सलाम बंडू, कुकूर!! // संजीव तिवारी

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बात सन 1983 के किसी जड़काले की है, मध्य प्रदेश माध्यमिक परीक्षा मंडल की अंतिम मैट्रिक परीक्षा की अंकसूची में छपे शब्दों में बसी खुशबू बरकरार ...

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बात सन 1983 के किसी जड़काले की है, मध्य प्रदेश माध्यमिक परीक्षा मंडल की अंतिम मैट्रिक परीक्षा की अंकसूची में छपे शब्दों में बसी खुशबू बरकरार थी। भिलाई स्टील प्लांट में श्रमिकों की भर्ती के लिए जिला रोजगार कार्यालय दुर्ग द्वारा समय वरीयता के अनुसार समय-समय पर बुलावा पत्र गांवों के लड़कों को मिल रहे थे। इसके लिए न्यूनतम योग्यता मैट्रिक थी और रोजगार कार्यालय में जीवित पंजीयन आवश्यक था।


अंकसूची मिलने के बाद उसकी दस-बारह फ़ोटो कापी निकलवा कर कोनी बिलासपुर में फिटर आईआईटी और बेमेतरा में बी.काम. के लिए फार्म भरने और दोनों जगह प्रवेश मिल जाने के बाद ऊहापोह में मैं, बी.काम. में प्रवेश ले चुका था।
दीपावली की लम्बी छुट्टी के बाद गांव में ही लल्लू दाऊ ने दुर्ग जाकर रोजगार कार्यालय में पंजीयन करा लेने का प्लान बनाया। हम सरकारी रूप से बेरोजगार दर्ज होने के लिये सुबह घी में बोरकर अंगाकर पताल धनिया मिर्च धड़के और सायकल से दुर्ग के लिए निकल पड़े। हमारा गांव शिवनाथ नदी के किनारे पर बसा हुआ है।


हमारे गांव से लगभग दो किलोमीटर दक्षिण पूर्व में खारुन और शिवनाथ का संगम है। शिवनाथ यहां दक्षिण पश्चिम से बहती हुई आती है, जिसके तट पर किरितपुर नाम का गांव है। खेत के मेढ़ों से होकर जाने से किरितपुर भी हमारे गांव से लगभग दो किलोमीटर दूर है। धान के कट जाने के बाद खेतों के बीच मेढ़ काटकर बनाये गए गाड़ा रावन से सायकल उचकते हुए निकलती है। सुविधाजनक पहुँच मार्ग नहीं होने के बावजूद इन दोनों गांवों के बीच यही सुगम मार्ग है। इससे होते हुए हमने शिवनाथ पार में पहुंचे। नदी में पानी घुटने भर रही होगी, हमने सायकल रोककर लफ़र्रा बेलबॉटम को मोड़कर जांघ तक चढ़ाया। जैसे ही हमने सायकल के स्टैंड को हटाया, कूँ-कूँ की आवाज पर हमने पीछे देखा। हमारे गांव का बंडू कुकूर पूछ हिलाते खड़ा था।
हँसी के साथ हमने उसे गाली दिया- 'तैं कहाँ इँहा घुमरत हस साले।'


वह पूँछ हिलाते हुए सायकल के चक्के पर लोटने लगा।
लल्लू ने फिर गाली दिया- 'भाग भो*डी के, हमर पीछू कहाँ आबे।'
वह गुर्राने लगा। हम उसे नजरअंदाज कर पानी में उतर गए, बेडौल बिच्छल पत्थरों और तेज बहाव में कभी सायकल तो कभी जाँघ तक चढ़े पैंट को बचाते हमने नदी पार कर लिया। पानी के बाद उस पार के ऊंचे करार तक रेत फैली हुई थी। रेत में सायकल को ठेलते हुए आगे ले जाना मेहनत का काम है, करार तक पहुँचते-पहुँचते अंगाकर रोटी पच गया। ऊँचे करार पर सायकल चढ़ाने के पहले हम शक्ति संचय के लिए वहां रुक गए। पीछे मुड़ कर देखा कितना सफर तय हुआ। बंडू कुकुर पानी-पत्थर-बूटा कूदता हुआ फिर हमारी ओर दौड़ता हुआ आ रहा है।
लल्लू ने फिर गाली देते हुए कहा- 'ये हमन ल पदोही तइसे लागथे दाऊ।'


अब उसने गोंटा उठाकर उसकी ओर उछाल दिया- 'भाग साले।'
गोंटा से बचते हुए वह कूँईं करता फिर हमारे पास। हमने उसे खूब गाली दिया, समझाया भी कि हम दुर्ग जा रहे हैं, डेढ़ सौ किलोमीटर दूर। उसने सुना, पर वह ठान के बैठा था, चलेगा हमारे साथ।
सरदा आ गया, कबीरपंथी चौका आरती की आवाज लाऊड स्पीकर में गूंजने लगी। बस्ती में हम जैसे ही घुसे भौ-भौं करते कुत्तों का दल हमारी ओर दौड़ने लगा। हमें ब्रेक लगाना पड़ा, बंडू कुकुर हम दोनों के सायकल के बीच पूछ दुबकाये बैठ गया। लल्लू ने फिर गाली दिया- 'मर भो*डी के, हमू मन ल मारबे।'
हमारे हात हूत से गांव के कुत्ते दूर में ही गुर्राते रुक गए पर भागे नहीं। सरदा से हमें डामर वाली सड़क मिल गई थी। उन दिनों ट्रैफिक कम था, हम दोनों के सायकल के बीच में वह सुरक्षित आगे दौड़ने लगा। शाम तक हम कुसमी पहुँच गए, साथ में बंडू भी था।


पूरे रास्ते में घेरी-बेरी रुक-रुक कर बंडू कुकुर को वापस गांव खेदारते रहने के कारण हम देर से कुसमी पहुँचे। सामान्य अवस्था में हम अब तक दुर्ग पहुँच गए होते। शाम को अनजान शहर में जाने के बजाय लल्लू दाऊ ने सुझाव दिया कि रात कुसमी में ही रुका जाय और दूसरे दिन सुबह से दुर्ग के लिए निकला जाय।
उन दिनों हमारे चाचा का बेटा राजू, कुसमी में अपने नाना के घर में रह कर कर पढ़ाई कर रहा था। कुसमी में हमारा आना जाना लगा रहता था और हम वहां कुछ दिन बिलमते भी थे।
मैंने भी सोचा कि इसी बहाने इस बंडू कुकुर से पीछा छूटेगा। सुबह इसे चकमा देकर दुर्ग के लिए निकल लेंगे। वापसी में इसे लेते हुये गांव आ जाएंगे।
रात कुसमी में रुके, सुबह उठ कर तरिया में नहाने गए, बंडू भी गया। मैंने लल्लू से कहा- 'येला कइसे चू*या बनाबों दाऊ, ये साले हमर पीछा नई छोड़य।'
बंडू मुझे बोटबोट से निहार रहा था जैसे उसने मेरी बात सुनी ही नहीं।


कटकटात जाड़ में दु डुबकी मार के घर पहुँचे, घर में थोड़ा बहुत बिल में ताकि बंडू भुला जाए। जब वह सुनहरी घाम में घर से लगे कोठार में फैले धान के पैर में मस्तियाने लगा। हम सायकल उठाये और दुर्ग की ओर भागे।


बेरला के पहले किटप्लाई वाले परसरामपुरिया के फार्म के पास पहुँचे ही थे कि बंडू हँफरते, जीभ निकाले पहुँच गया।
'जौहर होंगे रे।'
लल्लू  चिल्लाया।
अब वह साथ छोड़ेगा नहीं और उसे झेलना पड़ेगा। नए शहर में जाने की उत्सुकता, मोटर, गाड़ी, ट्रेन, सेक्टर, फैक्ट्री, मैत्री बाग, रंग-रंग के टुरी की बातें सब सटक गया था। दिल दिमाग में बंडू कुकुर था, इसे कैसे बचाएंगे, कहाँ कैसे रखेंगे।
वह हमारी चिंता से बेखबर हमारे पीछे दौड़ता रहा, कभी कभी रोड के चढ़ाव में वह हमसे आगे बढ़ जाता और हमारे आते तक सड़क में पसर जाता, हमे देखता, यूँ कह रहा हो अड़बड़ धिरन्त हव जी तुमन।


रास्ता पूछते-पूछते अहिवारा, जामुल, भिलाई से दुर्ग पहुँचते तक हमने रोजगार पंजीयन के संबंध में दो-चार बार ही बातें की बाकी बंडू कुकूर दिल दिमाग मे छाया रहा।
स्टेडियम में सुबह सात बजे से लाइन लगी है हम यहां नौ बजे पहुँचे हैं, साढ़े दस बजे काउंटर खुलेगा जहाँ फार्म मिलेगा। उसे भरकर अंकसूची के फोटोकॉपी के साथ दूसरे काउंटर में जमा करना है। ढाई बजे दूसरा काउंटर खुलेगा। शाम पांच बजे कार्ड बनकर मिलने लगेगा। यदि सब काम फटा फट हुआ तो पहट बेरा तक हम लहुट जाएंगे। रात में सर-सर सर-सर सायकल चलाते दस-ग्यारा बजे तक गांव।
'शहर में सायकल को बने चेत करके रखना बेटा।'


निकलते वक्त मां ने कहा था। कहाँ रखें, यहाँ तो सायकलों की भीड़ है। स्टेडियम के गेट के सामने सायकलों के बीच मे हमने अपनी सायकलों को घुसाया, ताला लगाया, हैंडल में टंगे झोले को निकाल कर लाइन में लग गए। बंडू कुकूर को शायद पता था, हम देर से लौटेंगे और सायकल के बिना कहीं नही जाएंगे, सो वह वहीँ पसर गया। तुमन आवव जी मैं इही जघा अगोरत हँव।
हम लाइन पे लाईन लगते गए शाम साढ़े पांच बज गए, बाबू ने एलान किया कि बचें हुए लोगों का रोजगार कार्ड कल मिलेगा।
'हम अड़बड़ दुरिहा ले आये हवन सर, पिलीज हमर कारड ल दे दव!'
रुवांसी होकर मैन कहा था।
'क्या नाम है?'
'संजीव तिवारी'
'त्रिविध नारायण दुबे'
हमने संयुक्त रूप से कहा।


थोड़ी देर वह फाइलों-कागजों को तमडता रहा फिर कहा- 'नहीं, कल ही मिलेगा।'
सूरज ढल चुका था, पीले रौशनी वाले बल्ब जल गए थे। हमने एक दूसरे के ओथराये मुंह को देखा और झोला कंधे में लटकाए भीड़ से बाहर निकलने का उदीम करने लगे। हमारे जैसे बहुत सारे लोग थे जिनको कार्ड मिल नहीं पाया था।
'अब कइसे करबो दाऊ'
लल्लू ने पूछा, मेरे पास कोई जवाब नहीं था। दो बच्चों ने कहा कि चलो रेलवे टेंसन वहीँ रात में रुकेंगे, यहां से पास में ही है।
हम सायकल के पास आए, वहां अंधेरे में इक्का-दुक्का सायकलें ही बची थीं, बंडू हमारे पहुँचते ही कूँ-कूँ करते हुए मस्तियाने लगा। लल्लू ने एक भरपूर लात उसे मारी।
'भो*ड़ा के तोरे कारन फदग गेन।'


कायँ-कायँ चिल्लाते हुए वह कातर निगाहों से हमें देखने लगा। उसके पूछ लगातार हिल रहे थे।
हम रेलवे स्टेशन के सायकल स्टैण्ड में घुसे ही थे कि शहरी मुस्टंड कुत्तों के झुंड ने बंडू को घेर लिया। हम सायकल से उतरे उन्हें भगाने की कोशिश भी किया, पर वे उसे नहीं छोड़े। उस ग्रुप के मजबूत कुत्ते ने सिर हिला हिला कर बंडू को काटा। एकाध मिनट के बाद वह उनके चंगुल से बचकर हमारी ओर भागा, उसके जख्मों से खून बहने लगे थे।

पूरा मार्मिक संस्मरण आगे यहाँ पढ़ें >> http://aarambha.blogspot.in/2017/11/blog-post_14.html

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रचनाकार: सलाम बंडू, कुकूर!! // संजीव तिवारी
सलाम बंडू, कुकूर!! // संजीव तिवारी
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