डॉ राजेन्द्र जोशी व्याख्याता - समाजशास्त्र श्री जैन कन्या पी .जी. महाविद्यालय, बीकानेर झाड़ू की उत्पत्ति और महिमा हमारे दैनिक जीवन में अनेक व...
डॉ राजेन्द्र जोशी
व्याख्याता- समाजशास्त्र
श्री जैन कन्या पी.जी. महाविद्यालय, बीकानेर
झाड़ू की उत्पत्ति और महिमा
हमारे दैनिक जीवन में अनेक वस्तुओं का हम उपयोग हजारों वर्षों से करते आ रहे है, उनमें यदि कोई सबसे महत्वपूर्ण उपयोगी और पवित्र वस्तु है तो वह है, झाड़ू, जिसे अनेक नामों से जाना जाता है जैसे - कलुषनाशिनी, सम्मार्जनी, झाड़, कुचा, वाढन, बढ़नी, कोस्ता, पोचड़ा, ख्योरा ब्रुश, पॉलिश आदि नामों से जाना जाता है। जो देश काल के अनुरूप प्रचलित है। जिसे कहीं लोक देवी तो कहीं साक्षात लक्ष्मी का प्रतीक तो कहीं पवित्र प्रतीक और दुष्ट आत्माओं और काले जादू से बचने का शस्त्र या पवित्र दण्ड माना जाता है। झाड़ू, जो अपवित्र रहकर भी पावन माना जाता है, बुरी नजर ना पड़े, कोई चुराकर ना ले जाए, इसलिए इसे छुपाकर रखने, पैर न लगाने से संबंधित सार्वभौमिक मान्यताओं के कारण झाड़ू किसी देश या समाज की उपज न होकर आदिम समाज की उपज है, और आदिम काल में आदि मानव की प्रथम उपभोक्ता वस्तु या विलासिता का प्रथम आविष्कार था। ये बात आज के शिक्षित और तकनीकी मानसिकता वाले लोगों के लिए हास्यास्पद हो सकती है। लेकिन प्रागैतिहासिक काल या उसके पूर्व के आदिम कपि मानव समाजों के लिए झाड़ू अपने आप में एक बहुमूल्य उपभोग योग्य वस्तु थी। जिसका प्रमाण आज भी आदिम समाजों मे पाई जाने वाली मान्यताएं एवं परंपराएं हैं। इसी उपकल्पना को आधार मानकर इस आलेख में झाड़ू से संबंधित तथ्यों का संकलन कर तथ्यात्मक विश्लेषण करने का प्रयास किया गया है, जो इस प्रकार है।
झाड़ू की उत्पत्ति के आधुनिक तथ्य :- पश्चिम जगत के विद्वानों में झाड़ू की उत्पत्ति के संबंध में अलग अलग मान्यताएं एवं तथ्य प्रचलित है।
1- J BRYAN LOWDER का तर्क है कि जिया राजवंश में 4 हजार साल पहले शाओकांग व्यक्ति ने एक घायल तीतर को देखा और उसको मिट्टी में गिरते उड़ते देखा, लेकिन उस पर मिट्टी का कोई प्रभाव नहीं पड़ रहा था तो उसने सोचा यदि उसके पंखों का झाड़न बनाया जाए तो वह एक सफाई का माध्यम होगा और उसने तीतर को मार कर उसके पंखों से झाड़न बनाया। यहीं से झाड़न और झाड़ू की परंपरा प्रारम्भ हुई।
2. चीन में 25-220 ईसवी. में निर्मित पूर्वी हान राजवंश की पत्थर की कब्र के एक दरवाजे पर एक आदमी को झाड़ू लिए हुए दिखाया गया है, जो चीन के चैगदु शहर के सिचुआन प्रांतीय संग्रहालय में रखी गई है। इससे सिद्ध होता है कि इस काल में झाड़ू प्रचलित था।
3. 1453 में यूरोप में झाड़ू की सवारी करने वाला आदमी गुइलामोम ऐडेलिन का उल्लेख कई साहित्यकारों ने किया है। मध्यकाल में झाड़ू (ब्रूम) को चुड़ैलों का परिवहन माना जाता था। इसी काल में 1456 में चुड़ैल का झाड़ू पर सवारी का चित्र मिला जो जादुई दुनिया का प्रतीक चिन्ह माना जाता है।
4. 1652 में डिंगनेस की लड़ाई में डच एडमिलर मार्टन टॉम्स की कार्यवाही से ब्रिटिश एडमिलर रॉबर्ट ब्लेक को परास्त करने के बाद उसने एक झाड़ू को अपने मस्तिष्क पर बांधा था जो सौभाग्य का प्रतीक था।
5. पश्चिम के अधिकतर विद्वान आधुनिक झाड़ू की उत्पत्ति 1797 ई. में मानते हैं। अमेरिका में मेसाचुसेटस में एक किसान लैवी डिकेसंन ने अपनी पत्नी के लिए ज्वार के चारे का एक झाड़ू बनाया था। जो धीरे धीरे पूरे अमेरिका में लैवी ब्रुम के नाम से पहचाने जाने लगा।
इस प्रकार आधुनिक पश्चिमी विद्वानों के मतानुसार झाड़ू का आविष्कार ईसा से 200 वर्ष बाद हुआ। लेकिन मानवशास्त्रियों और आदिम समाजों की लोक मान्यताओं के अध्ययन के आधार पर झाड़ू का प्रचलन आदिम काल से चला आ रहा है।
मानवशास्त्रीय दृष्टि से झाड़ू की उत्पत्तिः-
उद्विकासीय विद्वान हरबर्ट स्पेन्सर, रेडक्ल्फि, ब्राउन मेलिनोवस्की, के मानवशास्त्रीय सिद्धान्तों के आधार पर मानव सबसे पहले खाद्य संकलन और आखेटक अवस्था मे जीवन जीता था। मानव के एैन्थोपोईड पूर्वज आज से लगभग 4करोड़ वर्ष पूर्व दक्षिणी व मध्य अमेरिका और भारत की शिवालिक पर्वत श्रेणियों में निवास करते थे। जो शाकाहारी थे। प्रागैतिहासिक मानव जो आज से 16 से 18 लाख वर्ष पूर्व थे, ये सर्वहारी थे। एैन्थोपोईड में तीन वंश शामिल थे बन्दर वंश, कपि वंश व मानव वंश जिनका क्रमिक उद्विकास हुआ। यानी बन्दर वंश से कपि वंश मे और कपि वंश से मानव वंश में जिसे मायोसिन युग भी कहा जाता है में विकास हुआ।
उद्विकासीय विद्वानों के अनुसार अन्य जानवरों की तरह मानवों की भी पूंछ थी। क्योंकि मानव कपि वंश का है। आदिमानव अन्य जानवरों की तरह पूंछ का कई प्रकार से उपयोग करता था। विशेषकर पूंछ की सहायता से अपने शरीर की सफाई व अपने बैठने और सोने की जगह की पूंछ को सहायता से सफाई करता था। मानव का प्रथम पशु साथी कुते ने भी मानव से ही सफाई करने का गुण सिखा । मानव अपनी पूंछ से चक्कर निकालकर अपने आस-पास की जगह हो साफ करता था। मानव के इसी व्यवहार को देखकर कुत्ते भी उसी सीख की तरह चक्कर निकालकर बैठना सिख गए। और यह गुण दोनों प्राणियों में पीढ़ी दर पीढ़ी हस्तांरित होता गया। यह प्रमाणित तौर पर नहीं कहा जा सकता कि कुत्तों में सफाई करने का गुण इंसान से आया, हो सकता है इंसान ने कुत्तों से सफाई का यह गुण सीखा हो। लेकिन मानव आदिमकाल से ही विवेकशील व जिज्ञासु प्राणी होने के कारण सफाई का गुण या विचार मानव मस्तिष्क की ही उपज है।
उद्धविकास की प्रकियां में हजारों वर्षों में मानव के क्रमिक शारीरिक विकास क्रम में मानव शरीर में अनेक परिवर्तन हुए और ये बदलाव आज से 16 से 18 लाख वर्ष पूर्व प्लीस्टोसिन युग में हुआ। तब मानव शाकाहारी से सर्वहारी बन गया। लेकिन सफाई करने की आदत का गुण पीढ़ी दर पीढ़ी हस्तांतरित होता गया। अब पूंछ के बिना सफाई करना एक चुनौती बन गया तब किसी एक मानव ने अपनी तार्किकता के बल पर जंगली घास की टहनियों को एकत्रित करके उनका गुच्छ बनाया और उससे सफाई का प्रयास किया तो उसमें सफलता मिलने पर इस संदर्भ में समूह के अन्य व्यक्तियों को बताया और इस तरह एक समूह से दूसरे समूह में पूंछ के विकल्प के रूप में झाड़ू का उपयोग किया जाने लगा। यह मानव जीवन का प्रथम व्यक्तिगत आविष्कार था। सामाजिक मानवशास्त्रीयो के अनुसार इस युग मे धर्म और जादू का आविष्कार हो गया था। मानावाद, आत्मावाद और टोटमवाद के रूप में मानव में पवित्रता जादू-टोना, हित अहित संबंधी विश्वास व विचार उत्पन्न हो गए थे। एक रक्त समूह दूसरे रक्त समूहों के जादू टोनों के प्रभाव से बचने के लिए आवास व अपनी उपभोग की वस्तुओं को छुपाकर या गोपनीय रखते थे। ऐसे में झाड़ू उस काल में मानव जीवन की प्रथम उपभोक्ता वस्तु होने के कारण बहुमूल्य था। इसलिए झाड़ू से संबंधित चित्रों या मूर्तियों के निर्माण संबंधी निषेध लागू होने के कारण हमें आदिम काल में झाड़ू के उपयोग से संबंधित प्रत्यक्ष प्रमाण नहीं मिल पाए, लेकिन आदिम समाज में प्रचलित मान्यताओं जादू टोने और टोटमवाद से संबंधित धारणाओं के आधार पर आदिम काल में झाड़ू दैनिक उपभोग की सबसे मूल्यवान वस्तु थी। इस संदर्भ में कुमारी सेम्पल के अनुसार मनुष्य पृथ्वी की धरातल की उपज है, इसका अर्थ केवल इतना ही नहीं है कि वह पृथ्वी की संतान है बल्कि इसका वास्तविक अर्थ यह है कि धूल ने ही उसका लालन पालन किया है, उसे भोजन दिया है, उसे काम पर लगाया है और उसी के बल पर उसकी बुद्धि में तीव्रता और आविष्कार की प्रवृत्ति विकसित हुई है। उसी प्रकार विद्वान कॉडरीगटन ने मेलेनेशिया जनजाति का अध्ययन कर मानावाद की अवधारणा के अन्तर्गत झाड़ू को माना की शक्ति जिसका प्रयोग उचित अनुचित दोनों उद्देश्यों के लिए किया जा सकता है।
आदिम व सभ्य समाज मे झाड़ू से संबंधित मान्यताएं व विश्वासः-
झाड़ू के संबंध में आदिम समाज में अनेक मान्यताएं व टोटके विकसित हुए जो आज भी सभ्य और आदिम समाज में प्रचलित है। जैसे भारतीय जनमानस में झाड़ू के संबंध में अनेक मान्यताएं प्रचलित है जैसे- झाड़ू को छुपाकर रखना चाहिए, झाड़ू पर किसी अन्य व्यक्ति की नजर नहीं पड़नी चाहिए। झाड़ू के पैर लगाना नहीं चाहिए, हिन्दुओं में शीतला माता के हाथ में झाड़ू का होना, भारत के कुछ शिव मन्दिरों जैसे मुरादाबाद के बहजोई में शिव मंदिर पर झाड़ू चढाना, झाड़ू को लक्ष्मी का प्रतीक मानना, दीपावली पर धनतेरस के दिन विशेषकर झाड़ू खरीदने की परंपरा, झाड़ू को संस्कृत में सम्मार्जनी कहना, मिश्र, हरक्वेलियम, पाम्पेई व हड़पा कालीन सभ्यता में झाड़ू के चिन्हों का मिलना, बस्तर की जनजातियों में शादी के बाद दुल्हन को झाड़ू का उपहार देना। अजन्ता व ऐलोरा के चित्रों व मूर्तियों में गणिकाओं के हाथ में चंवर का होना, चंवर भी एक प्रकार का झाड़ू का विकसित पवित्र रूप है जिसका प्रयोग मन्दिरों में भगवान के आगे चंवर करना के रूप में, जैन मुनियों द्वारा हर समय चंवर यानी छोटा सा झाड़ू अपने पास रखने की परंपरा, ऋषि भर्तृहरी ने लिखा है कि
स्त्रीपुसावात्मभागो ते भिन्नमूर्तेः सिसृक्षया। प्रसूतिमाजः सर्गस्य तावेव पितरौ स्मृतौ।।
द्र्रवसंघातकठिनः स्थूलसूक्ष्मो लघुगुरूः। व्यवतो व्यवतेतरश्चासि प्राकाम्यं ते विभुतिषु।।
जिस प्रकार ब्रह्मा ने सृजन करने की इच्छा से विभिन्न आकारों को प्राप्त स्त्री और पुरूष तत्वों का निर्माण किया जो जन्मशील सृष्टि के माता पिता कहे जाते है, उसी प्रकार तुम सम्मार्ज्जनी तेरा एक भाग स्त्री तत्व एवं दूसरा भाग पुरूष रूप का प्रतिरूप है।
मनुस्मृति 3,68 में पंचपाप संबंधी श्लोक में लिखा हैः-
चुल्ली पेषणी उपस्करः कण्डनी च उदकुम्भः च
गृहस्थ पच्ंच सूनाः याः तु वाहयन् बध्यते।
चुल्ली (चुल्हा), चक्की, झाड़ू - पोंछे के साधन, सिलबट्टा तथा पानी का घड़ा, ये पांच पाप के कारण है जिनका व्यवहार करते हुए मनुष्य पापों से बंधता है।
शास्त्रकारों ने तो यहां तक कहा है- अजरजः खररजस्ततः सम्मार्ज्जनीरजः। स्त्रीपादरजौ राजन् शक्रादपि हरते श्रियम्। व्यवहार सौरव्यम्। अर्थात धन्य है सम्मार्ज्जनी! अज की पदधूली, अश्वतर की पदधूलि, सम्मार्ज्जनी की पदधूलि देवराज इंद्र का भी श्री हरण करती है।
उसी प्रकार अग्नि पुराण के 77वे अध्याय में लिखा है कि गौ, चूल्हा, चक्की, ओखल, मूसल और झाड़ू स्तम्भ आदि की व्यवस्था का वर्णन माहेश्वर और स्कन्दं के संवादों में वर्णित है।
बंगाल में कहावत है - लक्ष्मी श्री चाहो यदि झाँटा घर निरवधि, अर्थात लक्ष्मी की कामना है तो घर की सफाई रोज झाड़ू से करनी चाहिए।
बिहार के गया धाम में विष्णु पाद मंदिर में जिस झाड़ू से मंदिर को साफ किया जाता है वह सम्मार्ज्जनी जब मंदिर के बाहर आती तब भक्त उसे अपने सिर पर लगवाते हैं, झाड़ू लगाने वाले को भक्तगण उचित पारितोषिक देते हैं।
वहीं विश्व के अनेक देशों में झाड़ू को पवित्र माना जाता है। जिसका प्रयोग काले व सफेद जादू के रूप में किया जाता है। फिलिपाईन्स द्वीप समूह में बागाबो जनजाति में झाड़ू को लोकदेवता का प्रतीक माना जाता है। आस्ट्रेलिया के बुमरेंग जनजाति में बुजुर्ग व्यक्ति हर समय अपने पास झाड़ू रखते हैं जो सम्मान का प्रतीक माना जाता है। उसी तरह प्रशांत महासागर में स्थित न्युगिनी द्विप समूह के लोग बुरी आत्माओं से बचने के लिए घर के दरवाजे के बाहर झाड़ू लटकाकर रखते हैं ताकि बुरी आत्माएँ उनके घर में प्रवेश न कर सके, कनाडा के मैटिस लोगों में झाड़ू नृत्य परंपरा जो त्यौहारों के अवसर पर की जाती है, अमेरिका और अफ्रीका में झाड़ू पर कूदने की परंपरा पाई जाती है, गुलाम अमेरिकी 18वीं शताब्दी में ब्रूमस्टिक शादी करते थे यानी जो दंपती झाड़ू के ऊपर से कूद जाते थे वे जीवन पर्यन्त एक साथ रहने का अनुष्ठान मानते थे।
उसी प्रकार अफ्रीकी समाज में झाड़ू जिसको मत्स्वायरों कहा जाता है। जिसको स्त्रीत्व और मातृत्व का सच्चा प्रतीक माना जाता है। अब तक किये गए विभिन्न देशों और क्षेत्रों में नस्ल वनस्पति अनुंसधान से प्राप्त तथ्यों से यह पता चलता है कि पारिस्थितिक, भौगोलिक विशेषताओं और विभिन्न सांस्कृतिक विरासत में झाड़ू के रूप में पारंपरिक रूप से प्रयोग किए जाने वाले पौधों या वनस्पतियों के इस्तेमाल, विश्वास और लोक कथाओं में विविधता होते हुए भी एकता या समानता नजर आती है। जैसे भारत, यूरोप और अफ्रीका में सूर्यास्त के बाद घर में झाड़ू लगाने को निषेध माना जाता है। इन सभी समाजों में अंधेरा होने के बाद झाड़ू लगाने वाले घर में आर्थिक हानि होने या लक्ष्मी न आने का विश्वास जुड़ा हुआ है। उसी प्रकार इटली, कनाडा और अफ्रीका मुल्क के देशों में तुलसी की झाड़ से बने झाड़ू को सबसे पवित्र माना जाता है। जिसे ओकुर्थ बेसिलिकम कहा जाता है। यूरोप की लोक-कथाओं और लोक-गीतों में भी इसे विशेष महत्व दिया गया है।
इन सभी मान्यताओं, टोटकों के आधार पर यह कहा जाता सकता है कि झाड़ूमानव जीवन की बहुमूल्य वस्तु है और सभी मानव समाजों चाहे वे विश्व के अलग अलग क्षेत्रों में स्थित आदिम समाज हो या आधुनिक समाज सभी में झाड़ू से संबंधित मान्यताएं और टोटके पाए जाते है, जिनमें लगभग समानताएं पाई जाती है जो इस बात का प्रमाण है कि आज के आधुनिक समाज आदिम समाज के ही विकसित रूप है, जिनकी उत्पत्ति किसी एक समूह या क्षेत्र से हुई है। झाड़ू से जुड़ी मान्यताएं और विश्वास मानव समाज में इसी एकता व पारस्परिक सबंधों का साक्षात प्रमाण है। अन्त में हम कह सकते है कि झाड़ू मानव जीवन की सबसे महत्वपूर्ण अमूल्य उपभोग वस्तु है, जिसके बिना मानव की सभ्यता, धर्म की पवित्रता और जादू या तांत्रिक जगत का प्रभाव निरर्थक है।
संदर्भ :-
1- A HISTORY OF STUDY HOUSEHOLD ESSENTIAL. - J BRYAN LOWDER.
2- BROOM HISTORY - BRIANA , ITALY.
3- principal of sociology.- Spencer herbert,
4- social theorists- Mihanovich c.s.,.
5- primitive culture - jhon murray, londan 1913 - Edward B. tylor.
6- The melanesians , oxford 1891 P119 - Codrington.
7. अथ, सम्मार्ज्जनी कथा - ललित शर्मा (ललित.कॉम).
8. झाड़ू देवी की कथा - रमा चक्रवर्ती (पत्रिका अभिव्यक्ति).
9. द हिस्ट्री ऑफ ऐशियन्ट एंड अर्ली मिडाइवल इंडिया फ्रांम द स्टोन एज टू द ट्वेल्थ सेंचुरी, नई दिल्ली पियर्स लॉन्ग मैन 65 - उपेन्द्र सिंह.
10. ऑरिजिन ऑव स्पीशीज (1859) - चार्ल्स डार्विन.
11. मानव विकास - विकिपिडिया
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