“आषाढ का एक दिन” और “लहरों के राजहंस” जैसे पुरस्कृत प्रशंसित और श्रेष्ठ नाटकों के रचनाकार मोहन राकेश का “आधे – अधूरे” हिन्दी का शायद एक मात्...
“आषाढ का एक दिन” और “लहरों के राजहंस” जैसे पुरस्कृत प्रशंसित और श्रेष्ठ नाटकों के रचनाकार मोहन राकेश का “आधे – अधूरे” हिन्दी का शायद एक मात्र ऐसा नाटक है जो अंग्रेजी के साथ लगभग सभी रंग-समृद्ध भारतीय भाषाओं में सबसे अधिक अभिमंचित, चर्चित एवं लोकप्रिय नाटक रहा है।
सोफोक्लीज, शेक्शपियर, इब्सन, शा, चेखवलोर्का, पिरांदेलो, ब्रेश्ट, बेकेट, ज्यां अनुई आदि के अनूदित नाटको से निर्देशकों ने हिन्दी रंगमंच को काव्यात्मक यथार्थवादी शैली और गैर यथार्थवादी शैली से लेकर विसंगगतिवादी शैली तक के अनेक रुपों से साक्षात्कार कराया।
नाटय जगत के सशक्त हस्ताक्षर, विख्यात लेखक, निर्देशक, कलाकार शंभु मित्र ने नेमिचन्द्र जैन जी से बिजन भट्टाचार्या रचित “जबानबंदी” नाटक को हिन्दी में अनूदित करके प्रदर्शन के लिए तैयार किया। नाटक ने हलचल मचा दी थी।
लेखन के क्षेत्र में अगर उपरी तहों को हटाकर देखा जाए तो कुछ दिलचस्प बातें दिखाई पड़ती है इनमें से कुछ एकदम स्पष्ट है और कुछ बेहद संक्षिप्त और जटिल। एक जटिल प्रसंग है - विश्व साहित्य पर विभिन्न भाषा भाषियाँ का प्रभाव। जिसमें संस्कृत भाषा में रचित महाकाव्यों की भूमिका। एक दिलचस्प तथ्य है कि इतर भाषा में रचा गया साहित्य का ऐतिहासिक परिप्रेक्ष्य तब तक सार्थक नहीं बन सकता जबतक वह अनुवादित होकर ग्राह्य न बन जाए।
अनेक विदेशी विद्वानों का परिचय कालिदास के “अभिज्ञान शाकुंतलम्”, “मृछ्कटिक”, भरतमुनि के “नाटयशास्त्र” और अभिनवगुप्तपाद के “अभिनव भारती” जैसे संस्कृत के महान ग्रंथों से परिचय का माध्यम अनुवाद ही बना। इन संस्कृत ग्रंथों कि उपलब्धता ने विश्व के महान विद्वानों का ध्यान आकर्षित किया। लेवी. रेगनॉ, कीथ ग्रौसे, हिलेब्रांड आदि अनेक पाश्चात्य विद्वानों ने संस्कृत साहित्य पढ़ने के लिए अनुवाद का सहारा लिया। इससे पूर्व ये विषय और इनके कृतकार हमारे देश में केवल संस्कृत पंडित तक ही सीमित था।
आधुनिक कन्नड़ साहित्य के प्रवर्तक माने जाने वाले बी. एम. श्रीकंठटय ने मूल ग्रीक भाषा से सोफोक्लीज के “एजाक्स का अश्वत्थामा” शीर्षक से १९२६ में नाटय रुपांतर किया। ग्रीक नाटक और महाभारत के प्रसंगों को जोड़कर जो नाटक उन्होंने तैयार किया वह कन्न्ड रंगमंच में बहुत जनप्रिय रहा। इसके बाद उन्होंने इस्काइलस के नाटक “पोर्से को पारसिकरु” शीर्षक से अनुवाद करके रुपान्तरण कार्य को आगे बढाया। बी.एम श्री की इन कृतियों से ग्रीक नाटकों के कन्नड में नाटय अनुवाद की परंपरा आरंभ हुई।
जापान और चीन आदि देशो में भी हिन्दी भाषा के अध्ययन, अध्यापन की तस्वीर इस विषय को और पुष्ट करती है कि वहाँ भारतीय साहित्य का बोलबाला अति तीव्र गति से प्रसारित हो रहा है। और इसका पूरा श्रेय अनुवाद कला को जाता है। भारत से गए अतिथि प्रध्यापकों द्वारा और कभी वहीं पर हिन्दी भाषा पढानेवाले जापानी प्रध्यापकों द्वारा बाकायदा नियमित रुप से अनुवादित साहित्य का सृजन होता रहा है।
फ्रेंच लेखक जोला, मोपासा, जर्मन फिलोसोफर हेगल आदि की फिलोसोफी को इतर भाषा के विद्वानों तक पहुंचाना और जनसाधारण के योग्य बनाने का स्तुत्य कार्य अनुवादकों का ही है। विलियम कार्लोस के विचार से “रचना स्वरित हो या अनुवादित – अनुवादक को अनुवाद क्रिया अगर रस का पूरा अनुभव कराती है तो इसमें कोई फर्क नहीं है। अनुवाद कार्य ही महत्वपूर्ण है। अगर वह स्तरीय है तो”।
अनुवाद का सबसे महत्वपूर्ण पहलू है उत्तम गुणवत्ता,अनुवाद विशेष होना चाहिए, शैली विशिष्ट होनी चाहिए, ऐसा अनुवाद जो सहज ही पाठक वर्ग तक पहुंचता हो। कुछ विद्वानों का मत है कि गद्य से पद्य के अनुवाद में अनुवाद की कसौटी की जांच भली भांति होती है।
इस परिप्रेक्ष्य में एक ऐसे प्रसंग के विषय में कहना चाहती हुं जो सर्व विदित है। १९१३ नेबेल पुरस्कार विजेता विश्व कवि रवीन्द्रनाथ ठाकुर एशिया में साहित्य के क्षेत्र में पहले व्यक्ति थे उन्होंने अपना काव्य संग्रह “गीतांजली” का अंग्रेजी में अनुवाद “song offerings” अंग्रेज कवि Yeates को सुनाया जिन्होंने पुस्तक का प्राक्कथन लिखा। गुरुदेव का अंग्रेजी अनुवाद इतना उत्तम और विशिष्ट शैली का बना था कि अंग्रेज कवि प्रभावित हो गए। यह माना जाता है कि मूल रचना से ही रसास्वाद अधिक होता है।
अगर हम हमारे महाकाव्यों की बात करें तो फिर वही बात संस्कृत पर आकर रुक जाती है। “रामायण”,“महाभारत” आदि महाकाव्य का प्रचार प्रसार तो इनके संस्कृत निष्ठता से मुक्त करने के पश्चात ही हुआ। जनजन तक इसे प्रादेशिक अनुवादकों ने रुपान्तरकारों ने पहुंचाया। लोगों ने इसमें निहित भक्तिरस का रसास्वाद इसके (मूल्य निष्ठता) अनुवाद के पश्चात ही किया।
स्वामी विवेकानन्द के मर्मज्ञ, उन पर विशेष अध्ययन करने वाले बांगला के विख्यात लेखक शंकर जी ने लिखा – “ जब मैंने विवेकानन्द पर पुस्तक बांग्ला में लिखा तब वह उतनी प्रसिद्ध नहीं हुई। परन्तु इसके हिन्दी में अनुवादित होते ही यह विख्यात हो गई।” अर्थात अनुवाद कला कि श्रेष्ठता, महत्ता यहाँ सिद्ध होती है। यह तो मैंने अपने कथन को पुष्ट करने के लिए केवल एक उदाहरण दिया। ऐसे और अनेक उदाहरण हैं।
भाषा सर्वेक्षण के आधार पर यह ज्ञात हुआ है कि भारत में १६५२ भाषाएं हैं। इनमें ११०० मूल भाषा है। इन सभी में से ८८० भाषाएं प्रयोग की जाती है और २२० भाषाएं खो गई हैं। आंकडे बताते हैं कि ७८० भाषाएं ही पंजीकृत हैं। मुख्य्तः २९ मुख्य भाषाएं ही दस लाख लोगों द्वारा बोली जाती है। जिनमें हिन्दी -४,२२,०४८, ६४२, बांग्ला – ८३, ३६९, ७६९, तेलुगु – ७४,००२, ८५६, मराठी – ७१,९३६, ८९४, तमिल – ६०,७९३, ८१४, उर्दू – ५१,५३६, १११ विगत ५० वर्ष में भारतने २५० भाषाओं को खोया है।
भाषाओं का अगर आदान – प्रदान न हो तो भाषा निष्प्राण हो जाती है। एक भाषा से दूसरी भाषा में अनुवाद प्रक्रिया, एक सेतु का काम करती है। स्व भाषा में रचित साहित्य की गरिमा, महत्ता, विशिष्टता उस देश का इतिहास वर्णन में होता है। धर्म, संस्कृति, तीज-त्यौहार आदि का वर्णन ग्रंथ की महत्ता को बढाता है। जिसमें देश, समाज और समय उपकृत होता। अन्य देश के संस्कृतिक ज्ञान हमें समृद्ध करती है। भाषा ज्ञान का माध्यम से अनुवाद के माध्यम से ही यह संभव है।
भाषा का सहज-सिद्ध स्वाभाविक रुप से ‘लोक’ के सांस्कृतिक संस्कार में निहित होता है। लेखक जितनी गहराई में उसे समझता, देखता हे, वह उतनी ही सार्थक रचना प्रस्तुत करने में समर्थ होता है। इस प्रक्रिया में अनुवाद का विशेष महत्त्व है। इतर भाषा की विशेषता से स्वभाषा में निखार होने लगता है और रचना प्रक्रिया श्रेष्ठ से श्रेष्ठतर होती जाती है। बांग्ला साहित्य को समृद्ध करने के लिए ईश्वरचन्द्र विद्यासागर ने अनुवाद कला को माध्यम बनाया। उन्होंने शेक्स्पीयर के नाटकों का बांग्ला भाषा में अनुवाद किया जिनमें Comedy of Errors नाटक का बांग्लानुवाद “भ्रान्ति बिलास” ने ख्याति प्राप्त की थी। जो कि आजतक जनमानस के मनोरंजन का माध्यम है। इस नाटक का हिन्दी के सिवाय विभिन्न प्रादेशिक भाषाओं में भी अनुवाद हुआ है।
ओमर खय्याम के रुवायतों को अंग्रेजी अनुवाद Fitzerald ने किया। अनुवाद उत्कृष्ट श्रेणी का होने के कारण यह विख्यात है।
बडौदा के प्रसिद्ध भाषाविद, शिक्षक प्रो. गणेश देवी जी ने लुप्त होती भाषा के संरक्षण के लिए “भाषा” नामक एक संस्था की स्थापना की है। यहां पर आदिवासियों की भाषा में रचित पुस्तकें, विभिन्न स्तर पर उनको संरक्षित करने के प्रयास में रत डॉ देवी उस क्षेत्र से संबंधित लोगों का इतिहास, संस्कार, तीज त्यौहार आदि के संरक्षण की जिम्मेदारी भी निभा रहें है। इस क्षेत्र में उनको उत्साहित तथा पथप्रदर्शक रुप से स्वर्गीय महाश्वेता देवी जी का भी आगमन बडौदा में अनेक बार हो चुका है। आदिवासियों की भाषा में रचित पुस्तकों का अनुवाद करके जन साधारण तक पहुंचा कर भाषा संरक्षण के क्षेत्र में एक स्तुत्य कार्य किया है। इस क्षेत्र में उनके सराहनीय कार्य हेतु उनको सरकारी और गैर सरकारी अनेक पुरस्कारों से सम्मानित किया गया है।
अनुवाद साहित्य का एक अविच्छिन्न अंग है। इसके माध्यम से दूसरे देश के साहित्य, विज्ञान, जीवन निर्माण प्रणाली के विषय में जानने के कारण हमारी भी ज्ञान भंडार में वृद्धि होती है। एक व्यक्ति के लिए अनेक भाषाओं को आत्मसात कर उसका आनन्द उठाना संभव नहीं होता है। अतः अनुवाद ही एकमात्र माध्यम है जो इतर भाषा के प्रति हमारी ज्ञान पिपासा को तृप्त करती है। आजकल अनुवाद कला को उतना ही सम्मान दिया जाता जितना कि मूल भाषाओं की रचनाओं को दिया जाता है। उसके प्रति लोगों का दृष्टिकोण भी आजकल बदल रहा है।
हिन्दी साहित्य के प्रसिद्ध अनुवादकों के साथ साथ मैं डॉ रानू मुखर्जी भी स्वतंत्र रुप से रचना करने के साथ साथ अनुवाद करने में भी रुची रखती हूं। मातृभाषा बांग्ला, प्रादेशिक भाषा गुजराती तथा अंग्रेजी भाषा के ज्ञान के कारण मेरी अनुवादित रचनाएं प्रतिष्ठित पत्र-पत्रिकाओं के साथ साथ पुस्तकाकार में भी प्रकाशित है।
अगर सूक्ष्म रुप से देखा जाए तो एक उत्कृष्ट अनुवाद मूल रचना से भी अधिक चर्चित तथा प्रसिद्धि प्राप्त कर सकती है बशर्ते की वह उन्नत मान की हो ।
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परिचय -
परिचय – पत्र
नाम - डॉ. रानू मुखर्जी
जन्म - कलकता
मातृभाषा - बंगला
शिक्षा - एम.ए. (हिंदी), पी.एच.डी.(महाराजा सयाजी राव युनिवर्सिटी,वडोदरा), बी.एड. (भारतीय
शिक्षा परिषद, यु.पी.)
लेखन - हिंदी, बंगला, गुजराती, ओडीया, अँग्रेजी भाषाओं के ज्ञान के कारण अनुवाद कार्य में
संलग्न। स्वरचित कहानी, आलोचना, कविता, लेख आदि हंस (दिल्ली), वागर्थ (कलकता), समकालीन भारतीय साहित्य (दिल्ली), कथाक्रम (दिल्ली), नव भारत (भोपाल), शैली (बिहार), संदर्भ माजरा (जयपुर), शिवानंद वाणी (बनारस), दैनिक जागरण (कानपुर), दक्षिण समाचार (हैदराबाद), नारी अस्मिता (बडौदा), पहचान (दिल्ली), भाषासेतु (अहमदाबाद) आदि प्रतिष्ठित पत्र – पत्रिकाओं में प्रकशित। “गुजरात में हिन्दी साहित्य का इतिहास” के लेखन में सहायक।
प्रकाशन - “मध्यकालीन हिंदी गुजराती साखी साहित्य” (शोध ग्रंथ-1998), “किसे पुकारुँ?”(कहानी
संग्रह – 2000), “मोड पर” (कहानी संग्रह – 2001), “नारी चेतना” (आलोचना – 2001), “अबके बिछ्डे ना मिलै” (कहानी संग्रह – 2004), “किसे पुकारुँ?” (गुजराती भाषा में आनुवाद -2008), “बाहर वाला चेहरा” (कहानी संग्रह-2013), “सुरभी” बांग्ला कहानियों का हिन्दी अनुवाद – प्रकाशित, “स्वप्न दुःस्वप्न” तथा “मेमरी लेन” (चिनु मोदी के गुजराती नाटकों का अनुवाद शीघ्र प्रकाश्य), “गुजराती लेखिकाओं नी प्रतिनिधि वार्ताओं” का हिन्दी में अनुवाद (शीघ्र प्रकाश्य), “बांग्ला नाटय साहित्य तथा रंगमंच का संक्षिप्त इति.” (शिघ्र प्रकाश्य)।
उपलब्धियाँ - हिंदी साहित्य अकादमी गुजरात द्वारा वर्ष 2000 में शोध ग्रंथ “साखी साहित्य” प्रथम
पुरस्कृत, गुजरात साहित्य परिषद द्वारा 2000 में स्वरचित कहानी “मुखौटा” द्वितीय पुरस्कृत, हिंदी साहित्य अकादमी गुजरात द्वारा वर्ष 2002 में स्वरचित कहानी संग्रह “किसे पुकारुँ?” को कहानी विधा के अंतर्गत प्रथम पुरस्कृत, केन्द्रीय हिंदी निदेशालय द्वारा कहानी संग्रह “किसे पुकारुँ?” को अहिंदी भाषी लेखकों को पुरस्कृत करने की योजना के अंतर्गत माननीय प्रधान मंत्री श्री अटल बिहारी बाजपेयीजी के हाथों प्रधान मंत्री निवास में प्र्शस्ति पत्र, शाल, मोमेंटो तथा पचास हजार रु. प्रदान कर 30-04-2003 को सम्मानित किया। वर्ष 2003 में साहित्य अकादमी गुजरात द्वारा पुस्तक “मोड पर” को कहानी विधा के अंतर्गत द्वितीय पुरस्कृत।
अन्य उपलब्धियाँ - आकशवाणी (अहमदाबाद-वडोदरा) की वार्ताकार। टी.वी. पर साहित्यिक पुस्तकों का परिचय कराना।
संपर्क - डॉ. रानू मुखर्जी
17, जे.एम.के. अपार्ट्मेन्ट,
एच. टी. रोड, सुभानपुरा, वडोदरा – 390023.
Email – ranumukharji@yahoo.co.in.
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