छत्तीसगढ़ में लेखन अन्य प्रान्त के हिन्दी या ब्रज अवधि मैथिली मराठी भाषियों ने यहाँ की लोक जीवन से प्रभावित होकर पहले पहल सृजन आरंभ किए पर व...
छत्तीसगढ़ में लेखन अन्य प्रान्त के हिन्दी या ब्रज अवधि मैथिली मराठी भाषियों ने यहाँ की लोक जीवन से प्रभावित होकर पहले पहल सृजन आरंभ किए पर वे छत्तीसगढी नहीं है। छत्तीसगढ वनाच्छादित अंचल रहा है। जहां कोई शिक्षण संस्थान नहीं थे। रायपुर और रतनपुर में केवल पूजा पाठ आदि के लिए संस्कृत पाठशालाओं का निजी संचालन कान्यकुब्ज ब्राह्मणों द्वारा मौखिक रुप से संचालित थे जहां सीमित मात्रा में केवल ब्राह्मण युवकों को शिक्षा दी जाती थी। वे लोग भी कही संस्कृत में काव्य या कोई ग्रंथादि रचे यह ज्ञात नहीं है
। दंतेश्वरी मंदिर में जो शिलालेख है और जिसकी लिपि ब्राम्ही है वह पाली या प्राकृत है जो जन भासा छत्तीसगढ़ी जैसी लगती हैं पर वह छत्तीसगढ़ी नहीं है। क्योंकि बस्तर में गोंडी भतरी बोलियाँ हैं। जिसमें कुछ कुछ शब्द छत्तीसगढ़ी के मिलते हैं।
अमुमन सभी राजा और राजघराने जो आदिवासी थे वे और उनके परिवार प्राय: निरक्षर रहे । फलत: राज दरबार या नगर में छिटपुट लेखन करते जिनकी मातृ भाषा या बोली ब्रज ,अवधि मैथिली बघेलखंडी या मराठी थे। जो जीविकोपार्जन हेतु यहां आकर आश्रय लिये थे। वही लोग देवनागरी लिपि में अपनी अपनी मातृ भाषा में लेखन किया। यह वह दौर रहा जब हिन्दी भाषा के रुप में आकार ले रही थी। यह समय साहित्य के काल क्रम में रीतिकाल का था। जब श्रृंगार और भक्ति का अप्रतिम सृजन चल रहा था। राम- कृष्ण नायक के रुप में महिमामय हो चुके थे उनके मानवीय करण कर उनके लौकिक लोकाचारण से जनमन को अनुरंजित किए जा रहे थे। हर सामंत राजा जमीन्दार के चरित्र को राम कृष्ण के वैभव से जोड़कर उनके मनोहारी वर्णन तक किए जाने लगे । प्रतिभाशाली आसुकवियों को पनाह मिलने लगे ये लोग राग रंग मनोरंजन के गीत गाकर जीविकोपार्जन करने लगे । कवियों कलाकारों को राजदरबार में आश्रय मिलने लगे। इन्ही राज्याश्रित कवियों में दलपत राव खैरागढ, बाबू रेखाराव रतनपुर, और सिमगावासी खाण्डेराव का नाम उल्लेखनीय है। इनकी रचनाओं में वे अपने आश्रय दाता राजाओं के प्रशंसा के साथ- साथ समकालीन छत्तीसगढ़ की छवि परिलक्षित होते हैं।
इसी समय बांधवगढ़ वासी धनी धरमदास जी का वृद्धावस्था में कबीर पंथ के प्रचारार्थ आगमन हुआ। वे कोमलकांत पदावलि प्रेम भक्ति के पद कवित्त रचे जिन पर कबीर की वाणियों के अनुगूंज हैं। उनकी भाषा बघेलखंडी और ब्रज है।
छत्तीसगढ़ में शिक्षा का द्वार लार्ड मैकाले के शिक्षा नीति के चलते १८५० के आसपास स्कूल खुलना आरंभ हुआ। और १९०० तक शहरों कस्बों में पाठ शालाएं धीरे धीरे खुलने लगी इस दरम्यान प्रथम पीढी के लोग साक्षर हुए वही लोग छिटपुट छत्तीसगढ़ी में गीत भजन और धार्मिक कथा कहिनी लेखन आरंभ किए।
तब तक बीज स्वरुप जनमानस में गुरु बाबा के वाणियों का अनुगूंज गूंजने लगा वही आगे सतनाम साहित्य जिसे छत्तीसगढ़ी का शिष्ट साहित्य कह सकते हैं, का क्रमशः सृजन आरंभ हुआ।
इस तरह हम पाते हैं कि -
विशुद्ध छत्तीसगढ़ी में नवीन विचार -धारा और दर्शन को जनमानस में प्रसारित करने सर्व प्रथम सूक्तों, अमृतवाणियों ,उपदेशों ,पंथी मंगल भजनों दृष्टान्त या बोधकथाओं के माध्यम से गुरु घासीदास और उनके पुत्र गुरु अम्मरदास जी ने १७९० के आसपास सतनाम पंथ की स्थापना की। और उनके प्रचारार्थ रामत -रावटी किए। इन्हीं आयोजनों में सत्संग- प्रवचन और पंथी -मंगल भजनों द्वारा सतनाम के गूढ़ंतम सिद्धान्तों को सरलतम ढंग से जनभासा छत्तीसगढ़ी में व्यक्त किए जो शिष्ट साहित्य की कोटि में पणिगणित होने हुए।
सतनाम -पंथ के अभ्युदय के पूर्व छत्तीसगढ़ी में लेखन और सृजन इसलिये भी संभाव्य नहीं हुआ क्योंकि यहाँ शिक्षा और अक्षरग्यान जनमानस में थे ही नहीं। इसलिए अधिकतर लोकगीतों का मौखिक स्वरुप रहा है। और लोग अपनी यादृच्छिक क्षमता के अनुरुप उन्हें कंठ दर कंठ प्रवाहित करते लाए। इनमें प्रमुखतः करमा ददरिया रीलो बार डंडा नृत्य गीत बांसगीत बसदेवा सुआ इत्यादि। इनके साथ- साथ बिहाव गीत गौरागीत जसगीत जैसे आनुष्ठानिक गीत जो लोकगीतों के रुप में रहा। तो अहिमन कैना केवला कथा दसमत कैना लोरिक चंदा सीत बंसत लछ्मनजति भरथरी गोपीचंद आल्हा जैसे पात्रों चरित गायन भी वाचिक परंपरा में रहा। पंडवानी इसी तरह कलान्तर में विकसित हुई।
सतनाम -पंथ का प्रवर्तन गुरु घासीदास ने धर्म-कर्म में व्याप्त अराजकता, अंध विश्वास, ढोंग- पाखंड के विरुद्ध उनमें अपेक्षित सुधार हेतु किया गया। फलस्वरुप अनेक सकारात्मक लोग उनसे जुड़ते गये। पुरातन प्रेमी और रुढिवादियों ने इनका प्रतिकार किया साथ ही अनेक तरह के अवरोध पैदा किए गये। ताकि इससे नवीन सतनाम विचार-धारा का प्रवाह अवरुद्ध हो जाए। परन्तु जो सत्य और लोककल्याणकारी तत्व है वह सारे अवरोध अपनी सर्व ग्राह्यता से हटा लेता है। और ऐसा ही हुआ। सारे अवरुद्ध उनके प्रवाह से उखड़ गये और भारतीय संस्कृति में जातिविहीन नये धर्म का संस्थापना हुआ। समकालीन समय में उनकी अनुगूंज से जो सृजित हुआ वह वाकिये में चमत्कृत करने वाला रहा। फलस्वरुप यह बडी तेजी से लोक जीवन में प्रचारित-प्रसारित हुआ।
परन्तु गुरु घासीदास विरचित शिष्ट साहित्य और सतनाम -दर्शन केवल अनुयायियों तक क्यों सीमित रहे और गैर अनुयाई उनसे क्यों मुखापेक्षी रहे यहां तक कि सतनाम- पंथ के साहित्य को जातीय साहित्य कहे जाने लगे? यह विचारणीय और खारिज करने योग्य है। क्योंकि यह. सुविधाभोगियों और शोषकों द्वारा फैलाए गये भ्रम रहा है। वाकिये में यह जाति -पांति आदि से मुक्त मानव मुक्ति के महाकाव्यात्मक गान है। यह बाते अब प्रज्ञावानों को समझ आने लगी है। इन भावप्रवण रचनाओं के माध्यम से छत्तीसगढ़ी को वैश्विक पटल पर संस्थापित किए जा सकते है। अनेक प्रसिद्ध रचनाकार और समीक्षक एक सुर में कहते है कि छत्तीसगढ़ के महान संत गुरु घासीदास से नि:सृत छत्तीसगढ़ी देव वाणी संस्कृत सम महिमामय हो गई ।
सिरजादे मनखे के हृदय म धाम ।
सतनाम साहित्य मानव हृदय को धाम बनाती है। और उन्हें समानता के धरातल पर खड़ा कर प्रकृति और प्राणियों के प्रति संवेदनशील बनाती है।
ऐसे दिव्य और महिमामय भाव प्रवण छत्तीसगढ़ी में गद्य पद्य रचनाएँ जो बाबाजी के मुख से नि:सृत है ,वह द्रष्टव्य है-
सप्त सतनाम सिद्धान्त -
१ सतनाम ल मानव अउ सतनाम के रद्दा म रेगव
२ पर नारी ल माता बहिन मानव
३ मांस त मास ओकर सहिनाव तको ल झन खाव
४ मंद माखुर चोगी झन पियव
५ मंझनिया नागर झन जोतव
६ मूर्ति पूजा झन करव अउ ओमा बलि झन चढावय
७ गाय अउ भ इसी ल नागर म झन फांदव
उक्त दिव्य सतनाम सिद्धान्त के अनुरुप ही अनगिनत उक्ति व गीत उपदेश अमृतवाणियों का अवतरण हुआ-
१ सत म धरती टिके हे सत खडे हे अगास ,कहे
सत म चंदा सूरुज ह बरत हे दिनरात ,कहे घासीदास।।
२ कटही कुलुप स इता राख ।
ये दे सुकवा उवत हे पहाही रात ।।
३ मंदिरवा म का करे ज इबोन। अपन घट के देव ल मनइ बोन ।।
४ चलो चलो हंसा अम्मर लोख ज इबोन ।
अम्मर लोख जाइके ये हंसा उबारबोन ।।
५ ये माटी के काया हर न इ आवय कहू काम ।
तय सुमर ले सतनाम तय सुमर ले सतनाम ।।
६ सतनाम एक वृछ हे निरंजन बनगे डार
तीन देव साखा भये पन्ना भये संसार
७ मोरा हीरा गंवागे बन कचरन म
मुड पटक -पटक रोले पथरन म
८ हंसा कायागढ म लगे हे बजार समझके कर ले स उदा ल हो
९ अमरित पावन लगे सुहावन सतनाम मीठ बानी
सतनाम तय जप ले रे मनवा करले सुफल जिनगानी
१० बीच गंगा बहत हे मंझधारा हो मिले बर होही संतो मिल जाहु न ....
इसी तरह अमृतवाणियों का यह गद्यात्मक रुप दर्शनीय है-
१ करिया होय कि गोरिया होय ये पार के होय कि ओ पार के मनखे हर मनखेच आय।
२ झगरा के जर न इ होय ओखी के खोखी होथय।
३ पितर मन ई हर मोला ब इहाय कस लागथे।
४ मंदिर झन बना न संतद्वारा बना तोला बनायेच बर हवे त कुआ तरिया सराय नियाला बना ।दुरगम ल सरल बना।
५ तोर भगवान बहेलिया आय मोर भगवान धट धट म बिराजे सतनाम हर आय।
६ मंदरस के सुवाद ल जान डरे त सब ल जान डरे।
७ एक धूबा मारे तहु तोर बराबर आय।
८ मोर सब हर संत के आय तोर हीरा ह मोर बर कीरा आय
९ अव इय्या ल रोकव नहीं जव इय्या ल टोकव नहीं
१० ये भुइंय्या तोर आय येखर तय मिहनत करके सिंगार कर अन्न धन उपजा अउ सुध्धर सत इमान म अपन जीनगी बिता।
इन अलंकृत व भावप्रवण अमृतवाणियों के साथ साथ अनगिनत उपदेश ,दृष्टान्त व बोधकथाएं हैं।
इस तरह देखें तो भावप्रवण व संपूर्ण व्याकरणिक कोटि से अलंकृत महिमामय वाक्य संरचना है जिस पर अनेक तरह से मुग्धकारी साहित्य सृजन संभाव्य है। और रचे जा रहे हैं।१९२५ मे सतनाम सागर के प्रकाशन कलकत्ता से सतनाम साहित्य का सोता अजस्र प्रवाहमान हो मानव के अंत:करण को आप्लावित करते आ रही है।
अब तक ३५० से अधिक स्वतंत्र पुस्तकें पत्र पत्रिकाएं प्रकाशित हैं । कई खंड व महाकाव्य हैं उनमें प्रमुख निम्नवत हैं-
१ सतनाम सागर - पं सुखीदास
२ गुरुघासीदास नामायण
३ समायण - पं सुकुलदास -मनोहर दास नृसिंह
४ सत्यायण- पं साखाराम बधेल
५ सतनाम- संकीर्तन- सुकालदास भतपहरी गुरुजी
६ सत सागर - प नम्मूराम मनहर
७ सतनाम धर्मग्रंथ - नंकेशरलाल. टंडन
८ सतनाम खंड काव्य - डा मेधनाथ कन्नौजे
९ गुरु उपकार - साधू बुलनदास
१० श्री प्रभात सागर - मंगत रविन्द्र
इसी तरह गद्य में अनेक रचनाएँ है उनमें प्रमुखतः १० रचनाओं की सूची निम्नवत् है
१ सतनाम आन्दोलन और गुरु घासीदास - ले शंकरलाल टोडर
२ सतनाम - दर्शन इंजी टी आर खुन्टे
३ सतनाम दर्शन भाऊराम धृतलहरे
४ सत्य प्रभात - डा आई आर सोनवानी
५ सतनाम के अनुयायी - डा जे आर सोनी
६ गुरुघासीदास संधर्ष समन्वय और सिद्धान्त- डा. हीरालाल शुक्ल
७ गुरु घासीदास की मानवता - साधु सर्वोत्तम साहेब
८ सत्य दर्शन - घनाराम ढिन्ढे
९ गुरु घासीदास चरित - सुखरु प्रसाद बंजारे
१० सतनामी कौन? - शंकरलाल टोडर
गद्य पद्य के अतिरिक्त अनेक पंथी मंगल चौका आरती संग्रह और चंपू काव्य हैं। महाकवि द्वय नोहरदास नृसिंह और नम्मूराम मनहर नंकेसर लाल टंडन साधु बुलनदास जी ने सतनाम धर्म संस्कृति से संदर्भित अनेकानेक रचनाएँ समाज को दिए और जनमानस में प्रचार प्रसार किए।
उक्त महत्वपूर्ण ग्रंथों पुस्तकों के साथ इतिहास राजनीति समाज दर्शन एवं साहित्य में गुरु घासीदास के प्रदेय व्यक्तित्व व कृतित्व पर अनेक लेखकों विचारकों के आलेख से संगृहीत पत्र पत्रिकाएँ और स्मारिकाएं उपलब्ध हैं इन सबके आधार पर कई विश्वविद्यालयों में अनेक शोध प्रबंध उपलब्ध हैं ।जिसके प्रकाशन होने पर सतनाम धर्म- संस्कृति के वृहत् स्वरुप का दिग्दर्शन होंगे।
इस तरह देखा जाय तो गुरु घासीदास बाबा और उनके पुत्र द्वय गुरु अम्मरदास व राजा गुरु बालकदास ने १७९०-१८६० तक विशुद्ध छत्तीसगढ़ी में सिद्धान्त उपदेश अमृतवाणी मुक्तक बोध व दृष्टान्त कथाओं को रामत - रावटी में सत्संग प्रवचन पंथी नृत्य गान द्वारा जनमानस में विशिष्ट प्रयोजन खाकर जनकल्याणार्थ प्रस्तुत किए। वह वर्तमान में शिष्ट साहित्य के रुप में प्रतिष्ठापित हुआ। इस तरह गुरु घासीदास को शिष्ट साहित्य के उद्गाता कहे जा सकते हैं। अनेक विद्वान उन्हें छत्तीसगढ़ी का आदि कवि और लोक साहित्य और शिष्ट साहित्य का सेतु कहते हैं। और वे है ही।
जय सतनाम - जय छत्तीसगढ़ जय भारत
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डॉ- अनिल कुमार भतपहरी
ऊंजियार-सदन,सेन्ट जोसेफ टाउन आदर्श नगर अमलीडीह रायपुर छग
वृहद संग्रहणीय लेख भैया जी, छत्तीसगढ़ी भाषा संस्कृति बोली ऊपर शोधपरक विचार प्रेक्षण हेतु हार्दिक बधाई शुभकामनाएं
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