नाटक थैंक्यू स्लीमेन राजेंद्र चंद्रकांत राय पात्र परिचय स्लीमेन : विलियम हेनरी स्लीमेन अंग्रेज अफसर, भारत से ठगों का उन्मूलन करने ...
नाटक
थैंक्यू स्लीमेन
राजेंद्र चंद्रकांत राय
पात्र परिचय
स्लीमेन : विलियम हेनरी स्लीमेन अंग्रेज अफसर, भारत से ठगों का उन्मूलन करने वाला,
युवा आयु, जो क्रमशः प्रौढ़ होती जाती है।
धरम खां : ठग जमादार और सोथा, अर्थात् शिकार के बारे में पता लगाने वाला
बोधू उर्फ़ कौर खलकसिंह : ठग तिलहाई, अर्थात् गुप्तचरी करने वाला
खबास
जुल्फकार : ठग जमादार
मुसाफिर : दक्कन से आने वाला राहगीर
ठग एक
ठग दो
कई और भी ठग
ले. वाड : स्लीमेन के साथी मित्र
ले. चार्ल्स : स्लीमेन के साथी मित्र
अर्दली कल्याणसिंह
ठग मोतीसिंह
कुछ पुलिसवाले
फर्दनवीस
नगरसेठ
व्यापारी,
ज़मींदार
यूरोपियन
कोहका गांव का पटेल
ग्रामवासी
नौजवान लड़के
स्लीमेन के साथी अफसर
काल :
19 वीं शताब्दी का आरंभिक समय
स्थान :
कलकत्ता, नरसिंहपुर और जबलपुर
इस नाटक का प्रदर्शन, इलेक्ट्रॉनिक उपयोग अथवा फिल्म रूपांतर हेतु लेखक की अनुमति अनिवार्य है।
पहला दृश्य
सन् 1813।
मुहर्रम के त्यौहार का समय। जुल्फकार जमादार, बोधू जमादार, हिंगा जमादार, खान साहिब उर्फ़ नूर खान, खलील, करीम उर्फ़ करोंदी, धरम खां, मोहन ब्राह्मण पारासर, शेख नग्गू, महासुख, मचल, राजेह खां उर्फ़ रजाले, शेख इनायत, हरसिंह राय पाठक, हरसिंह राय टेहनगुरिया, भदई, पहाड़, लालजू सुकुल, समधा ब्राह्मण और आधार जमादार के ठग गिरोहों के ठग, छपारा के गाँच चूरी में जमा हुए। ज़िला सिवनी, मध्यप्रदेश।
इरादा था ठगी-अभियान पर निकलना।
ठग लोग अमराई में अपने डेरे पर आराम कर रहे हैं। उसी समय सत्ताईस मुसाफिरों का दल चुरी पहुँचा। वे सब के सब घोड़ा व्यापारी थे और दक्कन से लौटकर पश्चिम दिशा की ओर जा रहे थे। वे बाग में ठहरने की बजाय, बाज़ार में जाकर ठहरे। व्यापारी सुरक्षा की दृष्टि से बाज़ार में ही ठहरा करते हैं।
धरम खां : (बाज़ार से लौटकर जमादारों से)- मालदार 'बनिज' हैं जमादार...। गिनती में सत्ताईस हैं। चार टट्टुओं पर माल लदा है...। नकद रुपया और दीगर दौलत भी होगी, ऐसा लगता है...। घोड़े खरीदते-बेचते हैं।
बोधू : (ऊँची आवाज में जयकार) बोल भवानी माता की जै...।
सामूहिक स्वर : जै...। जै...। जै...।
जमादारों ने सिर जोड़े और आगे की योजना पर गोपन-चर्चा होने लगी। दूसरे ठग अपने-अपने काम पर लग गये। उन्हें गोपन-चर्चा में न तो शामिल होने का अधिकार है और न ही उसे सुनने का।
सुबह होते ही वे सत्ताईस मुसाफिर छपारा के लिये चल पड़े। ठगों का गिरोह भी उनके पीछे-पीछे चल पड़ा।
बोधू जमादार मुसलमान, खुद को कौर खलकसिंह कहा करता है और इस बात पर इतराता भी है। वह तिलहाई (गुप्तचरी) के लिये चला गया।
मुसाफिरों की 'तिलहाई' के लिये एक और ठग उसके साथ कर दिया गया था। वे उन पर नज़र रखे हुए थे, ताकि उनकी गतिविधियों को जाना जा सके। एक 'तिलहा' बाज़ार में, दिन भर, इधर-उधर घूम-घूम कर पान चबाता रहा और उस दूकान पर नज़रें जमाये रहा, जिसमें मुसाफिर ठहरे थे। दूसरा यानी खलक सिंह एक नाई से मालिश और चंपी कराने में व्यस्त रहा। नाई की तारीफों के उसने बड़े-बड़े पुल बाँधे।
खलकसिंह : वा भईया, छपारा के खबास...। ऐसी उम्दा मालिश तो कभूं नईं देखी। करान की बात तो छोड़ई दो।
नाई खुश होता रहा और मालिश के नये-नये हुनर दिखाता रहा। मुसाफिरों में से एक मुसाफिर भी उस तरफ आ निकला और मालिश का तरीका देखने लगा। ठग ने उसे देखा तो कहा
खलकसिंह : तुम सोई मालिस करा लौ भईया...। बहुतईं उम्दा मालिस करत है जे खबास...।
मुसाफिर : कराना नईं है। मगर देखना ज़रूर है।
खलकसिंह : कहूँ बाहर के लगत हो भईया...।
मुसाफिर : मुसाफिर हैं। बाहर से आए हैं, आगे चले जाएंगे...।
खलकसिंह : कहाँ से आ रए हो भैईया...?
मुसाफिर : दक्कन से।
खलकसिंह : और कहाँ जाहौ...?
मुसाफिर : जब्बलपुर तरफ जाएंगे...।
खलकसिंह : अब रहन दे खबास भाई...। ले तैं एक आना धर ले।
खबास ने एक आना लेकर 'राम-राम' कहा।
खलकसिंह : हमाओ नाँव कौर खलकसिंह आय...। हम भी बई तरफ जा रए हैं। पर...?
'पर' कहकर बोधू खामोश हो गया और कपड़े पहनने लगा।
मुसाफिर : पर क्या भाई जी...?
खलकसिंह : (सिर पर पगड़ी रखते हुए) रस्तो बड़ो खराब है...।
मुसाफिर : खराब मानै...?
खलकसिंह : (चहरे पर भय पैदा करके) खराब मानै, खतरौ।
मुसाफिर : कैसे...?
खलकसिंह : (उसके कंधे पर हाथ रखकर) इतै से पहले कभूँ नईं गुजरे का...?
मुसाफिर : नईं...।
खलकसिंह : तबई...। तबई...। हम बोई सोच रए थे कि खतरौ काये नईं जानौ आप...?
वे दोनों वहाँ से चल पड़े।
खलकसिंह : अच्छा, जे बताव अकेलई हो का...?
मुसाफिर : नईं, वैसे तो हम सत्ताईस आदमी हैं...।
खलकसिंह : सत्ताईस...। एक बीसी और सात...?
मुसाफिर : हाँ...।
खलकसिंह : कुल्ल हैं, मगर खतरौ तो ऐसे भी बड़ो कहानो...।
मुसाफिर : (डरकर) माने सत्ताईस आदमियों पर भी खतरा हो सकता है...?
खलकसिंह : सत्ताईस...? पचास पै भी होत है, भईया...।
मुसाफिर : कैसा खतरा...?
खलकसिंह : अब रस्तई में सबरी बातें नै पूछौ...। का पता इतई खतरौ हो जाय...।
मुसाफिर : तो...?
खलकसिंह : देखो भईया ... हमौरै तो हैं मुतके झने...। तीरथ पै जा रए हैं। कई गाँवन के
लोग जमा करके निकरे कहाने। मगर...। चलौ छोड़ो...। अब बाहर निकर हैं,
जंगल-पहाड़ के रस्ता पे चलहैं तो खतरो तो रैहई...। ऊसे का डरने... एं...? मुसाफिर : (और डरकर) आप हमें अच्छे मिल गये। अब ऐसा करो कि हमारे डेरे पे चले चलो।
हम अपने बड़ों से भी आपकी मुलाकात करा दें।
खलकसिंह : हओ...। चलौ...। आदमिअई आदमी के काम आत है...। परदेस में जौन संगै होय,
बोई सगो हो जात है...।
बोधू उर्फ़ कौर खलकसिंह ठगों के डेरे पर लौटा, तो अकेला न था उसके साथ एक और आदमी था। उसने ज़ुल्फकार जमादार से उसका परिचय कराया
खलकसिंह : बड्डे...जे भईया भी हमौंरों जैंसई मुसाफिर आएं...। दक्कन से आ रए हैं और
जब्बलपुर की तरफ जाहैं...। संगै छब्बीस जना और हैं...। बजारै में मिल गए हते
तो जान-पहचान हो गयी। हम तो इनके डेरे पे जाकें तमाखु भी पी आये...। बड़े
भले और सीधे आदमी कहाने जे लोग...।
जुल्फकार : आओ-आओ भईया...। आ जाओ...। इतै बैठ जाओ...।
मुसाफिर ने लंबा-चौड़ा लाव-लश्कर देखा। तंबू और खच्चर देखे। सब देख-दाख कर खुश हुआ। ढाढस बंधा। ताकत आयी।
मुसाफिर : हम लोगों को भी अपने साथ रहने और चलने की इज़ाजत दे दीजिये। हम भी
आप लोगों के साथ ही आगे के सफर पर निकलेंगे...।
जुल्फकार : भईया कहत तो तुम ठीक हौ, मनौ बगैर जान-पैचान के कोउं खों संगै कैसे कर
लें...? बताओ...।
मुसाफिर : (खलकसिंह की तरफ इशारा करके) इनसे जान-पहचान हो गयी है। कहते हैं राह
में सब एक-दूसरे के रिश्तेदार हो जाते हैं। एम-दूसरे के काम आते हैं।
जुल्फकार : काय नईं, काय नईं...। कहावत भी है कि एक से दो भले, हम तो कहत हैं, तीन
सौ से चार सौ भले...काये? भरोसो बड़ी चीज है, मगर आदमी भरोसो करकेई
खतरे में पड़त है। जेई से जरा सावधानी रखत हैं, नईं तो हमाओ का जा रओ
संगै चलबे में...? तुम अपनी गैल चलहौ, हम अपनी। गैल का हमाये बाप की आय
कि तुमाए बाप की...काये भइया...?
वे लोग सारे ठहाका लगाकर हँसने लगे।
जुल्फकार : तो अब जानलौ भइया....। ऐसों है कि हमओरें इतै से भुनसारे निकल हैं। तुम भी
अपने लोगन के साथ आ जानै...। संगै चले चलहैं...और का...।
मुसाफिर : बड़ी मेहरबानी भाई जी...।
जुल्फकार : एमें मिहरबानी की का बात है...। आदमिअई आदमी के काम आत है...का...? सुनो
सब झनै...। ऐसो करहैं कि भुनसारे जल्दी निकल पड़हैं। नातर घूप हो जाहै। दो
गुटन में बंट जाओ तुम औरें...। आधे जाहें हमाये और जे मुसाफिरन के संगै। और
आधे नटवारा की गैल...का...? अलग-अलग रस्ता से निकरौ...। मनो
नटवारा में सबरे संगै हो जाहें...का...?
मुसाफिर : (जरा चिंतित होकर) ऐसा क्यों...? अलग-अलग जाने का क्या मतलब ?
जुल्फकार : (हँसकर) भईया, रास्ते में जित्तो खतरा होत है, उससे भी जादा खतरा तो बजार में
हो जात है। भीड़-भाड़ देखकैं चीजन के दाम बढ़ा देत हैं ब्योपारी लोग...। का...?
मुसाफिर : (इत्मीनान पाकर) अच्छा तो ये बात है....!
वह भी हँसने लगा। फिर हुक्का पीकर बड़े सुकून के साथ वह अपने डेरे पर लौट गया।
मुसाफिर के जाने के बाद
जुल्फकार : अब ऐसों करो कि दो बिलहा और दो लुगहा अब्भईं आगे निकर जाएं...। का...?
बिलहा बा जग्घा तय कर लें, जहां पै झिरनी दई जाहै और लुगहा उतै पे कबर
खोद कैं तैयार रखें...का...?
ठग एक : हओ जमादार...।
दो बिलहा और दो लुगहा दो घंटा पहले ही आगे रवाना हो गये।
मुसाफिरों के साथ जाने वाले गिरोह के सरदार तय हुए- बोधू जमादार, नूर खां, हिंगा जमादार, खलील खां, ज़ुल्फकार जमादार, इनायत, हरीसिंह राय और लालमन। दल छपारा से आगे जब्बलपुर के लिये रवाना हुआ।
उनमें से कुछ अपने-अपने इलाकों के गीत गाने लगे। कुछ थोड़ा आगे निकल गये और कुछ थोड़ा पीछे रह गये। कुछ लोग आपस में बातें करते हुए चलने लगे। दो-तीन कोस चलकर सुस्ताया भी गया। हुक्का-पानी हुआ। कुछ लोगों ने थोड़ा-बहुत खाया-पिया भी। फिर आगे बढ़े। अब रास्ता पूरी तरह से सुनसान होने लगा।
तभी दोनों बिलहा और लुगहा रास्ते के किनारे बीड़ी पीते मिले
जुल्फकार : (बिलहाओं से रामासी भाषा में) कटोरी मांजे...?
बिलहा : मांजे...।
मुसाफिर : ये क्या कहा भईया आपने...इनसे? समझ में नहीं आया...।
जुल्फकार : अरे कछु नईं, बरतन साफ करने के बारे में पूछ रए हैं...।
मुसाफिर : अच्छा...अच्छा...।
जुल्फकार : लो भइया जे आ गये 'चिथरियापीर' और 'ककरियापीर'...का...?
मुसाफिर : कोई गांव का नाम है यह...?
जुल्फकार : अरे नईं...। गांव अबै कहां...? अबै तो मुतको जंगल-पहाड़ है...। असल में का है कि
इतै दो झाड़ हैं। एक खों कहत हैं 'चिथरियापीर' और दूसरे खों 'ककरियापीर'ं।
जौन भी मुसाफिर इस रास्ते से गुजरत है, चिथरियापीर पै कपड़ा की एक चिंदी और
ककरियापीर पर थोड़े से कंकर-पत्थर चढ़ात जात है। ऐसों मानत हैं कि
चिथरियापीर और ककरियापीर पर चिंदी और कंकर-पत्थर चढ़ान से रस्ता में कौंनउ
परकार की विपदा नईं आउत आय...का...?
दोनों पीरों के पास पहुँचकर
बोधू जमादार : सब झनै ठैर जाओ भाई, तनक देर के लाने...।
काफिला थम गया
बोधू जमादार : सब झनै चिथरियापीर और ककरियापीर पै चढ़ाव करौ... और उनसे दुआ मांगौ
कै पूरो रस्ता खुसी-खुसी कट जाय। कौनई बाधा-बिपदा नै आय।
अलाय-बलाय दूर रहै।
जमादार की बातें सुनकर सभी ठगों ने चिथरियापीर पर चिंदियाँ और ककरियापीर पर कंकर-पत्थर चढ़ाना शुरू कर दिया। पीरों के सामने आँखें मूंदकर हाथ जोड़े। दुआएं मांगीं।
दक्कन वाले मुसाफिर खड़े-खड़े इस पूरे नज़ारे को देखते रहे। पिछले दिन जिस मुसाफिर की बोधू जमादार से दोस्ती हो गयी थी, उसने बोधू जमादार के करीब जाकर कहा
मुसाफिर : क्या हमें भी चिंदी और कंकर चढ़ाना चाहिये ?
बोधू जमादार : ज़रूर चढ़ाने चईये भैया...। गैल की जेई रीत हे...। बड़े-बुजुर्ग बना गये हैं,
तो कछु सोच केई गना गये हुअहैं। काये से की दोनों पीर मुसाफिरों की
इच्छा पूरी करत हैं न्। तो चढ़ान में बुराई का है...?
उस मुसाफिर ने जाकर अपने साथियों से बातचीत की। तब बाकी मुसाफिर भी चिंदी और कंकर जमा करने में जुट गये। चिंदियां पुराने कपड़ों से फाड़ी गयीं और कंकर रास्ते से उठाये गये। सत्ताईस के सत्ताईस मुसाफिरों ने एक साथ चिथरियापीर पर जाकर चिंदियां चढ़ाकर हाथ जोड़कर आँखें मूंदीं और दुआएं मांगना शुरू किया। जिस समय वे अपनी सुरक्षित यात्रा के लिये दुआएं माँग रहे थे ठीक उसी समय जुल्फकार जमामदार ने ऊँची आवाज में झिरनी दे दी
जुल्फकार : तमाखू तो लै आव...।
संकेत सुनते ही पीले रूमाल के सत्ताईस फंदे सत्ताईस गलों पर जा पड़े। दो-दो समसिया ठगों ने प्रत्येक मुसाफिर के हाथों को जकड़ लिया। गले घोंट दिये गये। जरा सी भी आवाज उनके मुंहों से न निकल पायी। मुसाफिर ज़मीन पर लाशें बनकर गिर पड़े।
बोधू जमादार : (चिल्लाकर) देखने कोई बचन नै पाय...। कोउ जिवालु नै रहै...।
ठग एक : निसाखातिर रहें जमादार साहिब..., सबरे ऊपर पौंच गये हैं...।
बोधू जमादार : कोऊ बचौ तौ नईं...?
ठग दो : इक्कौ नै बचौ।
बोधू जमादार : लाशन की तलाशी लेखें जो मिलै, इकट्ठो कर लो। फिर सबके कपड़ा उतार
लौ। और जा तो बताओ कि पेट फाड़बे कै लाने खूंटा बनाओ है कि नईं...?
ठग एक : (डेढ़ हाथ लंबाई वाला पैना खूंटा दिखाकर) जो घरो है जमादार...। चिंता नै
करो।
लाशों के सारे कपड़े उतार लिये गये। कमर में बंधे रुपये, गले और कानों में पहने हुए जेवर खींच लिये गये। लाशों के पेट फाड़ दिये गये, ताकि लाशें फूलकर कब्र से बाहर न आ जायें। रीढत्र की हड्डी तोड़कर लाशों को दुहरा कर दिया गया। फिर लाशें कब्र में पहुंचा दी गयीं। मिट्टी से कब्र को मूंद दिया गया। उस पर झाड़ी-झंखाड़ रखकर उन्हें पत्थरों से दबा दिया गया, ताकि जानवर लाशें खोदकर बाहर न निकाल लायें।
ठग दो : (हाथ साफ करता हुआ लौटकर) सब काम हो गओ, जमादार...।
बोधू जमादार : साबास...। ईनाम के काबिल काम करौ सबने...। हिस्सा के अलावा दो-दो
रुपैया और मिलहैं...।
जुल्फकार : अब देरी ना करौ। चलो...। आगे नटवारा में सवा रुपैया को गुड़ खरीद लेने।
उतईं तुपौनी को गुड़ खाओ जाहै। का...?
बोधू जमादार : हओ...। चलौ...। जै भवानी....!
समूहिक स्वर : जै भवानी...।
अगले ही क्षण ठगों का गिरोह पहले की तरह गाता-गुनगुनाता रास्ते पर चल पड़ा।
बोधू जमादार : देहरिया दुरलब भई रे, दुरलब भई रे,
मोहे अंगना तो भये बिदेस रे....
देहरिया अरे हो...
घूंघट पट उंचे तो करो रे, उंचे तो करो रे,
परदेसी से कर लो चिन्हार रे...
घूघट पट हो...
कुंवर दोउ राजा दसरथ के, राजा दसरथ के
वे तो ऊबे जनक जी की पौर रे
कुंवर दोउ हो...
दृश्य : दो
युवा स्लीमेन 1814-1816 के नेपाल युद्ध में शिरकत करने के बाद कलकत्ता लौट आये हैं। युद्धों से मन विरक्त हो गया है। एक फौजी अफसर के तौर पर अपनी सेवाएं देने की बजाय वे चाहते हें कि किसी कॉलेज में पढ़ाने का अकादमिक काम मिल जाये तो बेहतर। आवेदन दे रखा है और इंतज़ार है जवाब का।
प्रतीक्षा का यह समय वे बिताते हैं फोर्ट विलियम कॉलेज की लायब्रेरी में। पुस्तकों के मनभावन संसार के बीच में। उनके लिये सबसे सुकूनदेह जगह यही है।
स्लीमेन जिस मेज पर बैठकर किताबें पढ़ते हैं, उसी के पास लगे दोटे से रैक पर अधूरी पढ़ी हुई किताब को रख जाते हैं, ताकि अगले दिन फिर उसे वढ़ने के लिये वहीं पर पा सकें। पर आज उनकी वह पसंदीदा किताब उस जगह पर नहीं है। वे उसे खोजते हैं और न पाकर लायब्रेरियन के पास पहुंच जाते हैं।
स्लीमेन : लायब्रेरियन सर, मैंने कल अपनी मेज के पास वाली रैक पर एम थेवनाट के
ट्रेवलॉग्स वाली किताब रख दी थी। पर वह वहां पर नहीं है। प्लीज, आप मेरी
कुछ मदद करेंगे?
लायब्रेरियन : क्यों नहीं लेफिटनेंट स्लीमेन साहेब...! आखिर हम यहां पर हैं किसलिये...? थेवनाट
के ट्रेवलॉगस् वाली जिस किताब की आपको तलाश है, वह यहां हैं। लीजिये...।
लायब्रेरियन ने अपने पीछे के रैक से निकालकर किताब स्लीमेन के हाथों पर रख दी। स्लीमेन खुश हो गये
स्लीमेन : थैक्यु सर...। अवपने उसे सम्हालकर रख दिया था। मैं समझ रहा था कि कोई उसे
इश्यु न करा ले गया हो...!
लायब्रेरियन : वेलकम सर...। क्या मैं आपसे एक बात पूछ सकता हूं मि. स्लीमेन...?
स्लीमेन : हा-हां, क्यों नहीं, ज़रूर पूछिये...।
लायब्रेरियन : मैं देखता हूं कि आप रोज़ इसी किताब को पढ़ा करते हैं। अब तक आपने इसे
कम से कम छह बार तो पढ़ ही लिया होगा...?
स्लीमेन : हां, कई बार पढ़ चुका हूं। पर मन ही नही भरता। यहां तक कि रात को किताब
के वाकयात मेरी आंखों के सामने आकर घूमते रहते हैं। जो कुछ यहां पर पढ़ता
हूं, वह सब जैसे जिंदा होकर मेरे सामने फिर से घटित होने लगता है।
लायब्रेरियन : यह तो बड़ी अनोखी बात है। मैंने किताबों के बड़े-बड़े मुरीद देखे हैं, पर ऐसा
किसी के साथ हुआ हो, इसकी एक भी मिसाल नहीं है मेरे पास। आखिर ऐसी
क्या बात है इसमें...? किताब तो मैंने भी पढ़ी है। दिलचस्प तो है, पर..., इसमें
और कोई खास बात मुझे नज़र नहीं आयी।
स्लीमेन : हो सकता है कि इसमें ऐसी कोई खास बात ही न हो...। फिर भी कुछ है, जो मुझे
परेशान सा करता है। पढ़े जाने के लिये अपनी तरफ खींचता सा है...।
लायब्रेरियन : आखिर वह क्या चीज है...? यही तो मैं जानना चाहता था, सर आपसे...। अगर
आप बताना चाहें तो...।
स्लीमेन : (संकोच के साथ) हां, मगर..., अच्छा...। आपसे क्या कहूं...? सुनकर आप हंसेंगे ही।
इसलिये कहने में संकोच हो रहा है...। पर...।
किताब पलटाकर एक पेज खोलते हैं और लायब्रेरियन को दिखाते हैं।
स्लीमेन : लीजिये इस हिस्से को पढ़िये जरा...।
लायब्रेरियन : (किताब अपने हाथों में लेकर जोर से पढ़ता है) ''जिस सड़क के बारे में मैं बता
रहा हूँ, वह दिल्ली से आगरा को जाती है, बरदाश्त करने के काबिल है, हालांकि
उस पर चलते हुए बहुत सी बाधाओं का सामना करना पड़ता है। किसी की
मुलाक़ात बाघ से हो सकती है और किसी को शेर मिल सकता है। अगर आप
इस रास्ते से जा ही रहे हों तो लुटेरों से सावधान रहें, और इन सब बातों के
अलावा अगर कोई मुसाफिर-समूह आपके पास आ पहुँचे तो उसके साथ तो
यात्रा हरगिज न करें। दुनिया के सबसे ज्यादा धूर्त ठग, इसी देश में हैं। ये लोग
फंदे वाली एक रस्सी का प्रयोग करते हैं, जिसे ये लोग किसी भी आदमी के गले
में उस वक़्त बड़ी आसानी से डाल देते हैं, जब वह उनकी पहुँच के अंदर होता
है। इस काम में वे कभी असफल नहीं होते, लिहाजा चुटकी बजाते ही वे गला
घोंट देते हैं। इसके पीछे ऐसे लोग भी होते हैं, जो लोगों को फुसलाने के काम
में बड़े चतुर होते हैं। वे इस काम को दूर रहकर भी उतनी ही कुशलता से कर
लेते हैं, जितना कि नजदीक रहकर। अगर एक बैल या कोई अन्य जानवर जो
कारवां के साथ हो, और भागकर दूर चला जाये, तो वे उसे भी, उसकी गर्दन
पकड़कर दबोच लाने में, असफल नहीं होते।''
तो इसमें क्या खास बात है स्लीमेन सर, यह एक पिछड़ा हुआ मुल्क है।
न रास्ते हैं, न सुरक्षा है। लोग तीर्थ पर जाते हैं और लौटकर घर नहीं आते।
उनके बारे में मान लिया जाता है कि वे स्वर्ग चले गये होंगे। बस। कोई
खोजबीन नहीं होती। खोजबीन करना भी चाहें तो कहां करें...?
स्लीमेन ने लायब्रेरियन को अजीब सी आंखों से देखा। उसके हाथ से किताब वापस ले ली।
स्लीमेन : हां, इसमें कोई खास बात नहीं है। मुझे ही वहम हुआ होगा। थैक्स।
स्लीमेन किताब लेकर फिर से अपनी मेज पर चले गये और उसे पढ़ने लगे। उसी पेज को।
कुछ देर बाद दो उनके मित्रों का आगमन
ले. वाड : (अपने साथी से) देख लो चार्ल्स, मैं न कहता था कि विली लायब्रेरी के सिवाय और
कहीं हो ही नहीं सकते...। वे रहे।
ले. चार्ल्स : हलो विली...हाउ आर यू...?
स्लीमेन : आय एम फाइन...। वन मिनट प्लीज...,मैं अभी आया।
स्लीमेन ने किताब को रैक पर करीने से रखा और मित्रों के पास आ गये
स्लीमेन : हां सुनाओ, वाड तुम कैसे हो...?
ले वाड : फाइन...। तुम्हारा खत आया है...। तुम नहीं थे, तो मैं इसे लेकर तुम्हारी खोज में यहां
चला आया। ये लो...।
स्लीमेन : (खत लेकर) अरे यह तो हेडक्वार्टर से आया है। (खोलकर पढ़ते हैं) ओह...शिट...।
ले. चार्ल्स : क्या हुआ स्लीमेन...?
स्लीमेन : चार्ल्स, मैंने मिलिट्री सर्विस से एकैडमिक सर्विस में ट्रांस्फर मांगा था, और देखो तो
जरा कि मुझे सिविल सर्विसेस में भेज दिया गया है। लिखा है हम आपके टैलेंट को
क्लास रूम की चहार दीवारी में बरबाद होने नहीं दे सकते। उसका बेहतर उपयोग
सिविल सर्विसेस में करो। क्या क्लास रूम में टेलेंट बरबाद किया जाता है? ऐसा है
तो कोई टीचर-प्रोफेसर बनता ही क्यों है...?
ले वाड : नाराज क्यों हो रहे हो विली...? यह तो और भी अच्छा है। अब अफसर बन कर मजे
करो।
स्लीमेन : वायसराय के एजेंट का असिस्टेंट बनाकर किसी सागर-नर्मदा टेरिटरी में भेज रहे हैं...
। अगर यही मौज-मजा है तो मैं ज़रूर करूंगा...।
ले. चार्ल्स : पर यह जगह कहां पर है...?
स्लीमेन : मैं भी नहीं जानता। अब इसे मैप में ही तलाशना होगा...।
ले. वाड : चलो अच्छा है, अब वहां पर तलाश ही तलाश करने का मौका मिलेगा...। चार्ल्स,
स्लीमेन को वैसे भी अक्सर यह वहम होता है, कि उसके पीछे-पीछे कोई आ रहा है।
या कोई उसे बुला रहा है। आवाज दे रहा है। हो सकता है कि जो उसे बुला रहा है,
वह उसी टेरिटरी में मिले..., जहां अब हमारे स्लीमेन साहेब जाने वाले हैं...।
स्लीमेन : (लज्जित होते हुए) अरे, वह सब तो यूं ही मजाक वाली बातें हैं...। नेपाल-वॉर से
लौटा हूं न्, तो लगता है कि अभी वार-फीवर ही चल रहा होगा...। फौजियों के साथ
अक्सर ऐसा हो जाता हैं। वे वॉर-फीवर के शिकार हो जाते हैं। ऐसी-वैसी बातें करने
लगते हैं। शायद मैं भी उसका शिकार हो गया होउं...।
ले. चार्ल्स : जो भी हो, पर मि. स्लीमेन, आपके जैसा बढ़ियां दोस्त खो देने का हमें हमेशा ही
मलाल रहेगा।
ले. वाड : मलाल क्यों करते हो, दोस्त...? हमारा जी न लगा, तो हम भी फौज से ट्रांस्फर
मांगकर, मि. स्लीमेन के खोज-कार्यक्रम में लग जायेंगे...।
सब हंसते हुए विदा हुए
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दृश्य : तीन
स्लीमेन ने सागर में ज्वाइनिंग की। बाद में उनको सागर से जब्बलपुर भेजा गया है। जब्बलपुर का एक अफसर लंबी छुट्टी पर चला गया है। उसका काम सम्हालने स्लीमेन जब्बलपुर आये हैं। अस्थायी तौर पर।
कलेक्ट्रेट के सामने मैदान में पुराने और गंदे कपड़े पहने, गठरियां लिये बहुत से राहगीर गैठे हुए हैं।
कलेक्टर फ्रेजर : मि. स्लीमेन, आपके जबबलपुर आ जाने से मुझे बहुत मदद मिल रही है। हुआ
यह था कि मि. वुड के साल भर के लिये लीव पर चले जाने के कारण पेंडेंसी
बहुत बढ़ गयी थी। आपने यहां पर आकर सारा काम सम्हाल लिया है। आपसे
जो मदद मिल रही है, उससे मैं बहुत संतुष्ट हूं।
स्लीमेन : थैंक्यु सर, पर यह सब तो मेरा कर्तव्य है। आप मेरे काम से संतुष्ट हैं, यही
मेरे लिये सबसे बड़ा ईनाम है। पर... वे लोग कौन हैं सर, मैं देख रहा हूं कि
वे वहां सामने मैदान में टोली बनाकर दो दिनों से बैठे हुए हैं?
कलेक्टर फ्रेजर : अरे वे...? उन्हें चोर होने के संदेह में पुलिस के द्वारा पकड़ लाया गया है। दो
दिनों से पूछताछ चल रही है, और उनसे कुछ भी पता नहीं चला है। उनका
कहना है कि वे तीर्थयात्री हैं। बेकार के संदेह में पकडत्रा गया है। अब उन्हें
छोड़ दिया जायेगा। आखिर उन्हें कब तक बिना किसी कारण के इस तरह से
बैठाकर रखा जा सकता है? (हंसकर) तुम भी उन्हें ठग न समझ लेना, स्लीमेन
.। लोग कहते हैं स्लीमेन को ठगों का वहम हो गया है। उन पर ठगों का
ज़ुनून सवार रहता है। कुछ यूरोपियन तो तुम्हें 'ठगी स्लीमेन' भी कहने लगे
हैं।
स्लीमेन दुखी हो गये। उनके बारे में मजाक किया जाता है, यह जानकर उनका मन खिन्न हो गया।
स्लीमेन : सर, मैं जरा अपने कमरे में जा रहा हूं। ज़रूरत हो तो बुलवा लीजियेगा...।
कलेक्टर फ्रेजर : ओके स्लीमेन...। ज़रूरत पड़ने पर आइ विल कॉल यू।
स्लीमेन : थैंक्स सर।
स्लीमेन बाहर आये। बरामदे में खड़े होकर मैदान में बैठे हुए मुसाफिरों को गौर से देखने लगे।
मुसाफिरों का हाल बुरा था। वे गंदे से कपड़ों और जीर्ण-शीर्ण गठरियों को रखे परेशान हालत में बैठे हुए थे। एक वर्दीधारी अर्दली उनमें से एक मुसाफिर के पास खड़ा हुआ, झुककर उसके कान में कुछ कह रहा था। उसने स्लीमेन को बरामदे में खड़ा हुआ देखा तो घबरा गया। वह भागता हुआ उनके पास आया। स्लीमेन को उसके बारे में याद न था। पर उन्होंने सागर में उसे चोरी के इल्जाम में माफी दी थी और सुधरने का मौका देते हुए अर्दली की नौकरी भी। वही अब जब्बलपूर में मौजूद था।
अर्दली : जैराम जी की साब...।
स्लीमेन : तुम वहां पर क्या कर रहे थे...?
अर्दली : (घबराकर, हकलाते हुए) क...क...कुछ तो नईं साब...।
स्लीमेन : (गुर्राकर, अंधेरे में तीर चलाते हुए) मुझे सब पता है...मैं सब जानता हूं...।
अर्दली : (और भी घबराकर, हकलाते हुए) जबसे आपने माफी दी थी साब...हमने कछु नईं करो
आय...। पुरानी आदतें छोड़ दई हैं साबजी...। आपकी दई नौकरी से पेट पाल रए हैं,
सरकार...। लड़का-बच्चा मजे में हैं।
स्लीमेन : नहीं, यह झूठ है। मुझे तुम्हारे बारे में सब पता है। अब तुम्हारी नौकरी जायेगी और
तुम जेल जाओगे...। तुम अभी भी सुधरे नहीं हो...।
अर्दली : (ज्यादा घबराकर) माफी दे दो सरकार...। गलती हो गयी...।
स्लीमेन : तो बताओ वह कौन है, जिससे तुम बातें कर रहे थे...? और वह क्या करता है...? वे
सारे लोग, जो वहां बैठे हैं..., कौन हैं...?
अर्दली : वह मेरा भाई है सरकार..., मोती सिंह....। (सिर झुकाकर) और वहां जो बैठे हैं, वे सब
दुर्गा जमादार के लोग हैं, साबजी...।
स्लीमेन : यानी कि ठग...। है न्...?
अर्दली : हां साबजी...।
स्लीमेन : तो तुम्हारा भाई ठग है...?
अर्दली : मैं उसे यही समझा रहा था, साबजी, कि वह ठगों का साथ छोड़ दे...।
स्लीमेन : तुम झूठ बोल रहे हो...। तुम भी ठग हो और ठगी के बारे में ही बात कर रहे थे...।
अर्दली : कल्यानसिंह सरकार से झूठ नईं बोलेगा सरकार...। आपने हमें रोजी दई है...। रोजी
की कसम खात हैं सरकार...।
स्लीमेन : हूं...। तो अपने भाई को बुलाकर यहां लाओ...। मेरे पास...।
अर्दली दौड़कर गया और अपने भाई को बुला लाया। इस बीच स्लीमेन ने पुलिसवालों को अपने पास आने का इशारा कर दिया था। कुछ पुलिसवाले उनके पीछे आकर खड़े हो गये थे।
स्लीमेन : ( पुलिसवालों से, कड़ी आवाज में) गिरफ्तार कर लो इसे...।
पुलिसवालों ने मोती को बाहों से जकड़ लिया।
स्लीमेन : इसे हाजत में डाल दो...।
पुलिसवाले मोती को पकड़कर हाजत की ओर चले गये। स्लीमेन अपने कमरे में आ बैठे। पीछे-पीछे अर्दली कल्याण सिंह भागा आया। आकर स्लीमेन के पैरों पर गिर गया।
अर्दली : उसे भी माफी दे दो सरकार। वह अब बुरे काम नईं करेगा...। मैं उसे समझाउंगा
सरकार...।
स्लीमेन : कल्यानसिंह...उसे फांसी होगी..।.वह ठग है। हत्यारा है। मुझे उन सबके बारे में सब
कुछ पता है...।
अर्दली : मैं उसे समझा लूंगा सरकार...। आप उसे माफी दे दें सरकार...।
स्लीमेन : अगर वो अपना गुनाह कबूल कर ले, तो उसे भी माफी मिल सकती है...।
अर्दली : कर लेगा साहब... कर लेगा...।
स्लीमेन : तो जाओ उसे समझाओ... गुनाह कबूल कराओ।
अर्दली : मैं उसे समझा लूंगा सरकार...। आप उसे माफी दे दें सरकार...।
अर्दली हाजत में भाई के पास चला गया। स्लीमेन ने एक सिपाही से कहा
स्लीमेन : सामने जितने मुसाफिर बनकर बैठे हुए हैं, सबको क़ैद कर लो। और दूसरा सिपाही
हाजतं चला जाये और दूर खड़े रहकर सुने कि वहां पर वे दोनों भाई क्या बातें कर
रहे है...?
पुलिसवाला : जी साहिब...।
हाजत में
अर्दली : मोती, साहब के आगे सब कबूल कर ले...वो तुझे भी माफ कर देंगे...।
मोती : ये तुम का कह रहे हो, भैया...? हम गुनाह कबूल कर लें...?
अर्दली : हां। देखो हमें माफी मिल गयी कि नईं...? और जे सरकारी नौकरी भी। तुम भी
सरकारी नौकरी पा जाओगे...। चैन से जिओगे...। घर पर रहोगे...। वह सब छोड़ दे
भाई...।
मोती : और जो माता भवानी की कसम खाई है, उसे तोड़ दें। तुम्हारे साहब तो हमें छोड़ देंगे.
..,पर का माई हमें छोड़ देंगी...? हम कससी की कसम भी ीाूल जाएं...? तुपौनी के गुड़
को स्वाद थूक दें...एं...?
अर्दली : माई से भी माफी मांग लेंगे...। भेंट-पूजा करने विंध्याचल जाएंगे...भाई। देखो हमें माई
ने माफ कर दिया कि नईं...? हमाओ परिवार चैन से खा-पी रओ है कि नईं...?
मोती : तुपोनी का गुड़ खाये हैं हम...। उसका असर इत्ती आसानी से न जायेगा, भइया...। कह
दो अपने साहब से, कि हमें फांसी पे चढ़ा दें, पर हम कबूल ना करेंगे। समझ लो तुम
तो..., जे बात पक्की है..। हम दगाबाजी न करेंगे।
अर्दली : (रोकर) मान ले भईया...। तुझे फांसी हो गयी तो घर में जौन माई है न्...वो रो-रोकर
मर जायेगी...रे। रो-रोकर परान तज देगी...।
मोती खामोश रह गया।
अर्दली : चल साहब के पास चलते हैं। सब ठीक हो जायेगा...। साहब अपनी बात के पक्के हैं।
कहा है माफी दे देंगे, तो माफी देंगे...। देख लेना। मजे से नौकरी करना। बच्चे
पालना। नईं तो वे दर-दर की ठोकरें खाएंगे...।
मोती : ठोकरें काहे खायेंगे, भईया...? वही करेंगे, जो उनका बाप करता था...। जो उनके बाप
का बाप भी करता था...। तुम तो अपनी जुबान से फिर गये, पर हम न फिरेंगे...।
अर्दली : जमाना बदल गया है रे छोटे...। जे बड़ा सखत सासन है। फांसी चढ़ाने में इसे रहम
नईं आता रे...। हम देखे हैं...। देखे हैं हम...। कई फांसियां अपनी इन्हीं आंखों से देखे
हैं। गरदन हाथ भर लंबी हो जाती है...। देह तड़फती रहती है...। बड़ी दुरगति होती है
रे भाई। मान जा...। बड़े का कहा मान जा...। माई भी अब ठगन से रूठ गयी है...। वो
इन गोरे साबन पर किरिपा करे हुए है...।
मोती : हमें मजबूर ना करो, बड़े...। हमने कसम खाई है। कस्सी की कसम खाई है। जिंदगी भर
निभाने की कसम खाई है...।
अर्दली : हम मजबूर नईं कर रहे...बल्कि तुम्हें सही रस्ता दिखा रहे हैं...।
मोती : ना भई, ना...। तुम इतै से चले जाओ...। हमें गलत रस्ता पे नै डारौ...।
पुलिसवाले का आगमन
पुलिसवाला : कैदी को साहब ने बुलाया है...चलो...।
मोती को बाहों से पकड़कर स्लीमेन के कक्ष में लाया गया
स्लीमेन : अर्दली...! क्या बोलता है तुम्हारा भाई...?
अर्दली खामोशी से गर्दन झुका लेता है
स्लीमेन : ठीक है...उसकी मर्जी...। हम आखिरी बार पूछते हैं...इसके बाद फांसी का हुकम सुना
दिया जायेगा...। क्या तुम अपना गुनाह कबूल करते हो...?
मोती गर्दन अकड़ाये हुए खामोश रहता है
स्लीमेन : ठीक है...। (पुलिसवाले से) कोतवाल को जाकर बोलो...सुबह फांसी होगी...। फांसी की
तैयारी की जाये।
मोती : जेई न्याव है गोरी सरकार का...? बिना सबूत के फांसी चढ़ा देगी सरकार...?
स्लीमेन : तुम हत्यारे लोग न्याय की बात करते हो...? मासूम लोगों का गला घोंटते हुए तुम्हें
अफसोस तक नहीं होता। नौकरियों से जो घरों को लौअ रहे होते हैं...। जो अपने
बच्चों के लिये कपड़े लेकर जा रहे होते हैं...। अपने माता-पिता के लिये चीजें ले जा
रहे होते हैं...। अपनी बीबी के लिये गहने ले जा रहे होते हैं...। तुम उनका क़त्ल
करके सब चीजें हड़प लेते हो और बात करते हो न्याय की...? तुम्हें तो फांसी पर
लटकाया जायेगा, तब तुम्हें पता चलेगा कि मरने पर कैसा लगता है...?
अर्दली : (स्लीमेन के पांव पकड़कर) नईं साब...ऐहे फांसी न दो साब...। नादान है...समझत
नईयां। पै अभी मान जायेगा...। हम मना लेहें साहब...। हम पे भरोसा करो साहब...।
स्लीमेन : हम क्या कर सकते हैं...? सब कुछ उस पर ही है। वह चाहे तो सरकारी नौकरी...वह
चाहे तो फांसी...। तुम उसके साथ मिले हुए हो...। सरकारी वर्दी पहनकर भी ठगों से
रिश्ता रखे हुए हो...। यह तो और भी बड़ा गुनाह है, कल्यान सिंह...। फांसी तो तुम्हें
भी होगी...।
मोती : बड़े को भी फांसी होगी...। बे तो हमें समझा रए थे कि हम जो काम छोड़ दें...। फिर
उन्हें फांसी काये दैहो साब...?
स्लीमेन : पर तुम समझे कहां...? नहीं समझे तो सरकार तो इसका मतलब यही लगायेगी कि
तुम दोनों मिले हुए हो...। इसलिये दोनों को फांसी...।
मोती : (गर्दन झुकाकर) हम गुनाह कबूल करते हैं, साहब...। बड़े को फांसी नईं होने चइये
साबजी...। भवानी हमें माफ करें...।
स्लीमेन : तो तुम अपना गूनाह कबूल करते हो...?
मोती : हां साहब, हम अपने सब गुनाह कबूल करते हैं।
स्लीमेन : तो तुम ठग हो...?
मोती : (गर्दन झुकाकर) हां साहब हम ठग है। माई के पक्के भगत...।
स्लीमेन : तुमने कत्ल किये हैं...?
मोती : (गर्दन उठाकर) कत्ल नहीं किये। माई का हुकम पूरा किया है। बस।
स्लीमेन : तुमने लोगों को नहीं मारा...?
मोती : आदमी के मारे से भी कोई मरता है, साहब...?
स्लीमेन : तो किसके मारे मरता है...?
मोती : सब भगवान के हाथ में है। उसकी मर्जी के बिना पत्ता भी नहीं हिलता।
स्लीमेन : तो तुमने माई का हुकम पूरा किया...?
मोती : किया साहब...।
स्लीमेन : कैसे किया...?
मोती : जमादार ने झिरनी दी...।
स्लीमेन : झिरनी दी...? यह क्या होता हय...?
मोती : हमोंरों में रिवाज है साब कि जब जमादार झिरनी देत हैं... तबई हम भुरतौत बनिज के
गले में अंगौछा कसत हैं...।
स्लीमेन : झिरनी कैसे दी जाती है...?
मोती : जमादार कहत हैं 'तमाखु लाओ'...।
स्लीमेन : तमाखु...लाओ...।
मोती : हओ साबजी...।
स्लीमेन : फिर...?
मोती : फिर का साबजी... भुरतौत को गमछा जा पड़त है बनिज के गरे में...।
स्लीमेन : भुरतौत क्या होता हय...?
मोती : हमारे रिवाज में ठगों में सबसे बड़ो ओहदा भुरतौत को होत है...। जौन खों गमछा
दओ जात है, ओहे भुरतौत कहत हैं...। मनौ गमछा एंसई नईं मिल जात...। बाके
लानै कड़ी परिच्छा होत है...। गुरू से सीखने पड़त है...।
स्लीमेन : तुम्हारा गमछा कहां है...?
मोती : (कमर में बंधा पीला गमछा खोलकर दिखाता है) जे है गमछा साब जी...।
स्लीमेन : ओह... तो यह है यलो स्कार्फ...? (उसे अपने हाथ में लेकर उलट-पुलटकर देखते हैं।
फिर उनकी निगाह गठान पर पड़ती है) ...और यह क्या है...?
मोती : जे है गठान साबजी...इसमें चांदी का रुपैया बंधा है...।
स्लीमेन : चांदी का रुपैया...? (गठान खोलकर देखते हैं। सचमुच गठान के अंदर से चांदी का
रुपया निकलता है।) यह किसलिये...?
मोती : रिवाज है साबजी...। जे रुपैया जाके नटई में फंस जात है और बनिज एक पल में मर
जात है। जर्रा सी आवाज तक नईं निकरै...।
स्लीमेन : (अचरज से) ...अच्छा ...! और ये बनिज क्या होता है...?
मोती : बनिज माने मुसाफिर...।
स्लीमेन : ये कोई अलग भाषा है क्या...?
मोती : हां, साबजी, जे हमारी बोली-बानी है...रामासी कैहत हैं...?
स्लीमेन : तुम लोगों की अपनी बोली-बानी भी है...? रामासी...? कबसे...?
मोती : कबसे है, जे तो पता नईं साबजी...मगर बहुत पुराने बखत से एंसई बोली जात है...।
स्लीमेन : अच्छा...। क़त्ल के बाद फिर क्या करते हो...?
मोती : फिर लकड़ी के खूंटा से पेट फाड़ देत हैं...।
स्लीमेन : क्यों...?
मोती : नईं तो कभी-कभी लहास कब्र फोड़ खैं बाहर निकर आत है...।
स्लीमेन : कितने लोगों का क़त्ल किया तुम लोगों ने...?
मोती : पांच मुसाफिर हते...।
स्लीमेन : कहां की बात है...?
मोती : लखनादौन की।
स्लीमेन : लखनादौन में कहां पर...?
मोती : रस्ता के किनारे...। अमराई में।
स्लीमेन : फिर क्या किया...?
मोती : मोजा लोग लहास ले गये और कब्र में दफना आये...।
स्लीमेन : कब की बात है...?
मोती : दो रोज पहले की।
स्लीमेन : कितने ठग थे...?
मेती : पूरो गिरोह रहो।
स्लीमेन : कब से ठगी के धंधे में हो...?
मोती : बचपनै से हैं साब जी...। तेरा-चौदा साल की उमर से...।
स्लीमेन : तुम्हारे पिता भी ठग थे...?
मोती : जी साबजी...।
स्लीमेन : और उनके पिता...?
मोती : वे भी ठग हते...। अगरिया ठग...।
स्लीमेन : तुमने अब तक कितने लोगों का क़त्ल किया है...?
मोती : कभूं गिने नईंया।
स्लीमेन : फिर भी एक अंदाज तो होगा...?
मोती : जेई कोई चारक सौ...।
स्लीमेन : चार सौ क़त्ल...?
मोती : हां, साबजी...दस-बीस नीचे-ऊपर हो सकत हैं...। काये से कि कभूं गिनो नईं...।
स्लीमेन : और तुम्हारे जमादार ने...?
मोती : हजारक करे हुअहें साब...। हमें ठीक से पता नईयां...।
स्लीमेन : और पूरे गिरोह ने मिलकर कितने लोगों को मारा होगा...?
मोती : अब का गता दईयें साबजी...तीनक हजार हो सकत हैं...। अंदाज से आ बता रए हैं
हम...। पक्को पता नईयां हमें...।
स्लीमेन : लखनादौन जाने पर लाशें मिल जायेंगी...?
मोती : मिल जाहें साबजी...।
स्लीमेन : (पुलिसवाले से) रिसालदार से कहो...अभी एक घुड़सवार दस्ता लेकर आये।
लखनादौन जाना है।
पुलिसवाला : जी साहब।
पुलिसवाले का प्रस्थान
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दृश्य : चार
अगले दिन कलेक्टर फ्रेजर के कक्ष के सामने। खाट की बनायी डोली में लाश रखी हुई है। स्लीमेन उन्हें अंदर से बुलाकर बाहर लाते हैं। लाश सड़ने लगी है। उसमें से बदबू आ रही है।
सभी अपनी नाक पर रूमाल रखे हैं।
स्लीमेन : आईये सर, देखिये यह है लाश। ऐसी और भी चार लाशें लखनादौन की अमराई में
दफन हैं। और यह है ठग मोतीसिंह। वह पूरा गिरोह ही ठगों का गिरोह है। उनका
जमादार है दुर्गा। आपने उन्हें रिहा करने का हुक्म दिया था, पर मैंने उन्हें रोक लिया
था। अब उनकी असलियत सामने है।
फ्रेजर ने भौंचक्केपन के साथ लाश को और भी करीब जाकर देखा। फिर मोतीसिंह को गौर से देखा।
फ्रेजर : क्या नाम है टुम्हारा...?
मोती : मोतीसिंह...।
फ्रेजर : काम क्या करता हाय...?
मोती : ठग हैं सरकार...।
फ्रेजर : अउर वो सब लोग कौन हाय...?
मोती : गिरोह के संगी-साथी हआंय...।
फ्रेजर : वो लोग भी ठग हाय...? ठगी करता हाय...?
मोती : जी साबजी...।
फ्रेजर : इसका क़त्ल किसने किया हाय...?
मोती : हम लोग किये हैं...।
फ्रेजर : क्यों किया हाय...?
मोती : भवानी के हुकम से किया साहब।
फ्रेजर : भवानी के हुकम से...?
स्लीमेन : ये ठग लोग भवानी याने काली देवी के भक्त होते हैं, सर। इनका मानना है कि ये
वही करते हैं, जो देवी इनसे कराती हैं। ये इसे जुर्म नहीं मानते। धार्मिक काम मानते
हैं।
फ्रेजर : ओह...तो इसका मतलब यह हुआ कि ठग सचमुच में होता हाय...!
स्लीमेन : यस सर...। ठग होते हैं।
फ्रेजर : तो आप सही थे मि. स्लीमेन...?
स्लीमेन : यस सर...।
फ्रेजर : हाउ वंडरफुल...? यू आर जीनियस मि. स्लीमेन! नाट अ 'ठगी स्लीमेन...'।
स्लीमेन : थैंक्यू सर।
फ्रेजर : ठीक है मि. स्लीमेन मामले को ट्रायल में लाओ...।
स्लीमेन : ओ के सर।
फ्रेजर अपने कक्ष में चले जाते हैं। स्लीमेन लाश ले जाने का हुक्म देते हैं। अब तक उस जगह पर अंग्रेजों और देसी अफसरों की भीड़ लग चुकी थी। सबके पास ढेरों सवाल थे।
एक अफसर : कांग्रेट्स मि. स्लीमेन। आपने तो ठगों को पकड़ ही लिया...!
दूसरा अफसर : अच्छा, यह बताईये कि क्या वे लोग जादू-टोना भी जानते हैं...?
तीसरा अफसर : चेहरे से खुंखार दिखाई पड़ते हैं, क्या ?
चौथा अफसर : वे अपने को देवी-पुत्र क्यों कहते हैं...?
पांचवां अफसर : हम लोगों को खतरा तो नहीं है न्... ?
सवालों की इस झड़ी में स्लीमेन सिर्फ़ मुस्करा रहे थे, जवाब देने का कोई अवकाश, सवाल करने वाले छोड़ ही कहाँ रहे थे। सवाल बढ़ते ही जा रहे थे और सवाली भी। देखते ही देखते वहाँ बहुत से लोग एकत्र हो गये।
स्लीमेन : (मुस्कुराकर) जिमखाना क्लब में एक दिन मेरी स्पीच रख लीजिये, मैं सारी बातें
डिटेल में वहाँ पर बता दूँगा। और हां, निश्चिंत रहिये आप लोगों को कोई
खतरा नहीं है।
दूसरा अफसर : ओ. के. यही ठीक रहेगा। क्लब के सेक्रेटरी मि. मार्टिन से बात करके दिन तय
कर लेते हैं।
दूसरा अफसर : ओ. के. मि. स्लीमेन सर... गुड बॉय!
स्लीमेन : गुड बॉय।
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दृश्य : पांच
वह दोपहर थी, गर्म और धूल उड़ाती हुई। स्लीमेन अपने कार्यालय में बैठे हुए कामकाज निबटा रहे थे। ऐसी कटखनी दोपहरों में ही वे ज्यादा काम कर पाते हैं, क्योंकि इतनी गर्मी में, कोई वहाँ आकर व्यवधान पैदा नहीं करता।
दरबान ने दरवाज़े का परदा धीरे से हटाकर अंदर प्रवेश किया।
दरबान : (सिर झुकाकर अदब से) बाहर एक गोरी मेमसाब मिलने के लिये इंतजार कर रही हैं,
सर जी...।
स्लीमेन : उन्हें आदर के साथ अंदर भेज दो।
चंद पलों के बाद एक चपला सी उजली और सर्वांग-मुस्कानयुक्त युवा स्त्री ने उनके कक्ष में हाजिरी दी। वे उसके सम्मान में अपनी कुर्सी से उठकर खड़े हो गये। हाथ मिलाकर अभिवादन किया और विनम्रता से बैठने के लिये कहा।
एमेली : सर, मैं एमेली हूँ...। एमेली जोजेफीन फंतेन... मॉरीशस से...।
स्लीमेन : ओह! आपका स्वागत है। हिन्दुस्तान आपका स्वागत करता है...। बताईये मैं आपके
लिये क्या कर सकता हूँ...?
एमेली : आपने मारीशस से गन्ने का जो प्लांटिंग-मटेरियल मंगवाया है... वह हमारे ही
शुगर-केन फॉर्म पर तैयार होता है...।
स्लीमेन : अच्छा-अच्छा...। दैट्स गुड... तो फंतेन-फॉर्म की मालकिन हैं आप...? मैडम
फंतेन...!
एमेली : मादाम कहिये...जनाब! असली फ्रेंच हूँ...।
स्लीमेन : हां-हां, खूब अच्छी तरह से जानता हूँ...।
एमेली : जानते हैं...? वह कैसे...?
स्लीमेन : मि. फंतेन से मेरा पत्र-व्यवहार होता रहता है और इस तरह चिट्ठियों की मार्फत
हम एक-दूसरे को खूब जानते हैं। व्यवसायिक-बातों के अलावा भी, हम बहुत कुछ
लिखते-पूछते रहते हैं...।
एमेली : ओह...। तो फिर परिचय में और ज्यादा कुछ बताने की मुझे ज़रूरत नहीं है...।
स्लीमेन : पर फिर भी बताईये...,क्योंकि पत्रों के औपचारिक-परिचय की तुलना में आमने-सामने
बैठकर किया गया परिचय ज्यादा बेहतर और दिली होता है।
एमेली : ओके, मेरे पिता के पूर्वज फ्रांस की धरती पर ही पैदा हुए हैं...। मेरे परदादा
फ्रेंच-क्रांति के दिनों में अपनी ज़मींदारी छोड़कर मारीशस चले आये थे...। मैं
मारीशस में ही पैदा हुई... वाउ...क्या देश है मारीशस...! इतना खूबसूरत...!! झीलों
और जंगलों का प्यारा सा देश...।
स्लीमेन : मादाम! भारत भी कुछ कम खूबसूरत मुल्क नहीं है...।
एमेली : खूबसूरत...? क्या कहते हैं सर विलियम...? यहाँ तो गर्मी और धूल से बेहाल हो रही
हूँ मैं...। ट्वेन्टी एट डिग्री टेम्प्रेचर... वो भी रात का... बाबा रे बाबा...।
स्लीमेन : हाँ मौसम तो यहाँ खुश्क है...पर प्रकृति की जो कृपा इस मुल्क पर है, वह और कहीं
नहीं है...। गर्मी, ठंड और बारिश तीनों मौसम यहीं पर हैं। मैदान, पहाड़, रेगिस्तान
और बर्फ भी एक साथ यहीं हैं...। और नदियाँ, तालाब, झीलें तो असंख्य हैं मादाम,
असंख्य। लंबी परंपराएं और धार्मिक रीति-रिवाजों की अनोखी घटनाएं यहीं पर होती
हैं। महाभारत और रामायण जैसे महान आख्यान यहीं रचे गये... और...।
एमेली : बस-बस...स्लीमेन साहब...। आइ अंडरस्टेंड...। लगता है हिंदुस्तान के बारे में एकाध
आख्यान तो आप भी रच ही देंगे...। पर मुझे हिंदुस्तान से भी ज्यादा हिंदुस्तान के
ठगों के बारे में क्यूरोसिटी है, उनके बारे में बतायें। आपने उन्हें कैसे जाना...? कहते
हैं उन्हें कोई नहीं जानता...? वे न दिखने वाले लोग हैं...।
स्लीमेन : मुझे भी पहले उनके बारे में कुछ भी नहीं पता था, मादाम! मैंने तो बस पुराने
यूरोपियन लोगों के लिखे हुए ट्रेवलॉग्स और कमेंट्स पढ़े थे...। जब मैं बेंगाल आर्मी
का कैडेट बनकर हिन्दुस्तान आया था, तो मैंने कोशिश की थी, कि यह जान लूँ कि
यह देश कैसा है...? इसकी भाषा और संस्कृति क्या है...? इसकी समस्याएं क्या है...?
अगर मैं इन बातों को नहीं जानता हूँ, तो मैं एक अनजाने मुल्क में काम कैसे करूँगा
? मैं सिर्फ़ भाड़े का एक सैनिक नहीं हूँ कि आज वहाँ गोली चला आये...और कल वहाँ
गोली चलाने जा पहुँचे। युद्ध खत्म हुए तो बैरकों में जाकर बंद हो गये। मैं कल-पुर्जा
नहीं हूँ...हाड़-मांस का आदमी हूँ...। सोचने-विचारने वाला जीव...। सभ्यता पर गर्व
करने वाले देश का नागरिक...।
हमेशा उत्फुल्ल और सहज रहने वाले स्लीमेन थोड़ा तनाव में आ गये हैं। गंभीरता का तनाव। व्यक्तित्व की विशिष्टता का तनाव।
स्लीमेन : मिस् एमेली, मेरा जन्म कार्नवाल के ऐसे परिवार में हुआ, जो सैनिक-परिवार के रूप
में अपनी एक खास पहचान रखता है। मेरे पिता कैप्टेन फिलिप भी सेना में ही थे।
हम लोग आठ भाई थे। इनमें से तीन नौ-सेना में और एक भू-सेना में। मेरा क्रम
पाँचवां है। मेरे मन में तो बचपन से ही यह सपना रहा है कि मैं भी सैनिक का
जीवन जिऊँ। दूसरा सपना था हिन्दुस्तान। इस देश में मेरा भविष्य मौजूद था। वह
मुझे बुला रहा था। लगातार उकसा रहा था। बार-बार ऐसा प्रतीत होता था कि कोई
कान में कह रहा है हो जैसे,- 'आओ विलियम...चले आओ...देर न करो...। यहाँ तुम्हारे
लिये बहुत काम है...। तुम्हारा इंतज़ार हो रहा है।'
इस बीच दरबान की मार्फत कॉफी आ गयी। उन्होंने प्याले ले लिये।
एमेली : अच्छा फिर क्या हुआ, आप बता रहे थे मोशिये,... कि यह देश आपको बुला रहा था...।
स्लीमेन : हाँ, मिस् एमेली...। सिर्फ मुझे ही नहीं, यह मुल्क इंग्लेण्ड के प्रायः हर नौजवान का
सपना होता है। अधिकतर लोगों के लिये इस कारण से, कि हिन्दुस्तान आना, अपार
धन-संपदा कमाने का रास्ता लगता है उन्हें। गुलाम देश में जाकर हुकूमत करने की
मनो-इच्छा संतुष्ट होती है उनकी। पर मैं इस कारण से यहाँ नहीं आया। इतिहास
और साहित्य में मेरी गहरी रुचि ही मुझे यहाँ खींच लायी है...। यह एक प्राचीन देश
है। सभ्यताएं जहाँ अपने मौलिक रूप में विकसित हुईं, उनमें से एक जगह यह भारत
भी है- इंडिया। इनके पास 'महाभारत' और 'रामायण' जैसे महान् आख्यानक-काव्य
हैं। होमर से जिनकी तुलना हो सके वैसे कवि हैं- व्यास, वाल्मीकि, कालिदास...।
विविधता से भरा देश है। धर्मों की विविधता, संस्कृतियों की विविधता और भाषाओं की
विविधता। कितने विदेशी यहाँ आये, पर आकर सब यहीं पर खप गये। कुछ अपनी
संस्कृति तक गवाँ बैठे और कुछ अपनी संस्कृति से इसे प्रभावित कर गये।
स्लीमेन ने कॉफी की चुस्की ली। मौन रहे आये।
एमेली : फिर..., मि. स्लीमेन, मुझे आपकी बातों में बेहद दिलचस्पी है, प्लीज मुझे और बताईये
न्...!
स्लीमेन : हाँ-हाँ, क्यों नहीं। कम ही लोग हैं यहाँ, जो इन बातों को सुनना चाहें या मैं ही
जिन्हें सुनाना चाहूँ।
एमेली : थैंक्यू मि. स्लीमेन... जो आपने मुझे इतना आदर दिया...।
स्लीमेन : वेलकम। मैं यहाँ एक अध्येता के रूप में ही अपनी निजी भूमिका देखता हूँ। कंपनी के
अफसर के रूप में मेरे जो कर्त्तव्य हैं, वे अलग हैं...। पर उन कर्त्तव्यों को पूरा करते
हुए मैं कभी भी नहीं भूलता, कि इस देश के पास ऐसा बहुत कुछ है, जिसके लिये हमें
उसका हमेशा कृतज्ञ रहना पड़ेगा।
स्लीमेन ने कॉफी की एक और चुस्की ली।
स्लीमेन : जब मैं नेपाल से बैरकरपुर लौटा था, तो बैरकपुर से कभी-कभी लालदीधि के किनारे
बने हुए फोर्ट विलियम कॉलेज की लायब्रेरी जाया करता था। वहीं मैंने पंद्रह महीने
का लैंग्वेज कोर्स ज्वाइन किया। मैं वहाँ अरबी और फारसी भाषाएं सीखने लगा। इसके
अलावा मैं फोर्ट विलियम कॉलेज की लायब्रेरी की किताबें भी पढ़ता रहता था। वे
किताबें ही मेरा मुख्य आकर्षण थीं। मेरे प्राण थीं। उनमें तो जैसे जादू भरा हुआ था।
एक पल रुककर कहा
उसी लायब्रेरी में मुझे एक फ्रेंच सैलानी की किताब मिली। वे तुम्हारे ही देश के थे-
मि. एम. थिवनाट। उन्होंने भारत का भ्रमण किया था और यात्रा-वृत्तांत के रूप में
अपने अनुभव लिखे थे। वे सत्रहवीं शताब्दी में भारत आये थे। उनकी उस किताब में
ही मुझे 'वे' पहली बार मिले। वे याने ठग। थिवनाट ने उनका जैसा चित्रण किया था,
उससे वे बड़े रहस्यपूर्ण लगे। उनके बारे में कोई नहीं जानता था कि वे कौन लोग हैं.
..कहाँ रहते हैं...कहाँ से आते हैं...वारदात को अंजाम देते हैं और जाने कहाँ गायब हो
जाते हैं...?
स्लीमेन ने कॉफी का अंतिम घूँट लिया और प्याला मेज पर रख दिया
वे काफिले-के-काफिले गायब कर देते हैं...। सारे लोगों को मौत के घाट उतार देते
हैं..., पर लाशों का नामोनिशान तक नहीं छोड़ते। घोड़े-ऊंट-खख्ख्र भी गायब हो जाते
हैं...। लोगों को मारने के उनके कई ढंग हैं...। गले में रूमाल का फंदा डालकर फांसी
लगा देना या धतूरा खिलाकर मार डालना..।.यही उनकी अपराध की शैलियाँ हैं।
एमेली : ओ मां...।
स्लीमेन : हाँ, मिस एमेली...। मैंने तय किया कि यदि ऐसे लोग भारत में हैं, तो मैं उन्हें ज़रूर
खोज निकालूँगा...और उन्हें उनकी सजा़एं भी दिलवाऊँगा। बस उसी दिन से मैं
उनकी खोज-बीन में लग गया और जरा देखिये तो मिस् एमेली कि जब मैं फौज की
सेवा से निकलकर किसी कॉलेज में पढ़ाने को उत्सुक था, तभी मुझे मेरी इच्छा के
विरुद्ध सिविल सेवा में उसी सागर-नर्मदा टेरिटरी में भेज दिया गया, जहाँ ठगों के
बड़े-बड़े अड्डे थे। नरसिंहपुर में तो मेरे दफ़्तर से दो-तीन सौ गज की दूरी पर
कंदेली उन ठगों की सबसे मुफीद आरामगाह थी...। तो मैंने उनका सुराग लेना शुरू
किया...। कुछ को गिरफ़्तार भी किया है...। सबूत भी जुटाये हैं। और उन्होंने जो
बयान दिये हैं...वे तो रोंगटे खड़े कर देते हैं....।
पल भर के लिये स्लीमेन चुप हुए।
स्लीमेन : पहले जब मैं उनकी खोजबीन में लगा था, तो मेरे अफसर मुझ पर हँसते थे कि मैं
काल्पनिक-लोगों की तलाश में पड़ा हुआ हूँ...। मैं किसी काली बिल्ली को, एक बुझी
हुई लालटेन लेकर, अंधेरे कमरे में ढूंढ रहा हूं। मुझे मैं 'ठगी-स्लीमेन' कहा जाता है
...। मेरे सहयोगी मेरे साथ काम करने में कतराते थे, क्योंकि उन्हें ऐस लगता था कि
वे एक फिजूल के काम में अपना वक़्त जाया कर रहे हैं...। और अब, जबकि मैंने
सच्चाई को रहस्य से बाहर निकालकर दिखा दिया है, तो लोग अचंभे में पड़े हुए हैं।
वे फिर थोड़ा रुके।
स्लीमेन : लोग 'ठगी स्लीमेन' कहते हैं, तो कहते रहें...। अभी मुझे बहुत काम करना है...। मैं
उन्हें जड़ से मिटा देना चाहता हूँ। हत्यारों के लिये कहीं कोई जगह नहीं हो सकती...
। लेकिन मिस् एमेली ठगों पर तो हम बाद में भी बातें कर लेंगे... अभी तो आप
इंडिया में है न्...?
एमेली ने नहीं सुना। वे कहीं खोयी हुई थीं।
स्लीमेन : मिस् एमेली...!
एमेली : उं...यस मि. स्लीमेन... मैं आपकी बातों में खो गयी थी...।
स्लीमेन : (मुस्कुराकर) नो प्राब्लम्...मादाम! मैं खोये हुए लोगों को खोज निकालता हूँ...। मैं कह
रहा था कि अभी तो आप इंडिया में है न्...?
एमेली : हाँ, फिलहाल तो हूँ, पर शायद जल्दी ही लौट जाऊँ...। मैं तो केवल प्लांटिंग
मटेरियल देने आयी थी...।
स्लीमेन : तो वह, गन्ने के बीजों के बारे में बात कर लें...।
एमेली : हाँ-हाँ, ज़रूर।
स्लीमेन : हमें कब तक बीज मिल जाएंगे...?
एमेली : आप कितना चाहते हैं और कब...?
स्लीमेन : एक जहाज से कम गन्ने से तो आपको व्यवसायिक-परेशानी होगी, शायद...?
एमेली : हाँ। ये तो है...।
स्लीमेन : तो एक जहाज में जितना गन्ना आ सकता है, उतना तो चाहिये ही...। पर एकदम
उम्दा क्वालिटी वाला...।
एमेली : मैं अपनी देख-रेख में बुलवाऊँगी मि. स्लीमेन और कोशिश करूँगी कि अपनी मौजूदगी
में ही उसे किसानों से बोने के लिये भी कहूँ...।
स्लीमेन : यह तो बहुत अच्छा होगा, मिस् जोजेफीन...! पर किसानों को कुछ ट्रेनिंग भी दे दी
जाये तो क्या और बेहतर न होगा।
एमेली : आप फ्रेंच भी जानते हैं, मोशिये...?
स्लीमेन : जे पारले फ्रेंसाइस...।
एमेली : यह थोड़ा-थोड़ा है, तो बहुत क्या होगा ?
स्लीमेन : मैंने पर्सियन भी सीखी है। हिन्दी और बुंदेली भी थोड़ा बोल लेता हूँ...। ठगों की
'रामासी' भी...।
एमेली : अरे वाह...यू आर ए जीनियस, सर...।
स्लीमेन : नो-नो...। असल में मेरे काम की ही ज़रूरतें हैं ये...। इन भाषाओं को न जानूं, तो
काम ही न कर सकूंगा...। पर ये हिंदुस्तानी बड़े प्यारे लोग होते हैं...। इन्हें इतना सा
प्यार और भरोसा दो, तो ये उसका पचास गुना प्यार और भरोसा करते हैं...।
एमेली : अब यहां आ गयी हूं, तो यह भी देख लूंगी...। अच्छे लोगों से दुनिया भरी पड़ी है। पर
अच्छे लोगों को खोजना पड़ता है, जबकि बुरे लोग बिना खोजे ही मिल जाते हैं...।
इस बात पर वे हंसते रहे। फिर जल्दी ही अगली मुलाकात की उम्मीद वाली औपचारिक-सहमति पर यह मुलाकात बर्खाश्त हो गयी।
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दृश्य : छह
जिमखाना क्लब में स्लीमेन के व्याख्यान का आयोजन किया गया है, ताकि ठगों के सम्बंध में यूरोपियनों की जिज्ञासाओं को संतुष्ट किया जा सके। इस सूचना ने, कि विलियम स्लीमेन ठगों पर अपना व्याख्यान देंगे, यूरोपियनों की एक बड़ी भीड़ को खींचकर क्लब में जमा कर दिया है। उन सबने अपने इस इतवार की शाम को ठगों के नाम कर दिया था। सभा-कक्ष तो खचाखच भर ही गया था, दरवाजों के बाहर गलियारे भी भरे हुए थे। स्त्रियाँ विशेष रूप से उत्तेजित दिख रही थीं मानो वे कोई हॉरर-फिल्म देखने आयी हों। लोगों ने बहुत पहले से ही आसन ग्रहण कर लिये थे, जैसे कि उन्हें भय हो कि कुर्सी नहीं मिलेगी अथवा वे ऐसी जगह बैठने से वंचित हो जाएंगे, जहाँ से व्याख्यान को ठीक तरीके से सुना जा सकता है।
स्लीमेन सभाकक्ष में पधारे तो तालियों की गड़गड़ाहट से सभाकक्ष गूँज उठा। लोग अपनी जगह पर खड़े होकर तब तक तालियाँ बजाते रहे, जब तक कि स्लीमेन अपने लिये निर्धारित स्थान पर पहुँचकर बैठ नहीं गये।
एमेली बहुत पहले ही वहाँ पहुँच गयी थीं और सामने से दूसरी पंक्ति में बैठकर अपने नायक को निहारने का लुत्फ उठा रही थीं। लोगों की तालियाँ उन्हीं के हृदय से फूट रही थीं और न जाने क्यों ऐसा लग रहा था, कि किसी भी पल उनके आँसू आँखों के बाहर आ गिरेंगे...। विभोर हृदय से उपजे हुए आँसू।
सेक्रेटरी : लेडीज़ एंड जेंटलमेन्स! आज हमारे क्लब के माननीय सदस्य और जबलपुर के
विशिष्ट सिविल अफसर माननीय विलियम हेनरी स्लीमेन साहब का हम क्लब की ओर
से दिली स्वागत करते हैं। हम सभी जानते हैं कि वे आज यहाँ दुनिया के सबसे
खुंखार क़ातिलों यानी ठगों के बारे में अपना व्याख्यान देने के लिये पधारे हैं। मुझे
यह कहते हुए फख्र महसूस हो रहा है, कि वे ऐसे एकमात्र अंग्रेज अफसर हैं, जिन्होंने
ठगी के रहस्यमय-मायाजाल को काटकर इस सदी के सबसे खतरनाक क़ातिलों को
क़ैद करने में सफलता पायी है। आईये इस बारे में हम उन्हीं से सुनें तो बेहतर होगा.
.. मि. स्लीमेन के लिये एक बार फिर से जोरदार तालियाँ.....।
तलियां बजीं। अपनी स्वाभाविक गड़गड़ाहट के साथ।
स्लीमेन अपने स्थान पर विनम्रता और गरिमा के साथ खड़े हुए। एमेली को लगा कोई वायसरॉय ही वहाँ पर आ खड़ा हुआ है। उनकी देह, उत्सुकता और उत्तेजना के कारण कांपने लगी। लगा स्लीमेन पहला शब्द उच्चारित करेंगे और उसके साथ ही उनके प्राण फड़फड़ाते हुए बाहर निकल पड़ेंगे। रोम-रोम आँखें हुईं और रंध्र-रंध्र कान।
स्लीमेन : जिमख़ाना क्लब के माननीय सचिव महोदय, माननीय सदस्य-गण और यहाँ पधारे हुए
देवियों एवं सज्जनों! मैं आपका इस बात के लिये हृदय से धन्यवाद करता हूँ कि
आपने मुझ 'ठगी स्लीमेन' को यहाँ पर बुलाया और उस विषय को जानने-समझने की
उत्सुकता दिखायी जिसके लिये मैं काम कर रहा हूँ...।
'ठगी स्लीमेन' सुनकर लोग लज्जित हुए।
एमेली ने महसूस किया कि स्लीमेन केवल उन्हें ही संबोधित कर रहे हैं, यहाँ तक कि केवल उन्हें ही देख रहे हैं। स्लीमेन का हार्दिक धन्यवाद उन्हीं के लिये है और सिर्फ़ उन्हीं ने उसे हृदय से ग्रहण किया है।
स्लीमेन : मेरे प्यारे यूरोपियन मित्रो, यदि आप ऐसा समझ बैठे हों, कि हिन्दुस्तान
हत्यारों-डाकुओं और ठगों का देश है, तो यह पूरी तरह से गलत होगा। यहाँ महान्
ज्ञानी, संत, फकीर, साहित्य-मर्मज्ञ और कलावंतों की बड़ी तादाद हुई है। आज भी है।
धार्मिक और सांस्कृतिक जीवन जीने वाले लोगों से यह देश भरा हुआ है। हम इस
देश के देशवासियों के साथ ही रहते हैं। नगरों, बाजारों और बन्दरगाहों में
हमारा-उनका मिलना-जुलना होता है। ऐसे सीधे सरल लोगों की तादाद ही देश की
असली आबादी है...।
वे जो हत्यारे हैं, वे तो मुट्ठी भर लोग हैं...वह भी इतने बड़े मुल्क में। उनकी
बिसात ही क्या है...। पर ठग और क़ातिल के रूप में हमें वे ज़रूर डरावने लगते हैं...।
और जब तक वे पकड़े नहीं गये थे, तब तक एक रहस्य भी बने हुए थे, पर अब तो वे
हमारी क़ैद में हैं। वे हमारी-आपकी तरह ही बिल्कुल साधारण लोग हैं। बस, वे ऐसे
मनोरोगी ज़रूर हैं, जो एक अवश्वास की तहत् हत्या जैसे बुरे काम को मजहब का
चोला पहनाकर जुर्म करने में लगे हुए हैं। डॉ. एच. एच. स्प्री यहाँ मौजूद हैं, जो
जब्बलपुर की जेल में डॉक्टर हैं। वे क़ैद में रखे गये ठगों की भी चिकित्सा कर रहे
हैं और उस बात के गवाह हैं, जो मैं यहां पर कह रहा हूं।
स्लीमेन क्षण भर के लिये रुके, फिर बोले
ठगों के बारे में ठीक से जानने के लिये हमें इतिहास में जाना हा़ेगा...। जब
उन्नीसवीं सदी की शुरूआत हो रही थी, तब यह देश लगभग एक अंधेरे वक़्त में ही
पहुँच गया था। उन दिनों मुग़लों का पतन हो रहा था...। एक केन्द्रीय सत्ता
छिन्न-भिन्न हो रही थी। अराजकता का वातावरण बन रहा था...। छोटे-छोटे शक्ति
शिखर पनप रहे थे..। वे भी अस्थिर और डगमग थे। ऐसे में लुटेरों, चोरों और डकैतों
की बन आयी थी...। हर तरफ लूट और क़त्ल हो रहे थे। इक्का-दुक्का अंग्रेज
कोठियाँ रोशन थीं, पर कब वहाँ भी अंधेरा छा जायेगा, कोई कह नहीं सकता था...।
राजा और नवाब लड़-झगड़ रहे थे। कोई जीत रहा था तो कोई हार रहा था। कोई
जश्न मना रहा था तो कोई मातम में डूबा हुआ था...।
स्लीमेन ने पल भर सभा को निहारा। फिर आगे कहना शुरू किया
सेनाएं लूटपाट कर रही थीं। महल और हवेलियाँ लुट रही थीं...। शर्म से कहना पड़
रहा है कि उन दिनों जो अंग्रेज नये-नये आये थे, वे भी इस लूट में शामिल थे...। वे
सल्तनतें छीनने में जुटे थे...। देसी फौजों को तितर-बितर कर रहे थे। राज्यों के
खज़ानों को निजी उपयोग में लाने के लिये कब्जे में ले रहे थे।...और जो निहत्था था,
गरीब था, असहाय था, सरल था, सीधा था..।.यानि कि महज प्रजा था...। उनका
जीवन तबाह हो रहा था।
स्लीमेन ने पानी का एक घूंट लिया
सामाजिक और धार्मिक रीति-रिवाज भी चरमरा गये थे। कहीं सती-प्रथा की आग जल
रही थी, तो कहीं नवजात स्त्री-शिशुओं की हत्याएं हो रही थीं। लोग दास बनाये जा
रहे थे और उन्हें खरीदा-बेचा जा रहा था। साधु-संतों तक ने धर्म के नाम पर
हथियार उठा लिये थे- नागा, पिंडारी, वर्गी, सन्यासी, बैरागी, गुसाईं, दादूपंथी और
इससे भी बढ़कर बंगाल के सन्यासियों ने तो खुंखार से खुंखार डकैतों को भी मात
कर दिया था। उन लोगों ने शास्त्रों से रिश्ता तोड़कर, शस्त्रों से अपने सम्बंध बना
लिये थे।
ठग भी इन्हीं रास्तों पर चलने वाले वैसे ही क्रूरतम क़ातिल हैं, कोई अलग
नहीं। हाँ, ठगों ने संगठित अपराध के ताने-बाने को इस तरह बुना है, गोपनीयता का
ऐसा रहस्यमय पर्दा बनाया है कि सैकड़ों सालों से वे लूट और हत्याएं कर रहे हैं,
परन्तु उन्हें कोई भांप तक न सका। यात्रियों के काफिले के काफिले लुटते रहे और
मारे जाते रहे, परन्तु सबूत का एक तिनका तक नहीं मिलता था। वे एक जगह पर
हत्याएं करते हैं और तुरंत दूसरी जगह चले जाते हैं। इस टेरिटरी में जुर्म करते हैं
और उस टेरिटरी में निकल जाते हैं। जो उनका शिकार बपे हैं, वे भी मुसाफिर होते
हैं ओर किसी तीसरी टेरिअरी से आये होते हैं। ऐसे में ज़ुर्म का पता ही नहीं चल
पाता...।
स्लीमेन ने सभा पर एक विहंगम दृष्टि डाली। सभा पर सम्मोहन जनित सन्नाटा छाया हुआ था
हाँ, ठगों के अपराध में एक अनोखी बात यह देखने में आती है कि वे अपनी हत्याओं
को हत्या नहीं मानते। लूट को लूट नहीं समझते। यहाँ तक कि स्वयं को अपराधी तक
नहीं मानते। उनके मन में अपने इस दुष्ट-कर्म के लिये कोई अपराध-बोध नहीं है...।
वे तो इसे एक प्रकार का धार्मिक-कृत्य मानते हैं। वे इस काम में पूरी आस्था और
निष्ठा से जुटे हुए हैं।
ठगों ने अपने को भवानी-पुत्र मान रखा है। वे कहते हैं कि वे
जो कुछ भी करते हैं, वह सब 'भवानी' के आदेश पर करते हैं। भवानी इस संसार में
बढ़ते हुए पाप के बोझ को दूर करने के लिये उनके माध्यम से काम करती हैं। वे अपने
को 'रक्तबीज दानव' की कथा से जोड़ते हैं। आप भी उस कािा को जान लीजिये।
रक्तबीज नाम का एक दानव पृथ्वी पर पैदा हुआ और मनुष्यों का संहार करने लगा।
यहां तक कि इस संसार के ही खत्म हो जाने का खतरा पैदा हो गया। तब सभी
देवतागण मां काली के पास गये। उनसे प्रार्थना की कि वे रक्तबीज का अंत करके
धरती की रक्षा करें। संसार को बचायें।
मां काली देवताओं की प्रार्थना पर संसार की रक्षा के लिये रक्तबीज का विनाश
करने पहुंच गयीं। उन्होंने अपने खड्ग से उसकी गर्दन एक ही वार में काट दी। पर
गर्दन कटते ही ख़ून की जितनी बूंदें ज्त्रमीन पर गिरीं, उतने और रक्तबीज पैदा हो
गये। देवी ने उनकी गर्दनें भी काट दीं, पर की खून की असंख्य बूंदों ने असंख्य
रक्तबीज पैदा कर दिये।
देवी उनकी गर्दनें काटते-काटते थक गयीं। थककर एक तरफ जा बैठीं। सोचने
लगीं कि अब क्या करें? फिर उन्होंने अपनी भुजा से बहते हुए पसीने से दो आदमी
बनाये। अपने पहने हुए वस्त्रों में से चीरकर एक पीला कपडत्रा दिया और कहा- जाओ,
इस कपड़े से रक्तबीजों का गला घोंटकर उन्हें मार डालो। ख़बरदार, क्ष़ून की एक बूंद
भी न गिरे। उन दोनों आदमियों ने ऐसा ही किया। सारे रक्तबीजों को मार डाला। देवी
का काम पूरा करने के बाद वे दोनों देवी के पास गये। उन्हें प्रणाम किया और उनका
दिया कपड़ा उन्हें वापस लौआना चाहा।
देवी ने कहा- यह कपड़ा आज से तुम्हारा हथियार भी है और आजीविका भी।
जाओ इसके जरिये पापियों का नाश करो और अपनी रोटी कमाओ।
ठगों का विश्वास है `कि वे तभी से देवी का ही काम कर रहे हैं।
स्लीमेन ने गिलास उठाकर पानी का एक और घूंट लिया
ठगों के कुल सात आदि-कुल हैं। वे उन्हें गोत्र कहते हैं- बाहलीन, भिन, भुजसोत,
काचुनी, हुत्तार, गानू और तुंदिल। आज भारत में जहाँ कहीं भी ठग हैं, उनकी वंशावली
इन्हीं सात गोत्रों में से किसी एक गोत्र से शुरू होती है।
...ठगों के हत्या करने के अलग-अलग तरीके हैं। कोई पीले रूमाल में हमारी
महारानी की छाप वाला चांदी का एक रुपये का सिक्का बांधकर, उसे शिकार के पीछे
से गर्दन में डालकर फाँसी लगाता है...। तो कोई धतूरे का ज़हर खिलाकर मार डालता
है और कुछ लोग नाव से नदी पार कराते समय हत्याएं कर देते हैं...। हत्याओं के बाद
सुनसान जगहों पर उनकी कब्र बना देते हैं। फिर 'मां भवानी' का शुक्रिया भी अदा
करते हैं...। सवा रुपये का गुड़ खरीदकर उसे देवी को चढ़ाते हैं। इसे वे 'तुपौनी का
गुड़' कहते हैं। उनका यह भी विश्वास है कि जो शख़्स एक बार तुपौनी का गुड़ चख
लेता है, फिर वह ठगी का धंधा त्यागकर कहीं नहीं जा सकता।
फिर स्लीमेन चुप हो गये। सभा मंत्र-मुग्ध होकर सुनती रही। तब उन्होंने अपनी बात समाप्त करते हुए कहा
मित्रों, अब वे कानून की गिरफ़्त में आते जा रहे हैं...। जेलें भरती जा रही हैं, पर वे
भी हमारी तरह ही मनुष्य हैं...। कानून अपराध को देखता ही है, पर ज़रूरत है इसके
सामाजिक और मनोवैज्ञानिक पक्ष को भी देखने की...। ये अपनी आजीविका के लिये
और कोई दूसरा काम नहीं जानते...। यदि इन्हें, इनके बच्चों और स्त्रियों को कोई
दूसरा साधन उपलब्ध न कराया गया, तो मजबूरी में वे भी इसी हत्यारे-कर्म में उतर
जाएंगे...। तब ठगों की एक नयी खेप अपने खुंखार काम में दोगारा जुट जायेगी। तब
इसका उपाय क्या है...? है..., उपाय है।
मैं जब्बलपुर में उनके लिये एक ट्रेनिंग सेंटर खोलने का इरादा रखता हूँ...। जो
गुनहगार हैं, वे सज़ा पाएंगे, लेकिन जो उनके आश्रित हैं, वे आजीविका के नये साधनों
को सीखकर अपनी जिंदगी में बदलाव लाने के हक़दार हैं...। मैं ठगी-मामलों में
सरकार के लिये एक रपट भी तैयार कर रहा हूँ...। पर अभी तो हमारा काम शुरू ही
हुआ है...। अभी बहुत कुछ जानना और किया जाना शेष है...। कानून और अदालतों
के तौर-तरीके बाधा बन रहे हैं। गवाहों की मौजूदगी की अनिवार्यता और मुकदमों
में लगने वाले लम्बे वक़्त के कारण हमारी अदालतों में कोई गवाही देने नहीं आना
चाहता...।
इस प्रक्रिया में कई प्रकार के बदलावों की ज़रूरत है...। मैंने अपनी ओर से
कंपनी सरकार को कुछ सुझाव भेजे हैं। सरकार भी इस मामले में गंभीर हो गयी है,
और हत्यारों से इस देश को निजात दिलाने के लिये पक्का इरादा कर चुकी है।
स्लीमेन पल भर के लिये रुके। मुस्कुराये।
मैं 'ठगी-स्लीमेन' हूँ...। यह नाम रखा तो मेरे अपने देश के बंधुओं ने ही था,
परंतु अब खुद ठगों ने भी मुझे ठगी-स्लीमेन कहना शुरू कर दिया है...। वे समझते हैं
कि मैं उनसे भी बड़ा ठग हूं। कि देवी भी अब उनके खिलाफ और हमारे पक्ष में हो
गयीं हैं। कि उन्हें मैंने ठग लिया है।
कुछ सिर शर्मिंदगी में झुक गये, शेष के होठों पर मधुर-हास्य छलक आया।
धन्यवाद।
धन्यवाद मित्रों, आप सबने रुचिपूर्वक मुझे सुना...। इसके लिये आपका बहुत-बहुत
धन्यवाद!
तालियाँ गड़गड़ाने लगीं। दोगुनी आवाजों से सभाकक्ष गूँज उठा। लोग स्लीमेन और उनके व्याख्यान के आदर में अपनी जगहों पर खड़े हो गये...। करतल-ध्वनियाँ जारी रहीं।
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दृश्य : सात
21 जून 1829
बीस वर्षीय एमेली जोजेफीन और चालीस वर्षीय विलियम हेनरी स्लीमेन के बीच उम्र का फासला गायब हो गया। वे एक-दूसरे के लिये बने हैं, इस अहसास ने उन्हें आप्लावित कर दिया और 21 जून की उस तपती शाम को जबलपुर का क्राइस्ट चर्च कैथेड्रिल गिरजाघर इस जोड़े को विवाह के पवित्र बंधन में बांधकर अपने आशीष दे रहा था।
नव विवाहित जोड़ा गिरजाघर से बाहर आया और स्लीमेन के सरकारी बंगले में जीवन की नयी दिशाएं खोजने प्रवेश कर गया। बंगला विशाल और खूबसूरत था। सामने खूबसूरत बगीचा, विभिन्न किस्मों के फूल, लॉन-ग्रास, तथा ऊँची चहार-दीवारी। बंगले में बड़ा सा बरामदा, हॉल, अध्ययन-कक्ष, शयनकक्ष, रसोईघर, कुछ और कमरे, पीछे नौकरों के रहने के आऊट हाऊस वगैरह। शयनकक्ष और बैठककक्ष में कपड़े और डोरी के बड़े-बड़े पंखे। संतरी, अर्दली और पुलिसवाले भी।
इतने बड़े घर और इतने बड़े व्यक्तित्व के स्वामी स्लीमेन, दोनों की मालकिन बनकर, इस नयी भूमिका में एमेली ने अपने को आल्हाद से भरा पाया।
दो साल का अरसा कब गुजर गया पता ही नहीं चला।
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दृश्य : आठ
एक रविवार को
स्लीमेन : मेरी प्यारी एमेली, चलो आज तुम्हें कोहका टोला घुमा लायें। वहां के लोग बहुत अच्छे
हैं। मैं कभी-कभी वहां जाया करता हूं।
एमेली : हां, चलिये। मैं भी यहां के लोगों से मिलना-जुलना चाहती हूं।
जब्बलपुर-मिर्ज़ापुर मार्ग पर कोहका टोला गांव। यहीं पर बाबा हरिदास का मंदिर है।
गांववासियों ने जोड़े का स्वागत किया। मालाएं पहनायीं। बुजुर्ग स्त्रियों ने आरती उतारी। जब औपचारिकताएं पूरी हो गयीं, तो सब लोग गांव की चौपाल पर बैठे। साहब और मेम साहब मोढ़े पर। बाकी के लोग दरी पर।
गांव-पटेल : साहब हमाये गांव आत रहत हैं, मगर आज वे हमाये बीच में मेम साहब समेत आये
हैं। हम उनको बहुत-बहुत धन्यवाद करत हैं। उन्हईं ने हमें गन्ना की खेती करबो
सिखाओ। हमाये घरै गनना की खेती से चार पईसा आन लगे। आज उनको
आगमन बहुतई सुभ है। काये से की सावन को महीना चल रओ है। भुंजरिया बोई
गयी हैं और गांव में 'सैरा' गाओ और नाचो जा रओ है। सो आज साब और मेम
साब के सुआगत में गांव के नौजवान लड़का सैरा गाहें। साहब की इजाजत होय
तो...।
स्लीमेन : वाह! क्या बात है...! सैरा ज़रूर सुनाया और नाचा जाये। सुनकर और इस नाच को
देखकर मेम साहब को और हमें बहुत खुशी होगी।
गांव-पटेल : चलौ रे लड़को बढ़ियां सैरा गाओ और नाचो...।
तुरंत ही गांव के लड़के सामने जुट गये। उनके हाथों डंडे थे। प्रौढ़ आयु वाले कुछ लोग ढोलक और मंजीरा लेकर लड़कों के गोल घेरे के अंदर खड़े हो गये।
सैरा की शुरुआत करने के लिये एक ने आलाप लिया
एक गायक : आरे-आरे हां रे....।
फिर वे लोग गोल घेरे में घूमने लगे। एक-दूसरे के डंडे पर चोटें करने लगे। आड़े-तिरछे होते, बैठते, आगे-पीछे होते, उछलते और कलाबाजियां खाते घूमने लगे।
गोल धेरे में एक तरफ से स्वर उठा
आरे आरे हां इतनी बेरा किये गाइये
रे माता लइये कौन के नांव
अरे कौना फुलवा चढ़ाइये हो,
कीके दरसन की आस....हुक्क हुइया हा हा।
गीत के आरंभ हाने पर लड़के गोल घेरे में धीरे-धीरे घूमते हुए एक-दूसरे के डंडे पर चोट करते हुए चलने लगे। सामूहिक स्वर में गीत हो रहा है। क्रमशः गति तेज होती है। अब स्वर देने के लिये लड़के दो भागों में बंट गये हैं।
आरे आरे हां सदा तो भुमानी दाहिनी रे,
सनमुख रहत गनेस
पांच देव रच्छा करैं,
रे बिरमा बिस्नु महेस...हुक्क हुइया हा हा।
सैरा के माध्यम से पराक्रम की अभिव्यक्ति हो रही है।
आरे आरे हां सदा तुरैया अरे फूलै नहिं हो,
सदा नै साउन होय
सदा नै राजा अरे रन जूझै,
सदा नै जीबै कोय....हुक्क हुइया हा हा।
तीसरा पद शुरु हुआ
आरे आरे हां नायें से आ गयी रे अरे नदी बेतवा,
मायें से केन धसान,
इन दोइ के अरे भेया बीच में,
झंडा रोपे मरद मलखान....हुक्क हुइया हा हा।
देर तक नाच-गान चलता है। समाप्त होने पर -
गांव-पटेल : हम सब गांव बारे साब और मेम साब खों ब्याव की बधाई दैबो चाहत हैं। भगवान
करै कि उनकी जोड़ी बनी रहे। मनो साब को ब्याव भये मुतके दिना हो गये हैं
और मेम साब की गोद नईं भरी आय। तो हमाई बिनसे बिनती है कि हमाए गांव में
बाबा हरिदास को मंदिर है। जे मंदिर का बड़ो जस है, साहब। इतै मनौती मांनी
जाये तो बा जरूर से पूरी होत है। तो साब और मेम साब मंदर में चलखें मनौती
मांगें और साल भरे के अंदर गोद में मोड़ा खिलायें...। ऐसी हमाई कामना है...।
स्लीमेन और एमेली ने एक-दूसरे की तरफ देखा। स्लीमेन मुस्कुराये। एमेली का मुंह लाल हुआ।
स्लीमेन : पटेल साहब, आपका और कोहका टोला गांव के निवासियों का बहुत-बहुत शुक्रिया
कि आपने हमारा सम्मान किया। जहां तक संतान होने की बात है, तो वह अपने समय
पर होगी। हमारी शिक्षा, संस्कार और मजहब मनौती जैसी बातों पर विश्वास करना
नहीं सिखाते, परंतु मैं आपके विश्वास पर विश्वास करता हूं। इसलिये हम दोनों ज़रूर
ही मंदिर जाएंगे और पूजा करेंगे। मनौती मागेंगे। चलिये...।
गांववासियों ने तालियां बजाकर स्वागत किया। स्लीमेन मंदिर गये। पूजा की। मनौती मांगी। वहां से प्रसन्नतापूर्वक लौटे।
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दृश्य : नौ
मैजिस्ट्रेट स्लीमेन की अदालत। खपरेदार छज्जों वाली इमारतों में से एक ऊँची इमारत का विशाल-कक्ष। स्लीमेन अपनी सधी हुई चाल और तनी हुई गर्दन के साथ अदालत कक्ष में प्रविष्ठ हुए। उनके प्रवेश के समय संतरी और सरकारी अमला सजग-सतर्क होकर खड़ा हो गया। शरीर को यों अकड़ाकर, मानों युद्ध-क्षेत्र में खड़े हों और हुक्म पाते ही आक्रमण करने टूट पड़ेंगे।
स्लीमेन के सामने, बायीं ओर ठगों का झुंड खड़ा है। उन्हें घेरे हुए है, सशस्त्र पुलिस का विशेष दस्ता। बेखौफ झुंड। फैसले के दिन की कोई झुरझुरी नहीं। जैसे कल थे, वैसे आज। स्लीमेन का शरीर ज़रूर ही उतना शांत न रहा, जितना होता है। ठगों की खोज, उनकी गिरफ़्तारियाँ, पूछताछ, लाशों की बरामदगी, कानूनों को बदलवाने की जद्दोजहद, मुकदमों में लगने वाला असीमित समय का युक्तियुक्तकरण, सबूतों-गवाहों की फेहरिस्तें, बयानों का लम्बा सिलसिला आदि पारकर, आज फैसले का सबसे बड़ा दिन भी आ पहुँचा।
मैजिस्ट्रेट की हैसियत से स्वयं स्लीमेन को फैसला सुनाना है।
स्लीमेन की कुर्सी के पीछे चार संतरी अपने हथियारों से लैस होकर तने खड़े हैं। एक चपरासी आज के फैसले से संबंधित फाईल लाकर स्लीमेन के सामने, पूरे अदब और कायदे के साथ रख गया। अदालत में मुल्जिम और सरकारी अमला ही न था, जब्बलपुर नगर के प्रतिष्ठित लोगों को भी खासतौर पर बुलाया गया है। उनमें नगरसेठ, व्यापारी, ज़मींदार और दूसरे भले लोग भी थे। यूरोपियन समाज के भी महत्त्वपूर्ण लोग मौजूद हैं।
स्लीमेन ने अपने सिर को हल्की सी जुम्बिश दी। यह संकेत था, कि अदालत की कार्यवाही शुरू की जाये।
सरिश्तेदार ने काम शुरू किया। उसने अदालत में मौजूद प्रत्येक मुल्जिम को हुक्मनामा थमाया। हुक्मनामा थमाये जाने के बाद फर्दनवीस ने लम्बी फर्द से नाम की टेर लगाना शुरू किया -
फर्दनवीस : बहादुर खाँ वल्द सआदत उर्फ सहतू साकिन होरन परगना सिंदौसी...।
ठग : हाजिर है...।
फर्दनवीस : भवानी...।
ठगः हाजिर है...।
फर्दनवीस : पल्टू वल्द धन्ना सुनार, साकिन सिंदौसी...।
ठग : हाजिर है...।
ठग मरजाद वल्द भगवान जमादार साकिन सिंदौसी, सहजू वल्द मरजाद साकिन सिंदौसी, रहमान वल्द दुर्गा उर्फ दलेले साकिन लालजी का पट्टा, सिंदौसी, रोशन खां वल्द खोमान साकिन लालजी का पट्टा, सिंदौसी, फिरंगिया सहित सैकड़ों ठगों के नाम पुकारे गये।
सरिश्तेदार : हुजूर, सभी मुल्जिम हाजिर हैं...।
स्लीमेन : मुल्जिमों! तुम सब पर क़त्ल के इल्जाम पर मुकदमा चलाया गया था। गवाहियाँ और
सबूतों ने साबित कर दिया है कि संसार के सबसे क्रूरतम हत्यारों के तौर पर जुर्म के
इतिहास में तुम्हीं लोगों के नाम दर्ज़ होने वाले हैं। तुम लोगों ने मासूम लोगों की
हत्याएं की हैं। औरतों और दुधमुँहे बच्चों तक को नहीं छोड़ा। लाशों को भी तुमने
अपने गुनाहों से बेइज्जत करने में जरा सी भी शर्म महसूस न की। कपड़े उतारे, पेट
फाड़े और रीढ़ की हड्डियाँ तोड़ीं। उन्हें कब्रों में कचरे की तरह भरा। जानवरों के
साथ भी लोग जैसा बरताव नहीं करते, वैसा तुम लोगों ने मनुष्यों और उनकी मृत
देहों के साथ किया है...।
स्लीमेन क्षण भर के लिये खामोश हुए, फिर कहा
स्लीमेन : अदालत ने तुम लोगों को अपराधी पाया है। जो मुल्जिम सरकारी गवाह बन गये थे
और कंपनी सरकार की मदद कर रहे थे, अदालत ने उन्हें सज़ाओं में रियायत दी है।
ऐसे मुल्जिम हैं- फिरंगिया, इनायत, गनेसा, भूरे खां, जुल्फकार, महाराज, हयात खां,
हिम्मत, गुलाब उर्फ़ खुमान, मुलुआ, जवाहिर, जाहनी, मीर खां, कादिर खां, चत्तर,
हरसिंह राय, मरजाद, सहजू, रहमान, रेशम खां, भूदर, मोहम्मद बक्स, किशनाई और
निजाम। इन्हें फांसी की सज़ा से तो छूट दी गयी है, पर पाँच साल की सज़ा
बामशक्कत दी गयी है।
जो सरकारी गवाह न बने थे, उन्होंने सरकारी गवाहों को व्यंग्यात्मक हँसी के साथ देखा
स्लीमेन : जिन्हें कालापानी भेजे जाने की सज़ा दी गयी है, उन मुल्जिमों के नाम हैं- धरम खां,
गोबरा, सुकलाल, रहीम खां, राजाराम, बिराहिम, घबदा, सरवारा, दुरगा और गनेस।
बगुआ, अलीफ खां, उमराव साहिब, पुन्नू, साहुन, असालत, पंगा, और इमामी को
आजीवन कारावास की सज़ा दी गयी है। साएदाद खां, छोटे जमादार, सतराम,
जवाहिर, निजाम, परसराम, नन्दुआ कोरी, अनूप, दुर्जन, करनजू, छतर, दौलतिया,
तिजुआ और गोमानी गोंड को चार-चार साल का कारावास दिया गया है।
जिन्हें फांसी की सज़ा दी गयी है, वे मुल्जिम इस प्रकार हैं- बहादुर खां, पल्टु,
भवानी, रामबक्स, झुर्रा, मदुआ, घसुआ, खैरी, महासुख, भगवान, कज्जू, मदारी, जाप्था,
छिद्दी, केहरी, ब्रिजभान, मरदन कोली, बिहारी, उदय, पल्टुआ, भवानी प्रसाद, महंगु,
कढ़ोरी...।
फांसी की सज़ा पाये ठगों का नाम सुनकर, सरकारी गवाह बन गये ठगों की गरदनें झुक गयीं। आखिर वे उन्हीं के साथी थे। साथी से बढ़कर, एक ही पंथ के पथिक। एक सौगंध में बंधे। एक साथ तुपौनी का गुड़ खाकर माता भवानी के भक्तों में शुमार हुए थे वे।
जिन्हें फांसी की सज़ा मिली थी, उन्होंने गर्दनें उठाकर, उन लोगों को देखा, जो सरकारी गवाह बन गये थे, और दूसरी तरफ खड़े थे।
फांसी की सज़ा पाये कैदी ने जयकारा लगाया : बिंध्याचलवाली भवानी की जै...।
बहुत सी आवाजें : जै...जै...जै...।
सरकारी गवाहों की गर्दनें और झुकीं। पर बाकी के सज़ा पाये ठगों ने जयकारे में साथ दिया।
स्लीमेन : शांत। खामोश।
सरिश्तेदार : खामोश रहो।
स्लीमेन : दो दिन के बाद फांसी दी जायेगी। जिन्हें फांसी की सज़ा दी गयी है, उनकी कोई
आखिरी इच्छा हो तो बता दो। पूरी करने की कोशिश की जायेगी।
एक ठग : भवानी को दओ, सब कछु है हमोंरों के पास...!
स्लीमेन : फिर भी...।
दूसरा ठग : तो ऐंसो करनें, के मरबे के बाद, हमाओ दाह-संस्कार करवा देनें...।
स्लीमेन : ठीक है।
तीसरा ठग : और हमें दफना देनें...।
स्लीमेन : ठीक है...। और...?
ठग : और कछु नईं...।
स्लीमेन : मैंने अपनी तरफ से सभी मुल्जिमों के लिये एक तोहफे का इंतजाम किया है...।
अदालत में खामोशी छा गयी। किसी भी ठग ने कोई उत्सुकता नहीं दिखायी।
एक ठग : का मौत, कालापानी और आजीवन कारावास की सज़ा के तोहफे से तुम्हारा पेट नहीं
भरा, साहिब...?
स्लीमेन : कल तुम लोगों के माता-पिता, भाई-बंद, बीवी-बच्चे...तुम लोगों से मुलाकात करने आ
रहे हैं...। मैंने उन्हें बुलवाया है...।
मदारी : (अचरज से) का कै रए हो, साहिब...?
स्लीमेन : ठीक ही कह रहा हूँ...।
दूसरा ठग : का हम उनसें मिल सकत हैं...? मुलाखात हो सकत है...?
स्लीमेन : हाँ, कल दिन भर तुम्हारे नाते-रिश्तेदार तुम्हारे साथ रहेंगे...।
तीसरा ठग : न जानै तुम कौन आओ साब...? जल्लाद हौ के हमाये भाई-बंद...?
स्लीमेन : तुम्हारी इच्छा है, तुम्हें जो समझना हो, समझो।
जेल में क़ैदियों को कोठरी में हथकड़ी-बेड़ी डालकर रखा जाता है। पर हम ऐसा नहीं
करेंगे। हम एक खुली जेल बना रहे हैं, यह एक लंबी-चौड़ी जगह होगी। कई एकड़
में। वहां खेती-बाड़ी होगी। साग-भाजी उगायेंगे कैदी। खुलकर रहेंगे। अपने हाथ से
उगायी और मेहनत करके कमायी गयी रोटी खायेंगे।
इसके अनावा सज़ायाफ्ता क़ैदी झांसी घाट से लेकर मिर्ज़ापुर तक के रास्ते के
दोनों तरफ झाड़-पेड़ लगायेंगे, ताकि राहगीरों को छाया मिले। अभी तक राहगीर
तुम्हारे लिये एक शिकार होते थे, अब वे तुम्हारे लिये मेहमान होंगे। और मेहमान तो
भगवान के बराबर होता है। तो भगवान को ठंडा पानी मिले, ठंडी छाया मिले, इसका
इंतज़ाम क़ैदी ही करेंगे।
अपने रिश्तेदारों से भी तुम्हारी मुलाकात होगी उसी खुली खुली जेल में...।
तीसरा ठग : तो हमाए रिश्तेदारों को भी पता लग गओ कि हम ठग आएं...खूनी-क़त्ली आएं...?
स्लीमेन : रिश्तेदारों को ही नहीं, यह तो सारी दुनिया को पता चल चुका है...। अख़बारों में छप
रहा है...। गजट में छप रहा है...। लोग एक-दूसरे को बता रहे हैं...। अब यह कोई
छुपी हुई बात नहीं रही...भवानी प्रसाद...। खुला मुकदमा चलाया गया, सबूत, गवाह
और बयान पेश किये गये...।
पीड़ितों ने अपनी चीजों को पहचाना...। रोये...। तड़पे...। घरों में लौटकर सबको
बताया...। ज़ुर्म छुपता नहीं। सामने आता ही है। जो किया, उससे भागो मत। बचने की
कोशिश मत करो। सत्य का सामना करो। अपने बीवी-बच्चों का सामना करो। और
उनके बीवी-बच्चों की याद करो, जिन्हें तुम लोगों ने बिना दया के मार डाला।
जानते हो तुम लोगों ने कुल कितने लोगों को मारा है...?
खामोशी।
स्लीमेन : दक्कन के मामलों को छोड़कर, मध्य प्रांत, अवध और हिंदुस्तान में ही अब तक तुम
ठगों ने, जिनकी हत्याएं करना खुद ही मंजूर किया हैं, केवल उतनी ही हत्याओं की
गिनती की गयी है- और मरने वाले हैं, तिरसठ हजार लोग...। तिरसठ हजार...।
खामोशी और गहरी हो गयी। फांसी पाये ठगों ने भी गरदनें झुका लीं।
स्लीमेन : एक-एक ठग, कम से कम सौ-सौ, पचास-पचास हत्याओं का जिम्मेदार है...।
खामोशी।
स्लीमेन : क्या उनके बीवी-बच्चों का खयाल आया कभी तुम्हें...? उनके शौहर...,उनके बाप...,
उनके लड़के..., क्या अब अपने घरों को लौट सकेंगे कभी...?
खामोशी।
स्लीमेन : मनुष्यता के खिलाफ ज़ुर्म किया है तुम लोगों ने। और देवी भवानी को बदनाम करते
रहे। देवी हत्याएं नहीं करातीं, जीवन और खुशहाली देती हैं। कहते हो कि हम पापों
की सज़ा देते थे...। जो खुद पाप करता हो, वो पाप की सज़ा कैसे दे सकता है...?
ईश्वर तो दया और करुणा का सागर है। वह तो पापियों पर भी कृपा और दया करता
है...। क्या उसने अजामिल पर दया नहीं की...? रावण, हिरणकश्यपु, कंस आदि का
उद्धार नहीं किया...?
स्लीमेन चुप हो गये। उनका गला भर आया था। रोष के कारण। आवेग के कारण।
स्लीमेन : अब अदालत बर्खाश्त की जाती है।
कहकर वे बैठ गये। अदालत जड़वत् रही आयी। कोई अपनी जगह से हिला तक नहीं। सैकड़ों निगाहें स्लीमेन को देख रही थीं। स्लीमेन उन्हें, पर जैसे वे शून्य में निहार रहे हों...।
सरिश्तेदार ने संतरियों और पुलिस-दरोगा को आँखों से संकेत किया। दरोगा ने सिपाहियों को। सिपाहियों ने ठगों के कंधे छुए। वे सब दबे पाँव अदालत से बाहर चले गये। उन्हें जेल की कोठरियों में पहुँचा दिया गया। स्लीमेन, ठगों के जाने के बाद उठे। नगर के भद्रजन भी।
स्लीमेन : (भद्रजनों से) आप लोगों का, यहाँ आने के लिये, बहुत-बहुत शुक्रिया। पर एक
इल्तजा और है...। दो दिन बाद, सुबह पाँच बजे फांसी होगी। उस वक़्त भी आप
लोगों को, अपने और साथियों, बंधु-बांधवों सहित आना होगा...। ताकि आम लोगों के
मन से डर हट सके। उन्हें पता लगे कि ठगों को मिटाया जा रहा है। उन्हें कठोर
सजाएं दी जा रही हैं और अमन-चैन बरकरार किया जा रहा है।
नगर सेठ : सरकार का धन्यवाद...। आपका धन्यवाद...।
स्लीमेन : शुक्रिया।
भद्र-जनों ने स्लीमेन को नमस्कार कहा। स्लीमेन उठकर बाहर चले गये। नगरवासी भी बाहर निकले।
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दृश्य : दस
जेल में बंद फांसी की सज़ा पाये हुए ठगों से दो संतरियों ने अलस्सुबह आकर कहा
संतरी : चलो फांसीघर चलना है...।
ठग एक : (मसखरी करते हुए) चलो रे, जल्दी-जल्दी चलो... सुसरार चलने है...। बुलौआ आओ
है...।
ठग दो : बिदाई में अंगूठी लैहौ कक्का, कै अंगोछा...?
तीसरा ठग : बोल बिंधाचल देवी की...ऽऽऽ...।
सामूहिक स्वर : जै...ऽऽऽ...।
वे सब के सब फांसीघर की तरफ चल पड़े।
उनके आगे- पीछे दो-दो हथियार-बंद सिपाही। वे अचरज से उन्हें देखते रहे, कैसे कैदी हैं... मरने जा रहे हैं और ठेल-पेल, धक्का-मुक्की, हुल्लड़ कर रहे हैं। जयकारा लगा रहे हैं...!
फिर वे ठग गाने लगे -
लुआएं जाबें चार कहार, मुनैयाँ चली जात नये डोला में।
अरे हाँ हो मुनैयाँ
कौन बरन डोला साजै
रे कौना बरन कहार मुनैयाँ, चली रे जात नये डोला में।
फांसीघर में जेलर और डॉक्टर दिखायी पड़ते हैं। ठग उन्हें देखकर चिल्लाये-
ठग एक : अरे सलाम डागदर साहब...।
ठग दो : रुखसती का सलाम...।
ठग तीन : कसूर की माफी देना डागदर साहब।
ठग चार : जेलर साहब राम-राम...।
ठग पांच : तुम्हाई जेल सूनी कर आये हम...।
सामूहिक स्वर : हो-हो... हा-हा... हे-हे...।
फांसीघर के तख़्ते के पास पहुंचने पर गारदों ने जल्दी से उन्हें घेर लिया। कंधे पर बंदूकें सम्हाल लीं।
ठग एक : नैं भगहैं भईया, नैं भगहैं...घबराओ मती...।
सिपाही चुप रहे। वे अपनी ड्यूटी कर रहे थे।
फांसी के तख्ते के पास पहुँचने पर उन लोगों ने देखा कि तख़्ते के उस तरफ स्लीमेन साहब, उनके यूरोपियन और देसी अफसर, जेलर, शहर कोतवाल और पुलिस का एक दस्ता खड़ा है। सामने की तरफ जब्बलपुर के सेठ-साहूकार भी।
ठग दो : (स्लीमेन को देखकर जोर से) राम-राम साहब...सलाम साहब...। चलत हैं...फिर कभऊँ
मुलाखात भई तो मिलहैं साहब...।
ठग तीन : साहब एक बात कहे जा रए हैं...।
स्लीमेन : हाँ-हाँ मदारी, कहो...।
ठग तीन : तुम तो हमसै भी बड़े ठग निकरे साहब...। हमरई संगियों खौं सरकारी गवाह बनाखैं,
हमई खौं फांसी पै टाँग रए हो...। भवानी समझें आपखौं...।
फिर वह हाथी की तरह झूमता हुआ चला गया।
जेलर के इशारे पर हाजिरी के लिये नाम पुकारे जाने लगे। हाजिरी के बाद डॉक्टर ने मुआयना किया। कहा- ऑल राइट सर। मेजिस्ट्रेट कै. विलियम हेनरी स्लीमेन ने गर्दन को जुंबिश दी। जेलर के हुक्म से जेल गारद के दरोगा ने उन्हें तख्ते पर लाकर खड़ा कर दिया।
टंगे हुए फंदों के नीचे पहुँचते ही, पहले एक ठग ने फंदे को छूकर परखा। वाजिब नहीं लगा, तो दूसरा परखा। दूसरा मानमाफिक था, उसके नीचे खड़ा हो गया। फिर तो एक-एक कर सभी ने अपने लिये फंदों का चुनाव खुद ही किया।
दूसरे सिपाही ने उन सबको ऐसी काली टोपी पहना दीं, जो सिर को ढंकते हुए, गले तक जा पहुँची। उनकी आँखें अंधकार में चली गयीं। हाथ, पीछे करके, कमर के साथ बांध दिये गये।
ठग एक : बोल बिंधाचल माई की जै...।
समूहिक स्वर : जै...।
इसी समय मेजिस्ट्रेट ने फांसी देने का संकेत किया। जल्लाद ने लीवर खींचा। तख्ता सरका और ठगों की देहें फंदे में झूल गयीं।
स्लीमेन : सबसे ज्यादा खुखार ठगों में से दो-तीन की लाशों को शहर के बीच में किसी पेड़
पर टांग दो। लोग देख लें कि ठगों से उन्हें निजात मिल गयी है।
जेलर : यस सर।
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दृश्य : ग्यारह
स्लीमेन ने ठगों की बड़ी तादाद को उसके अंजाम तक पहुंचाने के बाद अपने साथी अफसरों की बैठक आयोजित की। उपस्थितों में विशेष थे- मार्टिन, जार्ज स्टाकवेल, कै, चार्ल्स ब्राउन, चार्ल्स फ्रेजर, वेलेजली, शोर, कैवेफन्डिश, जार्ज क्लार्क, एल. विलकिन्स, बाक्स, कर्नल लो, कर्नल स्टुअर्ट, कर्नल ऐलवेस, कर्नल स्पायर्स, कर्नल वाड, कर्नल सदरलैण्ड, कर्नल कलफील्ड, मेजर विलकिन्सन, मेजर बर्थविक और कैप्टेन पैटन ।
स्लीमेन : प्यारे मित्रो, गवर्नर जनरल लॉर्ड विलियम बेंटिंक्स् तथा कौंसिल के उपाध्यक्ष सर चार्ल्स्
मेटकॉफ, जो कि दोनों ही बेहद विनम्र व्यक्ति हैं, उन्होंने ठगों को समाप्त करने की
दिशा में सफलता पाने के लिये अपनी गहरी रुचि दिखायी और ज़रूरी सहयोग भी हमें
उपलब्ध कराया है। मि. स्मिथ जो कि गवर्नर जनरल की ओर से सागर-नरबदा
टेरिटरी में कंपनी सरकार के प्रतिनिधि थे, वे भी अन्य ठग-गिरोहों को सजाएं दिलाने
के बारे में अपनी ऐसी ही भावनाएं रखते थे।
राष्ट्रों के कानून का यह सिद्धांत है, जिसे प्रत्येक सभ्य व्यक्ति के द्वारा मंजूर भी
किया जायेगा, कि हत्या को एक पेशे की तरह कहीं पर भी शरण-स्थल उपलब्ध नहीं
होना चाहिये। परंतु अपने काम के समय हमारे देखने में यही आया, कि विभिन्न सूबों
में इन हत्यारों को संरक्षण देने वाले लोग मौजूद हैं और उन्हीं सूबों में इनके द्वारा
अपराध भी किये गये हैं।
अनिवार्य रूप से ऐसा सोचा जा सकता है कि कदाचित् मैं आगे कहीं,
ठगी-प्रथा से संबंधित इतिहास को और उसे मिटाने के अपने अभियान के बारे में
जानकारियाँ दूंगा, लेकिन अभी तो मैं केवल इतना ही कह सकता हूँ कि हमने बहुत
सा काम कर लिया है, परंतु अब भी बहुत सा काम किया जाना बाकी है।
खास तौर पर अभी वायदा माफ गवाह, कम सज़ा पाने वाले ठग और फांसी
पाने वाले ठगों सहित सभी ठगों के परिवार जनों की आजीविका का इंतजाम।
अगर इसे न किया गया तो कल ठगों की नये गिरोह पैदा हो जाएंगे।''
अफसर एक : सर, उसके लिये क्या कोई योजना है...?
स्लीमेन : हां, मि. चार्ल्स ब्राउन के पास है।
अफसर दो : हम उसे जानना चाहेंगे, सर ब्राउन...।
मि. चार्ल्स ब्राउन : मैंने सर स्लीमेन के निर्देश पर एक ट्रेनिंग स्कूल की योजना बनायी है। ठगी
के धंधे में लगे हुए लोगों और उनके परिवारों के कुल 882 स्त्री-पुरुष होते हैं।
इस स्कूल में दरियां, कालीन, ईंट, मिट्टी के बरतन, खपरे, थैले, टोकरी, घड़े
वगैरह बनाये जाएंगे।
इन चीजों को बेचने के लिये बाज़ार भी बैठाया जायेगा और सबसे पहले
हम सब लोग ही उनका सामान खरीदेंगे, ताकि अगर कोई ठगों से घृणा के कारण
सामान खरीदने में हिचके, तो उसकी हिचक दूर हो सके। यह बाज़ार जब्बलपुर का
जो इतवारी बाज़ार है, उसके चारों ओर लगाया जायेगा। कदमताल और बेलबाग
के इलाके में भी एक और बाज़ार भराया जायेगा।
स्लीमेन : और वह पेड़ लगाने का प्रोग्राम...?
मि. चार्ल्स ब्राउन : हां, वह भी है, सर। झांसी घाट से लेकर मिर्ज़ापुर तक सड़क के दोनों
किनारों पर पेड़ लगाने में ठगों का श्रम लगेगा।
स्लीमेन : इस बारे में आप सब लोगों का क्या विचार है...?
अफसर एक : यह तो अनोखी और अद्भुत् स्कीम है सर, शायद ही और कहीं अपराधियों और
नकी फेमिलीज के लिये इम्पलायमेंट की स्कीम बनायी गयी हो। हम सब उसे
सफल बनाने में पूरी ताकत से लगेंगे।
स्लीमेन : आप सब से मुझे ऐसी ही उम्मीद है...। कानून के पालन के साथ-साथ हमें मनुष्यों
के साथ मनुष्यों जैसा व्यवहार ही करना चाहिये। अन्यथा हम भी अपराधी ही बन
जायेंगे। कानूनी अपराधी। हमारी संवेदनाएं और सदेच्छाएं हर हाल में जिंदा रहना
ही चाहिये।
स्लीमेन को चुप होते देखकर कर्नल ऐलवेस ने खड़े होकर कहा
कर्नल ऐलवेस : सर, मुझे इज़ाजत दीजिये कि मैं भी कुछ कहूं...।
स्लीमेन : हां-हां, क्यों नहीं...।
कर्नल ऐलवेस : हम सबके प्रिय और गौरव स्लीमेन सर! हमारा सौभाग्य है कि हमें आपके साथ
काम करने का मौका मिला। हमने सीखा कि किसी काम के प्रति निष्ठा का क्या
मतलब होता है? मैं सब सहयोगियों की ओर से इसके लिये आपका शुक्रिया भी अदा
करना चाहता हूं। सुना है कि आप जल्दी ही ग्वालियर के रेजीडेंट होकर जाने वाले
हैं। रेजीडेंट के पद पर सम्मानित किये जाने पर हम सब की ओर से बहुत-बहुत
बधाई, सर। वैसे हमें इस बात का दुख भी होगा कि हमें आगे आपके साथ काम करने
का मौका नहीं मिलेगा...।
स्लीमेन : (मुस्कुराकर) हां, ऐसा मैंने भी सुना है। आप लोगों की ओर से जो भावनाएं व्यक्त की
गयी हैं, उसके लिये सब लोगों का बहुत-बहुत शुक्रिया...। मैं एक बात और आप
लोगों से कहना चाहता हूं। अम्मीद करता हूं कि आप इसे हमेशा याद रखेंगे। जिस
देश से हमें अपनी रोटी मिले, उसे कभी मत भूलना। उसके प्रति अपने कर्तव्यों को भी
कभी मत भूलना। यह एक महान् देश है, हमें यहां से सीखने के लिये बहुत कुछ मिला
है। आगे भी और बहुत कुछ सीखने मिल सकता है, अगर हम सीखना चाहें तो...। हम
एक दिन इस दुनिया से चले जाएंगे, पर हमारे अच्छे काम, हमारे बाद भी सदियों तक
याद रखे जाएंगे। और वही हमारा असली ईनाम भी होगा। शुक्रिया।
मि. चार्ल्स ब्राउन : सर एक और अच्छी खबर है हमारे पास। इजाजत हो तो यहां पर उसे
सार्वजनिक करूं?
स्लीमेन : अच्छी ख़बरों के लिये इज़ाजत की क्या ज़रूरत...? हम भी अच्छी ख़बरों के मुरीद हैं,
भाई। जल्दी से सुनाईये...।
मि. चार्ल्स ब्राउन : कोहका टोला के गांववासियों ने जैसे ही सुना कि आप जल्दी ही जबलपुर से
ग्वालियर जाने वाले हैं, तो उन लोगों ने अपने गांव का नाम बदलकर स्लीमैनाबाद
रख लिया है। वे सब आपके बहुत शुक्रगुजार हैं। वे याद रखे हुए हैं कि आपने बाबा
हरिदास के मंदिर का जीर्णोद्धार कराया है, कि आपने 185 एकड़ जमीन मंदिर के
साथ लगवाई है, कि दीपक में इस्तेमाल किये जाने वाले घी के लिये आपने सरकारी
ख़जाने से पांच रुपया सालाना दिये जाने का जो बंदोबस्त भी कराया है। इन सब
बातों के लिये गांव वाले आपको हमेशा याद रखना चाहते हैं, सर...।
स्लीमेन : मेरे नाम पर गांव का नाम...? मैं तो बहुत साधारण आदमी हूं। जो किया वह कर्तव्य
समझकर किया। और किया ही क्या...? जो उनका है, वही उन्हें दे दिया है...। बस।
वे मुझे याद रखे हुए हैं। याद रखना चाहते हैं, तो इसके लिये उनको भी मेरा शुक्रिया
कहें। मैं भी उन्हें कभी नहीं भूलूंगा...।
यह जब्बलपुर मेरे लिये बहुत ही प्यारी जगह रहा है। मैं यहां बार-बार लौटकर
आता रहा हूं। इससे मेरा दिली लगाव है। जब मैं दूसरी बार गंभीर रूप से बीमार पड़
गया था और दो साल के लिये पहाड़ों पर रहने, शिमला जा रहा था, तब बहुत से
लोगों को लग रहा था कि अब मैं कभी भी लौट नहीं सकूंगा। पर मैं जानता था कि
मेरा जब्बलपुर मुझे लौटा लायेगा...।
मेरा प्यारा जब्बलपुर!
यहीं पर मेरी मैरिज हुई। मेरे बच्चे हुए। यह मेरे बच्चों का जन्म स्थान है। उनका
अपना शहर है। उनका अपना मुल्क है। यहां पर नर्मदा नदी है, जहां के मेलों में
जाकर वे खुशियां पाते रहे हैं। यहां पर धुंआधार है, जो मन को शांति और उत्साह
देता रहा है। यहां पर गौरीशंकर का मंदिर है, जो मुझे असल मैं हमारे एडम और ईव
ही लगते हैं। मैं अपने इस जब्बलपुर को कभी नहीं भूल सकता।
लांग लिव जब्बलपुर! थैंक्यू डियर जब्बलपुर!! थैंक्स टू ऑल ऑफ यू...!!!
लोगों ने तालियां बजाकर समर्थन किया।
स्लीमेन हाथ हिलाते हुए बाहर चले गये।
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(समाप्त)
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