मंगलाचरण सर्वसमर्थ परमात्मा तू ही है नाथ , तू ही जगकर्ता और सब का आधार...
मंगलाचरण
सर्वसमर्थ परमात्मा तू ही है नाथ ,
तू ही जगकर्ता और सब का आधार है।
कण -कण तृण-तृण माहि है निवास तेरा ,
तीनों काल सत्य तू ही , मिथ्या संसार है।
घट-घट वासी प्रभु तू ही अविनाशीनाथ ,
दाता दयालु तू ही जगपालनहार है।
जगत का पालक तू, निराकार साकार ,
'कुसुमाकर' अनन्त , तेरी महिमा अपार है ।
१ तूही निरंकार
सन्त है वही जो साँस-साँस करे सुमिरन ,
दूसरों का दुःख पल माहि करे दूर है।
सन्त हर कर्मों से करके दया बचाता ,
क्षण में दिखाता प्रभु , जग मशहूर है।
ऐसे सन्तों से है प्यारा हरिको न और कोई ,
बनकर साकार हरि आता जरूर है।
हरि से अलग कभी सन्त रह सकते ना ,
'कुसुमाकर' मिलन ए कठिन जरूर है।१।
१ तू ही निरंकार
गुरुमुख गुरु का बचन पाले सदा यहाँ,
गुरु सिखों की तो बस यह ही निशानी है।
प्रभु इच्छा को ये हँस-हँस कर माने सदा,
हुकुम न टालें,बरु जाये जिन्दगानी है।
गुरुसिख को जो मिला 'एका' इसको सँभालें,
भावना दुई की निज मन से मिटानी है।
'कुसुमाकर' गुरु आज्ञा कभी भी न टालें सन्त,
गुरु बख्श देता इन्हें जिन्दगी लासानी है।२।
१ तू ही निरंकार
जिस परमेश्वर की खोज करे सारा जग,
प्रभु तो मिले न कभी जंगलों में जाने से।
दान-पुण्य जप- तप करने से मिले नहीं,
नहीं मिले अड़सठ तीर्थ नहाने से।
तन मन धन सन्त पद में चढ़ावे निज,
सेवा तो दे पर, परहेज करे पाने से।
सद्गुरु बड़ा है दयालु 'कुसुमाकर' ये,
देर न लगाये कभी पार पहुँचाने से।३।
१ तू ही निरंकार
हीरे -मोती धन के न पीछे तू दिवाना बन,
एक भी ए सच्चे नहीं,नहीं साथ जाना है।
हीरे -मोती सेभी सच्चे सुच्चे सन्त बोल मानो,
यह बोल ही तो अनमोल खजाना है।
मान तज, साधु पद जिसने है शीश धरा,
परवा न किया क्या ये कहता जमाना है।
धन्य-धन्य भाग उनके 'कुसुमाकर' जिन ने,
पाया सद्गुरु से ये नाम खजाना है।४।
१ तू ही निरंकार
दुनिया करे है जिस रब की तलाश यहाँ,
सुनो लोगों कहाँ पर करता निवास है।
रहता है चुपचाप सन्त दिलों में नित ,
सन्तों की रसना पे प्रभु करे वास है।
समय फिसल रहा हाथों से तिहारे बन्धु ,
कर लो जो काम तुम्हें करना ये खास है।
सन्त का बचन जो सम्हाले निज दिल माहि,
'कुसुमाकर' उसका तो निज घर वास है। ५।
तू ही निरंकार
सुनो -सुनो सज्जनों समय अनमोल मिला ,
प्रभु महिमा के गीत हम सब गाते हैं।
सद्गुरु से जान प्रभु , ध्यान करें इसका ही,
जो न सड़े, गले, जले ऐसी दात पाते हैं।
जिसके लिए है मिला नर तन दुनिया में ,
मिल सद्गुरु से वो काम निपटाते हैं।
चरण शरण जो भी आया 'कुसुमाकर' प्रभु ,
उसका तो गुरु आवागमन मिटाते हैं। ६ ।
१ तू ही निरंकार
पूरा गुरु कभी ना बताये पुण्य- दान करो ,
या फिर गंगा जमुना में करो अस्नान है।
नहीं यह पढ़ने के लिए कभी कहता है,,
वेद शास्त्र बाईबल अंजील कुरान है।.
पूरा गुरु कभी न बताये बनवास ध्यान ,
पूरा गुरु बताये एके की पहचान है ।
आला अदना है गुरु नजरों में एक -सा ही,,
'कुसुमाकर' एक- सा ही सब इनसान है। ७ |
१ तू ही निरंकार
घोर अन्धकार में न होता है उजाला कभी ,
जब तक दीप कोई जल नहीं जाता है।
कपड़ा भी मैला कभी साफ नहीं होता बन्धु ,
जब तक साबुन से धुल नहीं जाता है।
जब तक मंजिल की होवे पहचान नहीं,
तब तक जन कोई पहुंच न पाता है ।
'कुसुमाकर' यूँ ही ब्रह्मज्ञान दे के सद्गुरु,
अज्ञानी को ज्ञानी बना प्रभु से मिलाता है।८।
१ तू ही निरंकार
इस जग का है जो सामान सब झूठा ही है ,
यहीं सब रहना है, साथ नहीं जायेगा।
साधु संँग मिल जिन हरिनाम जान लिया ,
यह नाम ही तो तुझे पार पहुँचायेगा।
ज्ञान, बिना गुरु के न अब तक पाया कोई ,
बिना ज्ञान कोई भवपार नहीं जायेगा।
'कुसुमाकर' चक्र चौरासी लाख योनियों का,
केवल ज्ञान रब का ही इसको मिटायेगा।९।
१ तू ही निरंकार
दान-पुण्य ,पूजा -पाठ तीरथ- वरत करें,
चाहे पूरे जीवन ही कार्य करता रहे।
लाभ का समझ सौदा रात दिन इसी माहि ,
पड़ दण्ड सारी उम्र वह भरता रहे।
औरों की खातिर अपने ही सिर ऊपर वो,
लाख हूँ करोड़ों दुःखड़े जो सहता रहे।
पूरा मुर्शद मिले बिन , काम बने नहीं ,
'कुसुमाकर' भले राम - राम कहता रहे। १० I
१ तू ही निरंकार
कोई - कोई कहता है बीड़ी- सिगरेट पीना ,
पान औ' मसाला चुटकी का खाना पाप है।
कोई समझता है अण्डा माँस मीट- मछली,
खाना छूना और हाथ का लगाना पाप है।
कोई कहता है जूठा खाना औ' खिलाना पाप ,
मानव सम्मुख जा शीश झुकाना पाप है।
पाप-पुण्य माहि पड़ सारा जग फँस गया ,
प्रभु पहचाने 'कुसुमाकर' , वहीं आप है।११ ।
१ तू ही निरंकार
गुण तो है एक नहीं , पल्ले मेरे दाता सुनो ,
अवगुण के ही भरे हुये भण्डारे हैं।
चाल चलन भी न कुछ ठीक -ठाक रहा -
बदचलनी के लगे दाग ढेर सारे हैं'।
कंगाली में डूबा ,बदहाली में गुजारा करे ,
दुश्मन जमाना टूटे रिश्ते नाते सारे हैं।
करम- धरम 'कुसुमाकर' कुछ बने नहीं ,
चरण शरण दाता आ गये तिहारे हैं। १२ ।
१ तू ही निरंकार
कोई - कोई कहता है सुबह- सबेरे उठ ,
ठण्डे - ठण्डे जल में नहाना पुण्य काम है।
कोई कहता है जाके तीरथों में नित्य प्रति,
डुबकी लगाना औ'नहाना पुण्य काम है।
कोई - कोई कहे प्रात:काल उठ चिड़ियों को ,
दाना खिलाना जल पिलाना पुण्य काम है ।
शनि को चढ़ाना तेल 'कुसुमाकर' पुण्य नहीं ,
बस एक निरंकार ध्याना पुण्य काम है। १३ ।
१ तू ही निरंकार
''आओ आओ आ के इस रब का दरश करो' '
है यही पैगाम देता सभी इनसानों को।
मुर्शद है बना रहा मानव इस जग माहि ,
मुझ जैसे बिगड़े हुये इन हैवानों को।
पापी ,कपटी ,कुचाली ,मूरख, अनाड़ी. जन ,
बन गये इनसान तज बियाबानों को।
चिन्तायें भगाया , दिल -कमल खिलाया गुरु,
'कुसुमाकर' चुका सकते न एहसानों को। १४ ।
१ तू ही निरंकार
निरंकार को जो जान, करे गुणगान या को,
जनम-मरण में न फिर वह आता है।
उसका तो पार उतारा है , जो जाने इसे,
माँगे नहीं कोई लेखा , छुटकारा पाता है।
इसे जान खाना पीना , पहनना है सफल ,
'कुसुमाकर' दुःख-संताप छूट जाता है।
बिन गुरु कृपा ना नजर आये निरंकार ,
करे गुरु मेहर तुरत दिख जाता है । १५ ।
१तू ही निरंकार
नर तन तुमको दिया है प्रभु कृपा कर ,
बन्दगी बिहीन बन्दा नहीं इनसान है।
मानव शरीर पा के पशु के समान ही है ,
'गर उसे निज फर्ज की न पहचान है।
बन्दे वाला चोला पर कर्म हैवानियत का ,
वह है नादान नहीं , बल्कि शैतान है।
सफर खतम नहीं होगा.' कुसुमाकर' जौ लौं,
मंजिल की बन्दे को नहीं पहचान हैं। १६ ।
१तू ही निरंकार
इल्म सीखने के लिये अक्ल है जरूरी पर ,
मुमकिन नहीं है यह बिन उस्ताद के।
सारी पढ़ाई यदि कर्म में उतार लेवे,
सबक न बाकी रह जाये बिन याद के।
रोग दवा काटेगी मगर यह ध्यान रहे ,
जानलेवा होगी बिना वैद्य उस्ताद के।
'कुसुमाकर' रब मिलना है अति मुश्किल ,
होता नहीं आसां बिनु गुरु इमदाद के । १७ I
१ तू ही निरंकार
बिना ज्ञान जो भी जन यहाँ पूजा -पाठ करे ,
समझो अँधेरे माहि ठोकर ही खाना है।
जप, तप, संयम , नियम , व्रत जो भी करे,
वास्तव में वह अपना आप गलाना है।
दान , पुण्य , यज्ञ , हवन और स्नान करे ,
नित - नित दूरदेश तीरथों में जाना है।
अहम का रोग बढ़ा , अपनी उखाड़े जड़ ,
'कुसुमाकर' चाहे भला आ गुरु ठिकाना है। १८၊
१ तू ही निरंकार
एक ओर दुःख -दर्द दुनिया के ढेर सारे ,
एक ओर सुख के भरे भण्डार सारे हैं।
उस ओर देखो हैं विराजमान जग वाले ,
इस ओर देखो यहाँ प्रभुजी के प्यारे हैं।
उधर अँधेरे ही अँधेरे छाये हरदम ,
इस ओर देखो हर दर उजियारे हैं।
उस ओर रोना - धोना , ईर्ष्या औ' नफरत ,
इस ओर' कुसुमाकर' प्यार के नजारे हैं । १९।
१ तू ही निरंकार
रूप , रंग , रेख बिन , रहकर के भी जिन,
जगत में रूप, रंग किया बिस्तार है।
स्वयं अमूर्त होते हुये भी है जिसने ये ,
भाँति - भाँति का जहाँ में दे दिया आकार है I
आप है स्वयं अलख ,लखा नहीं जाये कहीं ,
पर दे दिया ये दृष्टमान संसार है।
आप निरंकार न्यारा, धरती नभ विस्तारा ,
'कुसुमाकर' स्वामी को नमन बारम्बार है।२०।
१ तू ही निरंकार
राम - राम कहो चाहे श्याम - श्याम कहो नित,
चाहे गॉड - गॉड कहकर के पुकारो तुम ।
अल्लाह-अल्लाह कह के बुलाओ भले , चाहे,
वाहि गुरु -वाहिगुरु कहि सत्कारो तुम ।
और किसी नाम से भी प्रभु को पुकारो चाहे ,
चाहे जो भी जी में आये जी भर उच्चारो तुम ।
'कुसुमाकर' रीझना है रब को कदापि नहीं ,
चाहे रात दिन बोल - बोल कर हारो तुम।२१।
१ तू ही निरंकार
जनम मरण और मरण जनम की ए ,
बन गयी रीति जा से बन्दा परेशान है।
फँसा जाल माहि मोह माया के विकट यह ,
किया नहीं रब सँग प्रीति तू, नादान है।
मिलना ए चाहता है करम धरम द्वारा ,
इससे न मिला , मिलने का न विधान है।
मरा नहीं 'कुसुमाकर' हो गया अमर वह ,
जिन सद्गुरु से की , रब पहचान है।२२।
१ तू ही निरंकार
अपनी खबर खोज लेता नहीं बन्दा यहाँ ,
औरों को भली भाँति वह समझाता है।
दुनिया में आ के निज जिन्दगी लगा दी दाँव,
बार-बार इस को वो हारता ही जाता है।
क्षमा करो नाथ यह आदमी है भूलनहार ,
चरण- शरण राखो ये तो भूल जाता है।
'कुसुमाकर' जो भी सद्गुरु की शरण आया ,
उसका तो लोक -परलोक सँंवर जाता है।२३।
१ तू ही निरंकार
कभी बन्दे तुमने बिचारा सोचा इस पे भी ,
किसने तुम्हें ये अति सुन्दर जवानी दी।
क्या कभी मन में तुम्हारे भी ए आया प्यारे ,
किसने कृपा कर तुझे चाल मस्तानी दी।
कभी ए बिचार किया अन्न, धन कौन दिया ,
खाने को ए फल ,फूल , पीने हेतु पानी दी।
मौज मस्ती में पड़ जनम गँवाओ नहीं ,
'कुसुमाकर' किसने ये हक निगरानी दी।२४।
१ तू ही निरंकार
पूरा सद्गुरु निज भक्तों का ख्याल करे ,
हर मुश्किल उनकी करे आसान है।
पूरे गुरु की मेहर भक्तों पे होती नित ,
सच पूछो तो यह इनका एहसान है।
गुरु है हमेशा निज भक्तों की झोली भरता ,
छोड़ा जिन भक्तों ने गर्व गुमान है।
आफत , विपद् , दुः ख , रोग , शोक 'कुसुमाकर'
इन सबका तो सद्गुरु ही निदान है। २५ ।
१ तू ही निरंकार
गफलत माहि पड़ बेबस लाचार फिरे ,
नष्ट करते हैं निज समय सुहाना ये।
गाफिल बन्दे ए सच समझ न पाते यहाँ,
समझ नहीं पाते वो जगत फसाना ये ।
गफलत कारण बन्दे ,सत्य ना तलाश सकें ,
'कुसुमाकर' झूठ मूठ करते बहाना ये ।
बिनु गुरु ज्ञान के बेकार जिन्दगानी होगी ,
कभी मिल पायेगा न असली ठिकाना ये। २६ ।
२ तू ही निरंकार
यदि मिल जाय साधु संगत तो मिट जाय ,
लगे हुये काले - काले दाग जन्म भर के ।
साधु सँग मिलते ही , जीवन सुधर जाय ,
झंकृत हो मन वीणा रागिनी से भर के।
साधु-सँग झट पट तीनों गुण दूर करे ,
जीवन को भर देवे रौशन ए करके।
साधु गुरु जलनिधि से अथाह 'कुसुमाकर',
भवजल पार करें निज कृपा करके। २७ ।
१ तू ही निरंकार
आशा नहीं रखना तू माया और बन्दों पर ,
यह सब मारग के तेरे व्यवधान हैं।
आशा न सम्बन्धों पर , करना न धन्धों पर ,
इनमें पड़ा जो हुआ अति परेशान है।
बुद्धि बल , सूझबूझ , बेटा-बेटी ,धन - जन,
इन को कभी ना तू समझ निज शान है।
'कुसुमाकर' एक आश रब की हमेशा रखो,
ऐसे सद्गुरु पर रहो कुर्बान है। २८ ।
१ तू ही निरंकार
भगत का पिण्ड प्राण सद्गुरु जानो यारो ,
एक इस माहि बस हरदम ध्यान हो।
मिले जो बड़ाई तो निमाना बन रहे सदा,
रत्ती भर भी न कहीं मन माहि मान हो।
बचन गुरू का धन , प्यार है गुरु का मूल ,
खुशी और गमी पर तनिक न ध्यान हो।
पल-पल, हरि - हरि बोले 'कुसुमाकर' औ',
दुनिया के भोग भोगे गुरु वरदान हो। २९ ।
१ तू ही निरंकार
सुख शान्ति चाहते हो , पर जानते ही नहीं ,
.सुख है क्या? किस वस्तु का यह नाम है?
डरे सहमे से रहते हो जिससे तू सदा,
दुःख है क्या? और किस चीज का ए नाम है'၊
हर शै के भूखे बन्दे , सोचा कभी तुमने ये ,
भूख है ए क्या, तुम्हें देती क्या पैगाम है।
'कुसुमाकर' हर इक इच्छा जो पूरी करे ,
ढूँढ़ो वह जिसका कि कल्पवृक्ष नाम है।३०।
१ तू ही निरंकार
परम दयालु सद्गुरु की कृपा है भारी ,
जो तूने प्यारे यह जीवनदान पाया है।
सद्गुरु की ही है किरपा जो कि आज तुम ,
जग माहि रहकर रब जान पाया है ।
सद्गुरु ने कृपा कर तुझे यह ठाँव दिया ,
इससे ही नाम धन तूने यह पाया है।
'कुसुमाकर 'धन्य सन्त धन्य-धन्य सद्गुरु ,
सबसे ऊँची दात दे, तुझे अपनाया है I ३१ ।
१ तू ही निरंकार
चाहे कोई नृपति हो चाहे सरदार यहाँ ,
हर कोई दुःख पाता , दुःख सहता भी है।
रमे राम को जहाँ में जो भी जान लेता प्यारे ,
वह सदा सुख पाता, सुखी रहता भी है।
जिस मार्ग पर तुझे अन्त है अकेले जाना ,
कभी उसकी भी खोज में क्या रहता भी है?
'कुसुमाकर' धन्य सद्गुरु रब मिलाया जाने- ,
यही निरंकार साथ रहे , रहता भी है। ३२ ।
१ तूही निरंकार
निरंकार नजर न आये कभी बन्दे को ,
छ्ल, छ्द्म, चालाकी, चतुराई दिखाने से।
प्रभु कभी नजर न आये लाख कर्म किये ,
ऊँची - ऊँची ए शिक्षायें पढ़ने -पढ़ाने से।
कर्म धर्म-करने या तीरथ नहाने से भी ,
हरिदृष्टि आये नहीं बाँग के लगाने से ।
कृपा करें सन्तजन , 'कुसुमाकर' प्रभु मिले ,
पूरे सद्गुरु की चरण-शरण आने से। ३३ ।
१ तू ही निरंकार
दातों सँग प्रीति लगा व्यस्त रहे रात दिन,
पर एकदम भूल गये दातार को।
आज फूले-फूले फिर रहे हो जहान माहि ,
अन्त छोड़ जाना पड़े सारे विस्तार को।
सँगी साथी, सगे - सम्बन्धी , कोई साथ न दें,
भूल जाओ बन्दे इन मतलबी यार को।
'कुसुमाकर' कष्ट पड़े होंगे दरकिनार सभी ,
याद रखो सच्चे साथी सद्गुरु निरंकार को।३४।
१ तू ही निरंकार
जंगलों में जाये भूखा रहे कुछ न खाये औ' ,
तन को सुखाये पर चैन नहीं पाता है।
मनमानी कर रहा , मूर्ख बन बिचर रहा ,
हीरा ए जनम यूँ ही व्यर्थ गँवाता है।
पाँच नमाजें अदा करें बमशक्कत और ,.
कमजोर तन को ए अधिक सुखाता है।
'कुसुमाकर' बन्दा बना प्रभु पहचान हित ,
बिना रब जाने बन्दगी भी दुःखदाता है। ३५ ।
१ तू ही निरंकार
चक्कर में पड़ कर्म - धर्म के अनाड़ी बन्धु ,
अपना अमोलक समय क्यूँ गँवाता है।
मुक्ति की ये युक्ति नहीं है जिसे अपनाया है ,
चौरासी के फन्दे में क्यूँ बार-बार जाता है।
गले के ये बन्धन ऐसे कट नहीं सकते हैं,
जब तक हरिज्ञान मिल नहीं जाता है।
'कुसुमाकर' समय के सद्गुरु शरण आओ ,
तुमको आवाज दे रहीं ए गुरु माता हैं। ३६ ।
१ तू ही निरंकार
सँगी- साथी बेटे -बेटी मतलब के यार हैं ,
सिर्फ सद्गुरु ही हमारा गम ख्वार है।
दुनिया के सारे रिश्ते स्वारथ भरे हैं पर,
एकमात्र सद्गुरु सच्चा रिश्तेदार है।
धन -दौलत ढलती छाया है जहान माहि,
अचल अटल एकमात्र ए दातार है।
'कुसुमाकर' जग के सहारे सारे झूठे ही हैं,
सच्चा एकमात्र सद्गुरु करतार है।३७।
१ तू ही निरंकार
उन बन्दों से तो हैं पशु ही यहाँ पर अच्छे ,
जिनके कि अन्दर है बन्दे वाली बात ना।
ऐसे बन्दों से तो हैं जग के परिन्दे अच्छे ,
करते यहाँ जो कभी कोई उत्पात ना।
पशुओं की खाल भी अनेक काम आती सदा,
किसी का करें भला ,बन्दों की औकात ना l
'कुसुमाकर'प्रभु पहचान से ही नर बड़ा,
वर्ना पशु मनुज में अन्तर दिखात ना। ३८।
१ तू ही निरंकार
जिसके लिए तू पाप कर्म कमाता प्यारे,
तेरा कोई सखा नहीं, ना कोई सहेली है।
खायेंगे तो सभी मिलि भाई-बन्धु यार - दोस्त ,
लेखा देने जाये तेरी रूह ये अकेली है।
कर-कर पाप , माया जोड़े यहाँ लाखों पर ,
साथ नहीं जानी तेरे एकहूँ अधेली है।
सद्गुरु शरण आजा 'कुसुमाकर'रब पा ले ,
फिर यह माया तेरी बन जाये चेली है। ३९ ।
१ तू ही निरंकार
मन माहि लगी है जो आग वो बुझेगी नहीं ,
चाहे भले लाख हूँ ए वेश बदलाये जा ।
अन्तकाल तुझे तेरे कर्म ही न छोड़ेंगे ये,
चाहे जितने भी यहाँ जोर तू लगाये जा ।
स्वर्ग नरक की ए तुमको करायेंगे सैर ,
बचने की कोशिश भले ही तू कराये जा ।
'कुसुमाकर' एकमात्र सद्गुरु बचाये तुम्हें ,
'गर अहंकार तज शरण में आये जा । ४० ।
१ तू ही निरंकार
जो है साक्षात् निरंकार को बताता यहाँ,
वह ही तो प्यारे सद्गुरु कहलाता है।
भक्तों की अपने है करता हिफाजत औ,
नाम नौका से भव जलपार लगाता है।
सद्गुरु निज भक्तों पे करता इनायत है ,
दिल शीशे जैसा उनका साफ बनाता है।
माया और विषयों से उनको बचाता सदा ,
'कुसुमाकर' मौत का बन्धन छुड़ाता है। ४१ ।
१ तू ही निरंकार
साधु सँग करने से जग माहि प्यारे भाई ,
मन की जो भटकन है वो चली जायेगी।
साधु सँग के प्रभाव से ही इस जग माहि ,
सन्तजनों के दिल माहि मस्ती छायेगी।
साधु संग करने से हरि जान जाये झट ,
रूह रानी हरि सँग मौज ही मनायेगी।
साधु सँग करने से आठों याम मसरूर ,
रहे, 'कुसुमाकर' ईद दिवाली मनायेगी। ४२ ।
१ तू ही निरंकार
साधु का जो सँग इस जग माहि कर लेवे,
उसका तो चेहरा तुरत पुर नूर हो।
साधु सँग मिलते ही दुःख औ'गरीबी भागे ,
मैल दिलों के जो हैं वह सारे दूर हों।
साधु सँग करने से बन्दा खुशहाल होवे ,
मिट जाये सारे उसके मान गुरूर हो।
साधु सँग करने से फूलेगा फलेगा नित ,
'कुसुमाकर' अमृतरस पीये भरपूर हो। ४३ ।
१ तू ही निरंकार
गुरुमुख और मनमुख में है भेद भारी ,
कभी भी न उनमें हो सकता ए मेल है।
दोनों की है राह जुदा मिलना असंभव है,
घुल नहीं पावे जैसे पानी और तेल है।
एक तारता है , दूजा सदा ही डुबाता यहाँ,
यह तो विचित्र अति प्रभुजी का खेल है।
गुरुमुख सदा गुरु गोदी माहि केलि करे ,
'कुसुमाकर'यम डाले दूजे को नकेल है।४४।
१ तू ही निरंकार
जगत के मायाजाल में फँसा है बन्दा यहाँ ,
पल-पल होकर के फिरता हैरान है।
बैर विरोध निन्दा नफरत माहि फँस ,
दुःखी संतप्त सारा जग परेशान है।
झूठी यह दुनिया है, झूठी है ये माया सारी ,
साधु सज्जनों का सँग किये कल्यान है।
'कुसुमाकर'सद्गुरु चरण शरण आये ,
लगे भव सिंधु पार बिन जलयान है।४५।
१ तू ही निरंकार
धनवानों के हैं पीछे, प्यारे इस दुनिया में,
जैसे लगे रहते हमेशा यहाँ चोर हैं।
वैसे ही ए निन्दक पड़ सन्तजनों के पीछे ,
निन्दा नफरत औ' मचाते नित शोर हैं।
निन्दा , तोहमत,ताने निसदिन सन्त सुनें ,
पर इन सबसे रहें सदा बेगौर हैं।
गुरु की कृपा से सन्तजनों की महफिल में ,
'कुसुमाकर' चलते रहे हक के दौर हैं।४६।
१ तू ही निरंकार
तेरे ही सहारे प्रभु काम सब करूँ यहाँ ,
तुझको प्रणाम सद्गुरु बारम्बार है।
जगत के हित हेतु बनता साकार पर ,
तुम ही तो मेरे दाता नित निरंकार है।
कभी अवतार कभी बना गुरु बचन तू ,
कभी हरदेव बन किया उद्धार है।
'कुसुमाकर' जो भी तेरी शरण में आया वह ,
कृपा से तुम्हारी हुआभव जलपार है। ४७ ।
१ तू ही निरंकार
आज दुनिया में थोथेकर्म कमायें सभी ,
लाभ नहीं कुछ सिर्फ पानी का बिलोना है।
मक्खन तो दूध से ही मिलता हमेशा बन्धु ,
मथानी का काम सिर्फ मथना बिलोना है।
जो कुछ दिखाई दे रहा है , सब नश्वर है,
यह जग सारा चार दिन का खिलौना है।
'कुसुमाकर' मानव जन्म मिलना है मुश्किल,
यह सीढ़ी अन्तिम है, फिसला तो खोना है।४८।
१ तू ही निरंकार
सद्गुरु का है सर्वप्रिय वह सेवक जो ,
निसदिन पाले सदा पाँच इकरार को।
प्यारा सेवक सद्गुरु का है वही जो कि नित ,
रह के निमाना काम करे सेवादार को।
सद्गुरु को है वही भक्त सदा प्यारा जो कि ,
भूले नहीं सन्त सद्गुरु सत्कार को I
'कुसुमाकर' प्यारा वही सन्त सद्गुरु हित ,
तृण सम समझे जो इस संसार को। ४९ ।
१ तू ही निरंकार
पूजा पाठ दुनिया में करना भी बिना ज्ञान ,
घनघोर तम माहि ठोकर ही खाना है।
जप, तप करना , नियम , व्रत , संयम भी ,
अपने आप को ही समझो गलाना है।
दान -पुण्य करना , हवन , यज्ञ ढेर सारे ,
तीरथों में जा-जा नित मगज खपाना है ।
बिना गुरु ज्ञान के उद्धार नहीं होना यहाँ ,
'कुसुमाकर' जीवन अकारथ गँवाना है। ५० ।
१ तू ही निरंकार
बहमों भ्रमों में आज डूबा हुआ आलम है ,
पढ़ने औ' लिखने पे जोर ए लगाते हैं।
लिखा हुआ जो भी है , उस पर न ध्यान धरें ,
बैठे ठाले लोग यूँ ही मगज खपाते हैं।
अपने ही हाथों लोग, जड़ें है उखाड़ रहे,
अहम् का रोग रोज- रोज ही बढ़ाते हैं।
बिन सद्गुरु छूटे बहम व भ्रम नहीं ,
'कुसुमाकर'ज्ञान पाके खुशियाँ मनाते हैं।५१।
१ तू ही निरंकार
जैसे बिना परहेज किये ये दवायें सारी,
पूरा असर अपना दिखला न पाती हैं।
जब तक कर्म निज हाथ से करे न कोई,
तब तक कोई बात बन नहीं पाती है।
मनमाहि 'गर सतकार की न भावना हो ,
सन्त की चरण रज मिल नहीं पाती है।
गुरु पर विश्वास बिनु 'कुसुमाकर' नहीं ,
तन तरणी ये भव पार तर पाती है। ५२ |
१ तू ही निरंकार
गुरु पद पंकज पवित्र अति जग माहि,
चूम ले जो वह भी पवित्र बन जाता है।
सबसे है ऊँची गुरु पूजा इस जगत में ,
जो भी गुरु पूजा करे ऊँचा बन जाता है।
इसका दर्शन और दर्शक दोनों ही सच्चे ,
सच्चा है वह भी जो कि ध्यान धर पाता है।
आप सच्चाई, नेकी आप ही है 'कुसुमाकर' ,
मुक्त हुआ वही जो कि शरण आ जाता है। ५३ ।
१ तू ही निरंकार
सेवक है वही जो कि नित सेवकाई करे,
मालिक की हर आज्ञा पूरी कर लाता है।
मालिक के साथ-साथ जगत की सेवा करे ,
समझो वो सच्चा सेवक धर्म निभाता है।
सेवक वही जो सब नेकी से भरा हो और,
बदियों से उसका न दूर का भी नाता हो।
सेवक वही है 'कुसुमाकर' जो मालिक का ,
नाम लेवे ,याद करे , प्रभु को सुहाता है। ५४।
१ तू ही निरंकार
गुरु महिमा का गान करने से जग माहि,
झगड़े जमाने के सब हो जाते दूर हैं।
गुरु महिमा का गान करता जो बन्दा यहाँ,
चेहरा तो उसका हो जाता पुरनूर है।
महिमा के गाये यहाँ सर्व सुख पाये नाथ ,
शरण हैं आये अब करना न दूर है।
तेरी दया दृष्टि पाकर, खुश है'कुसुमाकर',
पापियों का राजा जग माहि मशहूर है।५५।
१ तू ही निरंकार
माँगते बड़ाईअपने ही आप जग माहि,
और इस भाँति चाहता है मान पाना वो।
निन्दा नफरत वैर और विरोध माहि,
रह कर चाहते हैं पाक कहलाना वो।
मक्का काशी जा-जा पापी दिल चाहते हैं धोना,
दान-पुण्य कर चाहें निष्पाप कहाना वो।
'कुसुमाकर'अब भी न गुरु शरण आया 'गर,
पड़ेगा जरूर अन्त काल पछताना वो।५६।
१ तू ही निरंकार
गुरु सिख और सद्गुरु में न भेद कोई ,
धन्य हैं वे, जिन्होंने यह प्रीति निभाई है।
धन्य गुरु सिख वे जो तन मन अर्पण कर,
सन्त गुरु चरणों में जिन खुदी मिटाई है।
गुरु सिख रूप सद्गुरु के ही होते नित,
थकते न गुरु की ये करते बड़ाई है।
सब तज जपते हैं श्वाँस-श्वाँस हरि नाम,
'कुसुमाकर' यही एक युक्ति अपनाई है।५७।
१ तू ही निरंकार
तन मन धन बाल बच्चे सभी नश्वर हैं,
इस जग माहि सदा रह नहीं पायेंगे।
बन्दे अंहकार अभिमान से भरे जो यहाँ ,
फानी हैं जहाँ से एक दिन चले जायेंगे।
रथ घोड़े हाथी अच्छे वस्त्र अस्त्र शस्त्र सभी ,
बन्धु नाशवान हैं ये बच नहीं पायेंगे।
साधु जन मिल जिन रब पहचान लिया ,
'कुसुमाकर' मौत बाद जिन्दा रह जायेंगे।५८।
१ तू ही निरंकार
धैर्य और सत्यता का चोला करे धारण जो ,
और एक मात्र प्रभु तेरा ही सहारा हो।
साधु रह दुनिया में विचरण करें नित ,
जल में कमल की तरह ही जो न्यारा हो।
तेरे अन्दर खाये पीये ,अन्दर निवास करे ,
गंगाजल सा-पवित्र सबका ही प्यारा हो।
ऊँचा होकर नीचा माने , मान न दानाई का ,
सम दृष्टि राखे सबकी आँखों का तारा हो।५९।
१ तू ही निरंकार
घर के मालिक बिना जैसे घर सूना लगे ,
तन और मन में तनिक चैन आये ना।
गुरुदर्शन गुरु सिख के लिए है ज्योति ,
गुरुदर्शन बिन तनिक सुहाये ना ।
प्यासे को पानी बिना और भूखे को रोटी बिना ,
विरह के मारे को किसी की बात भाये ना।
काले घन देख मोर, सुहागन पति देख,
नाचे मन 'कुसुमाकर' कोई रोक पाये ना।६०।
१ तू ही निरंकार
अन्धा सुन भी ले यदि रास्ता किसी से कहीं- ,
पर उस रास्ते पर जा तो नहीं पाता है।
जब तक रहबर हाथ नहीं थामे वह ,
मंजिल के पास भी पहुँच नहीं पाता है।
लाख हूँ बताये कोई बहरा न नाम सुने ,
मनमुख नाम से वञ्चित रह जाता है।
गूँगा तेरी महिमा 'कुसुमाकर' भला कैसे गाये,
जिस पे कृपा हो तेरी वही ज्ञान पाता है।६१।
१ तू ही निरंकार
लाख हूँ भुजायें होवें , चाहे हों करोड़ों सिर ,
किसी भी तरह नहीं मिले छुटकारा है।
नाम ही लिये जा ,श्री नाम ही जपे जा भाई,
नाम के बिना तो नहीं पार उतारा है।
एक नहीं सैकड़ों ही संकट हों राह घेरे ,
याद प्रभु की आ झट सबसे उबारा है।
दिल की न मैल जाये तीरथ में तन धोये,
'कुसुमाकर' गुरु का हो , पाप छुटकारा है।६२।
१ तू ही निरंकार
लाख हूँ करोड़ों लोग करते तपस्या यहाँ,
लाख हूँ हैं करते मोहब्बत और प्यार है।
लाखों तुम्हारी पूजा और इबादत करें ,
पढ़ें धर्म ग्रन्थ लाखों करें जै जैकार है ।
लाख हूँ उदासी बन वन माहि योग करें,
और पाहन प्रतिमा का करें सत्कार है।
लाख हूँ हैं तेरे उपकार 'कुसुमाकर' दाता,
जान भी तो तेरी ही है क्या करूँ निसार है।६३।
१ तू ही निरंकार
बेशुमार नाम तेरे दाता इस दुनिया में ,
और बेशुमार प्रभुवर तेरे स्थान हैं।
सोच भी जहाँ पे कभी पहुँच न पाये प्रभु,
लाख हूँ करोड़ों और ऐसे ही जहान हैं।
हरफों की हेराफेरी हरफों का खेल सब,
हरफों से बोल लिख करे गुणगान है।
होंगे लाखों दाता 'कुसुमाकर' न तुझ सा देखा ,
बिना पूरे गुरु कोई सके न पहचान है।६४।
१ तू ही निरंकार
सद्गुरु का सबसे प्यारा सेवक वही है बन्धु ,
जो सदा पाले गुरु के पाँच इकरार है।
सद्गुरु को प्राण से अधिक प्रिय वह शिष्य ,
बन के निमाना करे कर्म सेवादार है।
सद्गुरु की मेहर हमेशा रहे सेवक पे,
सन्त सज्जनों का जो कि करे सत्कार है।
.सद्गुरु को प्यारा सेवक 'कुसुमाकर' वह ही है,
गुरु और संगत से करता जो प्यार है। ६५।
१तू ही तिरंकार
गुणों का तुम्हारे मोल नहीं है परम प्रभु ,
अनमोल तेरे ए भरे हुये भण्डार हैं।
अनमोल ग्राहक तुम्हारे सब दाता ये हैं ,
अनमोल ही ए तेरा सारा व्योपार है।
ब्रह्मा , विष्णु शिव इन्द्र तेरा ही सुयश गायें ,
महिमा का तेरे कोई पाया नहीं पार है।
तू तो है बेअन्त स्वामी महिमा क्या गाये कोई ,
साधु मिले 'कुसुमाकर' लगे बेड़ा पार है।६६।
१ तू ही निरंकार
आप ही तू जानेदाता इस ब्रह्माण्ड बीच ,
सबको तू नित दात देत ही रहत है।
यह बात और है कि दात लेते सब लोग,
पर निज मुख कोई - कोई ही कहत है।
वही मिलता है सारे जग को जो चाहता तू ,
कहता जो मिलता है , मिले जो कहत है।
कायम दायम पाक निरंकार 'कुसुमाकर'
चरण शरण सद्गुरु की चहत है।६७।
१ तू ही निरंकार
कई-कई लोग समझते हैं कि श्वाँसचढ़ा,
होके एक चित्त ध्यान लगाना ही भक्ति है ।
कई - कई समझते घर दर तज कर,
वनों में निवास करना ही सद्भक्ति है।
कोई तीरथों में जा नहाना कहे भक्ति ,कोई,
ढोलक चिमटा बजाना औ' गाना भक्ति है।
कोई मीठे सुर में ही गाने को भक्ति माने ,
पर 'कुसुमाकर'प्रभु पाना मात्र भक्ति है।६८I
१ तू ही निरंकार
ईश्वर का मार्ग पूछते हैं लोग यहाँ आज ,
पत्थरों से ढेलों से और इनईंट गारों से।
मन्दिरों से ,मस्जिदों से, मढ़ी औ' मसानों से ,
चिमटों से , ढोलकों से , घण्टों की टंकारों से I
गंगा जमुना से पूछें अन्य दरियाओं से भी ,
चढ़ती ढलती छाओं , ईंट की दीवारों से।
पूछ रहे पेड़ों -पौधों से और बियाबानों से ,
पूछ रहे, 'कुसुमाकर' नदी की कगारों से।६९।
१ तू ही निरंकार
जैसे बिन परहेज किये ये दवायें सारी ,
अपना असर पूरा दिखला न पाती हैं I
जब तक कर्म निज हाथ से करे न कोई,
तब तक कोई बात बन नहीं पाती है।
मन माहि 'गर सत्कार की न भावना हो ,
सन्त की चरण रज मिल नहीं पाती है।
गुरु पर विश्वास बिन 'कुसुमाकर' नहीं ,
तन-तरणी भव पार लग पाती है।७०।
१ तू ही निरंकार
पूर्ण सद्गुरु की शरण ले तू प्यारे मन ,
इसमें भलाई तेरी ,नहीं कोई हानी है।
तन मन धन सब ,कर गुरु अर्पण औ' ,
तज दे सँग मन्दों का जासों परेशानी है।
गुरु की कृपा से यदि निरंकार जान लिया ,
और 'कुसुमाकर' या की शान पहचानी है ।
तीन लोक का है स्वामी बन जाता सन्त वही,
मेरे भाई ,जो भी यहाँ पर ब्रह्मज्ञानी है।७१।
१ तू ही निरंकार
पूर्ण सद्गुरु की चरण शरण आया जो भी ,
उसको तो सारी बिगड़ी ही बन जायेगी।
ऐसे जन के संग से है दिलों में आता चैन ,
और दर्शन से सुशान्ति घर आयेगी।
चाहे जो भलाई ऐसी संगत तू कर प्यारे,
इन्हीं से तुम्हारी नैया पार लग जायेगी।
सद्गुरु कृपा कटाक्ष मात्र 'कुसुमाकर' ,
तुझे प्यारे क्षण में ही मुक्ति मिल जायेगी।७२।
१ तू ही निरंकार
.निरंकार को नहीं जो मानता जहान माहि ,
वह ही तो जगत में नास्तिक कहाता है।
हरि नाम हीन बन्दे गन्दे और मन्दे हैं ,
पत्थर -सा बोझ बन रहते धरा का हैं I
जन्म अकारथ जिनको याद नहीं हरि की,
सूखे जीवन-खेती अभाव जो दया का है।
मन में बसा हो रब 'कुसुमाकर'जिसके भी ,
महिमा उसी की साराजग भी उसी का है।७३।
१ तू ही निरंकार
तेरे ही इशारे पे बनाये सारा आलम है ,
तेरे ही इशारे फूटे जल के ए धारे हैं।
सोच विचार करूँ तेरी कहाँ हिम्मत मेरी ,
तेरी ही दात है ए तुझ पर ही वारे हैं।
दिल में न शक्ति' इतनी जान निसार करूँ ,
यह जीवन भी नाथ तेरे ही सहारे है।
वही काम ठीक है जो तुम को मंजूर हो वे ,
सद्गुरु 'कुसुमाकर'तेरे ही सहारे है।७४।
१ तू ही निरंकार
किसकी कला की रचना है यह सारा जग,
कौन कलाकार इसका बनाने वाला है।
आप ही आप है सब कुछ आप जगमाहि,
पर रहता है खुद हर शै से बाला है।
कदऔर बुत कोई नहीं , इसका है और ,
ना तो यह गोरा ही है और न ही काला है।
वचन के ताले में छिपा है 'कुसुमाकर' राज ,
ले कुंजी जो ताला खोले वो किस्मत वाला है।७५।
१ तू ही निरंकार
सूरत अँधेरे में ही करती निवास सदा ,
जब तक रब का ए नूर नहीं होता है।
यूँ तो हर पल ही उजाला रहे साथ यहाँ ,
इक पल हमसे ए दूर नहीं होता है।
लाख दान - पुण्य कर ले, चाहे नहा ले तीर्थ ,
रब मिले बिन दुःख दूर नहीं होता है।
हर गुरु सद्गुरु होता नहीं 'कुसुमाकर',
बिना सद्गुरु भ्रम दूर नहीं होता है।७६।
१ तू ही निरंकार
मैं बलिहारी जाऊँ ऐसे गुर सिखों पे जिन ,
गुरु चरणों में सच्ची प्रीति निभाई है।
बलिहारी जाऊँ जिन तन मन अर्पण ,
गुरु पदमाहि निजखुदी ही मिटाई है ।
धन्य-धन्य गुरुसिख जो कि गुरु रूप होते ,
सारे ही जगत के वे बनते सहाई हैं।
धन सद्गुरु धन गुरु सिख 'कुसुमाकर' ,
जिनकी कृपा ने आवागमन मिटाई है।७७।
१ तू ही निरंकार
पूर्ण योग्य सद्गुरु मिल जाये जग माहि,
खतम करे वह झट राही की राह को।
पूर्ण योग्य सद्गुरु भक्त का बदल दे भाग्य ,
पूरी कर देवे झट हर इक चाह को।
कितना ही पापी हो वे, चोर उचक्का भले ,
सद्मार्ग दिखलाये हर गुमराह को।
पूरा सद्गुरु भ्रम भ्रान्ति भगाये और ,
पल में बदल देवे शिष्य की निगाह को।७८।
१ तू ही निरंकार
पूरा सद्गुरु जिसे मिल गया जगमाहि,
मिटा उसका ए जन्म जन्मों का लेखा है।
तनिक - सी पगधूूली जिनमस्तक धारे ,
उनकी तो बदल गई मस्तक रेखा है।
सदगुरु मिलते ही मन माहि चैन आया ,
'कुसुमाकर' मिटा सब भरम भुलेखा है।
बेड़ा हुआ पार जिन प्रभु पहचान लिया ,
जग माहि उसने ही सुख शान्ति देखा है।७९।
१ तू ही निरंकार
बड़ा ही कृपालु है दयालु दयासागर है ,
करता जो नित निज भक्तों से प्यार है।
पापी अघी जितने कुकर्मी थे जग माहि,
सबको पवित्र कर किया भवपार है।
तन मन धन सब तेरी दी है दात दाता,
'कुसुमाकर' इक तूही जगत अधार है।
शरण तुम्हारी आया ,दया करो दीनानाथ ,
धन धन सद्गुरु धन निरंकार है ।८०।
१ तू ही निरंकार
गुरु की जरूरत है पड़ती अवश्य यहाँ,
किसी भी कला को और कारीगरी पाने को।
गुरु की जरूरत अवश्य पड़ती है बन्धु ,
हर एक विद्या को पढ़ने औ' पढ़ाने को।
दुनिया के हर काम करने के लिये यहाँ ,
गुरु की जरूरत है पड़ती जमाने को।
बिन गुरु समझ न आये परमार्थ - पथ,
'कुसुमाकर'सद्गुरु जरूरी ज्ञान पाने कोl८१।
१ तू ही निरंकार
मानव जनम को सफल करने के लिए ,
यहाँ लोग दान - पुण्य स्नान आदि करते।
पूजा-पाठ, जप - तप , कर - कर लोग यहाँ ,
देश सेवा जनसेवा का हैं मान करते।
कोई सोचे बन्दे की सेवा करना उत्तम है,
अच्छी बातें' , काम भले निस दिन करते।
भला है क्या बुरा है क्या, 'कुसुमाकर' जाने नहीं ,
मूर्ख जन सदज्ञान ग्रहण न करते I८२।
१ तू ही निरंकार
माया के फन्दा फँस बन्दा हैरान फिरे ,
निन्दा , वैर , नफरत से न बच पाता है।
झूठी है ये दुनिया औ' , दुनिया की माया झूठी ,
इसी में पड़ा ये बन्दा सत्य भूल जाता है।
सन्त सद्गुरू से जो सत्य पहचान लेवे ,
चौरासी में जाने से वो साफ बच जाता है।
'कुसुमाकर' तेरा सद्गुरु ही हितैषी सच्चा ,
सच्चा रिश्तेदार यही पिता और माता है ।८३।
१ तू ही निरंकार
चाहे गंगा जमुना मंदाकिनी नहाये कोई ,
पाप धुल जाते 'गर डुबकी लगाने से।
तब तो मेढक मछली कछुआ ये जलजीव ,
कोई भी न बच पाता सीधे स्वर्ग जाने से ।
सपने में दिया दान , दान नहीं होता बन्धु ,
मन की न मैल धुले , लाभ क्या नहाने से।
सन्त सेवा सम कोई दुनिया में कर्म नहीं ,
'कुसुमाकर'ज्ञान ऊँचा सारे ही जमाने से ।८४।
१ तू ही निरंकार
कभी तू ने सोचा बन्दे जगत में आया क्यूँ है ?
कर्मों की नीति क्या है, यहाँ पे जमाने से।
सिर पर भार क्या है? स्वर्ग नरक क्या है?
रूह है क्या निरंकार क्या है ये जमाने से।
काम क्रोध लोभ मोह और अहंकार क्या है?
हासिल क्या होता , तप योग आजमाने से।
ब्रह्म कौन? माया क्या है? समझ न आये कछु,
'कुसुमाकर' भेद मिले गुरु शरण आने से।८५।
१ तू ही निरंकार
दिन रात मानव जो, अपनी जुबां से यहाँ ,
तूही इक तूही जो निरंकार कहता।
वह हर संकट विकट दुख सुख माहि ,
इसी प्रभु निरंकार के सहारे रहता।
सद्गुरु भक्ति करे,गीत वो हरी के गाये ,
रब वाके दिल में, वो रब माहि रहता।
हरदम शुक्र करे'. 'कुसुमाकर' रब का ये ,
खुशहाली में हो या कि तंगी माहि रहता।८६।
१ तू ही निरंकार
खेती किसकी है यह सूरज बिचारे नहीं,
धूप इक सी ही वह देता हर एक को।
रूप हो कुरूप हो या कोई अति घृणित हो ,
देता चाँदनी समान तजता न टेक को।
पानी ऊँच -नीच कभी देखता न 'कुसुमाकर' ,
प्यास बुझाता एक साथ ही अनेक को।
सद्गुरु ऊँच-नीच छोटा-बड़ा देखे नहीं,
बख्श देता सब को तजे न निज टेक को।८७।
१ तू ही निरंकार
यदि तेरी कृपा की कटाक्ष मिल जाय प्रभु ,
मूरख भी यहाँ विद्वान बन जाता है।
जिसको चरण धूलि हो जाये नसीब नाथ ,
सारे ही जहान में महान बन जाता है।
तज अहंकार मान , शरण में आता जो भी ,
रब का दरश पाता दुःख मिट जाता है।
'कुसुमाकर' चरण शरण आया तेरी प्रभु,
तुम्हीं भाई बन्धु मित्र तुम्हीं पिता माता है।८८।
१ तू ही निरंकार
जिसे इस ईश का सहारा मिल जाय बन्धु ,
जगत में काम उसका न रुक पाता है।
आधि व्याधि होवे या उपाधि कोई आवे पर,
सुजन के सामने न कोई टिक पाता है।
काम कोई रुके नहीं इन हरि भक्तों का,
प्रभु खुद आ के सब काम निपटाता है।
जिसका न कोई 'कुसुमाकर' मददगार ,
उसकी स्वयं ये इमदाद कर जाता है ।८९।
१ तू ही निरंकार
स्वामी यदि जगत का याद रहे मानव को ,
उसे कोई गम भी न देता कोई गमी है।
यदि जगपति की हमेशा याद बनी रहे ,
फिर उसे रहती कोई भी नहीं कमी है।
जगपति याद रहे तो हो हर कार्य पूर्ण ,
आँखों में किसी के कभी रहे नहीं नमी है।
मालिक जो याद रहे कायर भी सूरा बने ,
'कुसुमाकर'ज्ञान बिना होती याद कमी है।९०।
१ तू ही निरंकार
सद्गुरु की कृपा से जुड़ जाये जो मनुष्य ,
उसको कभी भी कोई कमी नहीं आती है।
अन्दर बाहर एक सा ही, परम पवित्र,
कोई भी बुराई पास फटक न पाती है।
रब का जो भेद सन्त सद्गुरु से प्राप्त करे,
यह सारी दुनिया ही उसकी हो जाती है।
रोम-रोम रमा रहे, श्वाँस-श्वाँस ध्यान धरे,
ऐसा गुरु सिख 'कुसुमाकर' मेरी थाती है।९१।
१ तू ही निरंकार
जगत में सद्गुरु का जो सत्कार करे ,
नाम की ए दौलत उसे ही मिल पाती है।
शीश झुकाकर गुरु से जो अरदास करे ,
उसको गुरु की कृपा प्राप्त हो ही जाती है।
परम दयालु गुरु पूछे नहीं जात-पाँत,
सौंप देता तुरत ही नाम की ए थाती है।
गुरु दर से न कोई खाली हाथ गया कभी ,
'कुसुमाकर' यही आश ,पास लिये आती है।९२।
१ तू ही निरंकार
कहाँ है लिखा कि सारा जग परित्याग करे ,
कहाँ है लिखा कि धूनी ताप करो जाप है।
कहाँ है लिखा कि घर बार त्याग भेष धरो ,
दर-दर फिरो सहो नित त्रय ताप है।
कहाँ लिखा तज परिवार बन साधु फिरो ,
दर-दर धक्के खाओ ,सहो संताप है।
वेद और पुराण कुरान सभी कहते हैं ,
शरण आओ गुरु की स्वयं प्रभु आप है। ९३ ।
१ तू ही निरंकार
दर्दों भरा है यह सारा संसार यहाँ ,
खुशियाँ भी अश्कों का हार बन जाती है।
सपने ही सपने हैं और परछाइयाँ ए ,
बन्दे का यही इक आधार बन जाती हैं।
झूठे वैभव थोथी प्रशंसा में_भूला बन्दा',
यह ही तो उसे दिन रैन तड़पाती है I
अपना यश , परायी निन्दा, चाहत जलाए ,
गुरु शरण 'कुसुमाकर' खुशियाँ ही लाती है। ९४I
१ तू ही निरंकार
गुणहीन अबुध भरे हैं अवगुण सारे ,
तेरे बिन कोई नहीं अपना सहारा है।
बदचलनी के लगे दाग हैं अनेक नाथ ,
कंगाली में डूबा ,बदहाली में गुजारा है।
भाई बन्धु साथ छोड़े , माया से है नाता तोड़े ,
दुश्मन बना हुआ जगत ए सारा है।
करम -धरम कुछ मुझसे बने है नहीं ,
'कुसुमाकर' नाथ मात्र आसरा तुम्हारा है।९५।
१ तू ही निरंकार
अन्तकाल दुनिया से करेगा प्रयाण जब ,
सँग तेरे दौलत ए एक भी न जायेगी।
जिस दुनिया से लगा प्रीति ,सर्वस्व छोड़ा ,
अन्त समय में ये काम नहीं आयेगी।
कुटुम्ब कबीला बीबी - बच्चे सभी यार -दोस्त ,
महल अटारी यह सारी छूट जायेगी।
सकल पसारा झूठा , साथ नहीं जाना इसे ,
'कुसुमाकर' गुरु ढिग तेरी बन जायेगी।९६।
१ तू ही निरंकार
नाम धन हीन है जो बन्दा इस दुनिया में ,
अन्त समय में वो बहुत पछताता है।
लोभी अहंकारी जो है , पापी संसारी वही ,
यत्र तत्र सर्वत्र ठोकर ही खाता है।
नाम धन हीन बन्दा , मन्द भागी चंडाल,
अपमान सहता है , दुःख-दर्द पाता है।
'कुसुमाकर' गुरु से जो नाम प्याला पान करे,
जीवन की बाजी वह यहाँ जीत जाता है। ९७।
१ तू ही निरंकार
एक ज्योति की ही है अपज यह सारा जग ,
इसी ज्योति का ही यह सकल पसारा है।
एक ही ये सर्वव्यापी , व्याप रहा सारा जग ,
फिर भी ये रहता है सबसे ही न्यारा है।
सबके ही अंग सँग रहता यही है एक ,
यही एक सारी दुनिया का रखवारा है।
सृष्टि के कण-कण को खुद अपने ही आप ,
'कुसुमाकर' इसने ही सब को सँवारा है। ९८।
१ तू ही निरंकार
सन्तजनों की करे संगत जो जन यहाँ ,
परमात्मा की करता सोच विचार है।
शब्द गुरु का दिल बीच जो बसाता और ,
रबको बनाता निज जीवन आधार है।
सारे ही जतन औ' उपाय यहाँ झूठे ही हैं ,
सच्चा गुरु पद ,लगा मन,ए दातार है।
'कुसुमाकर' मान तज गुरु की शरण आये ,
साँस - साँस कहता जो 'धन निरंकार' है।९९।
१ तू ही निरंकार
कानों से सुना और फिर आँखों से देख लिया ,
देखने के बाद किया मैंने एतबार है।
करनी के सँग तुल गयी कथनी भी जब ,
जीवन को कर लिया जब इक सार है।
पूर्ण सँग मिल बैठा , छोड़ के अपूर्ण सब ,
लेन-देन , खान-पान सारा व्यवहार है।
'कुसुमाकर' जब से 'अडोल' सँग सद्गुरु ,
जोड़ा यह नाता , धन धन निरंकार है।१००।
. © डॉ० एस.आर. यादव 'कुसुमाकर' आचार्य
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