआ उसे अच्छा कह कर क्यों रहने दूं?
मैं इक सवाल क्यूं न करूं ईश्वर से,
आखिर उसकी गलती क्या थी?
यहीं कि वो अपने घर की गरीबी दूर करना चाहता था,
या यह कि वो तेरे लिखी किस्मत को मात दे रहा था.
अब रो रहे है उसके परिजन ,
उसकी #मां  की बहते आंसू  जो रूकने के नाम न ले रहे हो,
आखिर उनका बेटा जो अलविदा कह चुका है इस दुनिया को.
उसके छोटे-बड़े भाई बहन जो उसके कमाकर आने पे राहें ताकते रहे घंटों,
अब उनको कौन हिम्मत देगा कि सब ठीक हो जाएगा?
मुझे  भी याद है जब वो जाने वाला था,
उसकी आंखें थोड़ी-थोड़ी छलकी छलकी थी,
जैसे वो हम लोगों को छोड़ कर नहीं जाना चाहता वो,
मगर पैसे की तंगी जो न करवावें....
कुछ सपने लेकर चला था ##गुजरात कमाने,
पर ये कौन जानता था कि ये रेल का सफर आखिरी सफर है उसकी जिंदगी का.

Village-jagarnath pur
Dist-gopalganj
State-Bihar
0000000000000000000000000000000

    -हिमांशु सिंह 'वैरागी'

अजी सुनती हो,
क्यों पुरानी यादों को
उधेड़ कर बुनती हो
जो होना था,
अब तो हो गया,
तुम भी भूल जाओ अब
क्यों बैठकर दिन गिनती हो,
तुम्हीं ने तो कहा था,
किसी के चले जाने से
जिंदगी ख़त्म नहीं होती,
तो अब क्यों?
रात-रात भर जागती हो.

अजी सुनती हो,
क्यों पुरानी यादों को
उधेड़ कर बुनती हो
बना दिया अब तो निकृष्ट
छीन लिया किरण का पृष्ठ-पृष्ठ,
तो अब क्यों?
वैरागी-वैरागी बकती हो
जिन्दा तो मैं अब भी हूँ,
अब मोहरों से खेल रहा हूँ,
रह-रह के तुम्हें लिख रहा हूँ,
जिच की वजह से ढह रहा हूँ,
आगे क्या कहूँ!
बाकी तो तुम सबकुछ समझती हो.


000000000000000000000000000000

प्रमोद कुमार सतीश


कविता- हर शख्स की कहानी !
हर शख्स अनजान है यहां
हर शख्स जुदा-जुदा सा है
किसी न किसी की तलाश में है हर कोई
हर शख्स यहां गुमशुदा सा है
काम के एक पैमाने में सिकुड़ गई है जिंदगी
दायरों की सीमाओं में बंध गई है जिंदगी
दिखावे की मुस्कान लिए फिर रहे हैं सब
हर शख्स खुद से ही खफा-खफा सा है
वक्त कम है ख्वाहिश ज्यादा है
हर दिल में कुछ करने का इरादा है
पाना चाहता है बुलंदियां आसमानों की
पर जिम्मेदारियों के बोझ से दबा-दबा सा है.....

प्रमोद कुमार 'सतीश'
109/1 तालपुरा झांसी(उ.प्र.)
मो- 9795497804
ईमेल- kumar.pramod547@gmail.com
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डॉ मनोज 'आजिज़'

हरा कैनवास
--------------

साल भर देखता  हूँ
बनते बिगड़ते फसलों को
बारिश की धारा, आँधी की बर्बादी
और फिर एक ऐसा मंज़र खड़ा होता है
जब लहलहाते खेत सुन्दर लगने लगते हैं
पूरी धरती बन जाती है
एक बड़ा हरा कैनवास।

धान की नयी बालियाँ
धानी रंग की धरती
पीले रंग का असर
तोतों का झुण्ड...

ये सारा श्रेय जाता है
किसान और प्रकृति को
जो मौसम की कमान पर
कल्पनाओं के रंग बिखेरते हैं।

--
From :-
Dr. Manoj K Pathak (Dr. Manoj 'Aajiz')
Adityapur, Jamshepur.
00000000000000000000000000000

राज कुमार यादव


लोग मेरा नाम को भूल गये है,
उनको शायद यह पता नहीं कि मैं कौन  हूं?
जिक्र कभी छिड़ता है मेरा नाम नही आता हैं,

मैं बेनाम और पहचान के जी रहा हूँ,
मुझे पता नहीं कि मेरा अंजाम क्या होगा?
दूबों पे बिखरे ओस की बूँदों के माफिक
जिंदगी की हालत हैं,

कब क्या होगा? मैं इससे बेखबर हूँ.
सो जाता हूँ रात में,
पर पता नहीं होता कि कल जग पाऊँगा भी कि नहीं?.
मेरे किस्मत में कल का सूरज है भी कि नहीं ?
लेकिन हर बार मौत को झुठलाकर नई सुबह देखता हूँ,
और अपने घटते उम्र का उत्सव मनाता हूँ.

लगातार चलती पृथ्वी घूम रहीं आकाशगंगाओं में,
और हम भी सोए सोए काट रहे है सफर बह्मांड का,
मेरे शरीर के इलेक्टान गति में मगन हैं,
और मै इलेट्रॉन-प्रोटॉन-न्यूट्रान का बना अनजान हूं इतनी सारी गतियों से,

अपने रफ्तार से भागता समय
हरदम मुझे डरा देता है कि
तुम अपनी रफ्तार में कब तक आओगे?
और मैं हर बार उसका ताना सहन कर लेता हूँ,
इस उम्मीद में कि मैं इक दिन समय  की गति को मात दे दूँगा.

कभी-कभी मैं अपने द्रव्यमान से तंग आकर फोटॉन बन जाना चाहता हूं,
प्रकाश का रूप धारण करना चाहता हूँ,
मगर यह कोरी कल्पना है,
यह बात मुझे पता है फिर भी
मैं भी खुद को झुठलाता हूं,
ऐसे ही मनगढ़ंत जुमलों से.

बस! अब बहुत हुआ चलो आराम फरमाते है,
और यूँ ही साँसें लेते रहे और छोड़ते रहे .

00000000000000000

मुकुल कुमारी अमलास


अवकाश नहीं मिलता
सबकुछ मिलता है जग में
अवकाश नहीं मिलता
जीवन लगता है बेमानी
गर विश्राम नहीं मिलता।

कैसे बैठूँ गुनगुनी धूप में
बिना किसी उलझन के
बिसरा कर कामों की चिंता
कुछ क्षण पाऊँ फुरसत के ।

जी करता है मैं भी गाऊँ
कोयल  बन अमुना पे
डाली-डाली फिरूँ विहग सी
फुदक-फुदक फूलवा पे ।

पीले सरसों पे मैं डोलूँ
धीमे-धीमे मंद समीर के
छेड़े कोई बंशी की धुन
मैं नाचूँ थिरक-थिरक के ।

दूर दुनिया के कोलाहल से
जा लेटूँ नीरव सागर तट पे
बंद नयन खो जाऊँ याद में
प्रिय से प्रथम मिलन के ।

तृण के नोक पे अटकी शबनम
हाथों से  चुन लूँ  मैं
वक़्त से छीन एक कोरा लम्हा
दामन में  जड़  लूँ मैं ।

अपने लिए चुरा लूँ मोती सा क्षण
समय के अनंत सागर से
कल का बिछड़ा लम्हा मिल जाए
आज के सुंदर पल से ।

            
------

000000000000000

सीताराम साहू

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मुहब्बत नाम है माँ का अगर समझो समझ जाओ ।
ये गीता भी है रामायण अगर समझो  समझ जाओ ।
इसी मां ने बड़े ही प्यार से भगवानों को पाला है ।
इसी ने अपनी ममता से हम सभी को सम्भाला है ।
नहीं परवाह की अपनी और न अपने जीवन की
सभी कुछ अपनों पे वारा  न्योछावर कर ही डाला है ।
कि सेवादार इनका नाम गर समझो समझ जाओ ।
ये गीता भी है रामायण अगर समझो समझ जाओ ।
जिसे भी कह दिया अपना मान भगवान बैठी है ।
उसी को सौंप जीवन डोर ले उसकी आन बैठी है ।
है इनका प्यार अंधा और है विश्वास भी अंधा,
किया है प्यार जिससे उसको अपना मान बैठी है ।
कि ईश्वर नाम है माँ का अगर समझो समझ जाओ ।
ये गीता भी है रामायण अगर समझो समझ जाओ ।
किसी के दर्द को ये दस गुना महसूस करती है ।
कोई इज्जत करे इनकी तो उस इंसा पे मरती है ।
स्वमं का दर्द तो होता नहीं है इनके तन मन को ,
किया अपमान इनका तो शिकायत रब से करती है ।
गुरु भी नाम है इनका अगर समझो समझ जाओ ।
ये गीता भी है रामायण अगर समझो समझ जाओ ।
--
माँ ये चिट्ठी हमारी तू ले लीजिये ।
जब समय हो सही उनको दे दीजिये ।
मुझको पाला ,सम्भाला ,बनाया बहुत ।
मैं ही भूला हूँ तुमने निभाया बहुत ।
तेरे अहसान मैं कुछ नहीं मानता,
मानता हूँ कि मैंने मंगाया बहुत ।
पुत्र का मैंने रिश्ता निभाया नहीं,
किन्तु माँ का तू रिश्ता निभा दीजिये।
माँ ये चिट्ठी हमारी तू ले लीजिये ।
जब समय हो सही उनको दे दीजिये ।
मातृशक्ति को करता रहे सर नमन ।

मातृभूमि का खिलता रहे ये चमन।
कर करे काम केवल तुम्हारे लिए,
दीन दुखियों के दुख में दुखे मेरा मन ।
अपना ही सबको समझूं ये वर दीजिये ।
मौत से झूमने का हुनर दीजिये ।
माँ ये चिट्ठी हमारी तू ले लीजिये ।
जब समय हो सही उनको दे दीजिये ।
माँ कोई भय मुझे अब सताए नहीं ।
तेरी छवि के सिवा कुछ भी भाये नहीं ।
तेरी ही गोद में सोऊं अंतिम समय,
मौत मेरी किसी को रूलाये नहीं ।
चलते-फिरते मुझे मौत दे दीजिये. ।
अपने चरणों में मुझको जगह दीजिये ।
माँ ये चिट्ठी हमारी तू ले लीजिये ।
जब समय हो सही उनको दे दीजिये ।
---
झूठा प्यार जताना मुझको कभी नहीं आया ।
तुमको यार मनाना मुझको कभी नहीं भाया ।
तेरे बिन जीना दूभर है मेरा ये जीवन
लेकिन यार सताना तुझको कभी नहीं भाया ।
तेरी जिद के आगे मेरी सारी जिद  छोटी
तुझको समझा पाना मुझको कभी नहीं आया ।
जिस जीवन ने मेरा जीवन स्वर्ग बनाया है
हाय यार बचाना उसको कभी नहीं आया ।
कितना समझाया तुझको तू प्यार न कर इतना
तुझसे प्यार निभाना मुझको कभी नहीं आया ।
---
जिन चरणों की रज छूकर तर गई अहिल्या नारी ।
उन चरणों की  पुजारिन  वन में फिरती मारी -मारी।।
धरती माँ की राजदुलारी प्राणप्रिया रघुवर की।
महल छोड़कर आज वो बैठी छाया में तरूवर की ।
दानवता से जीत गई पर मानवता से हारी ।
उन चरणों की पुजारिन वन में फिरती मारी-मारी।।
अग्नि परीक्षा देने वाली पावन सिया सती थी ।
रघुनंदन ये जानते थे उस समय वो गर्भवती थी ।
ये कैसा निर्णय ले डाला कैसी थी लाचारी ।
उन चरणों की पुजारिन वन में फिरती मारी-मारी ।
वाल्मीकि जी की कुटिया का क्या सौभाग्य निराला ।
पिता वन गये जगजननी के और खुशी से पाला ।
लव-कुश के आने की देखो करने लगे तैयारी ।
उन चरणों की पुजारिन वन में फिरती मारी-मारी ।
सीता के बिन राम अधूरे राम के बिना सीता ।
एक दूसरे के बिन कैसे घुट- घुट जीवन बीता ।
ऐसा क्या अपराध हुआ है सोचे जनक दुलारी ।
उन चरणों की पुजारिन वन में फिरती मारी-मारी ।
लक्ष्मण ने भी सीता को निज जननी सम माना था ।
सीता थी निर्दोष मगर वन छोड़ महल  आना था ।
रोते विधना सीता की कैसी किस्मत लिख डारी ।
उन चरणों की चरण सेविका फिरती मारी-मारी ।
हर युग में ही सती नारी की सदा परीक्षा होती ।
सबको खुशियां देने वाली नारी ही क्यों रोती ।
रामायण पढ़कर धीरज धरती  भारत की नारी ।
उन चरणों की पुजारिन वन में फिरती मारी-मारी ।
जिन चरणों की रज छूकर तर गई अहिल्या नारी ।
उन चरणों की पुजारिन वन में फिरती मारी-मारी ।
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नारी जन्म जगत में लेना नारी का अपराध है क्या ।
राम तुम्हारी इस दुनिया में नारी का अपराध है क्या,
हुआ जरा अपराध सती माँ से तो शिव ने त्याग दिया ।
लेकिन शिव ही को पाने को अपराधी तन भस्म किया।
राम परीक्षा के हित भेजा तुमने ही अधिकार दिया ।
अंतर्यामी क्यों माता को तुमने न स्वीकार किया ।
एक बार न क्षमा किया आखिर ऐसा अपराध है क्या ।
राम तुम्हारी इस दुनिया में नारी का अपराध है क्या ।
नारी का हर रूप पूज्य छल कपट न उसको आता है ।
किसी भी सती नारी को पर पुरुष कभी न भाता है।
गौतमऋषि का रूप बना सुर ऋषि पत्नी छल जाता है।
नहीं अहिल्या थी दोषी पर दोष उसी को जाता है।
श्राप दिया ऋषि बिना विचारे नारी का अपराध है क्या
राम तुम्हारी इस दुनिया में नारी का अपराध है ।
सीता माता लंका से आ अग्नि परीक्षा देती है ।
धरती माँ की पुत्री है हँसकर संकट सह लेती है ।
इक मानव के कहने से सीता माँ को वनवास दिया ।
मर्यादा पुरुषोत्तम होकर फिर भी नहीं विचार किया ।
गर्भवती थी घर से निकाला ऐसा भी अपराध है क्या ।
राम तुम्हारी इस दुनिया में नारी का अपराध है क्या ।
जग जननी को जन्म से पहले ही क्यों मारा जाता है ।
गलती भले नहीं हो फिर भी नाम जननी का आता है ।
कितना ईर्ष्या द्वेष भेद मन इनसे ही  सह जाता है
फिर भी जननी में न जाने धीरज कहां से आता है ।
सबकी गलती माफ करे यह नारी का अपराध है क्या ।
राम तुम्हारी इस दुनिया में नारी का अपराध है ।
जीवित जबतक  रहती उसको कष्ट ही दिया जाता है।
इसीलिए नर से  ज्यादा नारी को गौरव को जाता है ।
है ईश्वर के तुल्य यही इतिहास सदा दोहराता है ।
इनकी त्याग तपस्या से मानव जीवन उठ पाता है ।
खुद का जीवन नहीं कही फिर भी ऐसा अपराध है क्या।
राम तुम्हारी इस दुनिया में नारी का अपराध है क्या ।
---

एक माटी का पिया तुमसे जो दिया न गया ।
मुझसे मांगा न गया तुमसे जो दिया न गया ।।
इतने अहसान तेरे कैसे  गिन के बतलाऊं ,
एक अहसान और तुमसे जो किया न गया ।।
जब तलक चाहा मुझे खुद को गंवाकर चाहा,
और जब छोड़ दिया याद भी किया न गया ।।
एक मुद्दत से तमन्ना है तुम्हें पा जाता ,
तुमसे चाहा न गया मुझसे भुलाया न गया ।।
दर्दे दिल तेरे सिवा कौन मेरे समझेगा,
तुमसे समझा न गया मुझसे बताया न गया ।।
याद आ जाता कभी वक्त भी  कैसे गुजरा ,
मौत को चाहूं मगर दर्द भुलाया न गया ।।
---
न मैं पा सकूं न भुला सकूं ये अजीब सी मेरी जिंदगी ।
न मैं आ सकूं न बुला सकूं ये अजीब सी मेरी बन्दगी ।
मेरी आरजू तुझे जान लूं, मेरी आरजू तुझे मान लूं
न मैं खा सकूं न खिला सकूं ये अजीब सी मेरी जिंदगी
मेरी आरजू तुझे मान दूं,मेरी आरजू सम्मान दूं,
न ही पास, दूर न रह सकूं बदनसीब है मेरी जिंदगी ।
तेरा हाल दिल न मुझे पता, तू सुने न मेरी दास्तां ,
न बता सकूं न मैं सुन सकूं ये अजीब सी मेरी जिंदगी ।
तेरा दर्दे दिल न मिटा सका, तेरा दर्दे दिल न भुला सका,
न दबा सका न दुआ सका , ये अजीब सी मेरी जिंदगी

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आखरी अब मुझे हमसफर चाहिए ।
चैन से मरने दे वो जहर चाहिए ।।
वक्त आने से पहले भी  बतलाऊं क्या ।
तू समझदार है तुझको समझाऊं क्या ।
जिन्दगी भूल जाऊँगा तुमको नहीं,
ऐसी यादें तेरी दिल से बिसराऊं क्या ।
मौत से जूझने का हुनर चाहिए ।
चैन से मरने दे वो जहर चाहिए ।।
पतझड़ों में मुझे तूने बरसात दी ।
जिस समय तुझको चाहा मुलाकात दी।
जिन्दगी के लिए मेरी मांगी दुआ,
अब मुहब्बत मेरी मुझको सौगात दी ।
और लम्बी न मुझको उमर चाहिए ।
चैन से मरने दे वो जहर चाहिए ।।
जब कभी याद आए तो रो  न सकूं।
अपना धीरज कभी मन से खो न सकूं।
तू जहाँ भी रहे खुश ,मेरी आरजू ,
मैं जहाँ में बुरे बीज बो न सकूं ।
चैन से जी सकूं वो शहर चाहिए ।
चैन से मरने दे वो जहर चाहिए ।।
याद मेरी किसी को सताये  नहीं ।
मौत का भय मेरे  मन में आए नहीं।
चलते-फिरते गले से मिले मौत भी,
मौत मेरी किसी को रूलाये नहीं ।
मौत में जिन्दगी सा असर चाहिए ।
चैन से मरने दे वो जहर चाहिए ।।
मौत से पहले भी मौत होती है कब।
अपना ही जिन्दगी से निकल जाये जब ।
प्यार की प्यास मर कर भी मरती नहीं,
इतने पर भी न समझे बड़ा बेसबब।
दिल को समझा,ना अब ना सबर चाहिए ।
चैन से मरने दे वो जहर चाहिए ।
प्यार करने को तू हम सफर चाहिए ।
प्यार को पढ़ सकूं वो नजर चाहिए ।
छल कपट भावना में रहे ही नहीं,
प्रेम की भावना का असर चाहिए ।।
जीतने के लिए अब सबर चाहिए ।
चैन से मरने दे वो जहर चाहिए ।
मन में मिलने की केवल लगन चाहिए ।
तेरी करूणा, दयामय नजर चाहिए।
खुद के जीने से अच्छा है मर जाऊं मैं,
अब न संसार की कोई जर चाहिए ।
तुमसे कम न मुझे हमसफर चाहिए ।
तेरी करूणा कृपा की नजर चाहिए ।
अब न जीने को कोई शहर चाहिए ।
अब न जीने को लम्बी उमर चाहिए ।
चैन से मरने दे वो जहर चाहिए ।।
---
बुराई का हो जाये विनाश ।
दशहरा उम्मीदों की आस ।
हृदय से हो बुराई का नाश ।
सभी में ईश्वर करे निवास ।
यही जन जन की कामना हो ।
मिलें हृदय से हृदय पास न दुर्भावना हो ।
रहे न मन में कोई बुराई ।
सभी मिल जाये भाई भाई ।
सभी में छाई रहे भलाई ।
नारी में दिखवे बहिना, माई ।
यही मन मनोकामना हो ।
मिलें हृदय से हृदय पास न दुर्भावना हो ।
जाति-पांति सब भेद मिटाएं।
दुखियों को सब गले लगाएं ।
शिकवा गिला भूल सब जाएं।
सबके संग सब खुशी मनाएं।
यही जीवन की साधना हो ।
मिले हृदय से हृदय पास न दुर्भावना हो ।
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बहुत वर्षों में जागा हूं तुम्हारा प्यार पाने में ।
मुझे लग जायेगी सदियां तुम्हें राधे भुलाने में ।
तुझे बांटा नहीं दुख-दर्द रक्खा है छुपा दिल में ,
ये जीवन बीत जायेगा दर्द तुझको बताने में ।
न कोई आरजू जीवन की  नहीं कोई तमन्ना हैं,
तुझे न पा सका कोशिश बहुत की तुमको पाने की ।
तुम्हारे बिन ये जीवन कैसा होगा कह नहीं सकता,
जमाने भर ने कोशिश की तेरे दर को भुलाने की ।
मेरी उलझी समस्याओं को तुमने दिल से सुलझाया,
संवर जीवन गया चाहत थी शायद तुमको पाने की है।
निभाया फर्ज तुमने मेरे खातिर मिट गए खुद ही,
बहुत बेशर्म हूँ हिम्मत नहीं वादा निभाने की ।
जो न दे रोशनी किस काम का दीपक भला राधे,
जरूरत ऐसे दीपक की नहीं, मिट्टी बनाने की ।
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कोई पूछता है मुझसे मेरी जिंदगी की कीमत,
मुझे याद आ रहा है तेरा हल्के मुस्कुराना ।
मेरी उलझी जिन्दगी में कभी हाल दिल न पूछा,
तब याद आ गया है गुजरा हुआ जमाना ।
बचपन था सबसे अच्छा दिल चाहे हंस ले ,रो ले,
अब रो भी नहीं सकते हंसने का न बहाना ।
अब डर रहा हूं डर से पत्थर ही हो न जाऊं,
बदली तेरी अदाएं बदला हुआ जमाना ।
तुझे भूल भी तो जाऊं मेरे बस में अब नहीं है,
तेरे जख्मी दिल की बाते वो गम में मुस्कुराना ।
तेरी आरजू यही है दिल मेरा अब भी   तड़पे,
चाहत तो मेरी भी है दिल में तुझे बसाना  ।
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नर जीवन में जब तक प्राणी पाता न विश्राम है ।
सांस सांस में जब तक न आता प्राणी में राम है ।
जिस जिस ने भी पाया प्रभु को रास्ता स्वयं बनाया है ।
किया समर्पण जिसने भी उसने ही प्रभु को पाया है ।
नहीं दिया दुख कभी किसी को वह प्रभु के मन भाया है
जो भी देख रहा तू प्राणी सब ईश्वर की माया है ।
रोम रोम जो रमा हुआ है वही हमारा राम है ।
सांस सांस में जब तक न आता प्राणी में राम है ।।
जीवन हो उथल-पुथल तो प्रभु परीक्षा लेते हैं ।
धीरज को धारण करना प्रभु साहस भी भर देते हैं ।
परमारथ के काम करो उस धन से जो प्रभु देते हैं ।
तन से सेवा कार्य करो प्रभु इसीलिए तन देते हैं ।
दुखी जनो की सेवा में तन मन पाता विश्राम है ।
सांस सांस में जब तक प्राणी पाता न विश्राम है ।।
दुखियों का दुख देख तेरा दिल नहीं दुखे तो क्या दिल है
अपने ही खातिर तू जीता यह तो पशुता  का बल है ।
जो औरों के खातिर बहता वह बनता गंगाजल है।
जो भी तू करता है प्राणी देख रहा प्रभु प्रति पल है ।
दीनों में देखे जो प्रभु को उसको मिलता राम है ।
सांस सांस में जब तक प्राणी पाता न विश्राम है ।
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तौंसवी,1,फ्लेनरी ऑक्नर,1,बंग महिला,1,बंसी खूबचंदाणी,1,बकर पुराण,1,बजरंग बिहारी तिवारी,1,बरसाने लाल चतुर्वेदी,1,बलबीर दत्त,1,बलराज सिंह सिद्धू,1,बलूची,1,बसंत त्रिपाठी,2,बातचीत,2,बाल उपन्यास,6,बाल कथा,356,बाल कलम,26,बाल दिवस,4,बालकथा,80,बालकृष्ण भट्ट,1,बालगीत,20,बृज मोहन,2,बृजेन्द्र श्रीवास्तव उत्कर्ष,1,बेढब बनारसी,1,बैचलर्स किचन,1,बॉब डिलेन,1,भरत त्रिवेदी,1,भागवत रावत,1,भारत कालरा,1,भारत भूषण अग्रवाल,1,भारत यायावर,2,भावना राय,1,भावना शुक्ल,5,भीष्म साहनी,1,भूतनाथ,1,भूपेन्द्र कुमार दवे,1,मंजरी शुक्ला,2,मंजीत ठाकुर,1,मंजूर एहतेशाम,1,मंतव्य,1,मथुरा प्रसाद नवीन,1,मदन सोनी,1,मधु त्रिवेदी,2,मधु संधु,1,मधुर नज्मी,1,मधुरा प्रसाद नवीन,1,मधुरिमा प्रसाद,1,मधुरेश,1,मनीष कुमार सिंह,4,मनोज कुमार,6,मनोज कुमार झा,5,मनोज कुमार पांडेय,1,मनोज कुमार श्रीवास्तव,2,मनोज दास,1,ममता सिंह,2,मयंक चतुर्वेदी,1,महापर्व छठ,1,महाभारत,2,महावीर प्रसाद द्विवेदी,1,महाशिवरात्रि,1,महेंद्र भटनागर,3,महेन्द्र देवांगन माटी,1,महेश कटारे,1,महेश कुमार गोंड हीवेट,2,महेश सिंह,2,महेश हीवेट,1,मानसून,1,मार्कण्डेय,1,मिलन चौरसिया मिलन,1,मिलान कुन्देरा,1,मिशेल फूको,8,मिश्रीमल जैन तरंगित,1,मीनू पामर,2,मुकेश वर्मा,1,मुक्तिबोध,1,मुर्दहिया,1,मृदुला गर्ग,1,मेराज फैज़ाबादी,1,मैक्सिम गोर्की,1,मैथिली शरण गुप्त,1,मोतीलाल जोतवाणी,1,मोहन कल्पना,1,मोहन वर्मा,1,यशवंत कोठारी,8,यशोधरा विरोदय,2,यात्रा संस्मरण,31,योग,3,योग दिवस,3,योगासन,2,योगेन्द्र प्रताप मौर्य,1,योगेश अग्रवाल,2,रक्षा बंधन,1,रच,1,रचना समय,72,रजनीश कांत,2,रत्ना राय,1,रमेश उपाध्याय,1,रमेश राज,26,रमेशराज,8,रवि रतलामी,2,रवींद्र नाथ ठाकुर,1,रवीन्द्र अग्निहोत्री,4,रवीन्द्र नाथ त्यागी,1,रवीन्द्र संगीत,1,रवीन्द्र सहाय वर्मा,1,रसोई,1,रांगेय राघव,1,राकेश अचल,3,राकेश दुबे,1,राकेश बिहारी,1,राकेश भ्रमर,5,राकेश मिश्र,2,राजकुमार कुम्भज,1,राजन कुमार,2,राजशेखर चौबे,6,राजीव रंजन उपाध्याय,11,राजेन्द्र कुमार,1,राजेन्द्र विजय,1,राजेश कुमार,1,राजेश गोसाईं,2,राजेश जोशी,1,राधा कृष्ण,1,राधाकृष्ण,1,राधेश्याम द्विवेदी,5,राम कृष्ण खुराना,6,राम शिव मूर्ति यादव,1,रामचंद्र शुक्ल,1,रामचन्द्र शुक्ल,1,रामचरन गुप्त,5,रामवृक्ष सिंह,10,रावण,1,राहुल कुमार,1,राहुल सिंह,1,रिंकी मिश्रा,1,रिचर्ड फाइनमेन,1,रिलायंस इन्फोकाम,1,रीटा शहाणी,1,रेंसमवेयर,1,रेणु कुमारी,1,रेवती रमण शर्मा,1,रोहित रुसिया,1,लक्ष्मी यादव,6,लक्ष्मीकांत मुकुल,2,लक्ष्मीकांत वैष्णव,1,लखमी खिलाणी,1,लघु कथा,288,लघुकथा,1340,लघुकथा लेखन पुरस्कार आयोजन,241,लतीफ घोंघी,1,ललित ग,1,ललित गर्ग,13,ललित निबंध,20,ललित साहू जख्मी,1,ललिता भाटिया,2,लाल पुष्प,1,लावण्या दीपक शाह,1,लीलाधर मंडलोई,1,लू सुन,1,लूट,1,लोक,1,लोककथा,378,लोकतंत्र का दर्द,1,लोकमित्र,1,लोकेन्द्र सिंह,3,विकास कुमार,1,विजय केसरी,1,विजय शिंदे,1,विज्ञान कथा,79,विद्यानंद कुमार,1,विनय भारत,1,विनीत कुमार,2,विनीता शुक्ला,3,विनोद कुमार दवे,4,विनोद तिवारी,1,विनोद मल्ल,1,विभा खरे,1,विमल चन्द्राकर,1,विमल सिंह,1,विरल पटेल,1,विविध,1,विविधा,1,विवेक प्रियदर्शी,1,विवेक रंजन श्रीवास्तव,5,विवेक सक्सेना,1,विवेकानंद,1,विवेकानन्द,1,विश्वंभर नाथ शर्मा कौशिक,2,विश्वनाथ प्रसाद तिवारी,1,विष्णु नागर,1,विष्णु प्रभाकर,1,वीणा भाटिया,15,वीरेन्द्र सरल,10,वेणीशंकर पटेल ब्रज,1,वेलेंटाइन,3,वेलेंटाइन डे,2,वैभव सिंह,1,व्यंग्य,2075,व्यंग्य के बहाने,2,व्यंग्य जुगलबंदी,17,व्यथित हृदय,2,शंकर पाटील,1,शगुन अग्रवाल,1,शबनम शर्मा,7,शब्द संधान,17,शम्भूनाथ,1,शरद कोकास,2,शशांक मिश्र भारती,8,शशिकांत सिंह,12,शहीद भगतसिंह,1,शामिख़ फ़राज़,1,शारदा नरेन्द्र मेहता,1,शालिनी तिवारी,8,शालिनी मुखरैया,6,शिक्षक दिवस,6,शिवकुमार कश्यप,1,शिवप्रसाद कमल,1,शिवरात्रि,1,शिवेन्‍द्र प्रताप त्रिपाठी,1,शीला नरेन्द्र त्रिवेदी,1,शुभम श्री,1,शुभ्रता मिश्रा,1,शेखर मलिक,1,शेषनाथ प्रसाद,1,शैलेन्द्र सरस्वती,3,शैलेश त्रिपाठी,2,शौचालय,1,श्याम गुप्त,3,श्याम सखा श्याम,1,श्याम सुशील,2,श्रीनाथ सिंह,6,श्रीमती तारा सिंह,2,श्रीमद्भगवद्गीता,1,श्रृंगी,1,श्वेता अरोड़ा,1,संजय दुबे,4,संजय सक्सेना,1,संजीव,1,संजीव ठाकुर,2,संद मदर टेरेसा,1,संदीप तोमर,1,संपादकीय,3,संस्मरण,730,संस्मरण लेखन पुरस्कार 2018,128,सच्चिदानंद हीरानंद वात्स्यायन,1,सतीश कुमार त्रिपाठी,2,सपना महेश,1,सपना मांगलिक,1,समीक्षा,847,सरिता पन्थी,1,सविता मिश्रा,1,साइबर अपराध,1,साइबर क्राइम,1,साक्षात्कार,21,सागर यादव जख्मी,1,सार्थक देवांगन,2,सालिम मियाँ,1,साहित्य समाचार,98,साहित्यम्,6,साहित्यिक गतिविधियाँ,216,साहित्यिक बगिया,1,सिंहासन बत्तीसी,1,सिद्धार्थ जगन्नाथ जोशी,1,सी.बी.श्रीवास्तव विदग्ध,1,सीताराम गुप्ता,1,सीताराम साहू,1,सीमा असीम सक्सेना,1,सीमा शाहजी,1,सुगन आहूजा,1,सुचिंता कुमारी,1,सुधा गुप्ता अमृता,1,सुधा गोयल नवीन,1,सुधेंदु पटेल,1,सुनीता काम्बोज,1,सुनील जाधव,1,सुभाष चंदर,1,सुभाष चन्द्र कुशवाहा,1,सुभाष नीरव,1,सुभाष लखोटिया,1,सुमन,1,सुमन गौड़,1,सुरभि बेहेरा,1,सुरेन्द्र चौधरी,1,सुरेन्द्र वर्मा,62,सुरेश चन्द्र,1,सुरेश चन्द्र दास,1,सुविचार,1,सुशांत सुप्रिय,4,सुशील कुमार शर्मा,24,सुशील यादव,6,सुशील शर्मा,16,सुषमा गुप्ता,20,सुषमा श्रीवास्तव,2,सूरज प्रकाश,1,सूर्य बाला,1,सूर्यकांत मिश्रा,14,सूर्यकुमार पांडेय,2,सेल्फी,1,सौमित्र,1,सौरभ मालवीय,4,स्नेहमयी चौधरी,1,स्वच्छ भारत,1,स्वतंत्रता दिवस,3,स्वराज सेनानी,1,हबीब तनवीर,1,हरि भटनागर,6,हरि हिमथाणी,1,हरिकांत जेठवाणी,1,हरिवंश राय बच्चन,1,हरिशंकर गजानंद प्रसाद देवांगन,4,हरिशंकर परसाई,23,हरीश कुमार,1,हरीश गोयल,1,हरीश नवल,1,हरीश भादानी,1,हरीश सम्यक,2,हरे प्रकाश उपाध्याय,1,हाइकु,5,हाइगा,1,हास-परिहास,38,हास्य,59,हास्य-व्यंग्य,78,हिंदी दिवस विशेष,9,हुस्न तबस्सुम 'निहाँ',1,biography,1,dohe,3,hindi 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रचनाकार: वर्षांत की कविताएँ
वर्षांत की कविताएँ
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