इ समें कोई दो मत नहीं है कि लघुकथा का कद दिनोंदिन बढ़ता ही जा रहा है. चिर यौवनकाल है लघुकथा का, इक्का-दुक्का ही पत्रिकाएं होंगी जिन्हें लघुकथ...
इसमें कोई दो मत नहीं है कि लघुकथा का कद दिनोंदिन बढ़ता ही जा रहा है. चिर यौवनकाल है लघुकथा का, इक्का-दुक्का ही पत्रिकाएं होंगी जिन्हें लघुकथा से परहेज होगा. उस पर भी सभी की पसंदीदी है लघुकथा.
‘आयुष्मान भवः’ का आशीर्वाद इकतरफा लघुकथाकारों का ही नहीं है. इसे पाठकों ने भी दिल से चाहा. सबसे बड़ा काम लघुकथा ने यह किया है कि इसने ‘सत्य कथा’ के पाठक चुरा लिए हैं और वे सब मिलकर लघुकथा की भक्ति करने लगे हैं. महिलाएं दोपहरी में आराम करते समय अब ‘लघुकथा’ पढ़ते-पढ़ते विश्राम करने लगी हैं. बच्चे/बुजुर्ग/दूकानदार/बस/रेल के पर्यटक सभी पहले लघुकथा पढ़कर दूसरे विषय पर जाते हैं. यह है लघुकथा का इकतरफा बढ़ता कद/विश्वास/श्रद्धा आदि.
वर्तमान में सैकड़ों, हजारों लघुकथाएं हर महीने लिखी/प्रकाशित हो रही हैं. मजे की बात यह है कि ये पत्रिकाएं लघुकथाकारों को पारिश्रमिक भी दे रही हैं. इनमें अखबार/पत्रिकाएं सभी मिलकर लघुकथा के प्रति अपने रागात्मक प्रेम को प्रदर्शित कर रही हैं.
सोचना यह है कि ऐसा क्यों हुआ? यह जादू क्योंकर हुआ? पहले लोग कहानी पढ़ा करते थे. उपन्यास में अपने कुछ ढूंढ़ा करते थे. किराए से जासूसी/सामाजिक/राजनैतिक/ऐतिहासिक उपन्यासों के पढ़ने की होड़ मची रहती थी. वे कवि सम्मेलन भी गए गुजरे जमाने के हो गए जिसमें बच्चनजी अपनी ‘मधुशाला’ तो नीरज जी अपना ‘कारवां गुजर गया...’ पढ़ते थे. सवेरे तक कवि सम्मेलन/मुशायरा चलते थे. ये सब गुजरे जमाने के क्यों हो गए?
सबसे बाद में आए टी.वी. जी. इनसे भी ऊबकर दर्शक इधर-उधर देखने लगे जी. ऐसा क्यों हुआ जी. ये प्रश्न मैं, आप सबके ऊपर छोड़ता हूं जी. और यह भी कि लघुकथा से जुड़ने से पाठकों को क्या मिलता है जी. ये खुलासा करना निहायत जरूरी है जी. वरना जरूर देर हो गई होगी जी. हमें यानी लघुकथाकारों/पाठकों सभी को मिलकर यह मंत्रणा करना परमाश्यक हो गया है जी. भले ही लघुकथा छोटी है, लघु है पर इसका विस्तार इतना कैसे और क्यों हो गया है जी.
मेरे ख्याल से लघुकथा किलिष्टता एवं दुरूहता से परहेज करती आगे बढ़ती है. ये दोनों लघुकथा को आगे बढ़ने में पूर्ण रूप से सहयोगी हैं. यह सहज ही जुबान से पढ़ी जाकर दिमाग तक पहुंच बनाती है. दूसरे लघुकथा संवदेनहीनता के भ्रमजाल को तोड़ती है. मारक शक्ति को सहेजकर चलती है. वर्तमान में बाजारवाद/उपनिवेशवाद/उदारवाद के चलते लघुकथा में पारिवारिक/आंचलिक शब्द जुड़कर पाठकों में आत्मीयता का सृजन करते हैं.
इसमें भी कोई शक नहीं है कि वर्तमान में व्यक्ति की बौद्धिक सीमा का विस्तार हुआ है. वह पठन-पाठन में से भी अपना समय बचाकर दूसरे विकल्पों में जुड़ना चाहता है. इसमें लघुकथा अपना पूर्ण सहयोग प्रदान करती नजर आती है. हरीश पंड्या स्वीकार करते हैं- "लघुकथा आम आदमी के जीवन से जुड़ी संवदेना, आघात-प्रतिघात, अकल्प परिणाम व अन्त, नफरत की अपेक्षा में स्नेह या आनंद से आश्चर्यचकित कर देनेवाला मानवीय व्यवहार ये सब निश्चित रूप से पाया जाता है. आम या अमीर आदमी की संवेदना का चित्रण लघुकथा में होता है तथा साथ में राजकीय, सामाजिक परिस्थितियों में प्रगट होती करुणा, व्यंग्य और कटाक्ष का उल्लेख भी लघुकथा में अक्सर होता रहता है."
वस्तुतः- "लघुकथा को पारदर्शी रचना कह सकते हैं जिसमें कुछ छुपा-छुपाया नहीं जा सकता. बिना किसी संकोच के हम यह कह सकते हैं कि मानव मन की जितनी संकोच के हम यह कह सकते हैं कि मानव मन की जितनी भी भाव-भंगिमाएं हो सकती है. उन सबमें लघुकथा का प्रवेश है."
बलराम अग्रवाल ने एक बहुत ही स्पष्ट और अनुकरणीय व्याख्या कुछ इस प्रकार की है- "मनोविश्लेषण की दृष्टि से समकालीन हिंदी लघुकथा में व्यापकता व पूर्णता के दर्शन होते हैं. अपने उत्तरदायित्व का अनेकायामी करने के कारण ही समकालीन लघुकथाकारों की लघुकथाओं में असामान्यताएं आई हैं. वह अन्तस के उद्घाटन की इच्छा भी रखता है और मानस के विश्लेषण की भी. वह यह जानता है कि उस पर एक बड़ी सामाजिक जवाबदेही है.
सच्चाई यह है कि आज व्यक्ति और समाज के बीच तालमेल समाप्त प्रायः है. व्यक्ति का व्यक्तित्व खंडित हो गया है. समाज में व्यक्ति तभी तक ग्राह्य है जब तक वह उसके काम का है. जीने के लिए दमन और बलात् समायोजन का विकल्प व्यक्ति के सामने है. समकालीन हिंदी लघुकथाकार ने इसका कुशलता के साथ अपनी रचनाओं में निर्वाह किया है."
संस्कारधानी जबलपुर में लघुकथा के बढ़ते कदम
संपादित लघुकथा संग्रह/संबंधित पत्रिकाएं
बंधनों की रक्षा- आनंदमोहन अवस्थी- वर्ष 1950
लघुकथा अभिव्यक्ति- मो. मुइनुद्दीन अतहर- अनवरत (उनके स्वर्गवासी होने तक)
प्रतिनिधि लघुकथाएं/वार्षिकी- संपादक डॉ. कुंवर प्रेमिल- 2009 से अभी तक प्रकाशित
ककुभ (अनियतकालीन)- संपादक : डॉ. कुंवर प्रेमिल (चार अंक)
शृंखला- मणि मुकुल
दो धाराएं- डॉ. आदर्श
गीत पराग- डॉ. गीता गीत
एकल संकलन
अभिमन्यु का सत्ता व्यूह- श्रीराम ठाकुर दादा
कांटे ही कांटे एवं अन्य- कुल सात- मो. मुइनुद्दीन अतहर
दृष्टि- रवीन्द्र खरे अकेला
अनुवांशिकी, अंततः, कुंवर प्रेमिल की इकसठ लघुकथायें एवं हरीराम हंसा (कुल चार) : डॉ. कुंवर प्रेमिल
तलाश- गुरूनाम सिंह रीहल
वह अजनबी- डॉ. प्रदीप शशांक
जामुन का पेड़- डॉ. गीता गीत
आमने-सामने- अविनाश दत्तात्रेय कस्तूरे
उसके आंसू- राकेश भ्रमर
मकड़जाल- मनोहर शर्मा माया
अंदर एक समंदर- सुरेश कुशवाहा ‘तन्मय’
यगाना- राजकुमारी नाइक
मुखौटे- लक्ष्मी शर्मा
एक सच यह भी- मधुकर पराग
जुबैदा खाला की खीर- छाया त्रिवेदी
लघुकथा साहित्य की एक अनुपम धरोहर विधा है और एक अनमोल खजाना भी. इसे संभालकर रखना, हमारा एक नैतिक कर्त्तव्य भी है. आज लघुकथा जन-जन में बसी है. रुचिकर होकर चहेती भी बन गई है.
डॉ. राजकुमार घोटड़ ने प्रतिनिधि लघुकथाएं के संपादन को लिखे पत्र में कहा था- "जबलपुर नगरी में लगभग 40 लघुकथाकारों का होना एवं लगभग 22 पुस्तकों का प्रकाशित होना अपने आप में गौरव की बात है. ऐसे साथियों व साहित्य नगरी को मैं नमन करता हूं. समय निकालकर कभी आप सबके दर्शन करूंगा."
डॉ. रामनिवास ‘मानव’ ने लिखा था- "सुखद संयोग है कि अब जबलपुर इस विधा का केन्द्र बन गया है."
(अतहर जी के साथ मिलकर मैंने एक सपना देखा था. उनके इंतकाल के बाद जरूर यह सपना टूट गया प्रतीत होता है)
विशेषः प्राची (संपादक- राकेश भ्रमर) के प्रत्येक अंक में लघुकथायें प्रकाशित होती हैं. लघुकथाओं के क्षेत्र में इस पत्रिका की कोई सानी नहीं है. पत्रिका के विशेष योगदान का सम्मान करना चाहिए. पत्रिका एक लघुकथा विशेषांक पहले भी निकाल चुकी है.
मैंने कभी अपने संपादकीय में लिखा था- "लघुकथा के बढ़ते कदम संस्कारधानी को लघुकथाधानी में बदलने में प्रयासरत हैं." कितना सच है, यह समय ही बताएगा.
लघुकथा का बढ़ता काफिला कहां जाकर रुकेगा, अकल्पनीय है. हम सब उसकी बढ़ती कीर्ति से वाकिफ हैं. आदरेय भ्रमर जी ने मुझे अतिथि संपादक का महत्त्वपूर्ण स्थान देकर मेरी कार्यक्षमता का ही सम्मान किया है- समझिए. पाठकों से अनुरोध है कि ‘प्राची’ के इस दूसरे लघुकथा विशेषांक का रसास्वादन करें. यदि इसमें कुछ विशेष पाएं तो अपने पत्र पत्रिका में लिखकर मुझे प्रोत्साहन देने की कृपा जरूर करें. अस्तु!
लघुकथा क्यों और किसलिए?
लघुकथा इसलिये चाहिये कि आकार-प्रकार में इसका प्रारूप लघु अवश्य है पर बहुत ही असरदार, वक्तव्य छोटा-सा, परंतु है बहुत ही सारगर्भित. ये वे छोटे-छोटे दीप हैं जो दीपमालिके का निर्माण करते हैं.
ये मानो तो छोटे-छोटे झरने जो मिलकर नदी बने, नदियां मिलकर समुन्दर, समुन्दर उतना ही बड़ा जितना आकाश, जैसे लघुकथा के वैराट्य का यकीनन आभास.
लघुकथा की उपयोगिता सर्वविदित है. इसे सबसे ज्यादा पाठक मिलें. इन पाठकों में बुद्धिजीवियों के अलावा आम पाठक भी शामिल हुए चलते-चलते, ट्रेनों, बुक स्टॉलों पर उन लोगों ने लघुकथा का रसास्वादन किया. कम समय में ज्यादा पढ़ा, ज्यादा समझा.
हर आदमी ने इसे पढ़कर अपनी सोच पैनी की. उसे चोट की पहचान हुई. बुलंदी का अहसास हुआ, आम आदमी की पहचान बढ़ी. उसमें लोकप्रियता का विशेषण लगा.
प्रजातंत्र में कहने का हक सभी को है, लेकिन कब, क्या और कैसे कहा जाये- सवाल यह है. लघुकथा ने हमें यह सब सिखाया. हक और हल दिया. सूक्ष्मता के साथ विवेचना की शक्ति प्रदान की.
इसे मीठी गोली समझकर चूसने वाले भी मिले. रातों-रात लेखक, प्रकाशक बनने की लालसा वाले भी साथ हो लिये. छपास. महत्त्वाकांक्षा भी साथ-साथ हो लिये. आरंभिक लघुकथायें भी मिलीं. फिर भी किसी के प्रयास को अनदेखा नहीं किया गया.
अच्छे और वरिष्ठों ने अपने खून से इस बिरवे को सींचा, पनपाया और बड़ा बनाया. तब कहीं यह लघुकथा रूपी विशाल वटवृक्ष के आकार में सामने है. पत्ते, जड़, पीड़ तक उसकी प्रसिद्धि ही प्रसिद्धि है.
यह आदमी की सोच है, तर्क है, चोट है, सहनशीलता है. आभास और अहसास है. सूक्ष्म है तो व्यापक भी. कम समय में पढ़ी, सोची-समझी गई विधा है. इससे पाठकों को फायदा ही हुआ है.
इसने तर्क और फर्क करना सिखाया. इसने निरक्षरों में भी प्राण फूंके. उन्हें क्रमशः पढ़ने को तैयार किया. सहज-सुलभ होने से इसे हिज्जे कर-कर पढ़ा गया.
इधर जब दूरदर्शन जैसे मीडिया ने आदमी की सोच को संकुचित किया. नौकरी-गृहस्थी-दूरदर्शन के बीच में लेखन, पठन-पाठन ठिठुरकर रह गया. ऐसे में लघुकथा काम आई. अति व्यस्तता में भी इसे पढ़ा गया.
लघुकथा इसलिये भी पढ़ी गई कि इसके नन्हें से कलेवर में कुछ बहुत ज्यादा छिपा-छिपा रहा. गहरे पानी पैठ वाली बात इसके साथ रही.
आज का हर दूसरा आदमी लघुकथा का फैन है. इसलिए यह आज की जरूरत है. इसका संबंध चिंतन से है, प्रहारक क्षमता से है अतएव-
लघुकथा बिन्दु-बिन्दु विचार है.
एक तथ्य है, एक आइना है.
पुरजोर असर करती है.
लाग-लपेट से दूर रहती है.
इसका भीतर-बाहर सब खुला है.
कृत्रिमता से दूर है.
विसंगतियों पर प्रहार करती है, तिलमिला देती है.
चेतना प्रधान है, बोधगम्य है.
लघुकथा पहले भी थी, आगे भी इसकी चाहत बनी रहेगी.
इसका मार्ग प्रशस्त था, प्रशस्त है और भविष्य में भी प्रशस्त रहेगा.
धन्यवाद!
कुंवर प्रेमिल,
एम.आई.जी-8, विजय नगर,
जबलपुर-482002 (म.प्र.)
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