वनस्पति सम्पदा को संरक्षित करते हमारे कुछ तीज त्यौहार श्रीमती शारदा नरेन्द्र मेहता (एम.ए. संस्कृत विशारद) वनस्पति का हमारी सनातनीय संस्कृति...
वनस्पति सम्पदा को संरक्षित करते
हमारे कुछ तीज त्यौहार
श्रीमती शारदा नरेन्द्र मेहता
(एम.ए. संस्कृत विशारद)
वनस्पति का हमारी सनातनीय संस्कृति में अति प्राचीन सम्बन्ध है। हमारे दैनिक जीवन में किसी न किसी रूप में हम प्राकृतिक सम्पदाओं पर आश्रित हैं। सम्पूर्ण भारत में हमारे पर्व प्राकृतिक सम्पदाओं पर आश्रित हैं। हमारे यहाँ प्रत्येक पूजन सामग्री में आम, अशोक के पत्ते,विभिन्न फल फूल, नारियल, सुपारी, लौंग, इलायची, पान के पत्ते ,खारक बादाम, सिन्दुर, मेंहदी, हल्दी, कूंकू, धूपबत्ती, कपूर, चंदन, कपास की बाती, कच्चा सूत,कलावा, कमल के फूल, मखाने, सीताफल, रामफल, कत्था, लाख, गौंद ,हवन की समिधा, आदि अगणित वस्तुएँ वनस्पति सम्पदा से ही प्राप्त होती हैं। हमारे आयुर्वेद की प्रत्येक औषधि वन सम्पदा की देन है। हमारी नवीन पीढ़ी को चाहिये कि वे ऐसी बहुमूल्य सम्पदा को संरक्षित करने के लिए दृढ़ प्रतिज्ञ रहते हुए भावी पीढ़ी को दिशा निर्देश दे कि उन्हें नये पौधों को रोपित कर इस विशाल सम्पदा को संरक्षित करना है।
माह जनवरी में मकर संक्रान्ति का पर्व तिल की फसल का प्रमुख पर्व है। गुड़-तिल का दान तथा पतंग व गुल्ली-डंडा खेलना इस पर्व की विशेषता है।
माह फरवरी में बसन्त ऋतु का प्रमुख पर्व है बसंत पंचमी । पूजन में आम वृक्ष की मंजरी माँ सरस्वती को अर्पित की जाती है।
फरवरी मार्च में महाशिवरात्रि का पर्व भगवान् शिव तथा पार्वती के विवाहोत्सव के रूप में मनाया जाता है। शिवलिंग पर बिल्व पत्र, धतूरा, बेर ऑकड़े के फूल ,विभिन्न प्रकार के फल तथा फूल शिव पूजन में समर्पित किये जाते हैं।
मार्च माह में होली पर्व हर्षोल्लास के साथ सम्पन्न होता है। होली के मध्य में अरण्ड का दण्ड स्थापित किया जाता है। इसके आस-पास विभिन्न वृक्षों की टहनियां जमाई जाती है। गोबर के कण्डे आस-पास जमाए जाते है। नारियल, पुष्प, भोजन सामग्री, धूपदीप, पूजन सामग्री,से पूजन किया जाता है। रंगों का पर्व धुलेण्डी तथा रंगपंचमी अबाल वृद्ध के हृदय में आनन्द का संचार करता है। पारिजात, पलाश आदि के पुष्पों से प्राकृतिक रंगों का उपयोग कर हम अपनी त्वचा को केमिकल (रासायनिक) युक्त रंगों से सुरक्षित रख सकते हैं।
मार्च माह में शीतला माता पूजन किया जाता है। माता का स्थान सामान्यतया बड़, पीपल, तथा नीम के वृक्षों के नीचे ही रहता है। सभी प्रकार की पूजन-सामग्री का उपयोग किया जाता है।
दशा दशमी का पर्व भी सुख, समृद्धि एवं सौभाग्य सूचक के लिए सम्पन्न किया जाता है। इस पर्व पर पीपल के वृक्ष का पूजन सभी पूजन सामग्री के साथ किया जाता है। कच्चे सूत को वृक्ष के चारों और परिक्रमा करते हुए लपेटा जाता है। वैज्ञानिकों का मत है कि पीपल का वृक्ष सर्वाधिक प्राण वायु प्रदान करता है।
वर्ष प्रतिपदा (गुड़ी पड़वा) हिन्दू नव वर्ष का प्रारम्भ पर्व है। इस दिन कड़वे नीम की पत्तियाँ चबाकर खाने की परम्परा है। इसे मिश्री तथा कालीमिर्च के साथ खाने का विधान है। दक्षिण भारतीय परिवारों में घर के ऊपर एक काष्ठ दण्ड पर लोटा रखकर उस पर साड़ी, शकर का हार तथा नीम की डाली पर पुष्प हार अर्पित कर टाँगा जाता है। श्रीखण्ड और पूरण पोली का नैवेद्य लगाया जाता है।
गणगौर पर्व लगभग कई प्रान्तों में प्रकारान्तर से मनाया जाता है। फूल पत्ती कलश में सजाकर चल समारोह निकाला जाता है। आम के पत्ते पुष्प का विशेष महत्व है। बाग बगीचों में हंसी-ठिठौली कर कन्याएं तथा महिलाएँ व्रत का समापन करती है। पान के बीड़े का महत्व इस पर्व में अधिक है।
मर्यादा पुरूषोत्तम भगवान् श्रीराम का जन्मोत्सव चैत्र रामनवमी के रूप में मनाया जाता है। खड़े धनिये को सेंक कर उसमें शकर मिलाकर, पीसकर पंजेरी नैवेद्य के रूप में अर्पित की जाती है। पुष्प तथा ऋतु फल भी चढ़ाये जाते हैं।
अक्षय तृतीया (आखा-तीज) इस दिन भी अभिजीत मुहुर्त रहता है। अक्षय फल का दान करने से विशेष फल प्राप्त होता है। सत्तू, पंखा, शकर, आम, जल पूरित मटका व खरबूजे का दान किया जाता है।
जून माह में महिलाओं को सौभाग्य में वृद्धि तथा पति की दीर्धायु प्रदान करने वाला व्रत वट सावित्री पूर्णिमा के नाम से प्रसिद्ध है। वट वृक्ष की परिक्रमा करते हुए धागा लपेटते है। आम्र फल तथा चने की दाल अन्य पूजन सामग्री के साथ वृक्ष के नीचे अर्पित की जाती है । चना दाल, आम तथा दक्षिणा से माता पार्वती की गोद पूरित की जाती है।
भेरू पूजन में खाकरे (ढ़ाक) के पत्ते तथा गेहूँ के खिचड़े का विशेष महत्व है।
अगस्त सितंबर माह में हरतालिका तीज का पर्व मनाया जाता है। इस व्रत में धतूरा, ऑकड़ा, पारिजात, मोगरा, गुलाब, गेंदा, जूही आदि विभिन्न प्रकार के पुष्प तथा ऑवला नीबू, अनार,सेवफल, जामफल, सीताफल,चीकू, केले आम आदि फल सहित पत्ते, मौलश्री अशोक, गुडहल, खीरा, भूट्टे, तुरई आदि आदि अनेक फूल पत्ते नारियल सुपारी,डण्डे वाले पान, बादाम खारक, लौंग, इलायची, तथा महिलाओं की सभी सौभाग्य सामग्री, बालू रेत से बनाये जाने वाले शिव परिवार को चार बार पूजन कर अर्पित की जाती है। इस दिन वनस्पति का सर्वाधिक महत्व माना जाता है।
हरतालिका तीज के दूसरे दिन दस दिवसीय गणेशोत्सव का आयोजन किया जाता है। आम्रपत्र,मेवे, फल, पान, फूल, गुड़, लड्डू, बाटी, दुर्वा, नारियल, पंचामृत आदि का विशेष महत्व है।
ऋषिपंचमी के दिन अरून्धती के साथ सप्तर्षि कश्यप, भारद्वाज, जमदग्नि, अत्रि, विश्वामित्र, गौतम तथा वशिष्ठ का पूजन किया जाता है। अपामार्ग (आंधी झाड़ा) की डंडियों से सप्तर्षि तथा अरून्धती निर्मित करते हैं। मोरधन (सँवा) का सेवन किया जाता है। अपामार्ग में पत्तों का पूजन में विशेष महत्व है। कथा सुनकर व्रत का समापन किया जाता है।
पितृ पक्ष पूर्णिमा से श्राद्ध पक्ष का प्रारंभ होता है। कन्याएॅ सोलह दिन संजा की आकृति दीवार पर निर्मित करती हैं। प्रतिदिन गोबर से नई आकृति का निर्माण किया जाता है। पूजन में गुलतेबड़ी के रंगविरंगे फूल का विशेष महत्व है।
शारदीय नवरात्री का प्रारम्भ मातृशक्ति की पूजा का प्रमुख पर्व है। जौ तथा गेहूँ के ज्वारे बोए जाते हैं। आम के पत्ते, विभिन्न फल गेंदे के फूल,गुलाब के फूल तथा भूरे कद्दू का विशेष महत्व है।
इसके बाद बुराई पर अच्छाई का पर्व दशहरा पर्व रावण दहन के साथ मनाया जाता है। बॉस अन्य लकड़ियाँ, तथा रंगीन कागजों से रावण की विशालकाय प्रतिमा का निर्माण किया जाता है। राम की विजय की स्मृति में दर्शक गण शमी के पत्ते तोड़कर लाते हैं। राम मन्दिर में दर्शन कर पत्ते चढ़ाये जाते हैं। घरों में दीप जलाकर गिलकी के भजिये का नैवेद्य लगाया जाता है। सभी एक दूसरे के घर जाकर दशहरे पर्व की शुभकामना देते हैं।
दशहरे के पॉचवे दिन शरद पूर्णिमा का उत्सव मनाया जाता है। चॉदनी रात में दूध या खीर रखकर नैवेद्य अर्पित कर दूध पिया जाता है । आयुर्वेद में इस पर्व का विशेष महत्व है। अनेकों जड़ी-बूटियों का मिश्रण कर औषध बना कर श्वास,दमा, मिर्गी, के रोगियों को पिलाई जाती हैं।
दशहरे के पश्चात पाँच दिवसीय त्यौहार दीपावली मनाया जाता है। यह धनतेरस से भाईदूज तक रहता है। दीपक पूजन में प्रमुख रूप से गन्ने के टुकड़े, ऑवले के टुकड़े, बेर-पोखड़े (ज्वार के दाने) बैंगन,मूली, कपास के बीज, काचरी, साल की धानी, कंकू अमर बेल सिंधाड़े आदि बारीक काट कर दीपक में डाले जाते है।
धन्वन्तरी का पूजन धनतेरस पर किया जाता है । पूजन में खड़े धनिया का उपयोग किया जाता है। अन्नकूट के दिन बैंगन, मूली, मैथी, आलू आदि की मिश्रित सब्जी बनाकर भोग लगाया जाता है। गोवर्द्धन बनाकर पूजते हैं।
यम द्वितीया (भाई-दूज) के दिन बहन भाई को तिलक लगाकर श्रीफल भेंट करती हैं तथा भोजन कराती है।
ऑवला नवमी के पर्व पर ऑवले के वृक्ष का पूजन सभी सौभाग्य सामग्री के साथ किया जाता है । ऑवले के वृक्ष के नीचे भोजन किया जाता है । कथा कथन होता है आयुर्वेद में ऑवले से निर्मित च्यवनप्राश का विशेष महत्व हैं। और भी औषधियां ऑवले से निर्मित की जाती हैं। घर में भी भगवान् को आँवला चढ़ाया जाता है ।
देवप्रबोधनी एकादशी से उज्जैन शहर में अखिल भारतीय कालिदास समारोह का प्रारम्भ होता है।
जनवरी से दिसंबर तक हमारे सभी तीज-त्यौहार का सम्पर्क वनस्पति सम्पदा से बना हुआ हैं । हमारी भारतीय महिलाएँ इस हेतु बधाई की पात्र हैं कि उन्होंने इस त्योहारों के महत्व को समझ कर प्राकृतिक सम्पदा को किसी न किसी रूप में जीवन्त बनायें रखा है।
मातृ शक्ति ही बालक की प्रथम गुरू होती है और घर से ही प्रकृति व प्राकृतिक सम्पदा के संरक्षण का बीजारोपण बालक के अंर्तमन में कर सकती है। यही संस्कार भविष्य में हरी-भरी वसुन्धरा के रूप में साकार होंगे।
( श्रीमती शारदा नरेन्द्र मेहता)
एम.ए. संस्कृत विशारद
Sr. MIG-103, व्यास नगर, ऋषिनगर विस्तार
उज्जैन (म.प्र.)456010
Email:drnarendrakmehta@gmail.com
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