बुद्ध के देश में. (PART-1) (मेरी भूटान यात्रा) (गोवर्धन यादव) प्रकृति की मनोरम छटा मानव को सदा अपने आगोश में लेने को तैयार रहती है. सच प...
बुद्ध के देश में. (PART-1)
(मेरी भूटान यात्रा)
(गोवर्धन यादव)
प्रकृति की मनोरम छटा मानव को सदा अपने आगोश में लेने को तैयार रहती है. सच पूछॊ तो वह एक प्रकार से मनुहार सी करती लगती है. शायद ही कोई ऎसा अभागा मानव होगा जो प्रकृति के इस मनुहार का लुफ़्त न उठाना चाहे. हरियाली की चादर ओढ़े, आसमान को छूती सी प्रतीत होतीं पर्वतमालाएं, बर्फ़ की पगड़ी बांधे चमचमाते पर्वत शिखर, पाताल सी गहराइयां लिए घाटिंया, कलकल-छलछल के स्वर निनादित करती बहती अल्हड़ नदियां, लहर-लहर लहराती धान की फ़सलें जिनके आचार में दूध पकने को तैयार है, तेढ़े-मेढ़े सर्पीले रास्ते, सेब-फ़लों से लदेफ़दे बागीचे, सुन्दर नक्काशी में सजे बौद्ध मठ, स्थापत्य शैली में बनी इमारतें, विनीत भाव से स्वागत करने को उद्यत प्रवेश द्वार, शानदार पुल, होंठों पर मुस्कान ओढ़े, पारंपरिक पोषाकों में सजी नवयुवतियों को देखकर भ्रम होने लगता है कि हम इंद्र की नगरी अमरावती में चले आये हैं. ये दिलकश नजारे भूटान की खासियत है. यहाँ के लोग अपनी विरासत, परम्पराओं और रीति-रिवाजों पर न केवल गर्व करते हैं बल्कि अपनी शान भी समझते है और यात्रियों का दिल खोलकर स्वागत करते हैं.
भूटान की यात्रा करने से पहले हमें वहां की भौगोलिक स्थिति की जानकारी जरुर प्राप्त कर लेनी चाहिए. भूटान शब्द का यदि हम संधिविग्रह करें तो यह अर्थ प्रतिध्वनित होता है. भू यानि जमीन, उत्थान माने ऊँचाङ प्रदेश = माने एक ऎसा प्रदेश जो ऊँचा हो. आप यहाँ आकर देखेंगे कि सारी पर्वत श्रेणियाँ आकाश को छूती से प्रतीत होती है. हिमालय की तराई में बसे भूटान का कुल क्षेत्रफ़ल 398,390 वर्गकिलोमीटर है. भूटान की मुद्रा नगूलट्रम है जिसकी विनिमय दर एक भारतीय रुपए के बराबर है. यहाँ की राष्ट्रभाषा जोंगखा है, पुरुषॊं की राष्ट्रीय पोषाक “घो” और महिलाओं की “कीरा” कहलाती है. यह ब्रजयानी बौद्ध धर्म वाला देश है. भूटान का अंतर्राष्ट्रीय हवाई अड्डा पारो में है. रन-वे काफ़ी छोटा होने के कारण इसे खतरनाक माना गया है. चारों तरफ़ से घिरे पहाड़ों के कारण हवाई जहाज को उतारने और उड़ाने में पायलट को अतिरिक्त सतर्कता बरतनी पड़ती है, अन्यथा प्लेन पहाड़ से जाकर टकरा सकता है. तीरंदाजी और फ़ुटबाल यहाँ के लोकप्रिय खेल है. भूटान के वैसे तो २२ जिले हैं लेकिन थिंपु, पुनाखा और पारो में देखने लायक बहुत कुछ है. सप्ताह-दस दिन में इन स्थानों का भ्रमण किया जा सकता है.
कुछ बातें ऎसी भी है भूटान के बारे में, जिन्हें जानना और समझना आवश्यक है. पहला तो यह कि सन 1947 तक भूटान भारत का हिस्सा था, बाद में सन 1948 में एक स्वतंत्र देश बना. स्वतंत्रता के बाद से इसमें तेजी से बदलाव आने लगा, पर्यावरण के क्षेत्र में यह अन्य देशों से प्रथम पायदान पर खड़ा है. तीसरा यह कि सन 1999 से इस देश में पालिथिन के प्रयोग पर कड़ाई से प्रतिबंध लगाया गया. चौथा –यहाँ पहुँचना अब भी एकदम आसान नहीं है. पाँचवा-भूटान का मुख्य निर्यात बिजली उत्पाद करना है, जिसे वह भारत को पन-बिजली बेचता है. इसके अलावा लकड़ी, सिमेंट और हस्तशिल्प का भी निर्यात करता है. छटा-भूटान के पास अपनी सेना जरुर है लेकिन नौसेना और वायुसेना नहीं है. इसका मुख्य कारण है कि यह चारों तरफ़ ऊँचे-ऊँचे पहाड़ों से घिरा हुआ है. सात- यहाँ के नागरिकों को पेड़ लगाना पसंद है. किसी प्रिय के जन्म के समय और किसी के दिवंगत होने पर एक पेड़ लगाने की यहाँ प्रथा है. यही कारण है कि यहाँ सघन वन देखे जा सकते हैं. यहाँ के नागरिक चीनी लोगों को बिल्कुल भी पसंद नहीं करते. और सबसे अद्भुत बात यह कि इस देश में न तो कोई मुसलमान रहता है और न ही यहाँ कोई मस्जिद ही है .सन 2006 में सत्ता ग्रहण करने वाला राजा जिग्मे खेसार नामग्येल वांगचुक ने इस देश में बड़े बदलाव किये, जिसे प्रत्यक्ष देखा और समझा जा सकता है.
सात सदस्यी भूटान यात्रा के सहयात्री सर्व श्री राजेश्वर आनदेव (पूर्व प्राचार्य पीजी.कालेज), गोवर्धन यादव (कवि-लेखक-कहानीकार) अध्यक्ष म.प्र.राष्ट्रभाषा प्रचार समिति, जिला इकाई छिन्दवाड़ा एवं पूर्व पोस्टमास्टर (एच.एस.जी-1), श्री नर्मदा प्रसाद कोरी (हेड कैशियर एवं सचिव म.प्र.रा.भा.प्र.समिति), श्री जी.एस. दुबे (से.नि इंजिनियर), श्री महेश चौरसिया ( होटल व्यवसायी पचमढ़ी), श्री अरूण अनिवाल, (से.नि.सहायक कमिश्नर इनकम टैक्स, नागपुर), श्री विजय आनदेव (सहायक कमिश्नर, इनकम टैक्स नागपुर, जो अस्वस्थता के कारण इस ग्रुप में नहीं जा पाए).
ग्यारह नवम्बर को बस द्वारा नागपुर के हम रवाना हुए. शाम 7.05 बजे मुम्बई-हावड़ा गीतांजलि एस्कप्रेस से हावड़ा करीब ढाई बजे पहुँचे. चूंकि हमारी अगली यात्रा सियालदा से रात्रि दस बजे की थी. सो हमने एक टैक्सी किराये पर ली और बेल्लुरमठ और दक्षिणेश्वर महाकाली जी के दर्शन का पुण्य लाभ कमाया. रात 10.30 दिनांक 12-11-2017 को दार्जलिंग ट्रेन से न्युजलपाईगुड़ी सुबह 08.30 पर पहुँचे.. बस स्टैण्ड पर ड्रायवर संतोष लामा विनीत भाव के साथ अपनी जाइलो (WB-7544 ) गाड़ी लिए तैयार मिला. नेपाली-कट, छोटी-छोटी मुस्कुराती आँखे, चौड़ा माथा, कसरती बदन, गोरा रंग और अच्छी खासी कद-काठी के धनी इस युवक के होंठों पर खेलती हंसी देखकर हमारा प्रसन्न होना स्वभाविक था. पूरी यात्रा के दौरान वह हमारे साथ बना रहा. मन में कई सवाल तैरते और वह सबका समाधान करते चलता संतोष, जयगांव का रहने वाला है, जिसकी सीमा भूटान से लगी हुए है. सामान लादा जा चुका था और अब हम ( PHUENTSHOLING ) फ़ुंस्सोल्लिंग के लिए रवाना हुए. रात भर का ट्रेन का सफ़र फ़िर करीब चार घण्टे की लंबी सड़क यात्रा के दौरान हमें तिल मात्र भी थकावट महसूस नहीं हुई. इसका मुख्य कारण यह भी रहा कि हम नित-नूतन होते प्रकृति के बदलाव का आनन्द लेते हुए तिस्ता नदी के किनारे-किनारे निरन्तर आगे बढ़ रहे थे. रास्ते में पड़ने वाले एक होटेल जे.के.फ़ेमिली रेस्टारेंट में सुस्वाद भोजन का आनन्द उठाया रास्ते में एक बार तो हमें गाड़ी भी रुकवानी पड़ी. भूटान-हिमालयान रेंज के अद्भुत दर्शन करने को मिला. पूरा पर्वत-शिखर बर्फ़ की पगड़ी बांधे सुहाना जो लग रहा था.
सभी ने गाड़ी से उतरकर इस विहंगम और नयनाभिराम दृश्य को जी भर के निहारा और फ़ोटोग्राफ़्स भी उतारे. (PHUENTSHOLING ) फ़ुंस्सोल्लिंग से हम महज पच्चीस-तीस मील की दूरी पर थे, तभी टूर-आपरेटर सुश्री कला गुरुंग जी ने संतोष को आदेश दिया कि वह सभी पर्यटकों के वोटरकार्डों की छायाप्रति वाट्साप पर भिजवा दे, वे चाहती थीं कि जब हम यहाँ प्रवेश करें, उससे पूर्व सभी आवश्यक दस्तावेज इमिग्रेशन आफ़िस पहुँच जाने चाहिए ताकि परमिट बनाने में लगने वाले समय को बचाया जा सके. जब हम शाम छः बजे हम टूर आपरेटर सुश्री कला ऊर्फ़ दीक्षिका गुरुंग के आफ़िस में थे. उन्होंने मुस्कुराते हुए हम सबका भावभीना स्वागत किया. औपचारिक चर्चाएं जिसमें भूटान टुरिस्म का विकास, लोगों का खान-पान, फ़सलें, वेशभूषा, कुटीर उद्योग, आर्गेनिक खेती पर सार्थक वार्तालाप हुई और साथ ही गरमा-गरम चाय का लुफ़्त भी हम उठाते रहे.
भारत, बांगलादेश और मालदीव के पर्यटकों को भूटान में प्रवेश करने के लिए वीजा की आवश्यकता नहीं है लेकिन पासपोर्ट या मतदाता पहचान पत्र जैसे पहचान का सबूत दिखाना पड़ता है. भूटान में प्रवेश करने के लिए फ़ुंस्सोल्लिंग में परमिट के लिए टूरिस्ट परमिट लेना आवश्यक है. पर्यटकों के पास-पोर्ट या मतदाता परिचय पत्र के साथ २ पासपोर्ट साइज के फ़ोटो होना अनिवार्य है. टुरिस्ट परमिट निंशुल्क जारी किए जाते हैं. मतदाता परिचय के साथ फ़ोटोग्राफ़्स हम पहले ही भेज चुके थे. सुश्री गुरुंग ने अपनी सहायिका कु. तुलासा को पहले से ही इस काम के लिए नियुक्त कर रखा था, कुछ ही समय में हमारा परमिट बनकर तैयार हो गया. परमिट प्राप्त करने के पश्चात हम रात्रि विश्राम के लिए स्थानीय थ्री स्टार होटेल “दि आर्चेड होटल” जो पहले से ही आरक्षित की जा चुकी थी, पहुँचकर हमने रात्रि विश्राम किया.
13 नवम्बर 2017- “दि आर्चिड होटेल” में रात्रि विश्राम.
सुबह नाश्ते के बाद हमारी मुलाकात होटेल के मैनेजर श्री डेटू से हुई. हिन्दी बोलने-समझने वाले श्री डॆटू से भूटान की कई जानकारियाँ हमें दी. इसी समय हमारी मुलाकत कार्यालय में कार्यरत सुश्री नामगे हामो से हुई. आप बहुत अच्छी हिन्दी बोल लेती है. हमने जानकारी प्राप्त करनी चाही कि वे बोलने के अलावा हिन्दी लिखना-पढ़ना भी जानती हैं कि नहीं? उन्होंने मुस्कुराते हुए उत्तर दिया कि वे हिन्दी में लिख और बोल सकती है. श्री कोरी और मैंने उनके साथ फ़ोटॊ शेयर की और हिन्दी भवन भोपाल से प्रकाशित “अक्षरा” की एक प्रति, श्री कोरी का कहानी संग्रह “मैं कहता आँखन देखी” और आकाशवाणी के उद्घोषक श्री अवधेश तिवारी जी की सतपुड़ा अंचल के भूले-बिसरे मुहावरों और लोकोक्तियों पर प्रकाशित कृति “ कल्लू के दद्दा कहिन” भेंट में दी. चुंकि संतोष के आगमन में देरी थी, अतः हमने स्कूल जा रहे छात्रों से बातें करने का मन बनाया. आश्चर्य, वे साफ़-साफ़ हिन्दी में बातें कर रहे थे. उन्होंने बड़ी सहजता से बतलाया कि उनके अभिभावक हिन्दी जानते हैं, बोलते हैं तो उन्हें भी आती है. चुंकि स्कूलों में हिन्दी नहीं सिखाई जाती, अतः वे लिखना और पढ़ना नहीं जानते. हमने उन्हें हिन्दी लिखना सीखने और-पढ़ने के लिए आग्रह किया. सभी बच्चे-बच्चियाँ अपनी भूटानी वेशभूषा में नजर आ रहे थे. भूटान की राष्ट्रभाषा झोंगखा है. इसके अलावा वहाँ अंग्रेजी, हिन्दी और नेपाली भी बोली जाती है. अच्छी तरह हिन्दी जानने के बावजूद भी यहां के लोग हिन्दी लिखना-पढ़ना नहीं जानते. हमने बच्चों को हिन्दी सीखने-लिखने के लिए प्रेरित किया. बच्चे हमसे मिलकर बहुत प्रसन्नता का अनुभव कर रहे थे. उन्होंने अपनी भाषा में अपना नाम स्वयं अपने हाथों से लिखकर हमें दिया और हमारे साथ फ़ोटोग्रुप भी लिया. बच्चों के नाम श्री नामगे दोरजी, सागर,तनदीन नाम्ग्याल, केवेल्वांग नामग्याल भिनते, किनले दोरजी आदि थे.
14 नवम्बर 2017- सुबह का लंच. नौ बजे के करीब ”थिंफ़ु” (THIMPHU) के लिए रवाना हुए.
थिंफ़ू 1961 में भूटान की राजधानी बनाई गई थी जो विश्व की तीसरी सर्वाधिक ऊँचाई पर बसी राजधानी ( 2,248 मीटर से-2,648 मीटर = 13,000 मीटर) है. पर्यटक सड़क मार्ग से अथवा हवाई मार्ग से यहाँ पहुंच सकता है. वांगछू नदी के किनारे बसे इस शहर के केन्द्र में चार समानान्तर सड़कें हैं. पारम्परिक विकास और आधुनिकता के बीच संतुलन बनाये हुए थिंपू की इन्हीं सड़कों पर मुख्य बाजार, रेस्तरां, शासकीय कार्यालय, स्टेडियम, बागीचे तथा कई दर्शनीय स्थल हैं. रिहायशी इलाका घाटी में दूर-दूर तक फ़ैला है. आधुनिकता की दौड़ में शामिल इस शहर में बहुमंजिला इमारतें, एवं अपार्टमेन्ट्स काफ़ी तादात में बन रहे हैं. पुरुष एवं महिलायें अपनी पारम्परिक पोषाक में नजर आते हैं. अपनी राष्ट्रभाषा जोंगखा के अलावा इन्हें हिन्दी में महारत हासिल है. जहाँ वे एक तरफ़ हिन्दी बोलते-बतियाते तो हैं लेकिन लिखना और पढ़ना इन्हें नहीं आता. शहर से 54 किमी दूर पारो हवाई अड्डा है, जो चारों ओर पहाड़ों से घिरा हुआ है. ऊपर से देखने पर यह एक कटोरे की भांति प्रतीत होता है. रन-वे भी काफ़ी छोटा है. रास्ते में हमें केन्दीय विध्यालय की भव्य इमारत देखने को मिली. इस स्कूल में लड़के-लड़कियाँ साथ पढ़ते हैं. इतनी अगम्य उँचाई पर आकर पढ़ाई के प्रति समर्पण का भाव इन बच्चों में देखकर आश्चर्यचकित हो जाना स्वभाविक ही था. हमनें गाड़ी रोककर बच्चों से बाते कीं. उनके सिलेबस पर चर्चाएं कीं. सभी बच्चे हिन्दी तो अच्छी खासी बोल लेते हैं लेकिन लिखना-पढ़ना नहीं जानते. सुह्री पूजा, पूर्णिमा, ईशे, सरिता, निलमय, मीरा आदि बच्चिंयो के साथ हमने फ़ोटोग्रुप लिये.
( PART-2)
फ़ुस्सोलिंग से थिंपू के रास्ते में पाइन के सघन वन देखकर मन प्रसन्नता से झूम उठा. ये पाइन के वृक्ष 8,000 फ़ीट की ऊँचाइयों पर ही पाए जाते हैं. साथ ही डेंटाफ़ वाटरफ़ाल
देखने को मिला. यहाँ पर बन्दरों की अच्छी खासी भीड़ देखी जा सकती है.
शाम छः बजे के करीब (14-11-2017) हम भूटान की राजधानी थिंपू पहुँच गए. हमें होटल समभाव चुबाचु के ठहराया गया. हम समुद्र सतह से लगभग 13,000 फ़ीट की ऊँचाई पर थे. जाहिर है कि यहाँ का तापमान चार-पांच डिग्री के लगभग था. रात होते ही पारा लुढ़कर (-) माइनस डिग्री पर पहुँच चुका था. कमरे में लगा हीटर भी नाकारा सिद्ध हो रहा था. गरम कपड़े और मोटी रजाई ओढ़ने के बाद भी ठंड सता रही थी. सुबह जब हमने मैनेजर से पूछा कि ऎसे मौसम में कौन भला यहाँ आना चाहेगा. उसने बतलाया कि न्यु-कपल्स इस सीजन में ज्यादा आते हैं,.
बुनाई की कला को जीवित रखने और संरक्षित करने के लिए इस म्युजियम की स्थापना की गई थी. यह महास्त्री आस्थी संगे गंगचुक के संरक्षण में बनाई गई गैर सरकारी, गैर लाभकारी संस्था है, जो भूटानी वस्त्र परंपरा की बुनाई कला को संरक्षित करने के उद्देश्य से प्रशिक्षण के लिए, एक शैक्षणिक केन्द्र के रुप में स्थापित है. संग्रहालय में भूटान के आकर्षक ऐतिहासिक चीजों का प्रदर्शन, विभिन्न क्षेत्रों की महिलाओं और पुरुषों के खूबसूरत भूटानी वस्त्रों का भी यहाँ प्रदर्शित किया गया है.
शहर के दक्षिण-मध्य भाग में स्थापित मेमोरियल स्तूप जिसे थिम्फ़ू चोर्टेन के रुप में भी जाना जाता है, डुक ग्यालपो, जिग्मे दोरोजी वांगचुक को सम्मानित करने के लिए इसकी स्थापना 1974 में तत्कालीन राजमाता के द्वारा निर्मित किया गया था. भूटान में मुख्य स्तम्भ और भारतीय सैन्य अस्पताल के निकट शहर के दक्षिणी-मध्य भाग में स्थित दूबूम लैम पर स्थित एक स्तूप ( झोंखका चोंने , चेटेन ) है। 1974 में तीसरा ड्रुक ग्यालपो , जिग्मेदोरोजी वांगचुक (1928-1972) को सम्मानित करने के लिए बनाया गया स्तूप, शहर में अपनी स्वर्ण spiers और घंटी के साथ एक प्रमुख मील का पत्थर है. 2008 में इसका पुनर्निर्माण किया गया .रास्ता चलते चंगनखा टेम्पल, झिलुखा नुनेरी तथा ताशीछॊडोंग महल और मंत्रियों के आवासों को निहारते कब शाम ढल आयी, पता ही नहीं चल पाया. शाम के घिरते ही हम अपनी होटेल “संभाववा” लौट आए.
पुनाखा.
थिंपू से लगभग 77 किमी दूरी पर अवस्थित पुनाखा भूटान का एक प्रमुख शहर है जो समुद्र सतह से 1,300 मीटर की ऊँचाई पर पोछू ( पितृरुप में मन्ययता प्राप्त ) एवं मोचू (मातृरुप में मान्यता प्राप्त) नदियों के किनारे बसा है. इसे भूटान की प्रथम राजधानी होने का गौरव प्राप्त है. इन्हीं नदियों की ऊँची-नीची घाटियों में चावल की खेती की जाती है. लाल और सफ़ेद किस्म का चांवल यहाँ बहुतायत में होता है. भिक्षुओं के आवास के साथ ही यह धार्मिक केन्द्र भी है. भूटान के संस्थापक शबदरुंग नगवांग नामग्याल के समय यह भूटान की राजधानी रही है. आपका पार्थिव शरीर यहाँ एक कक्ष में रखा हुआ है. यहां ऎतिहासिक इमारते देखी जा सकती हैं. बागानों मे जैविक सब्जियों के साथ ही संतरा, पपिता और सेव जैसे फ़लों वाले पौधे होते हैं.
खामसम यूलली नामग्याल चोंने (khamsum yulley namgyal chorten)
खामसुम यूलली नामग्याल (Chorten Punakha) घाटी के ऊपर एक सुंदर रिज पर बाहर खड़ा है . इस 4 मंजिला मंदिर के निर्माण के लिए इंजीनियरी मैनुअल से सलाह लेने के बजाय 9 सालों का निर्माण और पवित्र ग्रंथों को लेकर विचार किया गया. यह भूटानी वास्तुकला और कलात्मक परंपराओं का एक बढ़िया उदाहरण है. यह मंदिर राज्य के उत्थान, उसके लोगों और सभी संवेदनशील प्राणियों के लिए समर्पित किया गया है. भूटान देश की बाधाओं को दूर करने के उद्देश्य से इस स्तूप का निर्माण क्वीन मदर असी तशेरिंग यंगडोन ने सन 2004 में बनवाया था. इसका बाहरी भाग स्तूप की तरह एक शिवालय के रुप में होता है. बर्ट्सम लामा कुनज़ांग वांगडी , जिसे एचएम डुडोजोम रिनपोछे के एक करीबी शिष्य लमा निंगकुला के रूप में जाना जाता था, इस स्तूप (चोंने) के निर्माण के प्रभारी थे। यहाँ से खड़े होकर आप भूटान-हिमालयान रेंज के दर्शन कर सकते हैं. नीले पहाड़ों की श्रृंखला जिनका शिखर बर्फ़ से ढंका देखकर पर्यटक मंत्रमुग्ध हो उठता है.
15-11-2017-
सुबह गरमा-गरम नाश्ता करने के बाद हम टेक्सटाईल म्युजियम देखा.
वस्त्र संग्रहालय थिंपू भूटान- एक राष्ट्रीय कपड़ा संग्रहालय है जो कि भूटान के राष्ट्रीय पुस्तकालय के पास स्थित है. राष्ट्रीय मामलों के राष्ट्रीय आयोग द्वारा संचालित होता है. 2001 में इसकी स्थापना के बाद संग्रहालय ने राष्ट्रीय और अंतराष्ट्रीय पहचान बनायी है. प्राचीन कपड़ा कलाकृतियों को इसमें सहज कर रखा गया है. इसका उद्देश्य कपड़ा कला कलाकृतियों को बढ़ावा देने, अनुसंधान करने और अध्ययन का केन्द्र बन चुके इस संग्रहालय में बड़ी संख्या में भूटानी लोग पारंगत हो रहे है.
बुद्धा पाईंट
थिंपु शहर के पास ही हमने बुद्ध को समर्पित मन्दिर देखा
बुद्धा पाईंट- थिंपू शहर के निकट दक्षिणी भाग में एक ऊँची पहाड़ी पर बुद्ध की 51.5 मीटर अर्थात 169 फ़ीट ऊंची विशालकाय धातु प्रतिमा ऊँचें अधिष्ठान पर स्थापित है. यहाँ से शिंपू~ शहर की खूबसूरती देखते ही बनती है. भूटान के चौथे राजा जिग्मे सिंग्ये वांगचुक की साठवीं वर्षगांठ पर बुद्ध ( शाकमुनी ) की भव्य प्रतिमा 169 फ़ुट यानी 52 मीटर लंबी मुर्ति की स्थापना की गई थी. इसका निर्माण 2006 में शुरु हुआ और 2010 में बनकर तैयार हुई. सोने के पालिश में बुद्ध की विशाल प्रतिमा, विशाल प्रांगण में चारों तरह सोने के पालिश से सुन्दर नारी-प्रतिमाएं और अपनी पारंपरिक परिकल्पना में बना भव्य पूजा-गृह देखकर आनन्द द्विगुणित हो उठता है. इस प्रतिमा के निर्माण की कुल लागत S- 47 मिलियन थी जिसे चीन के नानाजिंग के.एयरोसुन कारपोरेशन के द्वारा निर्मित किया गया था, जबकि परियोजना कुल लगत 100 मिलियन अमेरिकी डालर आंकी गई थी. प्रायोजकों के नाम, ध्यान हाल में प्रदर्शित किए गए है जो इस बुद्ध की प्रतिमा आदि के निर्माण में सहयोगी थे. विशाल कुएंसेल फ़ादरांग नामक प्रकृति पार्क जो करीब 943.4 एकड़ वन क्षेत्र में फ़ैला हुआ है, यहाँ देखा जा सकता है.
इस बौद्ध मठ की स्थापना 12 वीं शताब्दी में एक ऊँची पहाड़ी पर लामा फ़ाजो रुजौम शिगपो द्वारा की गई थी. मंदिर परिसर से शिंपू शहर का विहंगम दृष्य दिखाई देता है. मन्दिर के चारों ओर 108 मंत्रों से सुसज्जित, हाथ से घुमाने वाले चकरियाँ देखने को मिली. ऎसी मान्यता है कि इसे घुमाने से सारे पापों का अंत हो जाता है. इसी मन्दिर के परिसर में हमारी मुलाकात एक भूटानी महिला सुश्री तिला रूपा छेत्री जी से हुई. आप हिन्दी की अच्छी ज्ञाता है. लिखती-पढ़ती लिखती भी हं.आपने भूटान के बारे में कई रोचक जानकारियां हमें दीं और हमारी डायरी में शुभकामना भी संदेश लिखकर दिया.
मोतीथंग- रायल ताकिन संरक्षित वन
मोतीथंग- रायल ताकिन संरक्षित वन क्षेत्र- 15 वीं शताब्दी में ताकिन को भूटान का राष्ट्रीय पशु घोषित किया था. ताकिन के अलावा यहाँ पर हिरण, बारहसिंघे भी देखे जा सकते है. पूरा वन क्षेत्र मिनिस्ट्री आफ़ एग्रीकल्चर-फ़ारेस्ट के अन्तर्गत आता है.
28 जुलाई 2001 में इस संग्रहालय की स्थापना की गई थी. इसमें भूटान की ग्रामीण संस्कृति और जीवन जीने के तरीके संबंधी अनेकानेक सामग्रियों को प्रदर्शित किया है. प्रदर्शनी में घरों की कलाकृतियाँ, उपकरण तथा अनेकानेक वस्तुएँ संग्रहित की गई हैं. यहाँ कार्यरत महिला कर्मियों--सुश्री अंजल, सनम और संगी से कई विषयों पर जानकारियां प्राप्त हुई. 19वीं शताब्दी के एक तीन मंजिला घर को उसके मूल स्वरुप में ही संरक्षित किया गया है. यह घर मिट्टी एवं लकड़ी से बना है.
नेशनल स्टेडियम ( PART-3)
शाम घिरने को थी और हम नेशनल स्टेडियम के सामने खड़े थे. तीरंदाजी और फ़ुटबाल खेल के लिए इसमें युवा खिलाड़ियों की अच्छी खासी भीड़ होती है. इनका उत्साह देखते ही बनता है. इसी बीच हमारी मुलाकात सेक्युरिटी अफ़सर श्री मणिकुमार जी से भेंट हुई. मिलकर प्रसन्नता हुई और वे हमें गेट बंद होने के बावजूद खेल मैदान में ले गए जहाँ तीरंदाजी में प्रवीण खिलाड़ियों के मध्य 150 मीटर की दूरी पर लगे पाईण्ट पर निशाना साधने का उपक्रम कर रहे थे. देर तक इस रोचक खेल को देखने के बाद हम अपनी होटेल “समभाव” के लिए रवाना हुए.
16-11-2017 दोचुला पास
दोचुला --रात्रि विश्राम के बाद सुबह का नाश्ता-चाय लेने के बाद हम 10.25 बजे पुनाखा शहर के लिए रवाना हुए जो यहाँ से 82 किमी की दूरी पर अवस्थित है. समुद्र सतर्ह से 3020 मीटर पर स्थित दोचुला-पास पर बौद्ध मन्दिर और 108 कलात्मक स्तूपों जो उल्फ़ा उग्रवादियों से लड़ाई करते हुए वीर गति को प्राप्त हुए भूटानी सैनिकों की याद में बनाए गए थे. एक तरफ़ यह विशालकाय निर्माण तो दूसरी ओर भूटान-हिमालयान रेंज की बर्फ़ीली चोटियों को देखकर सारी थकावट दूर हो जाती है.
लोवेसी वेली-रास्ते में लोवेसी-वेली में प्लेट्स खेती (टेरेस फ़ार्मिंग) के भव्य नजारे देखने को मिले. यहाँ के किसान पहाड़ों को काटकर प्लेट्स बनाकर खेती करते हैं. सभी खेतों में चावल बोया गया था. इसी तरह की खेती पुनाखा और पारो में भी होती है. इन विहंग्रम दृष्यों को निहारते हुए अब हम पहाड़ की तलहटी में उतर रहे थे, जहाँ मोचू नदी अपनी तेज गति लिए हुए पहाड़ों से उतरकर बहती है.
मोचू में 14 किमी की राफ़्टिंग.-
भूटान-हिमालयान रेंज से मोचू नदी अपनी तीव्र गति से बहती हुए आती है. इस नदी में हमने करीब चौदह किमी. की राफ़्टिंग की. जीवन में यह पहला अवसर था जब हमने राफ़्टिंग की. सभी मित्रों में गजब का उत्साह था. शुरु में थोड़ा सा डर अवश्य लगा लेकिन नाव पर सवार होते ही वह उड़नछू हो गया था. अब भय की जगह आनन्द ने ले ली थी. रास्ते में हमने पारो से आयी नदी माचो और थिंपू से आयी वांचू नदी का संगम ( chuson) भी देखा. यहाँ पर नेपाली, भूटानी और तिब्बत शैली के स्तूप बने हुए हैं देखने को मिले..
17-11-2017.
शाम घिर आई थी और हम अपने होटेल ’पुनाखा रेजिडेन्सी” में लौट रहे थे. शाम का सुस्वादु भोजन करने के बाद हमने रात्रि विश्राम किया. सुबह उठकर हमनें अपनी बालकनी से बाहर का अद्भुत नजारा देखा. बादल जमीन पर उतरते हुए आगे बढ़ रहे थे. समूचा शहर धुंधलके में नहा रहा था. सुबह का नाश्ता-चाय-पानी लेकर अब हमें अपने अगले पड़ाव पारो की ओर बढ़ना था. भूटान की राजधानी पारो यहाँ से 135 किमी.की दूरी पर है. सुबह के साढ़े दस बज रहे थे और हमारा सामान लादा जा चुका था. जैसे ही यहाँ के स्टाफ़ के लोगों को हमारे जाने की खबर लगी. सारा स्टाफ़ हमें मुस्कुराता हुआ बिदा देने के लिए तैयार खड़ा था..यहाँ का स्टाफ़ काफ़ी सुसंस्कृत-हंसमुख और मिलनसार है. उन्होंने हमसे साथ में फ़ोटोग्रुप लेने का अनुरोध किया.जिसे हमने शर्ष स्वीकार किया और तस्वीरें लीं.
पारो- पारो नगर एक ऐसा स्थान है जहां पर्यटक सदैव आते रहते हैं। यहाँ की सांस्कृतिक छवि पर्यटकों को आकर्षित करती है। यहाँ भूटानी लोगों का रहन सहन का स्तर काफ़ी उच्च-स्तर का है क्योंकि यहां पर्यटको के आवागमन के कारण डॉलरों में लोगों की कमाई होती है। पारो जिले का मुख्य बाजार भी है, अतः यहाँ काफ़ी चहल-पहल भी देखी जा सकती है यहाँ भूटान का राष्ट्रीय संग्रहालय है. पर्यटक भूटान की संस्कृति का अध्ययन करने आते हैं।
हवाई अड्डा-पारो. पारो जाते समय रास्ते में हवाई अड्डा देखने को मिला. चारों तरफ़ से घिरे, ऊँचे-ऊँचे पहाड़ों की तलहटी में बनाया गया यह हवाई अड्डा विश्व का खतरनाक हवाई अड्डा माना गया है. ऊपर से देखने पर यह एक कटोरे की भांति दिखाई देता है.
पारो हवाई अड्डा समुद्र सतह से 2,235 मीटर ( 7,332 फ़ीट) की गहराई में और 5,500 मीटर ( 18000 ) फ़ीट की ऊँचाई वाले पहाड़ों से घिरा हुआ है. इसका रनवे 1.200 मीटर ( 3,900 फ़ीट ) है. पायलट की जरा सी भी भूल से वायुयान सीधे पहाड़ से टकरा सकता है. अतः लैंडिंग करते समय और टेक—आफ़ करते समय पायलट को अति सतर्कता से और सूझबूझ से काम लेना होता है. सन 1968 में इसे भारतीय सीमा सड़क संगठन ने पारो घाटी में एक हवाई पट्टी का निर्माण किया था. शुरु में भूटान की रायल सरकार की ओर से भारतीय सशस्त्र बलों द्वारा हलके हेलीकाप्टर आपरेशन के लिए इस्तेमाल किया. बाद में सन 1981 में भूटान की पहली एअरलाइन स्थापित की गई. बड़े जहाज अब भी यहाँ नहीं उतर पाते. हमने रन-वे पर उतरते और आकाश में उड़ते वायुयानों को देखा.
18-11-2017 चेलेला पास.
पारो से हा जाते समय पारो से लगभग 45 किमी. की दूरी पर चेलेला-पास है. समुद्र सतह से इसकी ऊँचाई 4,200 मीटर है. चेलेला पास से गुजरता सड़क मार्ग भूटान का सबसे ज्यादा ऊँचाइयों वाला सड़क मार्ग है. हा व्हेली एवं चारों ओर के विहंगम दृष्यों को देखकर पर्यटक खुशी से झूम उठता है. शीतल-ठंडी-बर्फ़ीली हवा के झोंके पर्यटकों का दिल खोलकर स्वागत करते हैं. शरीर में ठिठुरन-सिहरन होने लगती है. पहाड़ पर रंग-बिरंगी पताकाएं इस जगह की खूबसूरती में चार चांद लगा देती है. जानकारी लेने पर पता चला कि भूटानी अपने सगे-संबंधी के देहावसान के बाद उसकी स्मृति में इन पताकाओं को फ़हराते है. इन पताकाओं में लगने वाले कपड़े का रंग, धूप और पानी में उतर जाने के बावजूद भूटानी भाषा में लिखे अक्षर स्पष्ट रुप से देखे जा सकते हैं. चेलेला पाईंट पर से जुमाएली माउनटेन सहित अनेक पहाड़ बर्फ़ से ढंके दिखाई देते है.
इंडियन आर्मी बेस
भूटान और चीन की सीमा पर रायल भूटान आर्मी तैनात रहती है. देश की अंखण्डता और संप्रभुता बनाए रखने के लिए जिम्मेदारी भूटान की सशत्र सेना की जवाबदारी है. चीफ़ आफ़ आर्मी भूटान नरेश हैं. रायल आर्मी फ़ोर्स सीमा की सुरक्षा के साथ ही शाही परिवार और अन्य वी.आई.पी की सुरक्षा के लिए भी जिम्मेदार होती है. भारत और भूटान के मध्य हुई संधी के अनुसार भारतीय सेना सेकेण्ड लाईन का उत्तरदायित्व का निर्वहन करती है. हमने यहाँ तैनात वीर सैनिकों का अभिवादन किया और साथ ही फ़ोटोग्रुप भी लिए. इस सुखद मुलाकात के बाद अब हम वापस हो रहे थे और 3000 फ़िट की ऊँचाइयों पर फ़िर से चढ़ रहे थे.
18-11-017.
दोपहर तीन बजे के करीब हम लोग पारो स्थित “होटल दोरजिलिंग” पहुँचे. पारो शहर का भ्रमण किया. रात्रि नौ बजे हमने सुस्वादु भोजन का आनन्द उठाया. रात में पारा लुढ़क कर काफ़ी नीचे आ चुका था. उस दिन तापमान दो डिग्री के लगभग था. आधी रात बाद पारा माईन्स डिग्री पर जा पहुँचा था.
( PART-4 )
19-11-2017
टाकसांग मोनेस्ट्री ( टाइगर नेस्ट)-
टाकसांग मोनेस्ट्री ( टाइगर नेस्ट)- भूटान के पारो शहर के पास हिमालय की 10 हजार फीट की ऊँचाइयों पर बसा है यह टाइगर नेस्ट (बौद्ध मठ). इस गुफ़ा मठ की स्थापना 300 साल से भी ज्यादा पुरानी बताई जाती है.
हिमालय की पहाड़ियों पर बने टाइगर नेस्ट मोनीस्ट्री पहाड़ों के बीच बनी इस गुफा तक पैदल ही जाया जा सकता है. जो लोग ट्रेकिंग अच्छी करते हैं, उन्हें कम से कम दो से तीन घंटे बौद्ध मठ तक चढ़ने में लगते हैं, लेकिन जैसे ही बौद्ध मठ पर पहुंचते हैं, सारी थकान दूर हो जाती है वहाँ मिलने वाला आध्यात्मिक माहौल और वहाँ से दिखने वाली हिमालय की वादियाँ एक अलग ही आनन्द देती हैं~. इस बौद्ध मठ से भी ऊपर एक और बौद्ध मठ है, जो बच्चों का गुरुकुल है. कहा जाता है कि 1692 में टाइगर नेस्ट बौद्ध मठ का निर्माण हुआ था. इससे पहले 8वीं शताब्दी में यहाँ की गुफा में बौद्ध गुरु पद्मसंभवा ने तीन साल तीन महीने तीन हफ्ते तीन दिन और तीन घंटे तक ध्यान किया था. यह भी कहा जाता है कि पद्मसंभवा (गुरु रिम्पोचे) इस गुफा तक टाइगर की पीठ पर बैठकर उड़ते हुए आए थे. यहाँ घोड़े वाले भी अधिक संख्या में देखे जा सकते हैं. महज आठ सौ रुपए में ये पर्यटक को केवल आधी ऊँचाई तक ही लेकर जाते हैं. आगे का रास्ता और भी कठिन होने के कारण पार्यटक को पैदल ही चढ़ना होता है. फ़िर घोड़े वाले उन्हें वापिस लौटाकर नहीं लाते. इसका मुख्य कारण है अत्यधिक निचाई. एकदम ढलवा उतराई के चलते पर्यटक के गिर जाने का खतरा होता है. सारी जानकारी लेने के बाद हमने ऊपर न जाने का फ़ैसला किया और पास ही बनी दुकानों से पसंद की चीजें खरीदीं. पर्यटक तब और आश्चर्य में पड़ जाता है कि इतनी अगम्य ऊँचाइयों पर इसे कैसे कैसे बनाया गया होगा? वह समय न तो मशीनों का युग था और न ही कोई अन्य साधन उपलब्ध थे. टायगर नेस्ट देखने के बाद, लौटते समय हमने एक स्थान पर भूटानी ड्रेस में फ़ोटो शूट कीं.
अब हमारा अगला पड़ाव हमारा भूटान के नेशनल म्यूजियम की ओर था.
राष्ट्रीय संग्रहालय- टा झोंग (Ta Dzong)
पश्चिमी भूटान में पारों शहर में एक सांस्कृतिक संग्रहालय है. 1968 में पुनर्निर्मित भवन महामहिम जिग्मे दोरजी वांगचूक के समय के भूटानी परंपरा कला के बेहतरीन नमूने, कास्य मूर्तियां, सुन्दरतम मुखौटे, सुन्दर पेंटिग्स, डाक-टिकटें आदि संग्रहित की गई हैं. ऊँचाई पर होने के कारण इसका उपयोग कभी बाच-टावर ( 1627) के रुप में किया जाता था. अब इसे बदलकर संग्रहालय बना दिया गया है. आज राष्ट्रीय संग्रहालय में भूटानी कला के 3,000 से अधिक कामों को संग्रहित करके रखा गया है. इसमें भूटान की सांस्कृतिक विरासत के 1500 से अधिक वर्षों तक की कारीगरी शामिल है. विभिन्न रचनात्मक परंपराओं और विषयों की इसकी समृद्ध धारणा, वर्तमान के साथ अतीत की भी एक उल्लेखनीय मिश्रण का प्रतिनिधित्व करती है और स्थानीय और विदेशी पर्यटकों के लिए बड़ा आकर्षण का केन्द्र है. नेशनल म्युजियम के निर्माण के लिए हमारी भारत की सरकार ने वित्तीय सहायता प्रदान की है. लौटते समय हमने पारो स्थित डिस्ट्रिक आफ़िस को देखा. भूटानी शैली बने इस कार्यालय को देखकर उन कलाकारों की याद हो आयी, जिन्होंने कभी इस अद्भुत इमारत का निर्माण किया होगा.
रात्रि में हम फ़िर एक बार फ़िर हम डिस्ट्रिक आफ़िस
देखने पहुँचे. रंग-बिरंगी रोशनी में नहाते/चमचमाते इस इमारत को देखकर तबीयत खुश हो गई. अपने आफ़िस को किस तरह रखा जाता है, यह यहाँ आकर सीखा जा सकता है. इस इमारत के पास गिफ़्ट आइटमों की दूकान थी, जिसमें हमने कुछ आइटम की खरीद की. भूख जोरों की लग आयी थी और अब हम अपनी होटेल दोरजीलिंग वापिस लौट रहे थे. रात्रि में सुस्वादु भोजन करने के बाद हमने रात्रि विश्राम किया. हमारी यात्रा का यह अन्तिम पड़ाव था और अगली सुबह हमें वापिस लौट जाना था.
20-11-2017
पारो स्थित होटेल दोरजीलिंग में सुबह का नाश्ता-चाय-पानी के पश्चात हमें फ़ुस्सोलिंग के रवाना होना था. लौटने का विचार मन में आते ही उदासी घेरने लगी थी. मन किसी भी कीमत पर लौटने का नहीं हो रहा था. एक बार कोई यदि भूटान आ जाये और यहाँ की रम्य वादियों में घूम ले तिस पर यहाँ के लोगों से गहरी आत्मीयता हो जाए, तो फ़िर उन्हें छॊड़ने को मन भला कैसे गवाही दे सकता है?. मन पर किसी तरह नियंत्रण करने के बाद हमने अपना सामान पैक किया. गाड़ी पर लादा और भारी मन से बिदा हुए. होटेल में कार्यरत सभी कर्मचारियों ने भारी मन से हमें बिदा किया.
शाम घिर आयी थी और हम भूटान ट्रैवल वर्ल्ड की मैनेजिंग डायरेक्टर सुश्री कला/दीक्षिका जी के आफ़िस पहुँचे. उन्होंने हमारा आत्मीय स्वागत किया. शाम की चाय आफ़र की और जानना चाहा कि टूर के दौरान हमें कोई तकलीफ़ तो नहीं हुई. निश्चित रुप से हम इस यात्रा से गदगद थे. इतने कम पैसों में नौ दिन, किसी विदेशी धरती में रुक पाना आसान काम नहीं होता ! वैसे भी हमने जी भर के इस यात्रा का आनन्द उठाया ही था. मन यहाँ कुछ ज्यादा ही रम गया था. प्रत्येक व्यक्ति की याद ताजा हो उठती जिनके बीच रहकर हमने नौ दिन बिताए थे. उनका अपना कुशल व्यवहार- मिलनसारिता और नैसर्गिक मुस्कान का जादू अब तक हम पर तारी था. दिल भूटान छोड़नेको तैयार नहीं हो रहा था, लेकिन समय सीमा की भी अपनी मजबूरी होती है. किसी तरह दिल को मनाते हुए अब हम अपने देश भारत की ओर लौट रहे थे. यादों को और पुरजोर बनाने के लिए हमने कला जी के आफ़िस के कर्मचारियों के साथ फ़ोटोग्रुप लिया. पुनः यात्रा पर आने के लिए आमंत्रित करते हुए सुश्री कला जी ने हमें भावभीनी बिदाई दी.
कला गुरुंग के आफ़िस में हम सब. भूटान की सीमा को छॊड़ते हुए हमने भारत की सीमा में प्रवेश किया. रात्रि के करीब नौ बजे हम पश्चिम बंगाल के जयगांव जिले में स्थित लाटागुरी रिजर्व फ़ारेस्ट के नजदीक ग्रीन टच टूअर्स इको रिसोर्ट पहुँचे जयगांव जिले में स्थित लाटागुरी रिजर्व फ़ारेस्ट के नजदीक ग्रीन टच टूअर्स इको रिसोर्ट पहुँचे.
ग्रीन ट़च टूअर्स इको रिसोर्ट.-लातागुरी --उत्तर बंगाल के जलपाईगुड़ी जिले में ग्रीन टच टूअर्स इको रिजार्ट बागडोगरा हवाई अड्डे से 90 किम, ,एनजीपी से 80 किमी की दूरी पर अवस्थित है. यह एक विकसित पर्यटन स्थल है. लाटगुरी में हमारे होटल के आसपास हिमालय पर्वत के गोद से प्रकृति की सुंदरता को देखते हुए, क्लाउड के सूरज
और सर्फ के साथ, प्राचीन ग्रीन वैली और असंबेड सील जंगल ने इस स्थल को लतागुरी में रहने वाले पर्यटकों की तलाश में लोकप्रिय बना दिया, यह लतागुरी में सबसे सुंदर पारिस्थितिकी रिसॉर्ट्स में से एक है। श्री सरकार जो बड़दद्दा के नाम से प्रसिद्ध हैं, ने हमारा आत्मीय स्वागत किया. साथ में रात्रि का भोजन किया और अगली सुबह चार बजे तैयार होने को कहा ताकि हम रिजर्व फ़ारेश्ट में घूमने और जंगली जानवरों को देखने के लिए पास बनवा सकें. श्री आनदेव और बड़दद्दा रात्रि चार बजे उठे और परमिट बनाने के लिए रवाना हो गए. सुबह छः बजे हम सफ़ारी के लिए निकल पड़े.
इस अभ्यारण में एशियन रैनो माने एक सीग का गेण्डा देखने को मिलता है. इसके अलावा यहाँ जंगली हाथी, जंगली भैसा, हिरण, मोर और रंग-बिरंगे पक्षी देखे जा सकते है.
21-11-2017-सुबह की चाय और नाश्ता करने के बाद हम न्युजलपाईगुड़ी के लिए रवाना हुए और सियालदह होते हुए नागपुर और नागापुर से टैक्सी के द्वारा छिन्दवाड़ा पहुँचे. भूटान से आए हुए दो सप्ताह बीत चुके हैं लेकिन भूटान की छवि अब तक मन-मस्तिक पर छाई हुई है. वहाँ का रहन-सहन-मिलनसारिता-नयनाधिराम दृष्यावलियाँ और मंत्रमुग्ध कर देने वाली मुस्कुराहट भुलाए नहीं भूलती. एक दिन मेरे एक मित्र ने उत्सुकतावश एक प्रश्न पूछा कि “मैंने सुना है कि भूटान एक गरीब देश है ?.”
मैं नहीं जानता कि उसने भूटान के बारे में जानने की कभी कोशिश भी की है या वह किसी अन्य से सुनी-सुनाई बातों को दोहरा रहा था. अब मेरी बारी थी कि उसे आँखों देखा हाल सुनाऊँ. मैंने कहा- “मित्र..जिस देश में बुद्ध जैसे महान व्यक्ति को पूजा जाता हो, जहाँ चहुँ ओर शांति का वातावरण हो, वह गरीब कैसे हो सकता है? फ़िर जिसके पास अकूत वन-संपदा हो, वह गरीब कैसे हो सकता है? भूटानी अपनी पारंपरिक वेश-भूषा में रहते हों और उस पर गर्व करते हों ,वह गरीब कैसे हो सकता है? जिसकी वाणी में नम्रता हो, होठों पर निश्छल मुस्कुराहट थिरकती रहती हो, वह गरीब कैसे हो सकता है? पर्यावरण को शुद्ध बनाए रखने के लिए जिस देश में काफ़ी समय से पोलिथिन पर प्रतिबंध लगा दिया हो और जहाँ कचरा ढूंढने पर भी न दिखाई देता हो, वह भला गरीब कैसे हो सकता है? जिस देश में फ़ाईव स्टार होटलों का जाल सा बिछा हो और विश्व के अनेकानेक देशों से लोग उसकी छवि देखने के लिए आते हों, वह भला गरीब कैसे हो सकता है?. जिस देश में फ़ोर-व्हीलर अधिकाधिक रुप से प्रयोग में लाई जा रही हो और टू-व्हीलर व्हीकल ढूंढने पर भी न दिखाई देती हो, क्या वह देश गरीब हो सकता है?. जहाँ एक भी झोपड़-पट्टी नहीं दिखाई देती हो, जहाँ एक भी भिखारी भीख मांगते दिखाई नहीं देता, वह गरीब कैसे हो सकता है? जिस देश में एक से बढ़कर एक अट्टालिकाएं अपनी विरासत को संजोए हुए खड़ी हों, वह गरीब कैसे हो सकता है? उन्होने वह सब बचा कर रखा है, और अपने जीवन में उतार रखा है, जिसकी की आज जरुरत है, वरना और भी तो देश हैं जहाँ धन की नदियां बहती हैं, विश्व में जिनकी तूती बोलती है. वे आज उतने ही कंगाल है क्योंकि वे हंसना तो छोड़िये, मुस्कुराना भी भूल चुके हैं. न तो वे सुख पूर्वक जी पा रहे हैं और न ही तनदुस्त रह पा रहे हैं. कुल मिलाकर यह कहा जा सकता है भरपूर धनाढ्य होने के बावजूद उन्होंने टेंशन पाल लिया है, जिसकी कोई दवा न तो लुकमान के पास थी और न ही किसी के पास हो सकती है. यदि सहज और सरल जीवन जीना हो, शुद्ध वातावरण में जीना हो, मुस्कुराते हुए जीना हो, तो उसे भूटान के रास्ते पर चलना ही होगा.
103,कावेरी नगर,छिन्दवाड़ा (म.प्र.) 480-001 गोवर्धन यादव (अध्यक्ष, म.प्र.रा.भा.प्र.समिति ) Mob-o0924356400 Email- goverdhanyadav44@gmail.com
सम्मा.श्रीयुत श्रीवास्तवजी,
जवाब देंहटाएंसादर नमस्कार.
अत्यन्त ही प्रसन्नता की बात है कि मेर्री भूतान यात्रा का पूरा विवरन आपने प्रकाशित किया. हार्दिक धन्यवाद...भवदीय-यादव.
सुन्दर वर्णन और चित्र
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