श्र द्धेय डॉ. शंकर पुणतांबेकर ने एक बार एक पत्र में लिखा था कि डॉ. कुंवर प्रेमिल लघुकथायें लिखते हैं, छापते हैं और लघुकथा पर परिचर्चायें भी ...
श्रद्धेय डॉ. शंकर पुणतांबेकर ने एक बार एक पत्र में लिखा था कि डॉ. कुंवर प्रेमिल लघुकथायें लिखते हैं, छापते हैं और लघुकथा पर परिचर्चायें भी आयोजित करते हैं. आज डॉ. पुणतांबेकर नहीं हैं, पर उनके वाक्यांश मेरे जेहन में कैद हो गए हैं. उन्हें श्रद्धापूर्वक नमन करते हुए उनके वाक्यांश से परिचर्चा की शुरुआत कर रहा हूं.
सुप्रसिद्ध प्राची पत्रिका का लघुकथा विशेषांक का संपादन करते समय मुझे एक परिचर्चा के आयोजन के लिए तैयार होना पड़ा. वह इसलिए भी कि विद्वानों से मिली कोई भी सीख हमें कुछ न कुछ देकर ही जाती है. परिचर्चा का प्रारूप कुछ इस प्रकार है...
"लघुकथाकार मिलकर सैकड़ों-हजारों लघुकथायें लिख रहे हैं. लघुकथायें पत्र-पत्रिकाओं/संकलनों में छप भी रही हैं. एक तो सामान्यतः पत्रिकायें त्रैमासिक ज्यादा हैं. दूसरे रचना की स्वीकृति देना परले सिरे से गायब है. जाने-अनजाने में एक रचना छपते-छपते कम ज कम छः महीने या उससे ज्यादा समय लग जाता है. तब तक लघुकथाकार उस रचना को किसी अन्य पत्रिका में भेज देता है.
सवाल यह उठता है कि यदि दोनों जगह ही लघुकथा छप जाए तो इसमें कोई बुराई है क्या? मैंने विद्वानों से यही एक बात कुछ इस तरह पूछी है- एक लघुकथा एक से ज्यादा जगह प्रकाशित हो सकती है या नहीं. नहीं तो क्यों नहीं हो? मेरे साथ-साथ आप भी जानिए इनके सुविचार और तथ्यों का पता लगाइएगा. इन विद्वानों ने इसे विमर्श के लिए अपनी स्वीकृति दे दी है...और विचार भी प्रेषित किए हैं.
उसके समक्ष रचना होती है रचनाकार नहीं
सूर्यकांत नागर
वस्तुतः यह विषय ही अपने आप में रोचक और विचारपरक है. इसे लेकर मतभिन्नता है. प्रतिष्ठित पत्रिकाओं का आग्रह होता है कि केवल मौलिक अप्रकाशित रचनायें ही प्रकाशनार्थ भेंजे. आशय यही है कि छपी हुई रचनाओं के पुनर्प्रकाशन से पत्रिका का स्तर और महत्त्व कम होता है. इसलिए पता चलने पर कि लेखक ने पुरानी कोई रचना भेजकर छपवा ली है, संपादक लेखक को कदाचरण का दोषी मानकर उसे ब्लैक लिस्टेड कर देता है. दूसरी तरफ कई बार रचनाकार के पास नया कुछ कहने को नहीं और छपास के मोह में वह पूर्व प्रकाशित रचना भेज देता है. लघुकथाओं के मामले में ऐसा अधिक होता है. निश्चित ही कुछ लघुकथायें विविध संकलनों में एकाधिक बार देखी जाती है. यह स्थिति क्षम्य हो सकती है, किंतु साधारण प्रभावहीन लघुकथाओं का बार-बार प्रकाशित होना उचित नहीं कहा जा सकता. इसकी वजह यश और नाम कमाना है. क्या यश की चाह और छपास की भूख, सामाजिक प्रतिबद्धता से ज्यादा महत्त्वपूर्ण है?
कई लघुकथाकारों का तर्क होता है कि रचना हमारी, हमने पसीना बहाकर उसे रचा, वह हमारी मिल्कियत; हमारी मर्जी कि हम उसे एक जगह छपवाएं या दस जगह! वह जितनी अधिक पत्र-पत्रिकाओं में छपेगी, उतने ही अधिक पाठक उससे लाभान्वित होंगे. संपादक कौन होता है हमें हमारे अधिकार से वंचित करने वाला. ऐसे लोग भूलते हैं कि संपादक का काम केवल संपादकीय लिखना या रचनाएं छापना ही नहीं है, पत्रिका को एक व्यक्तित्व प्रदान करना भी है. अच्छे लेखक और अच्छे पाठक तैयार करना. उसके समक्ष रचना होती है, रचनाकार नहीं.
लघुकथाओं के एकाधिक स्थानों पर प्रकाशन के सम्बन्ध में कोई अंतिम फतवा जारी नहीं किया जा सकता, पर सच यही है कि पुरानी रचनाओं को कब तक इस तरह प्रस्तुत किया जाता रह सकता है. जैसा कि पूर्व में कह चुका हूं, कुछ सार्वभौमिक, महत्त्वपूर्ण रचनाओं के सम्बन्ध में उदारता बरती जा सकती है. इतना तो किया ही जा सकता है कि संकलन या पत्रिका के लिए लघुकथायें भेजे जाने पर एक अच्छी पुरानी लघुकथा के साथ एक नई लघुकथा अवश्य भेजी जाय. अन्यथा ऐसा न करने पर रचनात्मकता प्रभावित होती है. लघुकथाकार के पास नए विचारों और समकालीन यथार्थ से मुठभेड़ करने की सामर्थ्य होनी चाहिए. समय की मांग और परिस्थितियां ही सृजन की दिशा तय करती हैं. एक जागरूक लघुकथाकार इन चुनौतियों से कैसे मुंह चुरा सकता है! अतः जरूरी है कि लघुकथा के विकास के लिए अधिकाधिक नई, विचारप्रधान लघुकथायें रची जायें और प्रकाशनार्थ भेजी जायें. यह विधा और उसके रचनाकारों दोनों के हित में होगा.
सम्पर्कः 81, बरौठी कॉलोनी नं. 2,
इंदौर-452014 (म.प्र.)
पाबंदी लगाना अनुचित
डॉ. रामनिवास मानव
लघुकथा का लघु-पत्रिकाओं से घनिष्ठ सम्बन्ध है। अधिकतर लघुकथाएं लघु-पत्रिकाओं में ही छपती हैं। और लघु-पत्रिकाओं की कितनी प्रतियां छपती हैं तथा वे कितने पाठकों तक पहुंचती हैं, यह सभी जानते हैं। तथाकथित बड़ी पत्रिकाओं की भी लगभग यही स्थिति है। ‘कांदबिनी’, ‘नवनीत’, ‘साहित्य-अमृत’, ‘वागर्थ’, ‘आजकल’ आदि पत्रिकाओं में कितनी लघुकथाएं छपती हैं और इनकी कितनी प्रतियां कहां-कहां जाती हैं, इसकी जानकारी किसी बुकस्टॉल पर जाकर प्राप्त की जा सकती है। यानी पत्रिकाएं छोटी हों या बड़ी, मात्र कुछ सौ या हजार पाठकों तक ही उनकी पहुंच है। ऐसे में, किसी लघुकथा को किसी एक ही पत्रिका में छपने की बात कहकर, उसे गिने-चुने पाठकों तक ही सीमित करने का कया औचित्य है? वैसे भी, हर पत्रिका के अपने पाठक होते हैं, वह आमतौर पर उन्हीं तक पहुंचती है. ऐसे में प्रश्न उठता है कि किसी एक पत्रिका में छपने वाली लघुकथा, एक सीमित दायरे के पाठकों से निकलकर अन्य पाठकों तक नहीं पहुंचनी चाहिये? मेरे विचार से किसी लघुकथा पर एक ही पत्रिका में प्रकाशित होने की पाबन्दी लगाना अनुचित है. अतः अच्छी लघुकथाएं, पत्रिकाओं में बार-बार छपनी चाहियें, ताकि वे आधिकाधिक पाठकों तक पहुंच सकें।
सम्पर्क : 571, सैक्टर-1, पार्ट-2,
नारनौल-123001 (हरियाणा)
बंदिशों से मुक्त
माधव नागदा
वैसे तो यह पत्रिका की अपनी नीति पर निर्भर करता है कि वह पूर्व प्रकाशित रचना को स्थान दे या नहीं. जो पत्रिकाएँ पारिश्रमिक देती हैं वे तो कतई नहीं चाहेंगी कि रचना पहले कहीं छपी हुई हो.
दूसरी ओर यह भी सच है कि लघुपत्रिकाओं की पाठक संख्या अत्यंत सीमित होती है, बल्कि उनका पाठक वर्ग भी लगभग तय होता है. कुछ साहित्यिक पत्रिकाएँ अपने प्रांत तक ही सीमित होती हैं. उदाहरणार्थ बिहार से निकलने वाली कई पत्रिकाएँ ऐसी हैं जिनके बारे में अन्य प्रान्तवासियों को जानकारी ही नहीं है. अतः सीमित सर्कुलेशन वाली पत्रिकाओं के संपादक अगर अप्रकाशित रचनाओं के प्रति आग्रहशील हैं तो यह उनकी हठधर्मिता है. आज साहित्य संकट से गुजर रहा है. लोग पुस्तकों-पत्रिकाओं की अपेक्षा सोशल मीडिया पर अधिक समय बिताना पसंद करते हैं। बेशक लघुकथा इन दिनों बेहद लोकप्रिय है किंतु वह प्रकाशित होकर सीमित पाठकों तक ही पहुँच पा रही है. जब अप्रकाशित होने की बंदिशों से लघुकथा मुक्त होगी तो वह कई पत्रिकाओं प्रकाशित हो सकेगी और इस तरह उसकी पाठक संख्या में भी वृद्धि होगी. आश्वस्त होने पर कि इससे उसकी पत्रिका के नियमित पाठकों को कोई एतराज नहीं होगा, वह पूर्व प्रकाशित रचना को अपनी पत्रिका में स्थान दे सकता है।
प्रेमचंद को पढ़ने से वंचित रह जाते
किशनलाल शर्मा
लघुकथा एक ही पत्र-पत्रिका में छपनी चाहिए या अनेक! सच पूछा जाए तो साहित्य है ही ऐसा जिसे ज्यादा से ज्यादा लोगों तक पहुंचाना चाहिए.
समाज में व्याप्त शोषण/कुरीतियों/आडंबरों/अंधविश्वासों का खुलासा साहित्य ही कर पाता है. और साहित्य को सैकड़ों-हजारों पत्र-पत्रिकाओं में प्रकाशन कर उसे उसी अनुपात में पाठकों तक पहुँचाना श्रेयस्कर होगा. लेखक/साहित्यकार अपने विचारों को ज्यादा से ज्यादा पहुँचाकर वह पहला साहित्यिक काम कर परिवार-समाज की सेवा करता है. ऐसे में उसे एक पत्र या पत्रिका तक सीमित कर देना, रचना और रचनाधर्मिता दोनों के प्रति अन्याय नहीं है क्या?
फीचर-सर्विस एक लघुकथा को कई पत्र-पत्रिकाओं में अपने माध्यम से प्रकाशित कराता है और कटिंग्स भेजकर यह जताता है कि अमुक रचना इतने सारे पत्र-पत्रिकाओं में छप गई है. यह रचना और रचनाकार दोनों के साथ न्याय है. उसकी मेहनत का मूल्यांकन है.
एक ही पत्र-पत्रिका में सीमित कर देने से आखिर क्या फायदा हो सकता है. यदि ऐसा सख्ती से किया जाता तो हमें क्या पता चलता कि प्रेमचंद जैसे महान कहानीकार भी लघुकथा लिखते थे और हम उनकी लघुकथाओं से वंचित रह जाते.
इसी तरह भारतेंदु हरिश्चंद्र, माधवराव सप्रे, पं. हजारीप्रसाद द्विवेदी, रामधारी सिंह दिनकर, मंटो आदि से या उनकी रचनाओं से हम कैसे रूबरू हो पाते?
पूर्व प्रकाशित रचनायें कुछ अन्तराल के बाद छपवायें
राकेश भ्रमर
आपका प्रश्न केवल लघुकथा से नहीं, बल्कि अन्य विधा की रचनाओं से भी जुड़ा हुआ है. रचनाओं के दोहराव या छपास की भूख को हम केवल लघुकथा से जोड़कर नहीं देख सकते.
यह निर्विवाद सत्य है कि प्रत्येक संपादक अपनी पत्रिका में लेखक से मौलिक और अप्रकाशित रचना चाहता है. इसका सबसे बड़ा कारण है कि उसकी पत्रिका में एक नवीनता बनी रहे और उसका अलग स्तर तथा स्वरूप बरकरार रहे. इसके अतिरिक्त एक पाठक एक ही साथ एक ही रचना को संकलनों और पत्र-पत्रिकाओं में क्यों पढ़ना चाहेगा? परन्तु लेखक महान होता है. वह एकाध रचना तो किसी तरह कष्ट करके लिख लेता है, परन्तु उसके आगे उसकी सोच या तो समाप्त हो जाती है, या कुछ नया नहीं लिखना चाहता. परिणामस्वरूप वह एक ही रचना को एक साथ ही कई पत्र-पत्रिकाओं में भेज देता है और वह छप भी जाती हैं. परन्तु हमें यह समझना चाहिए कि एक पाठक एक साथ कई पत्रिकायें भी पढ़ता है. जब वह एक ही रचना को कई पत्रिकाओं में देखता है तो लेखकों की रचना-धर्मिता के ऊपर से उसका विश्वास उठ जाता है.
जब लेखक अपनी गिनी-चुनी रचनाओं को बार-बार विभिन्न संकलनों और पत्र-पत्रिकाओं में छपवाता है, तो इससे उसका लेखन भी प्रभावित होता है. वह कुछ नया नहीं लिख पाता. मेरा मानना है कि लेखक को निरंतर कुछ न कुछ लिखते रहना चाहिए. इससे उसके पास मौलिक और अप्रकाशित सामग्री की कमी नहीं रहेगी, और उसकी छपास की भूख भी मिटेगी.
लेखक को अगर यह लगता है कि उसकी रचना बहुत महत्त्वपूर्ण है, तो वह उसे एकाध वर्ष के अन्तराल पर किसी अन्य पत्रिका में प्रकाशनार्थ भेज सकता है. इसमें मैं कोई बुराई नहीं देखता. आखिर हर लेखक चाहता है कि उसकी रचना अधिकाधिक पाठकों तक पहुंचे, परन्तु उसके प्रकाशन में अन्तराल रचना की नवीनता को बरकरार रखता है, वरना हर रोज बासी कढ़ी कौन खाना चाहेगा. कुछ रचनाएं समय परिप्रेक्ष्य होती हैं. ऐसी रचनायें जब कई वर्ष बाद किसी संकलन या पत्रिका में छपती हैं, तो पाठक तुरंत भांप जाता है कि रचना पुरानी है. इससे लेखक का मान घटता है और पत्रिका की विश्वसनीयता भी समाप्त हो जाती है. पाठक यह समझ बैठता है कि लेखकों के पास कुछ नया लिखने के लिए नहीं है, और संपादक के पास वहीं पुरानी घिसी-पिटी रचनायें छापने के लिए आती हैं. ऐसी हालत में पाठक पत्रिकायें क्यों पढ़ेगा, जब दिन-प्रतिदिन पाठक समाप्त होते जा रहे हैं, तब हम उन्हें कुछ नया देकर उन्हें साहित्य के प्रति जागरूक होने के लिए प्रेरित क्यों न करें?
प्राची का संपादक होने के नाते मैंने देखा है कि कुछ लेखक मासिक पत्रिका में रचना भेजने के साथ-साथ स्थानीय दैनिक पत्र में भी अपनी रचना भेज देते हैं. दैनिक पत्र में रचना एक सप्ताह के अंदर छप जाती है. मासिक पत्रिका में छपने में कम से कम दो-तीन माह लगते हैं. ऐसी रचना, जो दैनिक पत्र में छप चुकी हो और संपादक की नजर में आ जाती है, तो वह अपनी पत्रिका में उसे क्यों छापेगा?
बड़े लेखक चलन से बाहर हो जाते
उपसंहारः विद्वान लघुकथाकारों का मत है कि किसी भी रचना को एक से ज्यादा पत्र-पत्रिकाओं या संकलनों में छपने की किसी भी बंदिश से मुक्त रखा जाए. किसी भी रचना का यह हक है कि उसे ज्यादा से ज्यादा पाठक पढ़ें... उसका मूल्यांकन करें... विचार विमर्श करें, न कि मुट्ठी भर पाठक उसे पढ़कर चलन से बाहर कर दें. किसी भी पाठक को इससे कोई गुरेज नहीं है कि उसने किसी की रचना को कई पत्र-पत्रिकाओं में पढ़ा; बल्कि यह रचना का सौभाग्य है कि उसे कई बार-बार पढ़ा जाए. उसका उदाहरण दिया जाए.
रही बात उस पर दिए गए पारिश्रमिक की तो यह सभी जानते हैं कि कितने कम और कितना सा पारिश्रमिक लघुकथा का लघुकथाकार को दिया जाता है. लघुकथा ही क्या कहानी का भी कमोबेश यही हाल है. हजार-पांच सौ का पारिश्रमिक रचना की कीमत नहीं हो सकता है. कहानी/कविता या लघुकथा... उसे विस्तृत आकाश चाहिए उड़ने के लिए. पंछी के मानिद है वह. ऐसा नहीं होता तो हम पुरानी से पुरानी रचना आज नहीं पढ़ पाते. कोई और कैसा कयास ही नहीं लगा पाते. साहित्य किसी पिंजरे में कैद होकर रह जाता. बड़े लेखक चलन से बाहर हो जाते. उन्हें कैसे पढ़ पाते.
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