हमारे प्रदेश में स्थानीय निकाय चुनाव का बिगुल बज गया है और तरह -तरह के प्रत्याशी अपने-अपने विकास योजनाओं के साथ मैदान में डट गये है। विकास क...
हमारे प्रदेश में स्थानीय निकाय चुनाव का बिगुल बज गया है और तरह -तरह के प्रत्याशी अपने-अपने विकास योजनाओं के साथ मैदान में डट गये है। विकास की हर योजना के पीछे किसी न किसी ठेकेदार या कार्पोरेट का कारोबारी हित है। इस निजी हित को पूरे समाज के हित के रूप में मान्यता दिलवाना यदि निर्वाचन का मुख्य मुद्दा बन जायेगा तो आम नागरिकों का मत उन्हीं की इच्छाओं सपनों का गला घोंटने का जरिया बन जायेगा लेकिन हर चुनाव हमारे लिये एक उम्मीद की किरण भी लेकर आता है, हम लोकतंत्र को धंधा बनाने वाली ताकतों के खेल को बिगाड़ भी सकते है और इन संस्थाओं को सच्चे अर्थों में जन अभिव्यक्ति का मंच भी बना सकते है। यह तभी संभव है जब हम लोकतंत्र और राजनीति को चुनाव का मुख्य सवाल बनायें। यह एक संघर्ष है स्थापित सत्ताधारियों और आम नागरिकों के बीच।
नगर निकाय , जो लोकतंत्र की बुनियादी संस्था है, आज उसकी कोई स्वतंत्र राजनीतिक भूमिका रह ही नहीं गयी है। यह महज एक सरकारी विभाग बन कर रह गया है। जिसका मुख्य काम नगर की सफाई और गलियों में खड़ंजा बिछाने तक सीमित रह गया है। नगर के सार्वजनिक जीवन की गतिविधियों के नीति निर्धारण और उस पर अमल से इस बुनियादी निर्वाचित संस्था को पूरी तरह बेदखल कर दिया गया है। नगर जीवन के हर पहलू पर केन्द्रीय एवं राज्य के विभागों एवं उसकी नौकरशाही का ही नियंत्रण हैं , और इनके सामने हमारी स्थानीय सरकार पूरी तरह बेबस एवं लाचार हैं। लोकतंत्र की इन जमीनी स्तर की संस्थाओं को अपंग बना देने का ही नतीजा हैं कि आज देश के लोकतंत्र में आम नागरिकों की इच्छाओं-आकांक्षाओं का कोई महत्व नहीं रह गया है और वह कार्पोरेटी लूट को आगे बढ़ाने का जरिया बन गयी है।
स्थानीय निकाय में जनप्रतिनिधियों एवं नागरिकों के बीच रोज का सीधा सम्पर्क एवं सम्बन्ध होता है, इसलिए ये संस्थायें जन आकांक्षाओं का सबसे स्पष्ट एवं मुखर मंच होती है। इससे ऊपर की संस्थाओं में प्रतिनिधि और मतदाता के बीच की दूरी बढ़ती जाती है, और जनप्रतिनिधि का उनका बिकना आसान हो जाता है। इसलिए चुनाव के लिए हम सभी नागरिकों के सामने यह प्रश्न है कि स्थानीय निकाय स्थानीय सरकार कैसे बने, और देश में लोकतंत्र वास्तविक कैसे बने। सिर्फ वोट देने और बाद में नेताओं को कोसने से काम नहीं चलेगा। यदि हमारे जेहन में लोकतंत्र की तुलना में नौकरशाही का अधिक महत्व है, यदि हम अफसरों को खुदा समझते है तो हम राजनीतिक तौर पर शून्य ही बने रहेंगे। मालिक नहीं बन पायेंगे। हमें यह याद करना होगा कि लोकतंत्र के शुरुआती दौर में स्थानीय स्तर की निर्वाचित संस्थाओं -नगर सभा , ग्राम सभा आदि का ही महत्व था, इसके ऊपर की केन्द्रीय स्तर की संस्थाओं का महत्व और प्रभाव धीरे-धीरे बढ़ा है और इसी प्रक्रिया में लोकतंत्र में आमजन की राजनीतिक भूमिका घटती गयी है और पूरा ढांचा सिर के बल खड़ा हो गया है। अगर इसे पुनः पैरों के बल पर खड़ा करना है, तो हमें स्थानीय संस्थाओं को अधिकतम राजनीतिक अधिकार देने की लड़ाई लड़नी पड़ेगी।
सार्वजनिक जीवन में नागरिकों का महत्व और भूमिका उसी अनुपात में बढेगी जैसे-जैसे इन सवालों पर नीति निर्धारण और निगरानी में स्थानीय लोकतांत्रिक संस्थाओं की भूमिका बढ़ेगा। इसलिये हमें अपने निकाय के लिये राजनीतिक अधिकारों के दायरे को विस्तारित करने की मांग रखनी चाहिए, और इसके लिये जनांदोलन चलाने का संकल्प करना होगा।
भोजन, आवास, शिक्षा, चिकित्सा, परिवहन, पर्यावरण, बाजार, दस्तकारी, मनोरंजन, खेलकूद, पुलिस, सड़कें, सफाई, गरीबी उन्मूलन आदि और एक स्तर का न्यायिक कार्य भी स्थानीय सरकार के सीधी देखरेख में होने चाहिए। लोकतंत्र को कमजोर करके मानव समाज के सीधे उत्थान से जुड़े इन कार्यों को भ्रष्टाचार और कार्पोरेटी लूट का जरिया बना दिया गया है। इसी कारण हमारा देश मानव विकास के पैमाने पर अपने पड़ोसी देशों से पीछे है। मानव समाज और प्रकृति के प्रति कारोबारी नजरिये को लोकतंत्र में जन भागीदारी और निगरानी बढ़ाये बिना ठीक नहीं किया जा सकता, और यह तभी संभव है जब हम स्थानीय सरकार को वास्तविक एवं जिम्मेदार बनायेंगे। इसी प्रक्रिया में मेयर और सभासद वास्तविक जन प्रतिनिधि बनेंगे। दिक्कत यह है कि लोकतंत्र को नौकरशाही की तरह देखते है। सांसद बड़ा अफसर, विधायक छोटा अफसर और सभासद ग्रुप डी कर्मचारी, जबकि सभासद या ग्राम सभा का सदस्य लोकतंत्र की बुनियाद है।
हमारे नगर में बड़ी आबादी श्रमिकों की है, फिर छोटे कारोबारियों की है। हजारों प्रकार के कार्यों में लाखों लोग काम करते है। दिहाड़ी, असंगठित , ठेका , संविदा , स्कीम आदि कामगारों के रूप में। विकास की सारी कीमत इन्हीं के श्रम से वसूली जाती है। इनमें से एक बड़ी आबादी के लिए दो वक्त की रोटी भी मुश्किल है, इनकी रातें सड़कों पर गुजरती है। ठंडी , गर्मी और बरसात इनके लिए सब बराबर है। इन सभी के मानवीय अधिकारों और सम्मान के लिए कौन खड़ा होगा। हमारे नगर में समानता और न्याय का माहौल कैसे बनेगा। श्रमिकों , छोटे कारोबारियों, सामाजिक रूप से वंचित लोगों, महिलाओं , अल्पसंख्यकों के आंदोलन से पैदा हुये सवाल राजनीति का सवाल कैसे बनेंगे। बिना राजनीतिक सवाल के इनका समाधान कैसे होगा और हमारा समाज एक सभ्य समाज कैसे बनेगा।
इसके साथ ही हर नगर की अपनी एक सांस्कृतिक, भाषाई हुनर की पहचान होती है,एक इतिहास होता है। इन गुणों का ख्याल कौन रखेगा,कौन इसे आगे बढ़ायेगा। यदि गुणों को हम गंवा देंगे,तो अपनी सामाजिक स्वरूप को खोकर अकेले- अकेले रह जायेंगे। अपनी सांस्कृतिक विरासत से कटकर वह दृष्टि खो देते है जो मनुष्य के गुणों के कदर करना सिखाती है न कि पैसों वालों का,भ्रष्टाचारियों और अपराधियों का। जिस समाज में मानवीय गुणों की कीमत गिरती है,वह समाज पीछे जाता है। वास्तविक लोकतंत्र पूरे समाज और हर मनुष्य में नव जीवन और नये विचारों का सतत संचार करता रहता है, और एकीकृत होता रहता है। ऐसे समाज में जातीय,धार्मिक,लैंगिक भेदभाव और उत्पीड़न भी खत्म होता जाता है।
इसलिये विकास का नारा लोकतंत्र और नागरिकों को बंधक बनाने का नारा है। सन 1990 -91 से जब से यह नारा देश में आया,नागरिक अधिकार और लोकतंत्र पीछे गया है, राजनीति में अपराधियों, धन्नासेठों, ठेकेदारों का वर्चस्व बढ़ा है। हमें लोकतंत्र और जन राजनीति को मुद्दा बनाकर इस प्रक्रिया को पलटना है। हमारा नारा है -स्थानीय निकाय को स्थानीय सरकार का दर्जा दो और नौकरशाही की लगाम हमारे हाथों में दो।
यह चुनाव इस क्रांतिकारी बदलाव की दिशा में आगे बढ़ने का पहला मजबूत कदम बने,हमें मिलकर ऐसा प्रयास करना है।
वीरेन्द्र त्रिपाठी, लखनऊ
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