प्रा रंभिक हिन्दी लघुकथा काल- इस युग में गुलाम भारत में आजादी की मुहिम छिड़ चुकी थी. काल-समय व परिस्थितियों का रचना पर प्रभाव पड़ना स्वाभाविक ...
प्रारंभिक हिन्दी लघुकथा काल- इस युग में गुलाम भारत में आजादी की मुहिम छिड़ चुकी थी. काल-समय व परिस्थितियों का रचना पर प्रभाव पड़ना स्वाभाविक ही है. इस दौरान लिखी गई रचनाओं में जमींदारी प्रथा के विरुद्ध स्वतन्त्रता के लिए संघर्ष करती प्रतिबिम्बित रचनाएँ मिलेगी.
हिन्दी की प्रथम लघुकथा कौन-सी है. इसके लिए लघुकथा विद्वानों के भिन्न-भिन्न मत रहे हैं लेकिन मुख्य तौर पर दो ही मत प्रमाणिकता के साथ उभर कर सामने आये हैं. एक परिहासिनी समर्थक एवं दूसरा मत है माधवराव सप्रे की लघुकथा ‘एक टोकरी-भर मिट्टी’ समर्थक.
डॉ. सतीशराज पुष्करणा अपने आलेख ‘हिन्दी की प्रथम लघुकथा (सम्बोधन, त्रैमासिक, लघुकथा विशेशांक, 1986) में लिखते हैं कि परिहासिनी (1875) की ही कोई लघुकथा, हिन्दी की प्रथम लघुकथा है. लेकिन 25 वर्ष बाद एक अन्य आलेख ‘बिहारी का स्वतन्त्रता-पूर्व हिन्दी कहानी साहित्य’ (डॉ. रामनीरंजन परिमलेन्दु) बिहारी परिषद-पत्रिका (2010-2011) का हवाला देते हुए पुष्करणा जी कहते हैं कि भारतेन्दु से पहले भी बिहार के मुन्शी हसन अली, लघुकथाएँ लिखा करते थे जो ‘बिहार बंधु’ पत्रिका पत्र में 1874 के कुछ अंकों में ‘नीति’ कालम के अन्तर्गत प्रकाशित हुई हैं.
परिहासिनी के समर्थक और भी हैं जिनमें मुख्यतः डॉ. रामकुमार घोटड़, रामरतन प्रसाद यादव, मिथिलेश कुमार मिश्र, बलराल अग्रवाल हैं.
दूसरा मत ‘एक टोकरी भर मिट्टी’ (माधवराव सप्रे) समर्थक है जिसे हिन्दी की प्रथम कहानी भी माना गया है. अशोक भाटिया ने ‘परिहासिनी’ को हंसी दिल्लगी एवं चित विनोद की एक चुटकुलेनुमा संकलित पुस्तक माना है तथा परिहासिनी की लघुकथाओं को खारिज करते हुए ‘एक टोकरी भर मिट्टी’ को हिन्दी की प्रथम लघुकथा होने का दर्जा दिया है. इसी प्रकार डॉ. कमलकिशोर गोयनका, संतोष सुपेकर, कुंवर प्रेमिल का भी यही दृष्टिकोण रहा हैं. लघुकथा मनीषी-बलराम ने ‘बिल्ली और बुखार’ (माखनलाल चतुर्वेदी) 1915 को हिन्दी की प्रथम लघुकथा माना है.
भारतेन्दु हरिश्चन्द्र अपने युग के एक प्रतिष्ठित एवं विद्वतापूर्ण साहित्यिक व्यक्तित्व के धनी रहे हैं. वह शाही परिवार से थे फिर भी उन्होंने आमजन को नजदीक से देखा, गरीब व शोषित के दुःख दर्द को महसूसा. ‘अंगहीन धनी’ जो हिन्दी की प्रथम लघुकथा है तथा ‘अद्भुत संवाद’ जैसी लघुकथाओं का आधार भी यही रहा है. ‘अंगहीन धनी’ में जागीरदारी प्रथा को उकेरा है यानी कि जमींदारों, जागीरदारों में अपने पद एवं व्यक्तित्व का इतना अहम् आ गया है वे अपने स्वयं के भी सामान्य एवं आम दिनचर्या का काम करना भी अपनी तौहीन समझते थे. तभी तो "मोहना को बुलाने की घण्टी बजी, मोहना भीतर दौड़ा, पर हँसता हुआ लौटा और नौकरों ने पूछा- क्यों हँस रहे हो?" तो उसने जवाब दिया- भाई, सोलह हट्टे-कट्टे जवान थे, उन सभी से एक मोमबत्ती नहीं बुझे जब हम गये, त बुझे. यानी कि पास रखी मोमबत्ती को बुझाने में भी वे ओछापन समझते हैं. इस लघुकथा में निम्नवर्गीय आदमी का शोषण झलकता है.
इस प्रकार ‘अद्भुत संवाद’ में भी जमींदारी प्रथा पर एक करारा तमाचा है. रचना का सार कुछ ऐसा है कि एक जागीरदार एक निम्न वर्ग के व्यक्ति को आदेशात्मक लहजे में कहता है कि "ऐ जरा हमारा घोड़ा पकड़े रहो." तब वह आदमी उस जमींदार से प्रश्न करता है "यह कूदेगा तो नहीं, काटेगा तो नहीं?" तब जमींदार का उत्तर नहीं में सुनकर वो व्यक्ति कहता है कि "यह कूदता भी नहीं और काटता भी नहीं, तब मुझे क्यों कहते हो, आप पकड़े हुए तो ही हो."
यानी कि जागीरदारों की अति आम आदमी को अखरने लगी और प्रतिक्रियात्मक रोष उत्पन्न होने लगा जिससे वो सामने बोलने का साहस कर बैठा. निश्चित तौर से ही दमन से ज्वाला उत्पन्न होती है.
उपरोक्त दोनों लघुकथाओं में उस समय के सामाजिक परिवेश की झलक दिखाई देती है। भारतेन्दु जी स्वयं एक जागीरदार परिवार से थे. अतः अन्य जागीरदार नाराज न हो इस कारण उन्होंने जागीरदारों की कार गुजारियों को चित्त-विनोद, हास्य शैली में अपनी रचनाओं के जरिए प्रतिबिम्बित किया.
1885 के आस-पास बिहार के तपस्वीराम का लघुकथा-संग्रह ‘कथामाला’ का डॉ. सतीशराज पुष्करणा के आलेख मे जिक्र जरूर पढ़ा हैं लेकिन पुस्तक पढ़ जाने का सौभाग्य नहीं मिला.
उन्नीसवीं शताब्दी के अंतिम वर्ष में ‘छत्तीसगढ़ मित्र’ पत्रिका प्रकाशन से एवं बीसवीं सदी के प्रारंभिक दौर से ही लघुकथा विधा के लिए शगुन भरा काल शुरू हो गया माधवराव सप्रे की लघुकथा ‘एक टोकरी भर मिट्टी’ सबसे पहले ‘छत्तीसगढ़ मित्र (मासिक)’ पत्रिका के अंक अप्रैल, 1901 में प्रकाशित हुई जो हिन्दी की प्रथम कहानी से शीर्षक में भी आती है. जिसमें एक जमींदार का मन, एक गरीब विधवा के एक वाक्य से- ‘महाराज, आपसे इस झोपड़ी की एक टोकरी भर मिट्टी नहीं उठाई जा रही है, एक झोपड़ी में तो हजारों टोकरी मिट्टी पड़ी है तो आप उसका भार जन्म भर कैसे उठा सकेंगे विचार कीजिए, श्रीमान।’ पसीज गया और झोपड़ी उस बुढ़िया को दे दी यानि कि अपने उद्देश्य में सफल एक उपदेशात्मक लघुकथा.
चन्द्रधर शर्मा गुलेरी ने भी अच्छी लघुकथाएँ लिखी हैं जो व्यंग्य के माध्यम से अच्छी शिक्षा देती है. भूगोल (1904) न्याय का घण्टा (1922) बेहतरीन लघुकथाएँ हैं. पाठशाला (1914) लघुकथा तो एक चर्चित लघुकथा है. जिसने विभिन्न पत्र-पत्रिकाएँ व संकलनों में स्थान पाया है. डॉ. पुष्करणा के आलेखों में ईश्वरीप्रसाद शर्मा (बिहार) के द्वारा 1912 के आसपास सम्पादित लघुकथा संकलनों, गल्पमाला में कहानियाँ भाग-3 का जिक्र आता है.
‘विमाता’ छबीलेलाल गोस्वामी की चर्चित लघुकथा ‘सरस्वती प्रयाग’ 1915 में प्रकाशित हुई जिसमें सौतेली माँ का वही परम्परागत व्यवहार दिखाया गया है. वह एक शिक्षाप्रद भावुकता पूर्ण लघुकथा है.
माखनलाल चतुर्वेदी अपने युग के एक प्रतिष्ठित लेखक हुए हैं जिन्होंने हिन्दी लघुकथा को कालजयी शौगातें दी हैं- ‘बिल्ली और बुखार’ (1915), ‘नथ’ (1916), ‘अधिकारी पाकर’ (1918), लघुकथा साहित्य की रचना की दृष्टि से बेजोड़ शिक्षाप्रद लघुकथाएँ हैं. अयोध्या प्रसाद गोयलीय एक प्रसिद्ध साहित्यकारी हुए हैं. उन्होंने भी आम मुहावरों को आधार बनाकर अच्छी सीख देने वाली लघुकथाएँ लिखी हैं. लघुकथा साहित्य की चर्चित लघुकथा ‘झलमला’ (1916), ‘पदुमलाल पुन्नालाल बख्शी की’ एक प्रतिकात्मक लघुकथा है जिसमें बीते समय की भाभी जी के स्नेहमयी प्यार की यादें प्रतीक रूप में सामने आकर मन को भावुक कर देते दिखाया गया है. जिससे यह रचना अपने समय की एक यागदार लघुकथा बन गयी. उपन्यास सम्राट मुंशी प्रेमचन्द ने भी 1917 से 1936 के मध्य लगभग एक दर्जन लघुकथाएँ लिखी हैं, जिनकी प्रथम लघुकथा ‘दरवाजा’ 1917 में रची गई, जो बाद में हिन्दी के कई पत्र-पत्रिकाओं व पुस्तकों में प्रकाशित हुई. यह अपने आप में एक सफल प्रतीकात्मक लघुकथा है. इसी प्रकार 1930 में रचित ‘राष्ट्र का सेवक’ का कथनी-करनी में फर्क दर्शाया गया है.
प्रेमचन्द्र की सभी लघुकथाएँ, लघुकथा साहित्य की अमूल्य धरोहर हैं. प्रेमचन्द की लघुकथाएँ सामाजिक परिवेश की यथार्थमयी लघुकथाएँ हैं. इन लघुकथाओं को लिखे हुए एक शताब्दी पूर्ण होने को है, बावजूद इसके आज भी प्रासंगिक है.
विश्वस्तर पर 1914 से 1919 तक प्रथम विश्वयुद्ध काल रहा है. इस अवधि में जो भी साहित्य रचा गया है, उस पर युद्धकालीन परिस्थितियों का असर पड़ा है, चाहे साहित्य की कोई विधा रही हो. इसी प्रकार ही विश्वयुद्ध के बाद युद्ध की वीभत्सिकाओं व ऐतिहासिक कथानकों पर कुछ हद तक लिखा गया यानि कि इतिहासपरक लघुकथा लेखन की ओर झुकाव पड़ा.
हिन्दी लघुकथा : सृजना एवं समीक्षा (डॉ. सतीशराज पुष्करणा), हिन्दी लघुकथा (शकुन्तला किरण), हिन्दी समारम्भ (कथाबिम्ब) कृष्णा कमलेश के आलेखों में आचार्य जगदीशचन्द्र मिश्र के द्वारा 1919-1920 के आसपास रचित ‘बूढ़ा व्यापारी’, ‘अग्निमित्र की प्रेम परीक्षा’ लघुकथाओं का जिक्र मिलता है, लेकिन पढ़ने का सौभाग्य किसी को नहीं मिला. इन लघुकथाओं का अस्तित्व संदिग्ध है.
संपर्क : सादुलपुर (राजगढ़)
जिला- चुरू (राज.) - 331023
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