स्वतंत्र-भारत में उच्च-शिक्षा का, जहां तक उसकी मात्रा का प्रश्न है, काफी विस्तार हुआ है. विश्व- विद्यालयों और महाविद्यालयों की संख्या कई गुन...
स्वतंत्र-भारत में उच्च-शिक्षा का, जहां तक उसकी मात्रा का प्रश्न है, काफी विस्तार हुआ है. विश्व- विद्यालयों और महाविद्यालयों की संख्या कई गुना बढ़ गई है. तकनीकी कालेजों और संस्थानों की संख्या में भी खूब इजाफा हुआ है. उच्च शिक्षा प्राप्त करने वाले छात्र-छात्राओं की संख्या में भी अच्छी खासी वृद्धि हुई है. लेकिन इस विस्तार के बावजूद हमारी शिक्षा गुणात्मक दृष्टि से अभी भी बहुत पिछड़ी हुई है. विदेशों में हमारी उच्च शिक्षा को काफी हेय दृष्टि से देखा जाता है जबकि रोचक बात यह है कि हमने पाश्चात्य शिक्षा पद्धति को ही अपनाया हुआ है.
आज के भूमंडलीयकरण के युग में विश्व समुदाय के बीच उच्च शिक्षा की महत्ता बढ़ती जा रही है. उच्चशिक्षा पर हाल में अमेरिकन इस्टीट्यूट आफ इण्टरनेशनल एडुकेशन की वार्षिक रिपोर्ट ‘ओपिन डोर २००८’ इस बात की और इशारा करती है कि अभी भी उच्चशिक्षा में भारत को वैश्विक केंद्र बनाने में बहुत समय लगेगा. हमारे देश की उच्चशिक्षा का स्तर बहुर गिरा हुआ है. विश्वविद्यालयों के चुनिंदा ३०० विश्वसिद्यालयों में भारत का एक भी विश्वविद्यालय न होना इस बात का प्रमाण है कि स्वतंत्रता प्राप्ति के बाद सरकारों ने युवाओं को गुणवत्ता पूर्ण उच्च शिक्षा प्रदान करने की दिशा में विशेष रूचि नहीं दिखाई है. आज देश में उच्च शिक्षा के जितने भी केंद्र हैं वे देश के युवाओं के १०% हिस्से को भी शिक्षित करने में सक्षम नहीं हैं. वर्त्तमान में विश्वविद्यालयों से स्नातक की उपाधि लेकर निकलने वाले युवाओं में ८-९ % ही अच्छी नौकरियाँ प्राप्त करने योग्य होते हैं, अर्थात, ९०% स्नातक देश के विकास में उपयुक्त योगदान देने में असमर्थ हैं. जबकि यह सर्वविदित है की विकसित देशों के विकास में उच्चशिक्षा के ढाँचे में महत्त्वपूर्ण भूमिका शिक्षित युवाओं ने ही अदा की है. शिक्षा के सुधारने के लिए गठित समितियों की सिफारिशों के बावजूद आज देश में उच्च शिक्षा के जितने भी केंद्र हैं वे देश के युवाओं को १०% हिस्से को भी शिक्षित करने में सक्षम नहीं हैं. क्या इस सबके पीछे राजनैतिक संकल्प की कमी नहीं दिखाई देती?
स्वतंत्रता पूर्व हमारा जो राष्ट्रीय शिक्षा आन्दोलन था उसमे पाश्चात्य शिक्षा प्रणाली को देश के हित में नहीं माना गया था. प्रश्न उठा था कि किसी भी देश की शिक्षा का स्वरूप कैसा होना चाहिए? ज़ाहिर है, उसका स्वरूप देश की संस्कृति और उसकी आवश्यकताओं के अनुरूप होना चाहिए. छात्रों में अपने देश के प्रति संवेदनशीलता जाग्रत करने वाली शिक्षा होनी चाहिए. लेकिन उस समय स्वतंत्रता- पूर्व की शिक्षा भारत में ठीक इसके विपरीत थी. गांधीजी ने इस शिक्षा का घोर विरोध किया था. उम्मीद की गई थी कि स्वतन्त्र भारत में शिक्षा का स्वरूप बदलेगा और शिक्षा क्षेत्र में सही उद्देश्यों का समावेश किया जाएगा. राष्ट्रीय शिक्षा आन्दोलन में कुछ उद्देश्यों को परिभाषित भी किया गया था और अपेक्षा की गयी थी कि
· सांस्कृतिक धरोहर और प्राचीन ज्ञान-विज्ञान को सभी स्तर पर अनिवार्य किया जाए.
· व्यावहारिक और व्यावसायिक शिक्षा को पाठ्यक्रमों में शामिल किया जाए.
· पाठ्यक्रमों में जो विकृतियाँ आई हैं उन्हें दूर किया जाए. इतिहास की पुनर्व्याख्या हो.
· छात्रों को अपने समाज और देश के प्रति संवेदनशील बनाने की दिशा में शिक्षा कार्य करे.
· छात्रों में सामाजिक और नागरिक दायित्व का बोध विकसित किया जाए.
· सामाजिक कार्य को अनिवार्य किया जाए. उच्च-शिक्षा संस्थानों को गाँवों और शहर की झुग्गी -झोंपड़ियों से जोड़ा जाए.
· मूल्य-शिक्षा का पाठ्यक्रमों में समावेश किया जाए.
लेकिन यदि हम इन उद्देश्यों के प्रकाश में आज की शिक्षा का स्वरूप देखें तो निराशा ही हाथ लगेगी. आज का उच्च शिक्षा प्राप्त युवक भारत की प्राचीन ज्ञान-विज्ञान की धरोहर को बिना समझे बूझे उसकी मज़ाक उडाता देखा जा सकता है, व्यावहारिक और व्यावसायिक शिक्षा पर आज बल ज़रूर दिया जा रहा है किन्तु इससे बेरोज़गारी बजाय घटने के और भी बढ़ती ही जा रही है. उच्च शिक्षा प्राप्त युवक युवतियां केवल बहुराष्ट्रीय संस्थानों में भारी-भरकम पैकेजों के सपने देखते हैं और अपने देश की गरीबी और विपन्नता पर ध्यान तक नहीं देते. अच्छे अच्छे पढ़े-लिखों में नागरिक दायित्व का बोध बिलकुल गायब दिखाई देता है. उच्च शिक्षा प्राप्त युवक-युवतियां इतने आत्म-केन्द्रित हैं कि उन्हें व्यक्तिगत भौतिक लाभ के अलावा समाज-कल्याण की बात सूझती ही नहीं है. इन सब बातों के पीछे यदि कोई एक कारण है तो वह है युवकों में मूल्य-बोध और चरित्र-निर्माण की कमी. इस पहलू पर आज की शिक्षा व्यवस्था का ध्यान ही नहीं है. जबकि किसी भी शिक्षा का यह पहला लक्ष्य होना चाहिए. आज भारत में उच्च शिक्षा प्राप्त लोग जिस तरह निडर होकर धड़ल्ले से भ्रष्टाचार में लिप्त देखे जा सकते हैं वैसा इससे पहले कभी नहीं देखा गया. पहले भ्रष्टाचार की ओर अपनी विपन्नता से दुखी लोग ही उन्मुख होते थे. पर आज लालच और संग्रह-वृत्ति इतनी बढ़ गई है कि वे अपनी सम्पन्नता से भी संतुष्ट नहीं हैं और अधिक से अधिक धन, भले ही वे भ्रष्टाचार से ही क्यों न कमाएं, अर्जित करने में लगे हैं. ऐसे उच्च शिक्षा प्राप्त पढ़े-लिखे लोंगों में नैतिक चरित्र का नितांत अभाव है. कभी कभी तो ऐसा प्रतीत होता है कि वे अपनी बौद्धिक क्षमताओं का इस्तेमाल भ्रष्टाचार को बचाए रखने और उसे प्रोन्नत करने में ही खर्च करते हैं.
राधाकृष्णन आयोग ने अपने सुझाओं में उच्च शिक्षा में सर्वाधिक महत्त्व जीवन-मूल्यों की शिक्षा पर दिया था. इसके लिए यहाँ तक कहा गया था कि शिक्षा के कार्य-क्रम में कुछ देर मौन रहकर ‘प्रार्थना’ को अनिवार्य कर दिया जाए ताकि छात्र-छात्राएं नैतिक प्रश्नों पर सोचने का निश्चित और अनिवार्य समय प्राप्त कर सकें. इसके अलावा आयोग के कुछ अन्य सुझाव भी थे. आयोग ने इस बात पर भी जोर दिया था कि विद्यार्थियों की अतिरिक्त ऊर्जा (सुपर-एनर्जी) को ‘चेनेलाइज’ करने के उचित माध्यम तलाश किए जाएं. इसके लिए एनसीसी और राष्ट्रीय सेवा योजना अनिवार्य की जाने की बात की गई थी. सामाजिक धरोहर और प्राचीन ज्ञान-विज्ञान को भी पाठ्यक्रम में शामिल करने की सिफारिश की गई थी. विज्ञान को अध्यात्म से जोड़ने के प्रयत्न को भी बढ़ावा देने की बात थी क्योंकि यह महसूस किया गया था की आधुनिक तकनीकी मानवता को विकास की बजाय विनाश की और उन्मुख अधिक कर रही है. डा. राधाकृष्णन शिक्षा को जानकारी मात्र नहीं मानते थे. बल्कि उनके अनुसार शिक्षा का उद्देश्य व्यक्ति को एक ज़िम्मेदार नागरिक बनाना है. शिक्षा के व्यवसायीकरण के विरोधी डा. राधाकृष्णन विद्यालयों को ज्ञान के शोध-केंद्र, संस्कृति के तीर्थ और स्वतंत्रता के संवाहक मानते थे. यह डा. राधाकृष्णन का बड़प्पन था की वे राष्ट्रपति बनने के बाद भी अपने वेतन के मात्र चौथाई हिस्से से जीवन-यापन कर समाज को राह दिखाते रहे. उनसे पूर्व रहे राष्ट्रपति डा. राजेन्द्र प्रसाद ने भी स्पष्ट: कहा था कि अब समय आगया है कि विज्ञान और अध्यात्म का समन्वय किया जाए और शिक्षा को नैतिक दिशा की ओर उन्मुख किया जाए.
काशी हिन्दू विश्वविद्यालय की स्थापना के अवसर पर महामना मदन मोहन मालवीय ने कहा था कि ‘’व्यक्ति और समाज के अभ्युदय के लिए बौद्धिक विकास से भी अधिक महत्वपूर्ण है चरित्र निर्माण और उसका विकास. मात्र औद्योगिक प्रगति से कोई देश खुशहाल, समृद्ध और गौरवशाली राष्ट्र नहीं बन सकता. अत: युवाओं का चरित्र निर्माण इस प्रस्तावित विश्वविद्यालय का एक प्रमुख लक्ष्य होगा. उच्च शिक्षा द्वारा यहाँ केवल अभियंता, चिकित्सक, वैज्ञानिक और कुशल व्यापारी तथा शास्त्रज्ञ विद्वान् ही तैयार नहीं किए जाएंगे बल्कि ऐसे व्यक्तियों का निर्माण किया जाएगा जिनका चरित्र उज्जवल हो, जो कर्तव्य परायण और मूल्य निष्ठा से ओतप्रोत हों. यह विद्यालय केवल अर्जित ज्ञान के स्तर को प्रमाणित कर डिग्रियां देने वाली संस्था मात्र न हो कर सुयोग्य और सच्चरित्र नागरिकों की पौधशाला होगा.’’ महामना मानते थे कि ‘जीवन का सर्वांगीण विकास शिक्षा का मूल मन्त्र हो, शिक्षा की ऐसी व्यवस्था हो की विद्यार्थी अपनी शारीरिक, मानसिक, भावनात्मक शक्तियों का विकास कर सकें और आगे चलकर किसी व्यवसाय द्वारा सच्चाई और ईमानदारी से अपना जीवन निर्वाह कर सकें, कलापूर्ण सौन्दर्यमय जीवन व्यतीत कर सकें. समाज में आदरणीय और विश्वास पात्र बन सकें तथा देश भक्ति से, जो मनुष्य को उच्च कोटि की सेवा को प्रेरित करती है अपने जीवन को अलंकृत कर राष्ट्र की सेवा कर सकें.
आज भारत जब विश्व के शक्तिशाली और विकसित राष्ट्रों के बराबर होने का सपना देख रहा है तो इसके पीछे वह संकल्प भी होना चाहिए कि हमारी शिक्षा हमें ऐसी तकनीकी दक्षता और नैतिक साहस दे जो समाज की समस्याओं को हल करने में सहायक हो सके. नागरिकों को संस्कारित और गुणवान बना सके जिससे राष्ट्रीय एकता समरसता और बंधुत्व की भावनाएं प्रोत्साहित हो सकें. इसके लिए राजनैतिक संकल्प की कमी बहुत बड़ी बाधा है. अब समय आ गया है की खुद युवा पीढी आगे आकर राजनीति को बाध्य करे कि शिक्षा के साथ खिलवाड़ बंद किया जाए.
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-सुरेन्द्र वर्मा
- डा. सुरेंद्र वर्मा, १, सर्कुलर रोड / १०, एच ई जी /इलाहाबाद. / (मो) ०९६२१२२२७७८,
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