शोध पत्र विघटन के क्षणों की मार्मिक अभिव्यक्ति ममता कुमारी म हान आंचलिक उपन्यासकार फणीश्वरनाथ रेणु ने अपनी रचनाओं में समसामयिक अनेक समस्याओं...
शोध पत्र
विघटन के क्षणों की मार्मिक अभिव्यक्ति
ममता कुमारी
महान आंचलिक उपन्यासकार फणीश्वरनाथ रेणु ने अपनी रचनाओं में समसामयिक अनेक समस्याओं को उठाया है तथा यथाशक्ति उसके समाधान की चेष्टा भी की है, किन्तु इसके समाधान के लिए वे न तो वैज्ञानिक पश्चिमी मानववादी और न ही साम्यवादी मूल्यों का आह्वान करते हैं; बल्कि उसका
समाधान अपनी ही संस्कृति की वृहद् परंपरा में देखते हैं। उन्हीं समस्याओं में से एक समस्या है परिवार का विघटन। जो वर्तमान समय में एक बड़ी समस्या के रूप में उभरकर सामने आई है।
ऐसे तो इन विघटन के क्षणों की मार्मिक अभिव्यक्ति रेणु जी ने बहुत पहले 1966 में ही कर डाली थी, किंतु वर्तमान समय में जिस रफ्तार से सामाजिक-पारिवारिक रिश्ते टूटते जा रहे हैं, उसे सोच कर रोंगटे खड़े हो जाते हैं।
आज हमारे देश में बुजुर्गों की जो इतनी दयनीय स्थिति है, वह विघटन के क्षणों का ही तो प्रतिफल है। आज का समाज भौतिकवाद की दौड़ में इस कदर शामिल हो रहा है कि उसे अपने बड़े-बुजुर्गों की भी परवाह नहीं रही है। आज का मनुष्य बड़े-बुजुर्गों की उपेक्षा कर सभी मानवीय मूल्यों को ताक पर रख कर सिर्फ अधिक से अधिक सुख-सुविधाओं को भोगने में लगा हुआ है।
ऐसे तो इन उपेक्षित बुजुर्गों की समस्या को भीष्म साहनी ने अपनी कहानी ‘चीफ की दावत’ में तथा काशीनाथ सिंह ने ‘अपना रास्ता लो बाबा’ में उठाया है, जो सीधे हृदय को छूती हैं, किंतु रेणु जी ने इन विघटन के क्षणों की मार्मिक अभिव्यक्ति अपनी कहानी ‘विघटन के क्षण’ में जिस प्रकार से की है उसे पढ़कर पाठक उन मार्मिक क्षणों को महसूस करने लगता है और यही तो एक साहित्यकार की सबसे बड़ी सफलता कही जा सकती है, यही तो रस की दशा है। आचार्य रामचंद्र शुक्ल ने कहा भी है- ‘जिस प्रकार आत्मा की मुक्तावस्था ज्ञान दशा कहलाती है, उसी प्रकार हृदय की मुक्तावस्था रस दशा कहलाती है।’ स्वार्थ के संकुचित घेरे से उठा हुआ हृदय ही मुक्तावस्था में पहुँच जाता है। इस अवस्था में वह लोक दशा से तादात्म्य कर लेता है, और उसकी अनुभूति सबकी अनुभूति बन जाती है।
ऐसे तो रेणु जी आज से 97 साल पहले हुए और अपनी रचनाओं के माधयम से 56 साल तक हिन्दी साहित्य को आलोकित करते रहे, किंतु आज भी हमारे बीच उनकी प्रासंगिकता ‘ज्यों-की त्यों’ बनी हुई है। तभी तो आज पुनः एक बार रेणु की कहानी पर फिल्म बनकर तैयार है जो आगामी 17 नवंबर को रिलीज होने वाली है और उसका नाम है ‘पंचलैट’। इस बार यह बीड़ा उठाया है कोलकाता के फिल्मकार प्रेम प्रकाश मोदी ने। आज से लगभग 51 साल पहले भी रेणु जी की कहानी पर ‘तीसरी कसम’ फिल्म बनी थी जिसने हिन्दी सिनेमा के इतिहास में अपनी अमिट छाप छोड़ी थी। रेणु ने अपनी कहानी ‘विघटन के क्षण’ में गाँव से शहर की ओर पलायन करते ग्रामीणों एवं टूटते पारिवारिक रिश्तों के दर्द को बड़े ही मर्मस्पर्शी अंदाज में उकेरा है। इस कहानी की प्रधान पात्र विजया एवं चुरमनिया के संवाद के माध्यम से परिवार के विघटन से होने वाले दर्द की गहरी अनुभूति होती है।
विजया जो एक 16 साल की लड़की है वह मामा के घर से अपने गाँव रानीडीह आई है, 15 दिन यहाँ रहने के बाद उसे पटना जाना है, क्योंकि उसके माता-पिता के गुजर जाने के बाद उसके चाचा रामेश्वर बाबू पटना एम.एल.ए. क्वार्टर में रहते हैं, और राजेन्द्र नगर में अपना घर बनवा रहे हैं. गाँव की जमीन बेचकर वे पटना में ही रहेंगे।
गाँव में विजया को चुरमुनिया नाम की एक 6 साल की लड़की से भेंट होती है जो रामेश्वर बाबू की हवेली की देख-रेख करने वाली गंगापार वाली दादी के साथ हवेली में ही सोती है।
चुरमुनिया ने जब से विजया के पटना जाने की बात सुनी है उसके हृदय में अवसाद की एक गहरी रेखा घिर आई है। वह विजया से कहती है- ‘विजैयादि तू इतना सवेरे कोबी जो पटाती हो, सो तो बेकार ही ना, तू तो अब पटना में ही रहेगी ना।’ विजया ही नहीं, गाँव के और भी कई लोग गाँव छोड़कर पटना जा रहे हैं। ऐसा लगता है, कि गाँव के मठ के बाबाजी सूरतदास की बातें सच हो रही है।
बैरागी कहता है- ‘सभी जाएंगे, एक-एक कर सभी जाएंगे।’ बैरागी की बात सुनकर गाँव की मशहूर झगड़ालू औरत बंठा की माँ कहती है- ‘ई बाबाजी के मुँह में कुल्च्छन को छोड़ कर और कोई बात नहीं।’
चुरमुनिया विजया से तरह-तरह की बातें करती है, वह कहती है- ‘विजैयादि तू सहर (शहर) के लड़के से सादी मत करना।’ विजया इसकी बातों को सुन कर ठठाकर हँसना चाहती हैं किंतु अपनी हँसी को जब्त कर के कहती है- ‘क्यों शहर के लोगों ने तेरा क्या बिगाड़ा है?’ मेरा क्या बिगाड़ेगा कोई तो किसका बिगाड़ेगा? तुम्हारा विजैयादि! तू सादी ही मत करना। लोग तुम्हें फिर कभी इस गाँव में आने नहीं देंगे। विजया को अचरज होता है कि गाँव खाली होने का, गाँव टूटने का जितना दुःख-दर्द इस छोटी सी चुरमुनिया को है, उतना और किसी को नहीं।
विजया भी गाँव छोड़कर जाना नहीं चाहती है। जब से गाँव छोड़कर जाने की बात तय हुई है, वह अंदर ही अंदर फूट रही है, रजनीगंधा की डंठल की तरह। वह पटना नहीं जाना चाहती है, इसी गाँव में रहना चाहती है। यहाँ माँ-बाबूजी की याद आती है। कलेजा टूक-टूक होने लगता है, तो इमली का बूढ़ा पेड़, बाग-बगीचे, पशु-पक्षी सभी उसे ढाढ़स बंधाते हैं। एक अदृश्य आँचल सिर पर हमेशा छाया रहता है। यहाँ आते ही लगता है बाबूजी बाग में बैठे हैं, माँ रसोई में खाना बना रही है, इसीलिए मामा का गाँव कभी नहीं भाया उसे। वह बाप के डिह पर टूटी मड़ैया में भी सुख से रहेगी।
एक दिन चुरमुनिया विजया की चोरी पकड़ लेती है, विजया जब से आई है रोज रात को चुपचाप रोती है, और सुबह उठ कर तकिए का गिलाफ बदल देती है। जिस दिन विजया को पटना जाना रहता है, सुबह उठकर चुरमुनिया चिल्लाती है- ‘देख-देख विजैयादि नील कंठ देख लो।’ चुरमुनिया आज सुबह से ही व्यस्त है, गढ़ी-टोली से एक जिंदा मछली लाकर मिट्टी के बर्तन में रखती है, फिर गाँव से उत्तर बाबा जीन पीर की थान से मिट्टी लाने गई है वह।
वस्तुतः चुरमुनिया यह चाहती है कि शहर जाने के बाद विजया के साथ कोई अनहोनी न हो। इसीलिए वह तरह-तरह से उसका मंगल मनाती है।
विजया के विदाई के क्षण विजया एवं चुरमुनिया के बीच जो संवाद होता है, दोनों का जो करुण क्रंदन होता है वह पाठकों के मर्म को स्पर्श किये बिना नहीं रहता।
चुरमुनिया कहती है कि मैंने मैया गौरा-पारबती तथा बाबा जीन-पीर से मनौती की है कि हमारी विजैयादि को शहर में कोई बांध कर न रख ले। जिस दिन तू लौटकर आएगी मैं सिर पर फूल की डलिया लेकर देवी के गहवर में नाचूंगी। तू लौट आएगी तो सब लौट कर आएंगे। तू नहीं आएगी तो इस गाँव में रखा ही क्या है, जो भी है वह एक दिन नहीं रहेगा।
विदाई के अंतिम क्षण में दोनों एक दूसरे को देखते हैं। करुण क्रंदन होता है दोनों का और बैलगाड़ियाँ चल पड़ती हैं। दालान के पास गंगापार वाली दादी के साथ चुरमुन टुकुर-टुकुर देखती रहती है। विजया जैसे गाँव छोड़कर हमेशा के लिए चली जाती है, वहाँ उसका विवाह भी कर दिया जाता है किंतु विवाह के पाँच-छः महीने बीते होंगे सुख-चैन से, फिर उसका पति उसे तरह-तरह की यातनाएँ देने लगता है। इधर चुरमुनिया विजया के चले जाने के बाद बीमार पड़कर मरणासन्न स्थिति में पहुँच जाती है। चुरमुनिया सूरतदास के हाथों चिठ्ठी लिखवाकर विजया के पास भेजती है। चुरमुनिया की बीमारी की खबर सुनकर विजया बेचैन हो जाती है, वह अपने पति से मिन्नतें करती है कि उसे एक बार गाँव ले जाए किंतु उसका पति एक भी नहीं सुनता है बल्कि विजया की यातनाएँ और बढ़ जाती हैं। अंततः विजया स्वयं किसी प्रकार भागकर गाँव पहुँचती है, वह गाँव पहुँचकर देखती है कि हजारों गौरैया-मैना सूरज की पहली किरण फूटने के पहले ही खेत में कचर-पचर कर रही हैं। विजया सोचती है चुरमुनिया सचमुच पखेरू हो गयी? विजया की तलहथी पर एक नन्ही सी जानवाली चिड़िया आकर बैठ गई। यह चुरमुनिया ही है।
वस्तुतः रेणु जी ने विघटन के क्षणों की मार्मिक अभिव्यक्ति की है, जिसके दंश को आज हमारे समाज का प्रत्येक वर्ग महसूस कर रहा है। आज हमारे समाज के प्रत्येक व्यक्ति का दायित्व बनता है कि इन विघटन के क्षणों को रोका जाय तथा टूटते-बिखरते रिश्तों को बचाने की चेष्टा करें।
संपर्क : ग्राम+पोस्ट-जगदीशपुर,
जिला-हजारीबाग (झारखण्ड)
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