आज हमारे युग के मनुष्य का जीवन अनेक संक्रमणों के संघातों से विचलित, हलाकान, एकाकी और असहाय-सा हो गया है। इस स्थिति में उसे मानवीय संवेदना एव...
आज हमारे युग के मनुष्य का जीवन अनेक संक्रमणों के संघातों से विचलित, हलाकान, एकाकी और असहाय-सा हो गया है। इस स्थिति में उसे मानवीय संवेदना एवं सहानुभूति की ऐसी अपेक्षा है जैसी भरी भीड़ में अनबोलेपन, अजनबीयत तथा उपेक्षा से उपजे अकेलेपन को अपनत्व भरे सरस संबोधन की होती है। इसीलिए समाज की संरचना हुई है जहाँ व्यक्ति का व्यक्ति से संबंध होता है, यह संबंध भारतीय परंपरा में रिश्तों से होता है। मूलतः मनुष्य स्वार्थी है लेकिन ये रिश्ते ‘स्वार्थ’ को ‘परमार्थ’ तक, ‘स्व’ को ‘पर’ तक विस्तार देकर, मनुष्य को विभिन्न संज्ञाओं से नवाज़ते हुए सर्वनाम तक प्रतिष्ठित कर देते हैं।
आज का समय ‘ग्लोबलाइज़ेशन’, पूँजीवादी विकास, उपभोक्तावाद, बाज़ारवाद आदि अनेक ज़रूरी एवं ग़ैरज़रूरी आख्याओं का समय है जहाँ सब कुछ है तो लेकिन हमारे सहज-सरल-प्राकृत मन को सुकून नहीं है। इसी जीवन-रस की शिद्दत से तलाश करते हुए चर्चित गीतकवि योगेन्द्र वर्मा ‘व्योम’ के सद्यःप्रकाशित समकालीन गीत-संग्रह ने एक अचूक युक्ति सुझाई है- ‘रिश्ते बने रहें’। ये रिश्ते एक बादल-मन जैसे हैं जो अपनी शीतल फुहारों से हमारे बुद्धिवादी विरस परिवेश को सरस बनाते हैं और पारिस्थितिक तपन को ठंडक पहुँचाते हैं। ‘तन के भीतर बसे हुए मन के गाँव’ को अपनेपन के रस-सूत्र से बाँधते हैं-
‘चलो करें/कुछ कोशिश ऐसी/रिश्ते बने रहें
बंद खिड़कियाँ/दरवाज़े सब/कमरों के खोलें
हो न सके जो/अपने/आओं हम उनके हो लें
ध्यान रहे/ये पुल कोशिश के/ना अधबने रहें’
कभी-कभी लगता है कि चमकीली विकास की आँधी में बाज़ारू लूटपाट के चलते सारा समाज विशृंखल हो गया है, ऐसा पहले कभी नहीं था। ऐसे में- ‘छोटा बच्चा/पूछ रहा है/कल के बारे में’ आज के सन्नाटे-भरे कृष्णपक्षीय अंधेरे में ‘कौन किसे अब राह दिखाए’ यह प्रश्न तनाव से भरे समय-धनुष की तनी हुई प्रत्यंचा की तरह हर चेहरे पर उभर रहा है।
भारतीय परंपरा में हमारी बहन-बेटियाँ, सामाजिक रिश्तों को बनाने, उन्हें नाम देने का समाजशास्त्रीय उपकरण हैं। इतना ही नहीं, रिश्तों में खुशबू और मिठास इन्हीं के बहाने आती है लेकिन आज की बाज़ारू मानसिकता ने संबंधों को ‘लेन-देन’ तथा ‘मतलब’ के चलन से जोड़ दिया है। इस त्रासद बेरुखी एवं औपचारिकता तक सीमित हुए रिश्तों के संदर्भ का यह गीत सहृदय के सहज भावनात्मक संवेदन को अँसुवा देता है-
‘ना पहले जैसा/अपनापन/ना ही प्यार दिखा
फ़र्ज़ कहीं ना दिखा/दिखा तो/बस अधिकार दिखा
चिट्ठी ने भी/माँ का हाल/बताना छोड़ दिया
मुनिया ने/पीहर में/आना-जाना छोड़ दिया’
वक़्त की मरुथली रेत ने मन और हृदय को भावनात्मक आर्द्रता से सर्वथा रहित कर दिया है। पीहर से ससुराल जाती बहन बेटियों के माथे पर रोली-अक्षत का टीका भी अधूरा एवं औपचारिक हो गया है। कवि ने इसी गीत में बड़ी संजीदगी और क्षोभ के साथ अपनी संदर्भित अनुभूति को किस तरह साधारणीकृत कर दिया है-
‘बीते कल को/सोच-सोचकर/नयन हुए गीले
कच्चे-धागे के/बंधन भी/पड़े आज ढ़ीले
चावल ने/रोली का साथ/निभाना छोड़ दिया
मुनिया ने/पीहर में/आना-जाना छोड़ दिया’
सहृदयों को निहाल करने में सर्वथा समर्थ कवि की अभिव्यक्ति कौशल के नूतन प्रयोग और इनकी ध्वन्यर्थ व्यंजना को उद्घाटित करता संग्रह का एक गीत- ‘अपठनीय हस्ताक्षर जैसे’ सहज ही पाठक का ध्यान आकर्षित करता है। कॉलोनी कल्चर की ऊब, खीझ, एकाकीपन, अबूझ खामोशी के सन्नाटे ओढ़े घरों की आंतरिक हलचलें, चेहरों पर जबरन चिपकाये गए स्टेटस से टपकती दंभ-भरी अपनी पहचानें अपने में ही जबरन सँभाले लोगों के एक्सपोज़-से होते हाव-भाव आदि इस गीत की ध्वन्यर्थ व्यंजनाएँ आज के गीत को समकालीनता से संपृक्त कर देती हैं। इस गीत के उपमान शिल्प की दृष्टि से जितने नव्यतर और स्पृहणीय हैं आनुभूतिक स्तर पर उतने ही अन्तर्गर्भी हैं-
‘अपठनीय हस्ताक्षर/जैसे/कॉलोनी के लोग
ओढ़े हुए/मुखों पर अपने/नकली मुस्कानें
बदलें यहाँ/आधुनिकता की/पल-पल पहचानें
नहीं मिले/संवत्सर जैसे/कॉलोनी के लोग’
वस्तुवादी सोच और ललक ने हमें आज एक ऐसी तहजीब में जीने के लिए अभिशप्त कर दिया है जो ‘क़रीने की व्यवहारिकता’ में सराबोर है किन्तु मन को छूती तक नहीं ठीक उसी तरह, जिस तरह आज सीढ़ीदार गद्य-कविता अपने तमाम तामझाम के बावजूद हृदय के पास से गुज़रती तक नहीं। ऐसा ही हो गया है आज का मनुष्य, आज का समाज। कवि इस पीड़ा को बिल्कुल नए ढंग से अभिव्यक्त करता है-
‘जीवन में हम/ग़ज़लों जैसा/होना भूल गए
जोड़-जोड़कर/रखे क़ाफ़िए/सुख-सुविधाओं के
और साथ में/कुछ रदीफ़/उजली आशाओं के
शब्दों में/लेकिन मीठापन/बोना भूल गए’
आज जीवन अपनी समग्रता में बाज़ारू परिवेश-सा बन गया है और हम लोग उपभोक्ता। हमारे संबंध ग्राहक और दुकानदार की भाँति लेन-देन पर आधारित हो गए हैं।
इसके साथ-साथ, अपने देश में विकास की एक अजूबा आँधी आई हुई है, प्रगतिशीलता इसका केन्द्र है। नयेपन की युवा मानसिकता के चलते प्रगतिशीलता की विद्रूपता पर व्यंग्य करते हुए कवि ने संग्रह के एक महत्वपूर्ण समसामयिक यथार्थ के गीत ‘जीन्स-टॉप में नई बहू ने’ में जिस ओढ़ी हुई तथाकथित कल्चर की बोझिल अनुभूति को व्यक्त किया है और जिस ‘माटी’ से विरहित हो जाने का ज़िक्र किया है, वही ‘माटी’ हमारी अस्मिता और पहचान है, जीवन-मूल्य है, आँगन की तुलसी है, मानवीय रिश्तों का अंतःसूत्र है, इसे हर हाल में बचाए रखना है-
‘धीरे-धीरे/सूख रही है/तुलसी आँगन में
नए आधुनिक/परिवर्तन ने/ऐसा भ्रमित किया
जीन्स-टॉप में/नई बहू ने/सबको चकित किया
छुटकी भी/घूमा करती/नित-नूतन फैशन में’
नए विकास के चमकीले फ़लक पर बनते-फैलते महानगरों में हमारा अपना नगर, हमारा अपना घर कहीं खो गया है शायद, तभी तो व्योमजी अपने शहर-मुरादाबाद की पीड़ा को ‘ढूँढ रहे हम/ पीतलनगरी/महानगर के बीच’ गीत में कहने को विवश हो जाते हैं। साथ ही राजनीतिक विद्रूपताओं, दुराचारों, छल-प्रपंचों आदि को भोगते-महसूसते हुए पथरा चुके आम आदमी की भावना को व्यंग्यात्मक गीत के माध्यम से व्याख्यायित किया है कवि ने-
‘सुना आपने/राजाजी/दौरे पर आएंगे
राजाजी तो/राजाजी हैं/सब कुछ कर लेंगे
अपने मनमोहक/भाषण से/सब दुख हर लेंगे
कैसे पेट भरे/बिन रोटी/यह समझाएंगे’
आज के इस बाज़ारू युग ने हमें नई-नई सुविधाओं के सुख देकर हमारे मन के सच्चे सुकून को छीन लिया है। वर्तमान के मशीनी एवं ‘ग्राहक-दूकानदार’ वाले परिवेश से ऊब-खीझकर जब अतीत की सहजता को हम याद करते हैं तो ‘अतीतजीवी’-‘पुरातन’ की संज्ञा से अभिहित किए जाते हैं, उपेक्षित-से किए जाते हैं लेकिन करें क्या? मानुषी भावनाओं वाला अतीत ही हमारी मानसिकता और रचनाधर्मिता का ‘श्रेय’ और ‘प्रेय’ दोनों हैं। परंपरा से, जीवन के हर सुख-दुख को व्यक्त करते शब्दों में जो हार्दिकता का स्पर्श, रस, सुगन्ध आदि समाये रहते थे, वे सब आज की ‘इन्फर्मेशन टेक्नोलोजी’ के ‘टाइप्ड एटीट्यूड’ में ढलकर कितने सस्ते, अपनत्वहीन और अन्यथा हो गए हैं, उनमें घर-आँगन की माटी की बात अब कहाँ? व्हाट्सएप पर की गई ‘चैटिंग’ ने रूबरू होकर ‘मिलन-खिलन’ की मनभावन परंपरा को समाप्तप्राय कर डाला है। चिट्ठी-पत्री के शब्दों में लिखने वाले की भावनाएँ उच्छलित और व्यंजित होती थीं, वे अब मशीनी माध्यम में पड़कर मात्र ‘अमिधा’ बनकर रह गई हैं जिनमें ध्वन्यर्थ व्यंजना के बिना मरुथली नीरसता आ गई है। प्रस्तुत संग्रह का एक गीत- ‘चल रे मनवा’ इसी टीस को बयान करता है-
‘चल रे मनवा/व्हाट्सएप पर/चैटिंग करते हैं
मिलना-जुलना/बतियाना भी/सब कुछ छूट गया
कोई अपना बनकर/अपनों को ही/लूट गया
मरुथल-से होठों पर/चल/अपनापन धरते हैं
समकालीन गीतों के इस संग्रह में ‘पुरखों की यादें’ भी हैं और तन के भीतर बसे हुए मन के गाँव का भावात्मक आनंद भी जो अब केवल सुधियों में ही है और कभी-कभी अश्विन मास की बदरौंखी धूप से संतप्त राही को एक टुकड़े बादल की क्षणिक छाया-सा सुकून दे जाता है। ‘तुमको पत्र लिखूँ’ गीत के माध्यम से सूचना तकनीक के इस सुपर युग में अपनों को पत्र लिखने की अधूरी ललक भी है जो शब्दों की खुशबुओं की चाहत में खुद ही खुशबू बन गई है और ‘माँ को खोना/मतलब/दुनिया-भर को खोना है’ व ‘जब तक पिता रहे/तब तक ही/घर में रही मिठास’ जैसे गीतों के माध्यम से माता-पिता की वत्सली यादों का बोध कराती अभिव्यक्ति भी। ‘दिल्ली नहीं रही’ गीत में एक साथ गुमशुदगी और शिद्दत भरी तलाश के आलम को उकेरने वाले व्योमजी को इस बात का भी गहरा संताप है कि गाँवों-घरों में ‘गौरैया अब नहीं दीखती’ परिणामतः खुशियों की खुशबू वाले वो स्वर कहीं खो गए हैं और हम आज की तकनीकी व आडम्बर भरी दुनिया में सुखों की नई परिभाषाएँ पढ़ रहे हैं जबकि उस घर-गौरैया की पीड़ा के ढाई आखर अनपढ़े ही रह गए। इन सब बातों का सहृदय गीतकार को गहरा संताप है।
हिन्दी में इन दिनों गीत-नवगीत की चर्चा, शौकिया और ग़ैरशौकिया दोनों स्तरों पर चालू है। ‘नव’ शब्द ने बहुत से गीतकारों को ‘सनकी’ बना दिया है। उन सनकी लोगों ने नवगीत के नाम पर नए-नए मंतव्य और फतवे उछाले हैं। यहाँ तक कि उसके शिल्प और उसकी अन्तर्वस्तु को ख़ास सांचे-खांचे में ‘फिट’ करके ही लिखने-लिखाने, कहने-सुनने का आग्रह पाल लिया है। कुछ मित्रों ने इसे नवांतर गीत की संज्ञा भी दी है किन्तु इस तरह गीत के क्षेत्र में बहुत कुछ ‘अप्रिय संदर्भ’ तथा अहम्मन्यता के भाव भी जुड़ गए हैं, जो नहीं होने चाहिए। मेरे जैसा नितान्त गँवई और सहज व्यक्ति तो यही जानता है कि भाव-जगत का अतीव संवेदनशील प्राणी ‘कवि’ अपने समय की विसंगत परिस्थितियों के दबावों एवं परिवेशगत प्रवंचनाओं से बोझिल तथा आहत होकर जब चीखता है, तब कविता बनती है। हर युग की जटिलताओं की अनुभूतियाँ, तत्युगीन अभिव्यक्ति कौशल में ही साधारणीकृत होती हैं, संप्रेषित होती हैं। मनीषी परिभू और स्वयंभू कवि जितनी ही साँसत में सब कुछ सहता है, उतनी ही गहन हार्दिकता के साथ अपनी बात कहता है इसीलिए हर युग की ‘सहन’ और ‘कहन’ अलग हो जाती है किन्तु कवि की संवेदनशीलता जो साहित्य का बीज-बिन्दु है, वह तो अपने मूल रूप में ‘एवमेव’ बना रहता है। सहृदयों तक संप्रेषित और साधारणीकृत होने के लिए रचनाकार अपनी ‘भावयित्री’ और ‘कारयित्री’ प्रतिभा का यथोचित उपयोग करता है, यही है गीत-नवगीत की आधार-भूमि। व्योमजी ने भी अपने संग्रह में इसी भाव-भूमि पर अपनी सशक्त अभिव्यक्ति दी है नवगीत के संदर्भ में-
‘नवगीतों पर/शुरू हुए हैं/फिर से नए विमर्श
संस्मरण हैं/चर्चाएँ हैं/चिन्ताएँ भी हैं
आने वाले/कल की उजली/आशाएँ भी हैं
लगता है/नवगीत बनेंगे/कविता के आदर्श’
साररूप में कहा जा सकता है कि योगेन्द्र वर्मा ‘व्योम’ का यह समकालीन गीत-संग्रह ‘रिश्ते बने रहें’ वर्तमान के यथार्थ को मजबूती के साथ अभिव्यक्त करते नवगीतों का ऐसा महत्वपूर्ण संग्रह है जिसकी साहित्य-जगत को, समाज को बहुत आवश्यकता है। अन्त में अपना एक दोहा-
‘रिश्ते मरुथल की नदी, हरते तपन ‘पियास’।
ये भूगोल ‘जुड़ाव’ के, नेह भरे इतिहास।।’
समीक्ष्य कृति - ‘रिश्ते बने रहें’ (समकालीन गीत-संग्रह)
कवि - योगेन्द्र वर्मा ‘व्योम’,
प्रकाशक - गुंजन प्रकाशन, मुरादाबाद-244001, मो0- 9927376877
मूल्य - रु0 200/- (हार्ड बाईन्ड)
समीक्षक- डॉ. राधेश्याम शुक्ल
392, एम.जी.ए.,
(डी.सी.एम.गेट),
हिसार-125001 (हरियाणा)
मोबाइल- 09466640106
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