अपने दोनों किनारों से छलकती रुपेण नदी बरसात के दिनों में भयंकर बन जाती है। जो भी इसके चपेट में आता है वह गोता खाता हुआ इसकी भंवर में पड़कर प...
अपने दोनों किनारों से छलकती रुपेण नदी बरसात के दिनों में भयंकर बन जाती है। जो भी इसके चपेट में आता है वह गोता खाता हुआ इसकी भंवर में पड़कर पल भर में अदृश्य हो जाता है। एक बार ऐसे ही बरसात के दिनों में रुपेण के दोनों किनारे छलछला रहे थे, खेत छलक रहे थे, नदी नाले टूटकर बह रहे थे, पगलाए हुए बादल भयंकर रुप धारण करके धरती आसमान को एक करने पर डटे हुए थे, ऐसे में एक क्षत्रिय अपने घोड़े पर सवार होकर उधर से निकला।
नदी पार करने के लिए उसने अपने घोड़े को रुपेण में उतार दिया। घोड़ा बहुत तेज तर्रार और ऊंचे नस्ल का था। पर पानी का बहाव इतना तेज था कि कुछ ही समय में सवार और घोड़ा दोनों ही पानी में गोते लगाते हुए, चक्कर खाते हुए भंवर में फंस गए।
क्षत्रिय की सारी मेहनत निष्फल हो गई और क्षण भर में साहस और शौर्य दोनों अपने होश खो बैठे।
रुपेण से होकर गुजरने वाली वह मार्ग पहले बहुत मनोरम, सुन्दर तथा वनस्पतियों से भरपूर था। पथिकों के विश्राम के लिए एक विशाल बरगद का पेड़ भी अपनी टहनियों को फैलाकर आरामगाह जैसा बन गया था। इस बरगद के नीचे न जाने कितनों पथिकों ने आराम किया होगा, और न जाने कितने थके पशु पक्षियों को आनन्द मिला होगा। रुपेण नदी, सुन्दर बरगद, साफ सुथरी चमकती जमीन, छोटा पर सुन्दर मोहक वन प्रदेश, जिसमें डर या भयंकर लगने जैसा कुछ भी नहीं। इन सबके कारण कमजोर दिलवाला, डरपोक व्यापारी भी वहां आराम करने के लिए ललच जाता।
परन्तु इस क्षत्रिय के मृत्यु के पश्चात वह सुन्दर जगह एकदम से वीरान उजड्ड बन गया। अनेक कठिनाइयों का सामना करके भी उस राह से बचकर लोग दूसरे मार्ग से आने जाने लगे।
गांव में यह बात फैल गई कि कोई भी पथिक सही सलामत उस मार्ग से गुजर ही नहीं सकता। इसलिए इस सुन्दर जगह को छोड़कर लोग दूसरे मार्ग को अपनाने लगे और फिर यह छोड़ा हुआ मार्ग धीरे धीरे भयंकर बनने लगा।
एक बार भरी दुपहरी की तेज धूप में एक चारण नजदीक के गांव से होकर इस रास्ते से गुजर रहा था। गांव के उस पार जाते समय वह जाने का रास्ते का पता पूछने लगा, तब कुछ लोगों ने उसे बिन मांगी सलाह दी, “भई वह रास्ता यात्रा करने लायक नहीं है, इस रास्ते से जानेवाले का सर धड़ से अलग हो जाता है।”
“क्यों? ऐसा क्यों होता है?”
“पांच वर्ष पहले की बात है। एक क्षत्रिय की यहां बड़ी दर्दनाक मौत हुई थी, और तब से वह प्रेत बन गया। यह रास्ता तब से उजड्ड बन गया है। क्षत्रिय भरी बरसात में नदी को पार नहीं कर सका और वही डूब गया। नदी पार करके उसे उस पार जाना था, अपने ससुराल में, अपनी ठकुराईन को लेने, पर बीच में ही रह गया। तब से उस रास्ते से जानेवाला कोई बचता ही नहीं। “देखा जाएगा”,कह कर चारण ने घोड़े को ऐड लगा दी। गांव वालों ने मृत्यु की और बढ़ते हुए मूर्ख पर हंसते हुए आपने घर चले गए। चारण अपने रास्ते पर बढ़ने लगा।
दोपहर ढलने लगी थी। तेज धूप से बचने के लिए पशु पक्षी छांव की ओर आराम करने जा चुके थे। चारों ओर निस्तब्धता फैली थी। उसी समय चारण, चांदी की धार बहती हो ऐसी रुपेण की सुन्दर धवल धार और उसके साफ सुन्दर तट को देखकर आनन्द विभोर हो बावरा बन गया। एक तरफ झुका हुआ बरगद का पेड़ है तो दूसरी ओर खाखरे (एक जाती का वृक्ष) का वन सर उठाए खड़ा है, गहरी छांव तले कबूतर, मोर और तोते मिल जुलकर कैसे कैसे खेल खेल रहे थे, चारण तो ऐसा जगह और ऐसी रचना देखकर वाह ! रुपेण वाह ! कहता हुआ सामने की ओर बढ़ने लगा। बरगद के करीब पहुंचते ही उसने जो दृश्य देखा उससे तो उसका मुंह खुला का खुला ही रह गया।
बरगद के नीचे पचीस पचास वीर राजपूतों की सभा बैठी हुई थी। सुन्दर जाजम पर करीब एक हाथ ऊंची गद्दियां बिछी थी, जिस पर एक सफेद चादर फैला हुआ था। और उसके ठीक बीचों बीच रेशमी गालीचे पर एक जवान राजपूत भरी सभा में बैठकर बात कर रहा था। बरगद के पास क्च्छी और काठीयावाडी नस्ल का घोड़ा खड़ा रह गया। सभा में रुपहला हुक्का घूम रहा था। एक तरफ कसुंबो (अफीन का पेय) घुंटा जा रहा था। दूसरी और मिठाई से भरे थाल रखे थे। बाहर से आए राजपूत अपनी थकान मिटाने यहां ठहरे हुए थे। ऐसा ऐश्वर्य युक्त, पर अपनी शौर्य के सीमा की रक्षा करते हुए इस वातावरण को देखकर चारण भी घोड़े पर से उतर कर सभा की ओर बढ़ने लगा।
उसे बढ़ते देख जवान राजपूत मुस्कुराया। उसने सभा की ओर अर्थ पूर्ण नजरों से देखा और फिर चारण के स्वागत में सभी एक साथ पुकार उठे, “ आओ आओ भई ! आओ अच्छे अवसर पर आए हो। कहां से आ रहे हो?”
चारण बैठ गया। पर चारन को सभा में किसी के भी चेहरे पर मानवीय तेज नजर नहीं आया। वह अचरज में पड़ गया, जवाब देने में वह हिचकिचाने लगा पर बरगद के नीचे हिनहिनाते घोड़े को देखकर वह शांत होकर उनके साथ बैठ गया। सभा में एक से दूसरे तक जाता हुआ रुपहला हुक्का उस तक भी आया। उसने दो चार कश उसके लिए। अंजुली भर-भर के उसने कसुंबी का शरबत पिया। जैसे सपना देख रहा हो इस प्रकार की बातें चारण करने लगा।
“ चारण हो?” वह राजपूत बीच में ही अचानक पूछ बैठा। “एक प्रश्न का जवाब दोगे?”
चारण उसकी ओर देखने लगा।
“बात ऐसी है कि ईश्वर ने इतने सारे दिन और इतनी ऋतुएं बनाई है, पर एक ऋतु की मिठास दूसरे में नहीं मिलती है। अब बताओ यह कि सभी ऋतुओं में से अच्छे से अच्छा और मीठी से मीठी ऋतु कौन सी है?”
चारण ने जैसे उसके विचारों को भांप लिया हो इस प्रकार से मन ही मन में जवाब देने कि तरकीब सोचने लगा।
“दरबार ! ऋतु तो सभी अच्छी होती है, पर ब्रह्माजी ने जवान नर नारी के लिए शीतकाल को रचा है। शीतकाल का क्या कहना। इसके जैसा कोई काल है क्या? इस समय तरह तरह के स्वादिष्ट पकवान खाने को मिलते हैं, नर्म धूप में देह सींक सींककर रसरसाल हो जाती है, फिर पोंक (हरा सिंका ज्वार), ओला (सिंके चने) जादरिया (बाजरे और गुड की बनी मिठाई) और फिर स्वादिष्ट छास, और साथ में गोरी सुन्दर नार मिले तो फिर क्या बात है। शीतकाल तो शीतकाल ही है इसका कोई जोड़ है क्या? ब्रह्माजी ने शंकर-पार्वती को मिलाने के लिए ही शीतकाल की रचना की है।“
चमकती आंखों से राजपूत चारण को ताक रहा था।
“ पर मनुष्य को जीवनदान देने वाली वर्षा का क्या?” उसने फिर से चारण को पूछा। चारण ने सर हिलाकर जवाब दिया “ ना भई ना, यहां वहां पानी से भरे गड्ढे, चारों तरफ कीचड़ ही कीचड़, बिजली चमकती रहती है, पशु पक्षी बह जाते है, मनुष्य हैरान हो जाता है।”
राजपूत और अधिक तन गया है, उसकी चमकती आंखों में गहरी वेदना और निराशा छलक उठी है। चारण ने इसे देखकर भी अनदेखा कर गया और आगे बोलने लगाः
“ ऐसी बरसात की ऋतु तो भई किसानों के लिए होती है। इस समय तो केवल कामकाज में व्यस्त रहना होता है रसभरी प्रेम प्यार की बातें होती है क्या? ऋतुओं में सबसे अच्छी ऋतु तो शीत ऋतु है इसके बाद की बात करो तो ग्रीष्म ऋतु, बरसात की ऋतु भी कोई ऋतु है भला। ये तो बस यूं ही बे-मौसम है।
“ सही कहा चारण ! एकदम सही, विलक्षण हो तुम तो।” कहता हुआ राजपूत बैठ गया। फिर उठ कर चारण के नजदीक आया, कहा “चारण ! में क्षत्रिय हूं” राजपूत कहने लगा। चारण चारों ओर देखने लगा। उसे वहां से सभा गायब होती दिखी। घोड़े की हिनहिनाहट एकदम से बंद होती लगी। केवल मात्र वह और राजपूत दोनों बरगद के नीचे खड़े थे।
“और नाराज मत होना ठीक है” चारण हंसने लगा, “ नाराज और में? बोलो राजपूत बोलो! जो कहना है कह दो।”
नौजवान राजपूत के चेहरे पर आशा की किरणें चमकने लगी। उसने बड़े प्रेम से चारण के हाथ को थामा।
“आज से पाँच वर्ष पूर्व भरी बरसात में मैं राजपूतानी से मिलने निकला था। उस समय रुपेण के दोनों किनारे छलक रहे थे। और वह भंवर…” दोनों हाथों को ऊपर करके उसने नदी के उस गहरे भाग की ओर दर्द भरी नजरों से देखा।
“भंवर में मैं डूब गया और राजपूतानी से मिलने की मेरी इच्छा मेरे अंतर में ही रह गई।”
राजपूत कुछ समय तक शांत रहा जैसे अपने अंतर के उफनते दर्द को दबाने की कोशिश कर रहा हो”
“और भाई चारण ! दो मनुष्य के वियोग से अधिक कष्टकर कुछ है क्या?”
“हाँ जी हाँ, तुम अपनी बात पुरी कर लो।”
“ सात जन्मों का बन्धन मुझ पर बोझ बना हुआ है। अगर तुम मेरा एक काम कर दो तो मुझे मेरी इस दुर्दशा से मुक्ति मिल जाएगी। तुम तो जानते ही हो कि देह बीना की आन्तरिक इच्छा, आग की ज्वाला की तरह अजर अमर आत्मा को भी जलाकर राख कर देती है।”
“अभी के अभी तुरंत तुम रुपेण को पार करके उस पार जाओ। पांच गांव के बाद दांतासर गांव है। वहाँ गुलाब के फूलों जैसी गुलाबी सुन्दर मेरी राजपूतानी रहती है। जो एकबार राजपूतानी आकर मुझे दर्शन दे जाए तो मेरी आत्मा को शांति मिलेगी। तुम्हारे बिना मेरा यह काम और कौन करेगा?”
विकल कर देनेवाला राजपूत के दुःखी स्वर के थमते ही चारण ने तुरंत जवाब दिया, “राजपूत ! अगर में सच्चा चारण हूं तो प्रतिज्ञा करता हूं कि एकबार जरुर राजपूतानी को यहाँ लेकर आऊँगा। और अगर तुम भी सच्चे क्षत्रिय हो तो वचन दो कि इस राजमार्ग जैसे सुन्दर पथिकों के मार्ग पर फिर कभी दिखाई नहीं दोगे।”
“वचन दिया! चलो वचन दिया। इसके बाद इस मार्ग को छोड़ दूंगा। और चारण मेरी मृत्यु बरसात के दिनों में हुई थी इसलिए मुझे बरसात की ऋतु बहुत खराब लगती है। मुसाफिरों से कौन सी ऋतु सुहानी है पुछता रहता हूं। डर से या तो भय लगने पर लोग दूसरे या तीसरे दिन ही मर जाते हैं। मुसाफिर इसी तरह मरते हैं, इसमें मेरा कोई दोष नहीं है चारण।”
“बहुत अच्छा भई! अब तो यही तय रहा कि आज से ठीक आठवें दिन राजपूतानी यहां पर उपस्थित होगी।”
चारण घोड़े की रास को पकड़ने के लिए पीछे मुंडा। फिर दुबारा सामने कि ओर मुड़ने पर केवल बरगद के खड़कते पत्ते ही दिखाई दिए, तीव्र वेदना से भर वह वहाँ अकेला खडा बरगद के सूखे पत्तों को खड़का रहा था।
राजपूत के कहे रास्ते पर चलकर चारण दांतासर पहुँचा। चारण तो युद्धरत सैनिकों का मनोरंजन करने वाला होता है। राजदरबार में, यहाँ तक कि सबसे महत्वपूर्ण जगह, रानीवास में भी बह रोक टोक आ-जा सकता है। किसी भी पचडे में से भी वह बड़ी आसानी से निर्दोष साबित हो जाता है। चारण राजपूत के ससुराल पहुँचता है और राजपूतानी से अकेले में मिलता है।
“राजपूतानी ! देखो बेटा मना मत करना, तुमसे कुछ बातें पूछ्नी है।“
काठीयावाडी भाषा सुनने में थोड़ी रुक्ष है, परन्तु क्षत्राणी तो दिखने में जितनी सुन्दर, बोलने में भी उतनी ही मीठी। बोलने पर सोने से मढे दांत नजर आने के साथ साथ लटकते हुए सुन्दर कान के झुमके गजब ढाते हैं। ऐसी सुन्दर राजपूतानी जब बोलती है तो उसकी बोली के मिठास की कोई सीमा ही नहीं रहती है। क्षत्राणी ने जवाब दिया “ कहिए मुझसे क्या काम है?”
“बेटी! जीवितों के प्रति प्रेम तो मानवमात्र रखता है, पर यह तो मरण के बाद के प्रेम की बात है।” क्षत्राणी चौंक उठी। चारण की कही बातों को बड़ी आतुरता से सुनने लगी।
“आपके पति के स्वर्गवास को कितने दिन हुए।”
“पांच वर्ष।”
“अच्छा बेटा सच कहना। इसके बाद भी क्या कभी भी आपके पति आपके सपने में आएं है?”
“नहीं, कभी भी नहीं। अपने प्रेम को तो वह जाने के बाद भूल ही गया है।”
“नहीं बेटा नहीं, सच्चा और निष्ठावान क्षत्रिय क्या कभी अपने प्रेम को भूल सकता है? शंकर-पार्वती के संबंध पर क्या कभी शंका की जा सकती है ? भूले नहीं, अभी तक क्षत्रिय आपको भूले नहीं है। और जरा ध्यान से सुनना गुस्सा मत होना। पक्की क्षत्राणी हो न?
राजपूतानी तन गई, चारण काँप जाए इतनी दृढ़ता से बोल उठी, “ यही परीक्षा लेनी है?…….. क्या राजपूत भूत बनकर मेरी खबर लेने भेजा है?”
चारण अचकचा गया, “ राजपूतानी! आपने तो गजब कर दिया, आपको खबर कैसे….?”
“कैसे खबर क्या? रण संग्राम में जो मरे नहीं, वह राजपूत केवल मात्र भूत, और ऐसे भूत को उसकी चाहत सहित, जड मूल से नष्ट करने के लिए ही, मैं क्षत्राणी होने पर भी सती नहीं हुई। बोलिए चारण अब आपको कुछ और कहना है?”
“राजपूत तो आपसे मिलने के लिए ही आ रहा था कि रास्ते में रुपेण नदी में डूब गया। इस प्रेम को क्या ऐसा-वैसा कहा जा सकता है?”
“नहीं, प्रेम को ऐसा-वैसा कैसे कहा जा सकता है?” राजपूतानी गरज उठी। “ और इसीलिए स्वर्णाभा लिए हुए रुपेण नदी के मार्ग को उजड्ड बना रहा है। सही है न?”
“सच है बेटा सच है। पर मृत मानस से कैसा बैर? भूत के साथ बराबरी की जा सकती है क्या? ये तो उनकी इच्छायें होती है छुट पुट कुछ करो तो भाग जाती है। अब सुनो क्षत्रिय की इच्छा है आपको नजरभर देखने की। वह मुझे दो दिन पहले बरगद के नीचे मिला था। भरी दुपहरी में केसरी सिंह जैसा भरापूरा दरबार सजा कर बैठा था। सजी धजी पूरी सभा बैठी थी, जैसे वह एक बार फिर से मृत्युलोक में अवतरित हुआ हो। उसने मुझसे वचन लिया कि एक बार मैं उसे उसकी राजपूतानी के दर्शन करवा दूं। मैंने बेटा वचन दिया है उसे और उस वचन को निभाए बिना कोई चारा नहीं। और फिर उसके बाद से क्षत्रिय कभी भी उस रास्ते पर, नजर नहीं आएगा। उसने भी ऐसा वचन दिया है मुझे।”
“वचन तो मैं निभाऊंगी, एकबार नहीं-हजारबार। पर मैं भी क्षत्राणी हूं। उसने पथिकों को मारा है और मारने के बाद उन पर जुल्म ढाएं है। रुपेण के सघन वन प्रदेश को उजाड़ दिया है और सुनहरे मनोरम राजमार्ग जैसे पथ को उज्जड बन दिया है। अगर ऐसा क्षत्रिय मेरा पति है तो उसे भी मैं नहीं
छोडने वाली । जाऊंगी जरुर जाऊंगी उनसे मिलने, पर चारण ! उनसे कह देना कि राजपूतानी आ रही है, और तलवार की नोक पर फिर से उसकी विवाह करने की उसमें आन्तरिक इच्छा जागी है।”
“राजपूतानी – बेटा ! वह तो प्रेत आत्मा है उसके साथ तलवार की नोक पर मुठभेड़ करते हैं क्या? मानव शरीर है क्या जो कब्जे में आएगा? उड़ जाएगा – जैसे तूफान गुजर जाता है।” केतकी के सोंटे जैसी राजपूतानी सीधी तन गई। उसकी छरहरी देहलता जैसे फुंफकारती हुई नागिन हो, ऐसे खड़ी हो गई। बहादुर से बहादुर मर्द भी कांप उठे इतनी कड़काई से वह चारण से बोली, “ चारण राजपूतानी से बात कर रहे हो या सौदागरनी से?”
एक झटके से फलाँग भरते हुए खूंटी पर टंगी काली नागिन जैसी तलवार को खींच लिया। उसे नंगा करके म्यान दूर फेंक दिया; “चलो ! चारण आगे बढो। आज उस मार्ग को मनोरम बनाना है।”
कुछ कहे बिना ही चारण आगे बढ़ गया और पीछे पीछे महिसासुर का नाश करने चली हो ऐसे रणचंडी बनकर राजपूतानी भी चली।
ठीक दोपहर के १२ बजे राजपूतानी और चारण बरगद के नीचे पहुँच गए। बरगद के पत्ते इतने भयंकर रुप से खड़क रहे थे कि कोई भी कमजोर दिलवाला तो वहीं ढेर हो जाए। दूर दूर तक किसी का नामोनिशान नहीं था। बरगद के नीचे भी कोई मुसाफिर नहीं था. ऐसे भयंकर वातावरण में राजपूतानी और चारण दोनों अकेले खड़े थे।
“कहाँ है राजपूत?” राजपूतानी चीखीं। और उसकी आवाज के कंपन से बरगद और अधिक खड़क उठा। “ यहाँ तो कोई नहीं है।”
“अभी घड़ी या दो घड़ी में वह आता दिखेगा।” दोनों के मौन ने उस जगह को और अधिक भयंकर बना दिया।
अचानक एक घुड़सवार दिखा। जैसे राजपूत अपने तेज घोड़े पर सवार बढ़ता चला आ रहा हो। नजर रुपेण पर टिकी थी।
चारण ने राजपूतानी को बड़ी विह्वलता से देखा राजपूतानी के चेहरे पर डर का नामोनिशान नहीं था अपनी तलवार को उसने और अधिक कसकर पकड़ा और चारण को ललकारा, “संभलकर ! अपनी मर्दानगी बनाए रखना।”
“संभलकर योग माया ! हमला मत बोल देना।” राजपूत और नजदीक आ गया। उसका सुन्दर चेहरा दिखने लगा। वह राजपूतानी को देख रहा था। राजपूतानी उसे देख रही थी।
“ पहचान रही हो क्या?”
“ हाँ हाँ” राजपूतानी ने जवाब दिया “ क्यों नहीं पहचानूंगी ?” जिसने पत्नी से मिलने के लिए निर्दोष पथिकों को मारा, राजमार्ग को नष्ट कर दिया, और भिखारी की तरह चारण से याचना की……”
“ ना ना ऐसे नहीं बेटा। चारण ने राजपूतानी को रोका । राजपूत खिसिया गया। उसके हाथ से घोड़े की लगाम खिसकने लगी। उसने अत्यंत दुःखभरी नजर से राजपूतानी को देखाः “ राजपूतानी!
मेरे गाँव के, मेरे आश्रितों को मारा उसका क्या?”
“ मैंने नहीं मारा राजपूतानी।”
“ अगर तुम सच्चे और निडर क्षत्रिय हो तो तैयार हो जाओ।” राजपूत का चेहरा एकदम बदल गया। ऐसा लगा जैसे चारण कांप रहा हो। जैसे भयंकर बिजली चमक रही हो उस तरह राजपूतानी के हाथ कि तलवार चमक उठी और सीने पर तेज वार करने के लिए राजपूत पर झपट पड़ी।”
“ मार डाला रे ! बड़ी ज्यादती कर दी।” चारण बीच में कूद पड़ा। पर राजपूत तो वहां था ही नहीं। और राजपूतानी अपने वार के खाली जाने पर कमर तक झुक गई थी। तलवार के वार से थोड़ी धूल उड़ती दिखी।
“बड़ी ज्यादती हुई बेटा।”
“ कोई बात नहीं चारण। आपने अपना वचन निभाया है। हवा में केवल शब्द ही बह आए। राजपूतानी ने तेजी से पीछे मुड़कर देखा, घोड़े पर सवार क्षत्रिय नदी की ओर जाता दिखा। नंगी तलवार लेकर वह उसके पीछे दौड़ी। और उसे रोकते हुए चारण भी दौड़ा।
कल कल करती रुपेण बह चली थी ‘ क्षत्रिय घोड़ा लेकर उसके किनारे पहुँचा। राजपूतानी उसके पीछे पीछे चली।
“क्षत्रिय हो तो रुक जाओ!” राजपूतानी ने हांक लगाई। सुनते ही क्षत्रिय रुक गया।
राजपूतानी एकदम उसके करीब पहुँच गई। वहाँ तो कोई नहीं था ….. पर तभी राजपूतानी ने पानी में उसके वस्त्र को कोई खिंच रहा हो, ऐसा अनुभव किया। राजपूतानी का घाघरा भीग गया था, और उसमें से पानी की धार बहने लगी थी। राजपूतानी ने नीचे की ओर देखा। वहाँ पानी में राजपूत का वेदना से भरा चेहरा दिखा, तरसते हाथों से अंजुली भर-भरकर वही बहता हुआ पानी बड़ी विह्वलता से पी रहा थाः गट… गट….गट… घूंट घूंट ।
राजपूतानी देखती रह गई। राजपूत ने उसे देखा। आहा कितनी वेदना। कितना दुःख ! कितनी निराशा, और प्यास इतनी की क्या कहें बेहद राजपूतानी मयालु हो कर बोल उठी “ ये क्या ---- क्या बात है राजपूत?”
“बस अब तृप्त तो क्या अतितृप्त हो गया हूँ, अब तलवार चला ले राजपूतानी ! दूसरी बार की इस मौत में अब और अधिक मजा आएगा।”
राजपूतानी की पकड़ से तलवार छूट रही थी, उसने झुककर राजपूत का हाथ पकड़ लिया। राजपूत ने एकबार हाथ छुडा लिया, राजपूतानी ने फिर से पकड़ लिया, “ तुम क्यों डूब रहे हो? अब तुम कहाँ जा रहे हो?”
राजपूत ने रुपेण को नजर भर दूर तक देखा। एक जगह पर पानी बहुत गहरा था, उसकी नजर वहाँ जा कर स्थिर हो गई।
“ अब वहाँ नहीं जाने दूंगी।” राजपूतानी ने तलवार को दूर तक पानी में फेंक दिया और राजपूत के दूसरे हाथ को भी पकड़ लिया।
परंतु राजपूतानी के हाथों में पानी के बुलबुले ही आए. राजपूत का चेहरा नदी की तरंगों पर बहता हुआ आगे आगे जाता दिखने लगा। राजपूतानी और आगे बढी पर राजपूत और आगे जाने लगा.
किनारे से चारण ने आवाज लगाई, “ लौट आओ राजपूतानी आगे पानी बहुत गहरा है। वह तो गायब हो गया बेटा। लौट आओ।“ मुस्कुराकर स्वर में मिठास भर राजपूतानी बोली, चारण, अब खुशी खुशी घर लौट जाओ। मुझे तो अब फिर से इस दुःखी राजपूत का घर बसाना है।
डॉ. रानू मुखर्जी
१७, जे.एम.के. अपार्ट्मेन्ट,
एच.टी. रोड, सुभानपुरा-३९००२३
वडोदरा ( गुजरात )
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लेखकीय परिचय – धूमकेतु
धूमकेतु गुजराती साहित्य का एक प्रसिद्ध नाम है। जैसा नाम वैसा ही गुण धूमकेतु की तरह तेजस्वी और जाज्वल्यमान। ई.स. १९२६ से लेकर १९६४ तक के दरमियान अनेक कलात्मक छोटी कहानियाँ लिखकर गुजरात के वाचकों को तृप्त किया। पांच सौ से अधिक कहानियाँ लिखकर गुजराती कहानियों का पथ प्रशस्त किया।“पोस्ट ओफिस ”,“ भैया दादा “ आदी उनकी कालजयी कहानियाँ हैं.
रस की दृष्टि से, ऐतिहासिकता की दृष्टि से धूमकेतु की कहानियाँ कहानियों के क्षेत्र में एक महत्वपूर्ण तथा अनन्य स्थान रखती हैं। इसके साथ ही उन्होंने सामाजिक उपन्यास, चालुक्य तथा गुप्तयुग की ऐतिहासिक उपन्यास लिखकर १९४० से १९६६ के दरम्यान बत्तीस उपन्यास रचे।
इस कथाकार तथा उपन्यासकार ने अपने समय समाज को चित्रित करते हुए अनेक नाटकों की भी रचना की। दो खंडों में उन्होंने अपनी आत्मकथा के अन्तर्गत अपने संघर्ष का बडा सुन्दर वर्णन किया है।
हास्यरचना “पानगोविद” में हास्य रस निबंध है। उनकी यात्रावृतांत “पगदंडी” ने पाठकों को बहुत ही प्रभावित किया। इन सबके साथ धूमकेतु की रचना प्रक्रिया की एक विशेषता यह भी है की उनकी रचनाएँ लोकशिक्षक है। नाटकों को संस्कारलक्षी बनाने के लिए “इतिहासनी तेजमुर्तिओ”, ‘जीवन घडतर नी वातो’, “जातक कथाओ” , “रामायण”, “महाभारत” और उपनिषद कथाएं रुचिकर बने तथा संस्कारी और शिक्षाप्रद बने इस लक्ष्य से नवीन रुप से इनकी रचना की।
धूमकेतु जिब्राल से बहुत प्रभावित थे। गुजरात को उन्होंने खलील जिब्रान के जीवन विचारों से परिचित कराते हुए चार पुस्तकें रची। इसके साथ ही सामाजिक हित चिंतक धूमकेतु के मार्मिक विचारों के अनेक संग्रह है। जिसमें उनके पत्रकारत्व की प्रतिमा निखर उठी है।
मूलतः एक कथाकार के रुप में प्रसिद्ध धूमकेतु की लेखन कला में संवेदनशीलता, उदात्ता, समर्पण तथा करुणा कि छौंक के कारण इनकी रचनाएं बहुत समय तक हमारी भावना को झकझोरती रहती है।
- डॉ.रानु मुखर्जी
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अनुवादक परिचय
डॉ. रानू मुखर्जी
जन्म - कलकत्ता
मातृभाषा - बंगला
शिक्षा - एम.ए. (हिंदी), पी-एच.डी.(महाराजा सयाजी राव युनिवर्सिटी,वडोदरा), बी.एड. (भारतीय शिक्षा परिषद, यू.पी.)
लेखन - हिंदी, बंगला, गुजराती, ओडीया, अँग्रेजी भाषाओं के ज्ञान के कारण अनुवाद कार्य में संलग्न। स्वरचित कहानी, आलोचना, कविता, लेख आदि हंस (दिल्ली), वागर्थ (कलकता), समकालीन भारतीय साहित्य (दिल्ली), कथाक्रम (दिल्ली), नव भारत (भोपाल), शैली (बिहार), संदर्भ माजरा (जयपुर), शिवानंद वाणी (बनारस), दैनिक जागरण (कानपुर), दक्षिण समाचार (हैदराबाद), नारी अस्मिता (बडौदा), पहचान (दिल्ली), भाषासेतु (अहमदाबाद) आदि प्रतिष्ठित पत्र – पत्रिकाओं में प्रकशित। “गुजरात में हिन्दी साहित्य का इतिहास” के लेखन में सहायक।
प्रकाशन - “मध्यकालीन हिंदी गुजराती साखी साहित्य” (शोध ग्रंथ-1998), “किसे पुकारुँ?”(कहानी संग्रह – 2000), “मोड पर” (कहानी संग्रह – 2001), “नारी चेतना” (आलोचना – 2001), “अबके बिछ्डे ना मिलै” (कहानी संग्रह – 2004), “किसे पुकारुँ?” (गुजराती भाषा में अनुवाद -2008), “बाहर वाला चेहरा” (कहानी संग्रह-2013), “सुरभी” बांग्ला कहानियों का हिन्दी अनुवाद – प्रकाशित, “स्वप्न दुःस्वप्न” तथा “मेमरी लेन” (चिनु मोदी के गुजराती नाटकों का अनुवाद शीघ्र प्रकाश्य), “गुजराती लेखिकाओं नी प्रतिनिधि वार्ताओं” का हिन्दी में अनुवाद (शीघ्र प्रकाश्य), “बांग्ला नाटय साहित्य तथा रंगमंच का संक्षिप्त इति.” (शीघ्र प्रकाश्य)।
उपलब्धियाँ - हिंदी साहित्य अकादमी गुजरात द्वारा वर्ष 2000 में शोध ग्रंथ “साखी साहित्य” प्रथम पुरस्कृत, गुजरात साहित्य परिषद द्वारा 2000 में स्वरचित कहानी “मुखौटा” द्वितीय पुरस्कृत, हिंदी साहित्य अकादमी गुजरात द्वारा वर्ष 2002 में स्वरचित कहानी संग्रह “किसे पुकारुँ?” को कहानी विधा के अंतर्गत प्रथम पुरस्कृत, केन्द्रीय हिंदी निदेशालय द्वारा कहानी संग्रह “किसे पुकारुँ?” को अहिंदी भाषी लेखकों को पुरस्कृत करने की योजना के अंतर्गत माननीय प्रधान मंत्री श्री अटल बिहारी बाजपेयीजी के हाथों प्रधान मंत्री निवास में प्र्शस्ति पत्र, शाल, मोमेंटो तथा पचास हजार रु. प्रदान कर 30-04-2003 को सम्मानित किया। वर्ष 2003 में साहित्य अकादमी गुजरात द्वारा पुस्तक “मो़ड़ पर” को कहानी विधा के अंतर्गत द्वितीय पुरस्कृत।
अन्य उपलब्धियाँ - आकाशवाणी (अहमदाबाद-वडोदरा) को वार्ताकार। टी.वी. पर साहित्यिक पुस्तकों क परिचय कराना।
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