15वीं शताब्दी में एक प्रसिद्ध संत कवि पैदा हुए थे जिनको आमलोग कबीर के नाम से जानते हैं। उन्होंने कई महत्वपूर्ण साखियाँ और कालजयी दोहे लिखे। ...
15वीं शताब्दी में एक प्रसिद्ध संत कवि पैदा हुए थे जिनको आमलोग कबीर के नाम से जानते हैं। उन्होंने कई महत्वपूर्ण साखियाँ और कालजयी दोहे लिखे। उन दोहों में एक विशेष दोहा है -
पोथी पढ़ पढ़ जग मुआ, पंडित भया न कोय,
ढाई आखर प्रेम का, पढ़ै सो पंडित होय।
यह साधारण दोहा नहीं। इसका बड़ा गूढ़ार्थ है। भले ही यह आज की शिक्षा प्रणाली पर प्रश्नचिन्ह लगाता नज़र आता हो, किन्तु क्षितिज पर कई तरह की नई संभावनाएं उत्पन्न करता है। यह भविष्यवादी सुझावों का अद्भुत नमूना है। ‘विशेषज्ञों’ का अनुमान है कि पद्यरूप में उक्त वक्तव्य कदाचित् कबीरजी ने चौथी शताब्दी में जन्मे कवि कालिदास के अनुभव और उनकी व्यक्तिगत जीवनी के आधार पर दिया होगा। कालिदास ने अपनी पत्नी विद्योत्तमा के साथ ढाई आखर क्या पढ़े उसके बाद उनकी जो गति बनी और उसके फलस्वरूप जो पांडित्य उन्हें हासिल हुआ वो अब इतिहास है। वे संस्कृत के न केवल महान् पंडित, नाटककार व अद्वितीय कवि ही बने, बल्कि विक्रमादित्य के नवरत्नों में भी उन्होंने अपना नाम लिखाया। उससे पहले, जैसी आम जानकारी है, उनको पोथियों में कोई रुचि कभी नहीं रही और वे पेड़ की डाली पर बैठ कर उसे ही काटा करते थे। पोथियों के माध्यम से तो वैसे वे यदि प्रयत्न करते तब भी कबीरजी के अनुसार पंडित नहीं बन सकते थे।
श्री कबीर का मंतव्य यह भी हो सकता है कि पोथी पढ़ पढ़ कर जो कोई तथाकथित पंडित बन भी गया, वो भी भला कोई पंडित में पंडित होता है! असली पंडित तो वो है जिसने ढाई आखर पढ़े। इस दोहे के माध्यम से उन्होंने नकली, यानी पोथी पंडित और असली, यानी प्रेम पंडित का भेद समझाया। कबीरजी के दोहे से ही प्रेरणा लेकर भोपालवासियों ने ताल और तलैया का भेद समझा – ‘तालन में भोपाल ताल बाकी सब तलैया हैं’ या राजस्थानियों ने चित्तौड़गढ़ का महत्व समझा – ‘गढ़न में चित्तौड़गढ़, बाकी सब गढ़ैया हैं।’ खैर।
कबीर की उक्त घोषणा में दो चीज़ें शाश्वत हैं – ढाई आखर और जग। ढाई आखर हैं कि नई नई सीमायें लाँघ रहे हैं और जग है कि यथासंभव शीघ्र पंडित होने की कोशिश में लगा हुआ है। जबसे लोगों ने कबीर के दोहे का वास्तविक अर्थ समझा, तब से ही उन्होंने पंडित बनने का उपक्रम प्रारंभ कर दिया और छः सदियाँ बीतने पर भी वे यथावत् प्रयत्नरत हैं। बहुत से लोगों ने सफलता भी हासिल की। सोलहवीं शताब्दी में तुलसीदास नामक एक महापुरुष ने भी अपनी रत्नावली नाम की खूबसूरत पत्नी के साथ ढाई आखर पढ़े और इतनी शिद्दत के साथ पढ़े कि उन्हें घर छोड़ना पड़ा। किन्तु चूंकि वे ढाई आखर पढ़ चुके थे, भले ही इकतरफ़ा तरीके से, आगे चल कर वे महाकवि और भक्ति के पंडित के रूप में उभरे और संत तुलसीदास के नाम से प्रसिद्ध हो गए। इस प्रकरण से यह नियम निकल कर सामने आया कि आप ढाई आखर पत्नी के साथ न पढ़ें, जो मान्य नहीं होगा। हाँ, यदि अध्ययन इकतरफ़ा हो तो पंडित बनना संभव है, जैसा कि तुलसीदास जी और कालिदास जी के उदाहरणों से ज़ाहिर है।
पाठकों को यहाँ पुनः स्मरण कराना आवश्यक है कि श्री कबीर के अनुसार पंडित केवल साहित्य के क्षेत्र में ही नहीं, किसी भी अन्य क्षेत्र जैसे संगीत, भक्ति, राजनीति, धर्म, प्रशासन, आदि में भी बना जा सकता है, बशर्ते ढाई आखर पढ़े जाएँ। सत्य शाश्वत होता है, वह क्षेत्र, व्यवसाय, या राष्ट्र सापेक्ष नहीं होता और न जातपांत या ऊंचनीच में ही भेदभाव करता है। अस्तु।
पांडित्य प्राप्ति का यह प्रयत्न बादशाहों, नवाबों वगैरह के बीच भी सदियों से चला आरहा है। सोलहवीं शताब्दी में सम्राट अकबर के यहाँ जो पुत्ररत्न उदित हुआ था वह शेखू बाबा और सलीम के नाम से जाना जाता था। युवावस्था को प्राप्त होने पर उसने एक साधारण परिवार की, किन्तु अनन्य सुंदरी अनारकली नामक युवती के साथ ढाई आखर पढ़े जो सम्राट अकबर को गवारा न हुए। किन्तु जैसी भविष्यवाणी कबीरजी ने की थी, उसी के अनुरूप इस सुन्दर कार्य को करने के बाद आगे चल कर सलीमजी न केवल महान प्रेमपंडित ही कहलाये, बल्कि उनका पूरा नाम 'अल सुल्तान अल आज़म वाल खाकन अल मुक़र्रम खुशरू-ए-गीती पनाह, अबुल-फाथ नूरुद्दीन मुहम्मद जहाँगीर पादशाह ग़ाज़ी’ भी हुआ। कम याददाश्त वाले आम लोग उन्हें जहाँगीर के नाम से ही जानते हैं, जिन्होंने 1605 में मुग़ल साम्राज्य का सिंहासन सम्हाला और न्याय के पंडित के रूप में भरपूर ख्याति अर्जित की।
सोलहवीं शताब्दी में ही गोलकुंडा के नवाब मुहम्मद कुली कुत्ब शाह ने एक स्थानीय बंजारा कन्या के साथ बड़े ध्यान से ढाई आखर पढ़े। उस कन्या का नाम था भाग्यवती । कुछ लोग कहते हैं बाग़मती था। बहरहाल, उनके उस सुकर्म के बाद नवाब को शीघ्र ही पांडित्य की प्राप्ति हुई और उन्होंने अपनी राजधानी पास ही किसी अन्य स्थान पर स्थापित कर दी जिसका नाम उन्होंने भाग्यनगरम् रखा। जब पांडित्य की उक्त स्रोत भाग्यवती ने इस्लाम धर्म अपना लिया और अपना नाम ‘हैदर महल’ रख लिया तो राजधानी का नाम भी बदल कर हैदराबाद रख दिया गया। नवाबकुल के इसी ‘पंडित’ ने चारमीनार बनवाई।
इसी तरह सत्रहवीं शताब्दी में महाकवि जगन्नाथ ने शाहजहाँ के दरबार की एक मुग़लसुंदरी लवंगी के साथ ढाई आखर पढ़े और ‘पंडितराज’ बन कर रसगंगाधर, गंगालहरी जैसे काव्यों की रचना की। इसी क्रम में अठारहवीं शताब्दी के प्रारंभ में किशनगढ़ के युवराज सावंतसिंह हुए, जो अपनी सौतेली माता की एक दासी के प्रति आकर्षित हुए। यह दासी युवती अत्यंत सुन्दर और प्रतिभाशाली थी और इसका नाम था - बनी ठनी। वे बनी ठनी की सुंदरता पर इतने चमत्कृत और आसक्त थे कि उन्होंने अपने राज्य के प्रसिद्ध चित्रकार निहालचंद को अपनी तरफ़ से एक चित्र बना कर दिया और उनसे इसे चित्रित करने को कहा। जब यह चित्र पूर्ण हुआ तो यही चित्र किशनगढ़ शैली की प्रसिद्ध ‘किशनगढ़ राधा’ (बणी ठणी) के नाम से विख्यात हुआ और इस तरह एक नई मिनिएचर शैली का जन्म हुआ। उधर सौंदर्य की प्रतिमूर्ति, बनी ठनी भी सावंतसिंह के प्रति आकर्षित हो गयी, लिहाज़ा सावंत सिंह ने बनी ठनी के साथ संपूर्ण तन्मयता से ढाई आखर पढ़े। दोनों का यह अध्ययन अत्यंत मधुर था, इतना कि निहालचंद ने इसी प्रेम पर आधारित कृष्ण-राधा के कई चित्र बनाये। कुछ समय के पश्चात् इस ढाई आखर का ऐसा परिणाम निकला कि सावंतसिंह पूर्णतः आध्यात्मिक रंग में रंग गए और राजपाट छोड़ कर ‘नागरी दास’ नाम से कृष्ण भक्ति के पद्य लिखने लगे। इस तरह ढाई आखर पढ़ कर कबीरजी की भविष्यवाणी के अनुसार वे भक्ति के पंडित बने।
हमारे राजनेताओं में हमारे एक पूर्व प्रधानमंत्री का नाम बड़े सम्मान के साथ लिया जाता है। यहाँ यह बताना प्रासंगिक होगा कि उन्होंने देश विदेश में अनेक पोथियां पढ़ीं यहाँ तक कि पोथी पढ़ पढ़ कर वे थक गए, किन्तु पंडित नहीं कहलाए। देश की राजनीति में प्रसिद्धि पाने के बाद जैसे ही उन्होंने भारत में ब्रिटिश वाइसराय की बीवी के साथ ढाई आखर पढ़े, शीघ्र ही उनके नाम के आगे पंडित लिखा जाने लगा। राजनीति के ही एक अन्य उद्भट, वरिष्ठ, सदाबहार, व कालजयी पंडित हैं जो सौभाग्यवश अभी भी हमारे बीच मौजूद हैं, जिन्होंने युवावस्था में राजनीति में आते ही ढाई आखर पढ़ना प्रारंभ कर दिया था और थोड़े वर्षों में ही पंडित बन गए। ये मुख्यमंत्री, केंद्रीय मंत्री और एक राज्य के राज्यपाल तक रह चुके हैं। सदाबहार व कालजयी इसलिए हैं कि ढाई आखर के पठनपाठन में इनकी उम्र कभी बाधक नहीं बनी। आठ से ऊपर दशकों की वसंत ऋतुओं का रसास्वादन करने के उपरांत भी इनका अध्ययन निरंतर चलता रहा। पाठकों को यह जान कर प्रसन्नता होगी कि यह प्रक्रिया अभी भी सक्रिय रूप से जारी है। लोगों ने तो केवल दो का पहाड़ा ही पढ़ा होगा – दो एकम दो, दो दूनी चार… पर उन्होंने अपने जीवन में ढाई आखर इतनी बार पढ़े हैं कि ढाई का पहाड़ा उन्हें कंठस्थ हो गया – ढाई एकम ढाई, ढाई दूनी पांच, ढाई तिया साढ़े सात, ढाई चौके दस, ढाई पंजे साढ़े बारा...... उनके अध्ययन की रुचि की जितनी तारीफ़ की जाय कम है। उन्होंने विभिन्न स्थानों पर कितने ढाई आखर पढ़े उसका आकलन तो कठिन है, पर उनके पांडित्य की प्रशंसा अखबार, टीवी चैनलों, यहाँ तक कि देश के विभिन्न न्यायालयों में आये दिन होती रही है। उनकी एक सीडी तो तब निकली जब वे राज्यपाल के रूप में भी अध्ययनरत पाए गए थे। उनके द्वारा पठन-पाठन के फलस्वरूप बन गई एक पाण्डुलिपि तो इन दिनों पूरे देश में विशेष चर्चा का विषय बनी हुई है जिसके बारे में वे कहते हैं कि ये उनकी नहीं है। उनके ना-नुकर के बाद उच्चतम न्यायालय के एक आदेश से डी.एन.ए. नामक प्रक्रिया द्वारा अब इस बात की पुष्टि हो गई है कि उक्त पाण्डुलिपि के रचयिता ये ही राजनीति के महापंडित हैं।
राजनीति में पांडित्य का स्कोप कुछ अधिक ही होता है वह इस बात से स्पष्ट है कि हाल ही में राजस्थान में भी एक मंत्री और एक विधायक की ढाई आखर पढ़ते हुए एक सीडी चर्चित हुई थी। किन्तु उनके लिए समस्या तो तब उत्पन्न हो गई जब जिस पुस्तक से वे हमेशा ढाई आखर पढ़ा करते थे उन्होंने उसी को फाड़ कर फेंक दिया। इस कृत्य के लिए वे इन दिनों कारागार में हैं। यह कृत्य निंदनीय इसलिए भी कहा जा सकता है कि उस पुस्तक को नष्ट करके उन्होंने कई अन्य व्यक्तियों को ढाई आखर पढ़ने और पंडित बनने से वंचित कर दिया। दिल्ली के ही एक प्रसिद्ध वकील और एक राजनैतिक पार्टी के प्रवक्ता के सन्दर्भ में भी एक सीडी बाज़ार में उपलब्ध हुई थी जिसमें वे किसी अन्य वकील के साथ ढाई आखर बांचते पाए गए थे। कई लोगों का और उनका स्वयं का मानना है कि आपसी रज़ामंदी से अध्ययन करना उनका निजी मामला था। बहरहाल लोकभर्त्सना से क्षुब्ध होकर उन्होंने प्रवक्ता पद से त्यागपत्र दे दिया। कुछ समय के वनवास के बाद लोगों की कमज़ोर स्मरणशक्ति को ध्यान में रखते हुए वे फिर लौट आये हैं।
ये तो केवल कुछ ही उदाहरण हैं। आजकल सुखद स्थिति यह है कि जहाँ निगाह जाती है, हर क्षेत्र से कोई न कोई कहीं न कहीं ढाई आखर पढ़ता नज़र आता है। जिस गति से कबीरजी के दोहे का अनुसरण हो रहा है, लगता है अगले कुछ वर्षों में हर जगह असली ‘पंडित’ ही ‘पंडित’ दिखाई देंगे।
- व्यंग्य संग्रह “साहित्य का ध्वनितत्त्व उर्फ़ साहित्यिक बिग बैंग” से
संपर्क: Er.Kamlanath@gmail.com
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