हिन्दी साहित्य की सामूहिक अवधारणा पर यदि विचार किया जाए तो आज भी प्रेम-सौंदर्य-मूलक साहित्य का पलड़ा भारी दिखाई देगा; यद्यपि यह अलग तथ्य है क...
हिन्दी साहित्य की सामूहिक अवधारणा पर यदि विचार किया जाए तो आज भी प्रेम-सौंदर्य-मूलक साहित्य का पलड़ा भारी दिखाई देगा; यद्यपि यह अलग तथ्य है कि समकालीन साहित्य में इसका स्थान नगण्य है। नगण्य इसलिए भी कि आज इस तरह का सृजन चलन में नहीं है, क्योंकि कुछ विद्वान नारी-सौंदर्य, प्रकृति-सौंदर्य, प्रेम की व्यंजना, अलौकिक प्रेम आदि को छायावाद की ही प्रवृत्तियाँ मानते हैं। हिन्दी साहित्य की इस धारणा को बहुत स्वस्थ नहीं कहा जा सकता। कारण यह कि जीवन और साहित्य दोनों अन्योन्याश्रित हैं, यही दोनों की इयत्ता भी है और इसीलिये ये दोनों जिस तत्व से सम्पूर्णता पाते हैं वह तत्व है- प्रेम-राग।
इस दृष्टि से ख्यात गीतकवि और आलोचक वीरेन्द्र आस्तिक जी का सद्यः प्रकाशित गीत संग्रह ‘गीत अपने ही सुनें' एक महत्वपूर्ण कृति मानी जा सकती है। बेहतरीन शीर्षक गीत- "याद का सागर/ उमड़ आया कभी तो/ गीत अपने ही सुने" सहित इस कृति में कुल 58 रचनाएं हैं जो तीन खण्डों में हैं, यथा- 'गीत अपने ही सुनें', 'शब्द तप रहा है' तथा 'जीवन का करुणेश'। तीन खण्डों में जो सामान्य वस्तु है, वह है- प्रेम सौंदर्य। यह प्रेम सौंदर्य वाह्य तथा आन्तरिक दोनों स्तरों पर दृष्टिमान है। शारीरिक, मानसिक और बौद्धिक सौंदर्य का संतुलित समावेश कर सारभौमिक तत्व को उजागर करते हुए कवि संघर्ष और शान्ति (वार एन्ड पीस) जैसे महत्वपूर्ण उपकरणों से जीवन में आए संत्रास को खत्म करना चाहता है; क्योंकि तभी कलरव (प्रकृति) रूपी मूल्यवान प्रेम तक पहुँचा जा सकता है- "सामने तुम हो, तुम्हारा/ मौन पढ़ना आ गया/ आँधियों में एक खुशबू को/ ठहरना आ गया। देखिये तो, इस प्रकृति को/ सोलहो सिंगार है/ और सुनिये तो सही/ कैसा ललित उद्गार है/ शब्द जो व्यक्त था/ अभिव्यक्त करना आ गया। धान-खेतों की महक है/ दूर तक धरती हरी/ और इस पर्यावरण में/तिर रही है मधुकरी/ साथ को, संकोच तज/ संवाद करना आ गया। शांतिमय जीवन;/ कठिन संघर्ष है/ पर खास है/ मूल्य कलरव का बड़ा/ जब हर तरफ संत्रास है/ जिन्दगी की रिक्तता में/ अर्थ भरना आ गया।"
आस्तिक जी का मानना है कि कवि की भावुकता ही वह वस्तु है जो उसकी कविता को आकार देती है; क्योंकि सौंदर्य न केवल वस्तु में होता है, बल्कि भावक की दृष्टि में भी होता है। कविवर बिहारी भी यही कहते हैं "समै-समै सुन्दर सबै रूप कुरूप न होय/मन की रूचि जैसी जितै, तित तेती रूचि होय।" शायद इसीलिये आस्तिक जी की यह मान्यता भाषा-भाव-बिम्ब आदि प्रकृति उपादानों के विशेष प्रयोगों द्वारा सृजित उनके गीतों को सर्वांग सुन्दर बना देती है। समाज, घर-परिवेश और दैन्य जीवन के शब्द-चित्रों से लबरेज उनके ये गीत प्रेम की मार्मिक अनुभूति कराने में सक्षम हैं- "दिनभर गूँथे/ शब्द,/ रिझाया/ एक अनूठे छंद को/ श्रम से थका/ सूर्य घर लौटा/ पथ अगोरती मिली जुन्हाई/ खूँद रहा खूँटे पर बछड़ा/ गइया ने हुंकार लगायी/ स्वस्थ सुबह के लिये/ चाँदनी/ कसती है अनुबंध को।"
जीवन के अंतर्द्वंद्वों की कविताई करना इतना सरल भी नहीं है। उसके लिए कठिन तपश्यर्चा की आवश्यकता होती है। कवि यह सब जानता है- "गीत लिखे जीवन भर हमने/ जग को बेहतर करने के/ किन्तु प्रपंची जग ने हमको/ अनुभव दिये भटकने के/ भूलें, पल भर दुनियादारी/ देखें, प्रकृति छटायें/ पेड़ों से बतियायें।" इतना ही नहीं, कहीं-कहीं कवि की तीव्र उत्कंठा प्रेम को तत्व-रूप में देखने की होती है, तब वह इतिहास और शोध-संधानों आदि को भी खंगाल डालता है; तिस पर भी उसके सौंदर्य उपादान गत्यात्मक एवं लयात्मक बने रहते हैं और मन पर सीधा प्रभाव डालते हैं। कभी-कभी तो वह स्वयं के बनाए मील के पत्थरों को भी तोड़ डालता है, कुछ इस तरह- "मुझसे बने मील के पत्थर/ मुझसे ही टूट गए/ पिछली सारी यात्राओं के/ सहयात्री छूट गए/ अब तो अपने होने का/ जो राज पता चलता है/ उससे/ रोज सामना होता है" और - "हूँ पका फल/ अब गिरा मैं तब गिरा/ मैं नहीं इतिहास वो जो/ जिन्दगी भर द्रोण झेले/ यश नहीं चाहा कभी जो/ दान में अंगुष्ठ ले ले/ शिष्य का शर प्रिय/जो सिर मेरे टिका।"
निष्कर्ष रूप में कहना चाहता हूँ कि जीवन के शेषांश में समग्र जीवन को जीने वाले वीरेन्द्र आस्तिक जी की पुस्तक ‘गीत अपने ही सुने’ के गीत इस अर्थ में संप्रेषणीय ही नहीं, रमणीय भी हैं कि प्रेम-सौंदर्य के बिना जीवन के सभी उद्देश्य निरर्थक-सेे हो जाते हैं। विश्वास है कि सहृदयों के बीच यह पुस्तक अपना स्थान सुनिश्चित कर सकेगी।
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पुस्तक : गीत अपने ही सुने
कवि : वीरेन्द्र आस्तिक
ISBN: 978-81-7844-305-8
प्रकाशक : के के पब्लिकेशन्स, 4806/24, भरतराम रोड, दरियागंज, नई दिल्ली-2
प्रकाशन वर्ष : 2017, पृष्ठ : 128, मूल्य: रु 395/-
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समीक्षक :
अवनीश सिंह
चौहान
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Abnish Singh Chauhan, M.Phil & Ph.D
Department of English
SRM University Delhi-NCR
Managing Editor : Creation and Criticism
(www.creationandcriticism.com)
संपादक : पूर्वाभास
(www.poorvabhas.in)
Author of :
The Fictional World of Arun Joshi: Paradigm Shift in Values
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