हिंदी का एक साहित्यकार मुझे एक बार मूंगफली गटकता हुआ मिला, मैंने कहा-‘अमां यार, साहित्य की थोड़ी बहुत तो गरिमा रखो, मूंगफली खाकर तुम साहित्य...
हिंदी का एक साहित्यकार मुझे एक बार मूंगफली गटकता हुआ मिला, मैंने कहा-‘अमां यार, साहित्य की थोड़ी बहुत तो गरिमा रखो, मूंगफली खाकर तुम साहित्य का अवमूल्यन कर रहे हो।’
साहित्यकार बोला-‘यही तो कमी है। आम आदमी की समझ में मूंगफली शुद्ध जनवादी खाद्य है। मैंने सदैव सर्वहारा तथा आम जनता के हित में सृजन किया है। फिर मैं दोहरा जीवन भी नहीं जीता जिस यथार्थ को मैं जीता हूँ वही मेरी रचना का मर्म भी है।’
मैं साहित्यकार का उत्तर सुनकर हतप्रभ रह गया। साला अजीब जीव है मूंगफली खाना भी जनवाद में शामिल करता है। तभी मैंने भी दहला मारा-‘लेकिन एक बात मुझे और समझाओ जब मूंगफली जनवादी है तो यह पेंट की जेब में रखा रम का क्वाटर किस वाद को समर्थित करता है।’
साहित्यकार घुटा हुआ था। तनिक भी चेहरे पर परिर्वतन नहीं होने दिया, बोला-‘ऐसा है साहित्यानुरागी, शराब और साहित्य का संबंध अनादिकाल से शाश्वत रूप में चला आया है। जिस शराब को लेकर तुम मुझे नीचा दिखाना चाहते हो, वह भी साहित्य सृजन का मूल स्रोत है। मैं कहता हूँ कि बिना शराब के साहित्य में गंभीरता तथा वास्तविकता आ ही नहीं सकती। मैंने शराब पीना शुरू ही इसलिए किया था ताकि साहित्य अपना सही स्वरूप ग्रहण कर सके।’
‘इसका मतलब साहित्य की अनिवार्यता शराब की घुट्टी के सहारे साहित्यकार को जीवनदान देती है और बिना इस पेय के कोई आदमी साहित्यकार हो नहीं सकता।’
‘अब समझे आप, साहित्यकार और आदमी दो अलग विचार हैं। साहित्यकार आदमी नहीं होता तो फकत आदमी किसी कीमत पर साहित्यकार नहीं हो सकता। अब तुम्हें साहित्य से शराब का सरोकार विषय पर मैं तुम्हें और समझाऊँ। देखो भाई शराब एक नशीला पेय है। इसे पीने के बाद सब चीजें एक समान दिखाई देती हैं। ऊँच-नीच, जांत-पांत सभी तरह के भेदभाव समाप्त हो जाते हैं। जिसने यह दर्जा हासिल कर लिया वह पक्का जनवादी साहित्यकार बन जाता है।’ साहित्यकार ने शराब के पक्ष में दलील दी।
‘परन्तु क्या साहित्यकार के लिए यह नित्य पीना अनिवार्य है अथवा आकेजनली।’ मैंने पूछा।
साहित्य ने उत्तर दिया-‘यह साहित्य की चतुराई पर निर्भर करता है। जो साहित्यकार रोजाना पीता है, वह आम आदमी के निकट पहुँचता चला जाता है।
यदि वह आकेजनली पीता है तो वह यह दर्शाता है कि वह भीतर से भयाक्रांत है। जिसके भीतर भय है वह साहित्य का सृजन ईमानदारी से नहीं कर सकता। फिर साहित्यकार किसे कब-कितनी बार शराब पिलाने की टोपी पहना सकता है। यह चतुराई में है। नये-लेखकों को वह इस मामले में मूंडता है तथा साहित्य का मेनटेन करता है।’
‘जैसे आज जो गोष्ठी साहित्य की उपादेयता पर की जाने वाली है, क्या उसमें यह पेय मान्य है ?’ मैंने कहा।
वह बोला-‘वाह भाई, गोष्ठी और वह भी बिना शराब के-समझ में आने वाली बात नहीं है।’
‘लेकिन यह क्यों होता है ?’
‘देखिये गोष्ठी तो बहाना है बाकी इसकी मौलिकता तो शराब खोरी में निहित है। अनेक साहित्यकार जिन्हें उनकी जेब घर में पीने को एलाऊ नहीं करती वे साहित्यिक गोष्ठियों में इसे पीकर सहित्य को साधे रहते हैं।’
मैं बोला-‘अब आपसे एक बात और जानना चाहूँगा कि आपकी जेब का क्वाटर कब खुलेगा।’
साहित्यकार जिन्हें उनकी जेब से क्वाटर निकाला जो आधा खाली था, और सीधा ही मुंह से लगाकर गटा-गट पी गया। मैंने कहा-‘यह क्या कर रहे हैं आप। क्या इसमें से दो घूँट आप मुझे नहीं देंगे।’
साहित्यकार की आँखें क्रोध से लाल हो गयीं, वह झल्लाया-‘तुम निरे बेवकूफ हो, तुम्हारी नियत को देखकर तो मुझे इसी समय इसे खाली करना पड़ा है। जिस शराब को मैंने पिया है, तुम्हारे लिए अपाच्य थी। क्योंकि तुम साहित्यकार अथवा बुद्धिजीवी नहीं हो। यदि अभी तुम पी जाते तो बुद्धिजीवी होने की गलतफहमी अलग पाल लेते।’
‘यह बुद्धिजीवी क्या होता हैं ?’ मैंने पूछा।
साहित्यकार ने कहा-‘बुद्धिजीवी वह है जो बुद्धि से कमाकर खाये। जैसे मैं हूँ। मैं बुद्धि का पूरा लाभ उठा रहा हूँ मैं साहित्य की वकालात करता फिरता हूँ और मेरी बीबी कमाकर लाती है। मैं मुफ्त में खाता हूँ। सबसे बड़ा बुद्धिजीवी वही है जो अपनी बुद्धि दूसरे को बेवकूफ बनाने में लगाये। यह बुद्धि का कतई अर्थ नहीं है कि आप नौकरी करने लगें और साहित्य को त्याग दें।
प्रगतिशीलता यही कहती है कि साहित्य व नौकरी दो अलग-अलग धरायें हैं। नौकरी करने वाला साहित्य के प्रति ईमानदार नहीं हो सकता। इसलिए मैंने बौद्धिक स्तर पर अपनी पत्नी को नौकरी करने का फैसला किया ताकि मेरा साहित्य बना रहे।’
‘वाकई आपकी दलील तो सार्थक व बड़ी उपादेय है। क्या आप यह भी बता सकेंगे कि आपके घर में गृह कलह का मूल कारण क्या है ?’
इस बार मेरा तीर शायद निशाने पर लगा था सो हिंदी साहित्यकार बगलें झांकने लगा। उसे उत्तर देते नहीं बना तो मैंने कहा-‘मेरी राय में साहित्य के कारण आपके घर की खुशियों का लोप हो गया। जब साहित्य के रचयिता का जीवन सुखी नहीं है तो वह साहित्य सामाजिक व पारिवारिक सुख में क्या भूमिका अदा करेगा ? समझ से परे है।’
‘एक बात बताऊँ आपको, वह यह कि सफल साहित्यकार गृहस्थ जीवन में कभी सफल नहीं रहा है। पति-पत्नी में कभी नहीं बनती है। इसलिए ही तो साहित्यकार के जीवन में पत्नी के अलावा प्रेमिका की भूमिका स्वीकार की गई है। अब आप कहेंगे कि प्रेमिका कैसे मिलती है तो इसका उत्तर इतना ही है कि बिगड़े हुये केस इतने हैं कि सब शांति की तलाश में भटक रहे हैं। मन की यही अशांति साहित्यकार की निकटता का अहसास कराती है। अनेक मामलों में साहित्यकार बहुपत्नीवाद का समर्थक व शिकार रहा है।’ हिंदी साहित्यकार ने असलियत से साक्षात्कार कराया।
मैंने कहा-‘इसका मतलब तो यह हुआ कि जितना बिखराव साहित्यकार के जीवन में हो-वही सही व सफल है। अर्थात् साहित्य और जीवन में विरोधाभास इस नजरिये से अनिवार्य है।’
‘मुझे लग रहा है कि तुम बुद्धिजीवी बनते जा रहे हो और तुम्हारा बुद्धिजीवी बनना तुम्हारे खुशहाल दाम्पत्य जीवन के लिए ठीक नहीं है-अतः उचित तो यह हो कि तुम अकेला छोड़ दो। गर्मी बढ़ रही है-मैं अब ठण्डी बीयर की बोतलें पीना चाहूँगा।’
‘बीयर तो मुझे भी अच्छी लगती है।’
‘मुफ्त की हर चीज अच्छी होती है। यदि तुम अपनी जेब से पैसे निकालकर एक क्वाटर व नमकीन खरीद लाओ तो मेरा जीवन धन्य हो जाये।’ साहित्यकार बोला।
मैंने कहा-‘इसका मतलब हम दोनों ही बुद्धिजीवी हैं। यदि एक जगह ज्यादा देर रहे तो झगड़े की नौबत सौ फीसदी है।’
‘लेकिन तुम अपने आप को घण्टे भर के लिए बुद्धिजीवी समझो ही मत। मुझे पिलाओ और चलते बनो। जिस चेतना ने इस समय मेरे अंतर में जन्म लिया है,
वह चेतना तुम्हारी जेब को हल्का कर देने वाली है और यह निश्चित है कि सार्थक साहित्य के लिए शराब तुम ही ला सकते हो।’ साहित्यकार अत्यंत बेचैनी से बोला।
मुझे तरस आ गया, बोला-‘लेकिन तुम इतने अथिष्ट हो कि इतनी देर से अकेले जनवादी खाद्य खाकर पगतिशील बने हुये हैं।
क्या यह बात तुम्हारे प्रति-क्रियावादी होने तथा दक्षिणपंथी ताकतों से मिला होने का सबूत नहीं है कि तुमने जेब की तमाम मूंगफलियों पर एकाधिकार कर रखा है।’
साहित्यकार ने खींसे निपोर दी, बोला-‘भाई अभी एक पाठक मिल गया था-दिला गया। आपको इसमें से दे दंू यह मेरे भूखे पेट के साथ अनाचार होगा।’
‘इसका मतलब भूख भी सृजन को जीवंत बनाती है।’
इस बार साहित्यकार के मुँह से कडु़वाहट भर गई, वह मुँह बनाकर बोला-‘जिस देश का साहित्यकार भूखा हो और मूंगफलियां खाकर साहित्य की रचना करता हो लानत है मेरे भाई उस देश की सरकार पर।’
‘लेकिन अब तुम ज्यादा देर भूखे नहीं रह सकोगे साहित्यकार। यह लो तीन रूपये और जाकर ढ़ाबे में भोजन कर आओ। तुम्हारा ज्यादा देर भूखा रहना तुम्हारे स्वास्थ्य, साहित्य व तुम्हारी पत्नी के हित में नहीं है।’
साहित्यकार वाकई जरूरतमंद था। उसकी आँखों में चमक लौट आई। वह तीन रूपये लेकर रफू हो गया।
मैंने लौटते हुये देखा तो वह देसी शराब के ठेके पर सडि़यल लोगों के बीच खड़ा साहित्य का गरिष्ठ राग अलाप रहा था। उसने तीन रूपये की रोटी खाने की एवज शराब पीना श्रेष्ठ समझा। मेरा सिर साहित्यकार की समझ पर गर्व से ऊँचा हो गया। मैं उसे धन्यवाद देने ठेके पर जा पहुँचा। मुझे देखते ही वह बोला ‘तुम यहाँ भी आ गये। जाओ साहित्य के दुश्मन तीन रूपये देकर तुमने मुझे देसी शराब पीने को विवश किया है। मैंने पहली बार देसी पी है। क्या तुम मुझे बीस रूपये नहीं दे सकते थे।’
मेरा सिर इस बार उसकी इस चुनौती से शर्म से नीचा हो गया, बोला-‘माफ करना भाई साहित्य और शराब के शाश्वत संबंधों की इतनी नाजुकता का मुझे पता नहीं था, वरना सच कहता हूँ मैं तुम्हें स्वयं ढ़ाबे में ले जाकर साहित्य का ठोस आहार तंदूर की रोटियां खिलाकर साहित्य का भविष्य अंधकारमय करता।’
साहित्यकार शराब के नशे में धुत था-बहकने लगा-‘साली बीस किताबें लिखी, हजारों लेख लिखे फिर भी शराब के तीन रूपये भीख में मिलते हैं
मेरे बच्चे-बीबी सब मुझे लेकर दुखी हैं। साहित्य से संबंध रखने से मुझे मिला क्या है ? मैं साहित्य को आग लगा दूंगा इसने मेरा पूरा जीवन चौपट कर दिया है।’
मैंने कहा-‘धैर्य रखो सब ठीक हो जायेगा। साहित्य का अजीर्ण कई बार यह विफलता जगाता है। घबराओ नहीं मैं तुम्हें आज एक गोष्ठी में पेश करूंगा।’
‘गोष्ठी-साहित्य-किताब सृजन सबसे मुझे घृणा हो गई है मुझे शराब चाहिए शराब।’
साहित्यकार का प्रताप सुनकर मेरी आँखें नम हो गई। रिक्शा में डालकर उसे मैं उसके घर ले आया। कबाड़खाना बना उसका घर सन्नाटे में भन्ना रहा था। मैं उसे खाट पर डाला और चला आया।
घर आकर मैंने भी विचार किया कि साहित्य से अनुराग उत्पन्न किया जावे अथवा नहीं। तो पाया कि साहित्य का यही राग कालान्तर में शराब प्रेम में बदलकर जीवन को तोड़ता है तथा दो कौड़ी की मानसिकता को जन्म देता है। ऐेसे हालात में यदि साहित्य के प्रति रागात्मकता को दूर ही रखा जावे तो श्रेष्ठ है। मैंने साहित्य के प्रति राग जगाने वाली तमाम चीजों को इकट्ठा किया और जला दिया। आज मैं आदमी पहले हूँ। बच्चे खुश हैं तथा साहित्य की छाया भी नहीं पड़ने देता अपने घर के वातावरण पर-साहित्य और शराब से बुद्धि प्रखर होकर आदमी को बुद्धिजीवी बनाती है और बुद्धिजीवी होना किसी भी तरह खतरे से खाली नहीं इसलिए बद्धिजीवी होने से बचिये।
(पूरन सरमा)
124/61-62, अग्रवाल फार्म,
मानसरोवर, जयपुर-302 020,
(राजस्थान)
super
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