प्राणों में तेरी प्यास है ये जमी पर झुका -झुका सा लगे आसमां पर पाओगे न उसे कहीं पर भी झुका है। बुलन्दी आसमाँ की शिखर चूमती है, इन्सानों की भ...
प्राणों में तेरी प्यास है
ये जमी पर झुका -झुका सा लगे आसमां
पर पाओगे न उसे कहीं पर भी झुका है।
बुलन्दी आसमाँ की शिखर चूमती है,
इन्सानों की भी लेकर ये बुलन्दी घूमती है।
इस मालिक की दुनिया का कैसे करूं मैं बयाँ
मैं ऐसे हूँ जैसे दुनिया में होकर भी हूँ ना।
परिव्राजक हूँ मैं सदियों से इस जहाँ का
मिला न अब तक मुझे तेरी दुनिया का कोई पता।
बिखरी है सारे जहाँ में एक तेरी ही अस्मिता,
लिखना पाया अभी तक फिर भी कोई सजीता।
शानोशौकत की तेरी एक छटा है निराली,
पर कहने का सबका है अलग अपना सलीका।
पीव प्राणों में मेरे लगी गहरी प्यास है,
बुझ न पाये साँसें है तब तक
हरदम गाऊं मैं तब तक तेरा ही तराना।
-------------
मेरा जीवन
कालरात्रि है मेरे जीवन में,
है घुप्प अंधेरा मेरे जीवन में।
है नीरवता का फेरा मेरे जीवन में,
है मरूस्थल का डेरा मेरे जीवन में।
है पतित रहा न यौवन मेरे जीवन में,
है अंधकार सा सावन मेरे जीवन में।
है घनघोर पीडाओं का वन मेरे जीवन में
पीव शेष बचा न तन मन धन मेरे जीवन में।
-----------------
भूख
तन को सताती जब भूख हैं,
इन्सानियत से गिराती तब भूख हैं।
लगवाये भूख तन की यहाँ बोलियाँ,
जला दें आदर्शों की भूख यहाँ होलियाँ।
अतृप्त है विक्षिप्त है भूख से इंसान
घोंटकर गला ले भूख किसी की भी जान।
नाच जीवन भर भूख ही कराती है,
भेद सफेद काले का नहीं भूख कभी कराती है।
जहाँ गर भूख है -
जीवन नहीं उसूल नहीं
और न आदर्श पास है,
आनन्द नहीं उल्लास नहीं
और न परिहास है।
गुल और गुलिस्तां क्या
जाने ये जीव भी
भूख होती है क्या जाने ये पीव सभी।
-------------
मातृऋण
जगत में प्रत्येक मानव को
तीन ऋण आजीवन मुक्त नहीं करा सकते।
प्रथम पितृऋण है
जो विश्वदर्शन का कारण होता है
जिसे पत्नी शिशु बीज के रूप में पति सन्सर्ग से
आत्मसात कर गर्भ धारण करती है।
द्वितीय मातृऋण है
जिसे माँ पेट की उर्वरा भूमि पर शिशुबीज को
अपने रक्त से सींचकर
नौ माह गर्भ में पोषित करती है
और अभेद्य सुरक्षित लोक से
धरा लोक पर विश्वदर्शन कराती है।
तृतीय गुरू ऋण है
जो बालक को जगत की
व्यवहारिकता जीविकोपार्जन एवं आदर्श के मार्ग पर
चलने का रास्ता बतलाकर
उसका जीवन मार्ग प्रशस्त करता है।
मातृऋण होता है,
त्याग तपस्या और ममता का
जगत में जिसका कोई सानी नहीं होता
इसे अदा कर पाना
मानव के लिये आसान नहीं होता।
मातृऋण मूलधन है
जिसमें रक्त माँस मज्जा ममता
और प्यार मिला होता है
लालन-पालन में लगी होती है
कई रातों की नींद
स्तनकलश का अमृतमय पयोधि
पीव सर्वोत्कृष्ट शिखर का
मातृऋण आभूषण बनता है
शिशु के लिये आजीवन माँ के
इस अनुग्रह पर उनकी आजीवन सेवा समर्पण का।
-----------------------
चेतनाशून्य मानव
हे भीड़ के अभिन्न अंग मानव,
मैंने तुझे चेतनाशून्य होते देखा है।
गहन संवेदनाओं का आहत क्रन्दन
परम शाश्वततता की रेखा है।
सौन्दर्यवान की अलौकिक निर्मलता
सहज निर्वस्त्रता की नियति है।
समृष्टि की अक्षुण्यता
अस्तित्वगत की निज प्रकृति है।
सुन्दरता का प्रथम वरण
प्रणेता ने सृष्टिकरण किया।
जीवन का प्रथम स्पर्श चरण
नग्न पुष्प जीव ने जन्म लिया।
सृष्टा का पाकर कोमल स्पर्श
नग्नता है निर्मल बनी।
अपने जन्म का जब छाया हर्ष
तब नग्नता है शरीर सनी
अरे मानव इन बातों से क्यों तू सुप्त है।
इसीलिए बावरे तेरी
मैंने चेतना पायी लुप्त है।
इसीलिये चौराहे पर खडे
नंगे पागल को बेदर्दी
तू पत्थरों से मार रहा है।
और अपने वहशीपन की हवस
तू उस पागल पर निकाल रहा है।
अरे नंगा होना कोई अपराध नहीं है
उस पागल का नंगा रहना
हो सकता है उसकी विवशता हो
या अतिरेक की सहजता हो।
जो ईसा-मोहम्मद
बुद्घ महावीर को उपलब्ध हुई है।
अरे मानव सारे बाजार नंगा खडा होना
बडी हिम्मत का काम है
जो किसी अद्भुत घटना का परिणाम है।
शायद पागल के दिल को
यह बात छू गई हो
या उसके अन्तस तम में
उसे कुछ किरणें नजर आई हो
परन्तु तू क्यों नंगाई पर इतर आया है
और उस पागल पर तूने बहसी
क्यों पत्त्थर बरसाया है।
अरे कभी भूल कर भी नंगाई पर
पत्थर न बरसाना
वर्ना मुश्किल पड़ जायेगा
खुदा और खुदाई में फर्क कर पाना।
नंगाई पर पत्थर बरसाने से पहले
तू अपनी अन्तिम परिणिति जान लेना
जिनको कहता है अपना
उनकी प्रीति का ज्ञान लेना।
ये तुझे आजीवन अपनायेंगे
पर मरने पर तुझे नंगा ही दफनायेंगे।
इसीलिये पीव तुझसे यह कहता है।
तू कभी भीड़ में चेतनाशून्य न होना
वर्ना मुश्किल पड़ जायेगा
नंगे और नंगाई में फर्क कर पाना।
----------------------
मौत का अपमान
एक दुधमुंहे शिशु का शव
कारूणिक आर्तनाद के बीच
सुर्ख लाल कपडे में लिपटा
अपने घर से निकला।
जिसे कलेजे पर पत्थर रख
उसकी जननी ने लोगों को सौंपा।
उस परिवार में छाया रहा मातमी शोक
जिसमें घर की दीवालें तक नम थी।
ये सुबह उनके परिवार पर
बिजली बनकर टूटी।
बुझ गया उनके कुल का दीपक
जिसके कारूणिक रूदन का कोलाहल
झकझोर देता है इंसानियत को
मौत की खामोशी से टकराकर
हवा रोक देती है हर चलते इंसान को।
शुभ मुहूर्त की चौखट पर
दस्तक देने कोई हाथ
निवाला लिये ऐसे में मुंह तक नहीं जाता
शांत हो जाती है हर चूल्हे की आग
जिसने मौत की करतूत देखी सुनी व सूंघी होगी।
इस तरह के अन्जाने खेल खेलने पर
सभी कोसते हैं ईश्वर को
सदियों से यही जीवन को
विदाई और मौत को अलविदा करने की चर्चा रही है।
किन्तु हे मौत
आज हमने झुठला दी है तेरी इस चर्चा को
और अपनायी है तेरे अपमान की ये नई नीति
जिससे शरमाकर तू गड़ जायेगी मानवता पर।
मानवता से हमें क्या लेना-देना
बहुत रोते आये है उसके लिये
जितना रोये है उतनी ही मानवता आँसू बनकर बही है।
अब हमारी आँखों में एक बूंद आँसू भी
मानवता के लिये नहीं रह गया है
आँसुओं की जगह अब आँखों में
हैवानियत का लावा रह गया है
इसलिये मौत तेरे अपमान की
ये नई नीति हम ने सामूहिक रूप से मिलकर अपनाई है
जिसमें उस जननी के कलेजे के टुकडे को
सुर्ख लाल कपडे में श्मशान जाते देखा
तब इस शोकाकुल वातावरण में
हम बगल बाजू के कमरे में तेरा जश्न मना रहे थे।
शादी की औपचारिकता रस्मों के बीच
हूसी ठ्टठा कर मिठाईयां खा रहे थे।
शादी तो वैसे हो चुकी थी
लेकिन यह अनौपचारिकता थी।
मिठाईयों के आगे हे मौत
हम तुझे भूल चुके थे
इसलिए खून भरे शोकाकुल वातावरण में
हम खुशी से जिंदगी का जश्न मना रहे थे।
हे मौत क्या इंसानियत का रक्त करती
यह रक्तिम परिणति की पुनरावृत्ति
हम कभी अपने घर कर सकेंगे
क्या हमारी आँखों में
इस हैवानियत के दौर पर मंथन करते
आत्मवंचना हेतु कभी समय होगा।
मौत शायद तेरे अपमान की
यह ढिठाई मैं फिर कभी न कर सकूँगा।
--------------------------
अधूरी मंजिल
अजीज वूने क्या पिलाई मदिरा मुझे
ख्याले गम दुनिया मेरी मिट गई हो जैसे।
कयामत थी या वह हंसी रात मेरी
मिल गई हो मानो जैसे मंजिल मुझे।
अहा शबाब तेरा कयामत का रहा
उडा दी नींद मेरी उल्फत की तरह।
मैंने समझा न मिल पायेगी तू
बंदिश है तुझ पर कुछ रिश्तों की तरह।
ये रिश्ते हमारे अपने खूं के नहीं
फिर दिखते है जैसे ही नजदीकियाँ।
मंजिल मेरी तू राह मेरी
रिश्तों से हूँ पर मैं तुझसे जुदा।
यकीं करो गर जान भी दूं
होगा न संगम कभी हमारा।
---------------------
मौत पर दुःख की अभिव्यक्ति
बधाई हो, तुम्हें पुत्र रत्न की प्राप्ति हुई है,
यह सुनकर हरेक पिता के पोर-पोर में
एक अन्चाही खुशी की उमंग दौड़ पड़ती है
और वह जीवन में पहली बार
पति से पिता बन जाता है।
तब उसके हृदय में
फूट पड़ता है गीतों का झरना
और आँखों में तैरती है
वात्सल्य स्नेह की सरिता
जो शिशु को अधीरता के साथ देखने
और प्रेमांकन करने को आकुल होता है।
उसके कान लगे होते है
शिशु की मधुर किलकारियाँ सुनने को
पिता का अनुराग उमड़ पड़ता है शिशु पर
इस तरह दुनिया में चल पड़ता है
एक अनिर्वचनीय प्रेम गान
गाना,गुनगुनाना,रोना और नाचना।
न जाने कितने आयाम लिये
साँझ-सकारे शुरू हो जाती है
जीवन की बलखाती ये प्रेमभरी अंगड़ाईयाँ।
पति खो जाता है पत्नी में,
पत्नी खो जाती है पति के प्रेम में
कई भीनी-सुहानी मधुर रातों-बरसातों
और बदलते मौसमों के बाद
जब सुनने को मिलती है यह खबर
बधाई हो, तुम्हें पुत्र रत्न की प्राप्ति हुई है।
पल-पल उम्र के साथ बड़े होते शिशु पर
फिर बेशुमार सुखों की फुहारे
स्नेहहमयी वात्सल्य चान्दनी
और लोरियों के साथ सुलाती है माँ
अपने गीले आँचल में समेट कर
एक आशा संजोये सूखे में सुलाती है।
बच्चे की किलकारियाँ
फूलों की मादकता लिये
सारे परिवार की अंजलि में समेट ली जाती है।
कई दिन-रात,दिन-महीने और बरस के बाद
अपार तकलीफें-उपचार,निदान के पश्चात
मधुर भीनी सी खुशबू
शिशु से तरूण के रूप में
माता-पिता और परिवार को मिलती है।
न जाने कितने दौर
बहिन-भाई, बेटा बेटी
माँ-बाप, गुरू-मित्र के रिश्ते
और आसपास के पड़ोसियों का संसार
चारों और धाराप्रवाह मौजूद होता है
और जीवन कभी निरीह,असहाय
बाधाओं का जंजाल लिये
प्रार्थनाओं या आवश्यकता सा
विकृत,कामुक और कुण्ठित सा
यहाँ-वहाँ बिखरा होता है।
अकस्मात अपने युवा पुत्र की
दुर्घटना से दर्दनाक मृत्यु की खबर
जब घर पहुंचती है
तो कितना आत्मघाती होता है वह पल
जिसे सुनकर पिता खुद बन जाता है एक जिंदा ताबूत
परिवार में पसर जाता है,मौत सा सन्नाटा।
जब पिता को यह खबर मिले,
कि उसका बेटा नहीं रहा
आहिस्ता-आहिस्ता बेटे के लिये
पल पल मरता उसका पिता
और पूरा परिवार मानो मर ही जाता है
स्याह काली रात में बेटे का शव
घर पहुंचते ही कोहराम मच जाता है
आँखें भूल जाती है रोना?
दिल चीत्कार उठता है
भावनायें तिक्त हो जाती है
और दुखों से लिप्त उस परिवार के प्रति
मैं एक पड़ोसी की शकल में
रात की खामोशी तोड़ती
परिजनों की दुखभरी चीत्कारों से टूट जाता हूँ।
मेरा दिल और जेहन,
मुझे झकझोर कर रख देता है
खामोशी मृत्युपाश में बॅंधी
मेरे मन की दीवालों को हिलाती है
और मैं मौत की अभिव्यक्ति के लिये
तलाशता हूँ कोई शब्द या उपमा
जो मैं अपने पड़ोसी की मृत्यु पर समर्पित कर सकूं।
गमगीन रूदन कोलाहल के बीच
दिल रोने को करता है
किन्तु ये कमबख्त आँखें
आँसू टपकाने से बचती है
जिसमें मेरे पड़ोसी भले मुझे पत्थरदिल समझे
ऐसे में मेरा अंतरमन खो जाता है
गमों में अपने आँसू तलाश करने
तब समझता हूँ रो देना कितना दुविधा भरा है
पर ''पीव'' रो न सकना मन की बेबसी है।
-----------------
अनोखा संगम
देखता हूँ मैं,
ये बात कितनी अजीब है
चन्द्र और सूर्य गगन में
आज कितने करीब है।
सूर्य किरण शर्माती लाल हो रही है
धरा कली से जैसे गुलाब हो रही है
ये प्रभात का चांद कुछ ऐसा भा रहा है
रोशनी से अपनी वह जग को लुभा रहा है
सूर्य चांद का प्रभात में,कुछ अनोखा ये संगम
क्यों दुनिया न बूझे,देख रूप ये विहंगम।
वृक्ष झूम उठे, समीर लोरी सुना रहा है
बैठा दूर जंगलों में,सन्नाटा भी गा रहा है
जगतपति का अल्हाद,अस्तित्व लुटा रहा है
पात्र होगा वही उसका, अलख प्रेम की जो जगा रहा है
सोये हुओं को सतगुरू,नाद अनाहत जगा रहा है
'पीव'जागे हुओं का शुभ प्रभात आ रहा है।
---------------------
सुख का बोध
हे जग तूने खूब दिये है
निज अनुभव सुखी बनाने के
किस तरंग से, किस वृत्ति से
या आता सुख मयखाने से।
क्या राह मिले की
दौलत है सुख?
क्या सूखी रोटी मेहनत की है सुख?
क्या जीवन साँसों में मिलता सुख है?
या कल्पनाओं का साकार हो जाना सुख है?
सूरज की अदभुत सुन्दरता
जग को आलोकित करती है
उस आभा में जो मिल जाये स्वार्णिम
क्या वह सुख का परिचय रहती है?
जब नीड़ो को पंछी साँझ ढ़ले,
चहकते वापिस आते है।
भिनसारे की चहचहाहट भी
क्या सुख का बोध कराती है।
तृण चरने ग्वालों की गाय सभी
गौशाला से जब सुबह निकलती है
अपने आँचल में भर ममता का दूध
साँझ बछड़े को पिलाने दौड़ी आती है।
बछड़ा पीवे निज ममता से गौमाता दूध लुटाती है
क्या ग्वाले का दूध दोहन,उसे सुख का बोध कराता है
किस स्वरूप में मिलता है, जाने किसको कितना सुख?
कुछ अनुभव भी तुम बतलाओ मित्रों
कैसे? और क्या-क्या? से मिला है तुमको सुख।
क्यों दुनिया में लोग सभी, सुख के दीवाने हो गये
प्यार जताना, सुख को पाना, हर दिल के फसाने हो गये।
क्यों हरदम अपने बाहुपाश में कसकर
वह सुख का आलिंगन करना सीख गये
क्यों सीख लिया हाथों ने सबके
पाना सुख का कोमल स्पर्श यहाँ
क्यों नजरें भी सब ललचायी है
अपने में समाये सुख की मूरत यहाँ
ओठों की थिरकन प्रेमभरी
क्यों सुख का आभास कराती है
हृदय की धड़कन चाहत में
प्रेमी के मिलने पर सुख पा जाती है
''पीव'' सुख का प्यासा मैं चातक हूँ
सुख ने मेरे दिन-रैन है लूटे
रात गये की रून-झुन मुझको
इन भावों को बतलावे झूठे
देखा नहीं है मैंने सुख को
मैं सुख से अंजान हूँ
रात गये तारों की झिलमिल
हो सकता है सुख का अल्पनाम हो
कही मिले सुख तो परिचय करना
पीव मिल जाना आत्माराम से
मैंने नाम सुना है अब तक तेरा
सुख अतिथि बन कभी मरे घर आना आराम से
मेरे अन्तस में जो पीड़ा जागे
वह मिलना चाहे जगतार से
यदि स्वभाव मेरा प्रकट हुआ तो
सुख बरसेगा जीवन में अंबार से ।
---------------------
जिन्दगी
चितायें लाख देखों वहाँ जली जा रही है
ये उदासी क्या गजब ढ़ा रही है
जिन्दगी उसमें मेरी रंगी जा रही है ।
मोहब्बत के जुनून में मगरूर लोगों
देखो मोहब्बत ही अब मुझे खाये जा रही है।
खून में डूबे हुये है मेरे जिगर के टुकड़े,
दाग रो-रोकर आँखें आँसूओं से बहा रही है।
अश्क पीता हूँ मैं खुद अपनी गैरत में रहकर,
अब गैरत ही वही, मुझे खतावार ठहरा रही है।
जिन्दगी अब तेरी खैर नहीं खुदा की कसम,
खैरियत भी आज सरेआम मुझे ठगे जा रही है।
सुर्ख लबों पर ये बात आकर ठहर गयी,
पीव वफा ही जिगर में बेवफाई निभा रही है।
चाहा जिगर में हम गम को दफन कर देंगे,
चितायें लाख देखो वहाँ जली जा रही है।
----------------
संकोच
शर्मे हयात गर तू यूं करती रही
जिन्दगी की पतवार फिर, न संभले कभी
बीत जायेगी जिन्दगी मेरी,फिर उस जहाँ में
जहाँ हुस्ने-मलिकायें नित संवरती रही
जिगरे नांदा को न तोड़ ओ मेरे दिले नूर
वर्ना मिल जायेगी दिल बहलाने,कई जन्नते हूर
पीव दिले रोशन करे गर मेरा, जन्नत की हूर
हुजूर जायेगा कहाँ फिर तेरा ये शबाबे नूर
मुझे इल्जाम न लगा देना बेवफाई का, हो अपने में गरूर
रबे ढ़ह जायेगी शराफत की दीवारें,गर रहा उसे मंजूर
----------------
अंतरंगानुभूति
प्रणय बंधन का अलौकिक आनन्द
प्रिय स्मृत हर पल आता है
है गणना में बीते हुये पल चन्द
मूर्छा बिरह में कर जाता है
हटने पर मूर्छा है कोमलांगी
दिल हर बार ये पुकार लगाता है
अपनी बाँहों को फैलाये प्रिय
आलिंगन हेतु कटिबद्ध रहो
अधरपान हेतु अधरों को
मम अधरों से आबद्ध करो
तेरी झुकी नजरों से हम ये जान गये
लज्जा है तेरा श्रृंगार बना
संगनी मेरी से व्यक्त्वि तेरा
राग-रागनी सा खिल उठा।
अर्धांगिनी से तब रग रग में
’’पीव’’ जैसे हो मधुमास सना।
थकान
बहुत छायी,खूब छायी, जीवन में उदासी
हताश मन,बोझल तन, डूबी है बोझ से जिन्दगी उबासी।
हैरान है,परेशान है, जीवन के रास्ते,
हम बहुत थके, खूब थके, जिन्दगी तलाशते।
हाथ थके,पाँव थके, थके सारे अंग,
श्रद्धा थकी, विश्वास थका, थका जीने का ढंग।
उम्मीद थकी, इंतजार थका, कल्पनाओं का आकाश थका
मान थका,सम्मान थका, जीवन का हर सोपान थका
शब्द थके,ज्ञान थका, पक्षियों का गान थका,,
आज नाच भूल गया, अपने सारे राग-रंग।
शांति थकी, राग थका,साधुओं का वैराग्य थका,,,
तीर्थ थके, गंन्थ थके, पुजारी और संत थके,
औषधि थकी, मधु थका, अमृत का हर कण थका,,
अब जहर को भी आ गया, नये जीने का ढंग।
वृक्ष थके, सुमन थके, बीजों के हर अंकुरण थके,
पूजा थकी, यज्ञ थका, देवों का नैवेज्ञ थका
योग थका, मोझ थका,यम का यमलोक थका,
भूल गया आदमी आज अपने जीने का ढंग।
किरणें थकी,धूप थकी, रोशनी भी खूब थकी,,
मृदंग की थाप थकी,वीणा की झंकार थकी
कान्हा की मुरली थकी,राधा का इंतजार थका,
समाधि का तत्व थका,ब्रम्ह का ब्रम्हत्व थका
जीवन का अस्तित्व थका, शिव का शिवत्व थका,
कृपा थकी, वरदान थका, आशीर्वादों का परिणाम थका
पीव देव हो गये है जैसे सारे अपाहित अपंग।
देह को गलाये चला, काँटों पर सुलाये चला,
शत्रुता बढ़ाये चला,,दिल में आग जलाये चला
स्वार्थ में डूब गया, बनकर हर आदमी मलंग।
आदर्श को गाड़ दिया, पाखण्ड को ओढ़ लिया,
सच को दबा दिया,झूठ को अपना लिया
थोप लिये क्रियाकाण्ड व्यर्थ के ढ़कोसले,
अब डसने को बन गया खुद आदमी भुजंग। स्वा
र्थ को ताज मिला,ईमान बैठा रोता,
रोगों को पंख लगे,इलाज कहाँ होता?
धर्मभूमि भारत से,हमने धर्म को खदेड़ा,
पाश्चात्य संस्कृति ने डाला है अपना डेरा।
आदमियत ही आदमी में, सदियों से हो गयी है बंद
-------------
आज के दौर की बात
मैं नर्मदा के घाटों पर
नागफनी सी फैली
राजनीति का तिलिस्म हूँ
होशंगाबाद की रगों में भले ही
दिल्ली दौडती हो
और यहाँ के आदमी
राजधानी के सभागारों मैं बैठने लायक बने है
दौड़ लगाते उडान भरते
इस माटी के इन कीमती हुए आदमियों ने
मुझ होशंगाबाद को **हाशिये *** पर रखकर
नर्मदा का हौसला भी आहिस्ता आहिस्ता
मिटटी मैं मिला दिया है और
इस नगर को इन्होंने दे दी है अनचाही दरिद्रता
सभासदों में विराजने वाले इन्हीं आदमियों ने
अपने चेहरे पर नकाब पहनकर
नर्मदा का माँ कहते हुए
उसका दिल चीर, अपने ओंठों पर सुर्खियां और चेहरे पर
लालिमा पाई है ...
चाहे लाज हो या बगीचा
या अपवाद मैं पृथ्वीराज चौहान के तथाकथित वंशज
ठीक वैसे ही जैसे पानी भरे मटकों में प्रतिबिम्वित होते उनके चेहरे
ये सभी माचिस की तीली मैं लगे बारूद के सामान है
और जैसे माचिस की डिबिया के दोनों और
बारूद की पट्टियां शांत होती है किसी तूफान की तरह
ये होशंगाबाद की राजनीति के तिलिस्म को
पल भर मैं प्यार से उड़ा देने में सिद्धहस्त है
एक माचिस की तीली के बारूद को
दोनों और जुड़वाँ बारूद के पट्टियों से रगड़ कर
ये गुपचुप रहने वाले होशंगाबाद में
**पीव **खड़ा कर सकते है एक बड़ा भूचाल
अपनी राजनीति चलाने के लिए यहाँ के आदमी
इस नर्मदापुर की शान्ति और सौहार्द को
अदृश्य अज्ञात भय से मथना जानते हैं
ताकि इस शहर के बाहर और भीतर
इनकी पूछ परख बनी रहे और धंधा चलता रहे ....
------
तम का राज्य रहा सारी रात
उमड़ घुमड़ कर बादल बरसे,
बिजली तडकी सारी रात
साय साय कर चली हवाएं,
बैचैन रहा दिल सारी रात
चारो और सिसके सन्नाटा,
अँधेरा चीखा सारी रात
जंगल सागर सभी दिशाएं,
फूट फूट रोये सारी रात
पलकें थम गई दिल तड़पा है,
मुझे नींद न आई सारी रात
भय से सशंकित वृक्ष सभी,
थर थर कांपे सारी रात
असीम जलस्त्रोत ले असंख्य बादल,
नापते रहे धरा सारी रात
सागर नदिया,वनपथ-जनपथ ने,
रात की चादर ओढ़ी सारी रात
ह्रदय में उठती सभी को सिहरन,
भय ने पाँव पसारे सारी रात
डरा रही है सृष्टि सबको,
डर से नदिया सोई न सारी रात
घोसलों मैं डरे छिपे से विकल पक्षियों की,
आँख न लगी सारी रात
खोह कंदराओं में प्राण बचाए,
वन पशु भी जागे सारी रात
**पीव**घरों में कुछ जागे,कुछ सोये थे,
और अँधेरा चीखा सारी रात
नभ और धरा पर उतरा तम था,
तम का राज्य रहा सारी रात
---
पत्थर हो, पत्थर के भगवान हमारे ,
कभी हिले डोले न मुस्काए
पूजन अर्चन स्नेह समर्पण,
सब व्यर्थ गए कुछ काम न आये ।
सुन्दर मुख पर ममता दिखती,
पर तन पर जड़ता की छाया
विकल हृदय की सारी पीड़ा झरती
पर किसी पुकार पर भी वह न आया ।
मेरी आँखों से निर्झर आंसू बहते रहे
पर उसका आंचल भीग न पाया
कैसे कह दूँ तुम भगवान हो करुणामय
पत्थर हो, पत्थर के भगवान हमारे ।
सारा जीवन दर पर तेरे
जगमग ज्योति जलाता रहा हूँ
दुःख मैं गिनकर काटी राते
और मन को मैं भरमाता रहा हूँ ।
अंधकार में डूबे मेरे अंतर्मन को
भगवान तू न आलोकित कर पाया
**पीव** तुझसे तो अच्छे है भगवन!
नभ के सूरज और चाँद तारे ।
तुम पत्थर के हो भगवान हमारे ...
जगमग-जगमग ज्योतित पातें
जिनको गिन-गिन काटी रातें
उनसे तो अच्छे ही निकले सूने नभ के तारे,
पत्थर के थे देव हमारे।
----
एक दीप मेरा भी जलाये
अबकी दीवाली सबकी
हो जाए परिपूर्ण
दूर हो दुःख दर्द,
और जिन्दगी हो पूर्ण
अनुपम जीवन स्नेह भरा,
आप सबको मिल जाए
हर उम्मीद और मंजिले को
मिल जाए सही दिशाएं
हर खुशियां नाचे आंगन में
*पीव* ऐसी दीवाली आये
अपने आंगन में अपनेपन का
एक दीप मेरा भी जलाये
अमावस की रात लगे पूर्णिमा
हिल मिल कर सब दीप जलाये
प्राणों का हम अर्द्ध चढ़ायें
भोर भये रेवा तीरे,
पावस पवन श्रृंगार किये।
धन्य हुई है मेरी नगरी,
जन-मानस सत्कार किये॥
हर दिन यहां पर प्रफुल्लित आये,
पर्वों की सौगात लिये।
रोज नहाये रेवा जल में,
हम खुशियों सा मधुमास लिये॥
जहं-तहं मन्दिर बने हुए हैं,
रेवा तट का उल्लास लिये।
नित मंत्र जपे ओैर माला फेरे,
भीड़ भक्तों की हर सांस लिये।
व्यथित हृदय सब देख रहा,
मेरा अन्तरमन हाहाकार करें।
कुछ आँख मूंदकर बैठे ढ़ोंगी,
मन में अपना संसार लिये।
आस्थाओं को दबा रहे हैं,
संकीर्ण भाव उनके अवसाद लिये।
अन्तस को जो छू न पाये,
अर्चन पूजन है विवाद लिये।
कुछ अहंकार को पाल रहे हैं,
कुछ व्यर्थ की झूठी शान लिये ।
स्वार्थ पूर्ति में लगे हुए हैं ,
कुछ लोभ द्वेष अभिमान लिये॥
ऐसे निष्ठुर रेवावासी को,
कैसे जग में कोई स्वीकार करें ?
मन दुर्भाग्य दुविधा और व्यथा की,
इनके आओ जलाकर हम शांत करें।
वासनाओं को जलाकर होली,
इनके प्राणों में खलबली एक बार करें।
आओ वीणा के झंकृत सप्तलयी स्वरसा,
जीवन में हम मुस्कान बिखेरें।
सौहार्द विश्वास के उजले रंग से, धूमिल
जीवन आकाश उकेरें।
करूणा प्रेम से दीप्त वसुन्धरा को,
जीवन के हम सब रंग चढ़ाये।
दिव्य अलौकिक रेवा जल में,
आओ प्राणों का हम अर्ध्द चढ़ायें।
प्रेम एकता और मानवता से,
हम सब खुशियों से झोली भर लें,
साम्प्रदायिक सद्भाव से हिल-मिल,
हम रेवा जल से जी भर होली खेलें॥
निष्ठुर रोज नचाते हो
सांझ ढ़ले मेरे जीवन में,
रोज दस्तक देते हो,
मेरे हृदय की वीणा को ,
प्रभु निर्झर तुम कर देते हो।
मेघ धड़कते दिल में,
प्रेम वायु बहाते हो,
मेरे सांसो की स्वर बून्दों से,
प्रभु सरगम तुम बरसाते हो।
रात गये सारी दुनिया सोती,
पर आंखों में मेरी नींद न होती,
मेरी मौन खामोश रातों को
प्रभु शब्दहीन कर जाते हो।
दूर क्षितिज अन्तरिक्ष में,
सितारों का दरबार लगाते हो,
मेरे अन्तस मन तारे को,
प्रभु निस्तेज तुम कर जाते हो।
सन्नाटे की रून-झुन में,
जग को खूब जगाते हो,
मेरे मन के सन्नाटे को,
प्रभु जाने कहां तुम दबाते हो।
निःशब्द वसुन्धरा के अंचल में
नित महारास खूब रचाते हो,
मेरे प्राणों के बनकर रसिया,
प्रभु जीभर उन्हें छकाते हो।
गोपी बना मेरे हृदय को,
रास की विहाग्नि में जलाते हो,
सप्तस्वरों की बजा बाँसुरी,
प्रभु निष्ठुर रोज नचाते हो।
भोर भए जाने को तुम,
फिर जल्दी खूब मचाते हो,
सांझ ढ़ले विरहाग्नि को फिर तुम,
प्रभु ईंधन खूब दिखाते हो।
नित आती जाती भोर प्रभु
पीड़ा को ज्यों का त्यों कर जाती हैं।
आने वाली हर सांझ मुझे
प्रभु शीतल लेप लगाती है।
मास-दिवस कई बरस हैं बीतें
चान्दनी छिटकी कई रातों में
महारास का रस न बरसा
प्रभु मुझ बिरही की सांसो में
युगो-युगों से प्यासा बैठा,
आंखों में अपनी नीर लिये,
तुम निष्ठुर मेरे पीव बने हो,
प्रभु कई जन्मों की मैं पीर लिये।
इस योनि से उस योनि तक
भटका मैं खोटी तकदीर लिये,
पर मिल न पाया मुझको जीवन
प्रभु चरणों का सौभाग्य लिये।
खूब भटकाया जग में मुझको,
अब तो भगाना छोड़ो,
कई जन्मों से मैं नाच रहा हूं,
प्रभु जन्मों में नचाना छोड़ो।
विरह आग में जल रहा हूं,
प्रभु दरस न मुझे दिखाते हो,
सुनते नहीं हो कभी भी मेरी,
प्रभु निष्ठुर रोज नचाते हो।
--
विरह शिकायत
मेरे हमदम
मेरे दोस्त
कैसे कहूं मैं
अपने दिल की थकन।
मेरी आँखों में है उदासी
और सीने में है जलन।
तेरे प्यार से मिट जायेगी
सनम ये मन की थकन।
तू नहीं तो खुद को
यू बहलाता रहा हूँ,
साज गीतों में तेरे मैं सजाता रहा हूँ।
आई फिर भी न दिल में बहारे सितम
सनम किसको बताऊं
मेरे दिल की बढती अगन।
गीत तेरे बुनता रहूँ
खुद ही सुनता रहूँ
बैठा कब तक आखिर
पीव मेरे जलता रहूँ
खुद सुलगता रहूँ
मिटा दिल को तेरे खातिर।
----
आकांक्षा
तुझको पाने का अवसर,
प्रियवर कहीं न खो जाये।
चुन लू तुझको स्वरों में दिलवर,
मेरे गीत कहीं न सो जाये।
समय का बढता कदम चरण,
दिल में मिलने की प्यास जगाये।
जब आयेगा संगम मिलन का
क्षण मिटने की घडी वो लाये।
पायेंगे अपने ही नयन
लगी ह्दय की आग बुझाये।
तुझको पाकर हम हे सनम
पीव जन्मों के बंधन छुटाएं।
जाने क्यों मुझे देवता बनाते है?
मैं उन्हें कैसे समझाऊं
कि मैं कोई देवता नहीं हूँ
एक सीधा-सादा इंसान हूँ
जो इंसानियत से जीना चाहता हूँ।
पर वे मानते ही नहीं
मुझे देवता की तरह पूजे आते हैं,
जाने क्यों मुझ इंसान को देवता बताते है?
ये दुनिया बडी जालिम है
जो हम जैसों के पीछे पडी है
कभी ढंग के इंसान तो न बन पाये
पर ये देवता बनाने पर अडी है।
किन्तु मैं देवता नहीं बनना चाहता
एक इंसान बनना चाहता हूँ ?
इनके लिये किसी को भी
देवता बनाना कितना सरल है
ये हर सीधे सादे इंसान को
पहले पत्थर जड बनाते हैं।
उजाड़कर दुनिया उसकी
ये उसे नीरस बनाते हैं।
जिन्हें ये देवता बनाते हैं
अक्सर वह इनका करीबी होता है
इनका अपना तो कम
उनके अपनों का सपना होता है।
दूसरों के सपनों को चुराकर
ये अपनी हकीकत बनाते हैं।
प्रेम को जीने वालों को
निजी स्वार्थ सिद्घि हेतु ही
पीडा का ताज पहनाकर
बेबसी की माला पहनाते हैं।
उनकी आँखों से जुदाई के आँसू बहाकर
उनके ह्दय में गमीं का सैलाब लाते हैं।
दो प्रेम करने वाले इंसानों को
ये पहले बिछुडवाते हैं।
प्रेम की लाश ढोने वाले हर इंसान को
ये देवता बनाते हैं।
-----
अनुभूति की चाह
सत्य रूप बीज बनूं,
सौन्दर्य हो अंकुरण।
पुलक सृष्टि नृत्य करें,
शिवम हो प्रस्फुरण।
मृत्युपाश मम प्राण हो,
तन चैतन्य का सत्यत्व बोध हो।
जब प्राणहीन देह हो
जग सारहीन लगे जीव को।
मन मुक्त हुआ जो माया से
शिवत्व मणिक बोधिसत्व हो।
अनित्य लखत जग अस्तित्व को,
अहो पीव सुन्दरम सृष्टा तत्व हो।
विसर्जन
जीवन की
विषमताओें का
पैमाना
कुछ इस कदर
छलक गया
कि मेरे अन्दर
मन के तल पर
विश्वासों की
बहुमंजिला खूबसूरत इमारत
पलक झपकते ही
एक पल में ढ़ह गई
जब मैंने
असीम विश्वासरूपी नींव का
पहला पत्थर
निश्चल श्रद्घा को
निजी स्वार्थ की
चमकीली कुदाली से
दिवा स्वर्णिम भविष्य के लिये
खींचकर बाहर कर दिया।
इस तरह अपने
स्वार्थ के दल-दल में
मैंने अपने महत्वाकांक्षी मन का
और नैतिकता के पवित्र जल में
निश्चल श्रद्घा का
पीव अनचाहा
विसर्जन कर दिया
हंसी में मेरे ही कफन का,
मैंने साया छिपाया है
ओठों ने करके दफन सपने,
तेरे प्यार को भुलाया है।
सताया है रूलाया है
मुझे तेरी यादों ने बुलाया है।
चाहा था दिल में हम,
गम की कब्र खोदेंगे
दिल का क्या कसूर,
जो उसमें गम ही नहीं समाया है।
दिखती है मेरे लबों पर,
तुमको जमाने भर की हंसी
हंसी में मेरे ही कफन का,
मैंने साया छिपाया है।
तुम्हारी खुशी के लिये ही
ये शौक पाले थे मैंने
ये मेरी ही खता थी
जो तुमने बदनाम करवाया है।
गल्तियों को अपनी कहाँ,
छिपाओंगे तुम यहाँ पर
झुकाकर नजर गुजर जाना
तूने अच्छा ये सबब अपनाया है।
कसूर आँखों में छिपाकर जब,
कसूरवालों ने अकडकर चलना सीख लिया
तब से हर शरीफजादा,
गली से चुपचाप निकल आया है।
दिल की बोतल से तेरी,
मैंने पी डाले न जाने कितने कड़वे घूंट
पीव जलजले जहर के मैंने,
खुदा की रहमत से पचाया है।
शमें रोशनी को कहीं और जलाओे तुम लोगों,
अंधेरों से हमें कुछ इस कदर प्यार आया है
----------
ये लड़के और लड़कियाँ
यौवन की दहलीज पर
कदम रखते
ये लड़के और लड़कियाँ
जब प्यार करते हैं
तो बस प्यार करते हैं।
अपने प्यार की अमराई में
ये जाति धर्म के तम्बू को
रिश्ते नातों की खूंटी से बाँधते हैं।
थम जाता है समय भी
इनकी आँखों में भंवर बनकर
जीवन के भावी क्षितिज पर
ये कस्में वादों का
इन्द्रधनुष बनाते है।
ये लड़के और लड़कियां
जिन्दगी को संवारने के लिये
डूब जाते है एक दूसरे में
दो जिस्म एक जान बनकर
ये प्रेम के भंवर में
प्यार करते हैं।
प्यार की वीथिका में
चलते हैं ये स्वच्छंद होकर
प्रलय के दावानल से
अज्ञात दिवा स्वप्न की टूटन में
ये भूल जाते है इच्छायें,
बस प्यार करते है।
प्रेम कोष को अन्तस में छिपाये
बरसते है एक दूजे पर
प्यार की झडी लगाये
दुनिया से अंजान
उन्हें क्षमा करते
ये उनकी ईर्षा को भुलाकर
पीव प्यार करते हैं
भक्त भगवान बनकर।
-----
मूल्यांकन
प्यार के गीत गाता हूँ मैं,
तब मस्ती की महफिल सजाते हो तुम।
प्राणों की वीणा बजाता हूँ मैं,
तब सच्चाई से दामन बचाते हो तुम॥
जिन्दगी से इश्क फरमाता हूँ मैं,
तब सभ्यता को मदिरा पिलाते हो तुम।
फूलों की सेज सजाता हूँ मैं,
तब नम्रता को नंगा नचाते हो तुम।।
दिल की बेचैनी को दुल्हन बनाता हूँ मैं,
तब कल्पनाओं को बैठे फुसलाते हो तुम।
अंगारों पर सहज सो जाता हूँ मैं,
तब शीतलता का बिस्तर लगाते हो तुम।।
सूली पर भी बैखौफ चढ जाता हूँ मैं,
तब फलों को भी काँटा बताते हो तुम।
ईश्वर से आँखें मिलाता हूँ मैं,
तक ललनाओं पर जान लुटाते हो तुम॥
बहारों की गोद खिलाता हूँ मैं,
तब शरारतों से अपनी रिझाते हो तुम।
चाद-सूरज से रोशनी लुटाता हूँ मैं,
तब दिल की अंधेरी रातों में छिप जाते हो तुम॥
सूरज से नजरें मिलता हूँ मै,
तब चान्दनी की हंसी आँखों में डूब जाते हो तुम।
अपने गमों से पत्थर पिघलाता हूँ मैं,
तब अपनी खुशियों के लिये पत्थर को रूलाते हो तुम॥
बर्फ पर चिन्गारी जलाता हूँ मैं,
तब नाव में दीवाली मनाते हो तुम।
दुखों को गले लगाता हूँ मैं,
तब खुशियों को बैठे सहलाते हो तुम।
मौत को घर अपने बुलाता हूँ मैं,
तब जीवन का जश्न मनाते हो तुम।
अरमानों की लाश उठाता हूँ मैं,
तब मेहमानों को खाना खिलाते हो तुम।
परम्पराओं को काँन्धा लगाता हूँ मैं
पीव बगावतों की गोली चलाते हो तुम।।-
-------
आत्माराम यादव 'पीव'
वरिष्ठ पत्रकार,
के.सी.नामदेव निवास, द्वारकाधीश मंदिर के सामने,
जगदीशपुरा, वार्ड नं.2, होशंगाबाद मध्यप्रदेश
आत्माराम यादव 'पीव' की कविताएं पढ़ कर अच्छा लगा, आभार।
जवाब देंहटाएं