लघुकथाएँ : डॉ. कुंवर प्रेमिल // प्राची - दिसंबर 2017 : लघुकथा विशेषांक

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जन्म - 31-03-1947 उपलब्धियां - कहानी संग्रह-3, लघुकथा संग्रह-4 बाल साहित्य - व्यंग्य संग्रह-1 संपादन - ककुभ एवं प्रतिनिधि लघुकथाएँ, 3 कहान...

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जन्म- 31-03-1947

उपलब्धियां- कहानी संग्रह-3, लघुकथा संग्रह-4

बाल साहित्य- व्यंग्य संग्रह-1

संपादन- ककुभ एवं प्रतिनिधि लघुकथाएँ, 3 कहानी संग्रह- घर आंगन और गिरगिटान, शैलपर्ण की शैला, स्वप्न झरे फूल से

अनुवाद- लघुकथाओं का मराठी सिंधी और पंजाबी में अनुवाद. जंगल कथा- गुजराती में अनुवाद

सम्पर्क : एम.आई. जी-8, विजयनगर, जबलपुर-482002 (म.प्र.),

डॉ. कुंवर प्रेमिल

पहाड़ा

चिड़िया एकम चिड़िया

चिड़िया दूनी दो चिड़ियां

चिड़िया तिया तीन चिड़ियां

चिड़िया चौके चार चिड़ियां

चिड़िया पंजे पांच चिड़ियां.

चिड़िया छक्के छः चिड़ियां.

चिड़िया सत्ते सात चिड़ियां.

चिड़िया अट्ठे आठ चिड़ियां.

चिड़िया नवें नौ चिड़ियां.

चिड़िया दसम दस चिड़ियां.

हम सबने बचपन में पहाड़े रटे पर इम्तहान पास करने के लिए ही पहाड़े रटे गए, ताकि गणित के सवाल हल किए जा सकें.

इम्तिहान पास करने की धुन में हम पहाड़े का मतलब नहीं समझे. इसका मतलब है वृद्धि अभिवृद्धि. चिड़िया के मामले में यही पहाड़ा लागू होगा, तभी न उसकी वंश बेल आगे बढ़ेगी. तभी वह हमारे आंगन में फुदकती दिखेगी, तभी वह हमारे बच्चों की आंखों में रंग-बिरंगे रंग भरेगी. आसमान से धरती तक की उड़ान भरकर चिड़ियों का इन्द्रधनुष निर्मित करेगी.

चिड़िया और बच्ची एक हैं. बच्ची की भी वंश बेल की रक्षा संदिग्ध है. आंगन दोनों से ही सजता है. आंगन सूना न रहे, इसके लिए आदमी को दोनों की रक्षा करनी होगी. तभी यह पहाड़ा सार्थक होगा. वरना कैसी गिनती, कैसा पहाड़ा, इन दोनों की रक्षा के लिए कमर कसनी होगी, वरना प्रकृति हमें कभी माफ नहीं करेगी.

पैसा...पैसा...पैसा...

‘पैसा, पैसा, पैसा!’ पैसा बड़ी बुरी चीज है. हर कोई इसका ख्वाहिशमंद है. हर कोई येन-केन-प्रकारेण पैसा हथियाना चाहता है. यह भाई-भाई में तकरार पैदा करता है. मां-बेटा, पति-पत्नी के संबंधों को मटियामेट कर देता है.

‘यह बिना फन का नाग है. इसके काटे की न कोई दवा है और न कोई मंत्र ही है.’

शास्त्री जी, आसंदी पर बैठकर प्रवचन कर रहे थे. उनकी वाणी में साक्षात सरस्वती विराज रही थी. ऐसे-ऐसे उदाहरण देकर पैसे की लानत-मलामत कर रहे थे कि पूर्णमत एक बार तो सभी के दिलों में पैसे के लिए वैराग्य ही पैदा हो गया था, मानो.

शास्त्री जी आगे बोले, ‘जग मिथ्या है. हानि-लाभ का जखीरा है. आदमी स्वार्थ की चक्की में पिसता रहता है और लोभी की चासनी में डूबकर अपना लोक-परलोक दोनों बिगाड़ लेता है. पैसा आदमी का ईमान खराब कर रहा है.’

‘वाह!’ जन समूह शास्त्री जी की तारीफ करने से अपने आपको रोक नहीं पा रहा था.

अगले दिन शास्त्री जी और यजमान के बीच पैसे को लेकर नोंक-झोंक हो गई. यजमान के पास कुछ पैसे कम पड़ गए, तो शास्त्री जी का पारा सातवें आसमान पर जा पहुंचा. वह अपने तय पारिश्रमिक से एक पैसा भी कम करने के लिए तैयार नहीं थे. यजमान हाथ जोड़कर बोला, ‘महाराज, आपका एक दिन का पारिश्रामिक भगवान की सेवा में लगा दिया है. आपको इसका पुण्य भी मिलेगा महाराज.’

‘भाड़ में गया पुण्य और पुण्य लाभ. पूरा पैसा नहीं मिला तो मैं आज भोजन नहीं करूंगा, तुम्हें बद्दुआ भी खूब दूंगा. तुम्हारे इस आयोजन की मिट्टी पलीद हो जाएगी.’

यजमान बोला, ‘महाराज, आप ही तो कह रहे थे कि पैसा बड़ी बुरी चीज है. ईमान खराब करता है. ऐसे पैसे के लिए आप हाय-तौबा मचा रहे हैं. ताज्जुब है महाराज!’

अब शास्त्री जी अपने ही जाल में फंसकर छटपटा रहे थे. पैसे के मोह ने उनके प्रवचन पर पानी फेर दिया था मानो.

(अहा! जिंदगी के साभार)

डमी शेर

महावत गज्जू आजकल बहुत खुश-खुश चल रहा था. विदेशी पर्यटक उसके हाथी को बहुत पसंद करते थे. वह भी अपनी सवारियों से बड़ी विनम्रता से पेश आता था. शेर दर्शन कराने के बाद उसे सौ रुपया का एक नोट बख्शीश में जो मिल जाता था.

कुछ दिनों बाद शेर साहेब बदमाशियां करने लगे. दर्शन देने से कतराने जो लगे. उसके दिन मायूसी में कटने लगे. महावत मायूस हुआ तो बेचारा हाथी भी मायूस हो गया. महावत उसे कभी-कभी बेकसूर लोहे की डंडी चुभा देता. हाथी फुंफकारने लगता. कई बार तो सवारियां भी गिरते-गिरते बचीं.

एक दिन एकाएक उसे एक उपाय सूझ आया. उसने एक आदमी से सौदा कर लिया. देखो जी- ‘तुम फलां-फलां जगह शेर की खाल ओढ़ कर झुरमुटों में खड़े रहना. मैं दूर से पर्यटकों को डमी शेर दिखा दूंगा. बख्शीश का आधा तुम्हें भी मिलेगा.’

चाल चल निकली. उस पर रुपयों की बरसात होने लगी. डमी शेर का भी अच्छा धंधा चलने लगा. महावत के खुश होने पर हाथी भी खुश रहने लगा. उसे अच्छा चारा खाने को मिलने लगा.

(अहा! जिंदगी के साभार)

बीमारी

काले मुंह के बंदरों का एक झुंड शहर के बाग में चहलकदमी करते-करते सवेरे-सवेरे आ घुसा. कुछ कुत्ते भौंके तो वे सब चहारदीवारी पर चढ़कर मजे-मजे कैट वाक करते, बाकायदा कुत्तों का मजाक उड़ाते हुए एक छोर से दूसरे छोर की ओर बढ़ने लगे.

उनकी मस्तानी चाल को देखकर एक आदमी बोला- ‘अरे काका, ये सब तो मेल हैं, इनमें एक भी फीमेल नहीं है- ऐसा क्यों?’

उसके बगल में खड़े दूसरे आदमी ने असमंजस जताते हुए कहा- ‘कहीं इन्हें भी तो लड़कियां पैदा न करने की आदमियों की बीमारी नहीं जा लगी. आखिर ये भी तो आदमी के पूर्वज ही हैं न.’

लो वह रहा जामुन का पेड़

"लो वह रहा जामुन का पेड़." मेरी पोती दूर से ही जामुन के पेड़ को देखकर तालियां बजाने लगती है.

ऊंचे टीले का ऊंचा पेड़ है यह. मेरे गांव के खलिहान की एक शोभा. भव्यता में कहीं कोई उसका सानी नहीं है. मैं अब गांव में नहीं रहता हूं. शहरवासी हो गया. पर यह पेड़ मेरे समूचे परिवार की आई.डी. बनकर रह गया है. गांव की जमीन पितृदेव ने औने-पौने बेच दी थी. बस मेरे अनुरोध पर यह एक खलिहान भर रहने दिया था. हम सब बच्चों को गर्मी की छुट्टियां उसी पेड़ पर छुआ-छू खेलते व्यतीत होती थीं. सारी दोपहरी हम लोग उसी जामुन के नीचे के जामुन बीन-बीन कर खाते. पेड़ पर नदी पार के सैकड़ों तोते आ जाते. जमकर फल खाते और टूं...टां....टां... से पूरा वातावरण गुंजरित कर जाते.

आपको पता है, मैं अपनी छुट्टियों का उपयोग गांव आने के लिए ही करता हूं. मैं कभी कोई तीर्थ स्थल नहीं जाता. मेरा तीर्थ तो यही एकमात्र जामुन का पेड़ है. जिसे दूर से ही देखकर मेरी पोती तालियां बजाने लगती है. उसके चेहरे पर की लालिमा देखते ही बनती है.

गांव में माता-पिता दोनों ही नहीं हैं. घर भी नहीं है. बस यही एक पेड़ है जो मेरे माता-पिता दोनों की भूमिका निर्वाह करता है. जैसे माता-पिता के रहने पर मैं स्कूल की छुट्टियों में घर आना नहीं भूलता था. वैसे ही आज भी मैं इस पेड़ को देखने की लालसा लिए हर गर्मी में गांव चला आता हूं.

गांववालों ने मेरा पूरा खलिहान लील लिया है. बस यह एक पेड़ और उसके नीचे की झोंपड़ी को बख्श दिया है. सच पूछा जाए तो यह मेरे ऊपर उपकार ही है उनका, वरना मैं आकर कहां ठहरता और क्यों आता भला?

एक दिन पोती तोता पकड़कर देने की जिद करने लगी. मैं कहता हूं. न...न...बेटी, तोते इस पेड़ की जान हैं. यदि इनकी पकड़-धकड़ की गयी तो ये फिर कभी इस पेड़ पर नहीं आएंगे. सूना पेड़ किसी दिन यूं ही खड़ा-खड़ा मर जाएगा. इसकी हरियाली, इसके फल, इसके ऊपर बैठे परिन्दों को देखने के लिए ही तो हम यहां आते हैं. यह हमारी आस्था का प्रतीक जो बन गया.

पोती मान जाती है. उसी पेड़ के नीचे गुड्डा-गुड्डी खेलने लगती है. मैं सोचता हूं क्यों न मैं किसी दिन आकर इसी पेड़ के नीचे अपनी पोती का ब्याह रचाऊं...मजा आ जाएगा.

यदि ऐसा संभव नहीं हुआ तो मैं इसी जामुन के पेड़ की पत्तियां शहर मंगाऊंगा. उसी से शादी का मंडप सजाऊंगा. जामुन की हरी-हरी नई कोमल पत्तियां मंडप में जान फूंक देंगी. चार चांद लगा देंगीं.

मैं भावातिरेक में पेड़ से लिपट जाता हूं. लिपटकर हिचकियां लेने लगता हूं. अचानक मुझे यह लगता है कि यह गांव में बिछड़ा मेरा ही छोटा भाई है. मेरा बाल सखा है. मेरे आने तक यह यहीं खड़ा मिलेगा मेरे स्वागत में...मेरी पोती इसी तरह दूर से ही चिल्लाकर कहेगी- "लो वह रहा जामुन का पेड़...वह रहा अपना पेड़." हे भगवान, अपनेपन से ओत-प्रोत इस पेड़ को कोई काटे न, कोई नुकसान न पहुंचाए.

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रचनाकार: लघुकथाएँ : डॉ. कुंवर प्रेमिल // प्राची - दिसंबर 2017 : लघुकथा विशेषांक
लघुकथाएँ : डॉ. कुंवर प्रेमिल // प्राची - दिसंबर 2017 : लघुकथा विशेषांक
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