अगर मैं ग़लत हूँ, तो मुझे टोकिए, और रोकिए - आज का अधिकांश लेखन कंप्यूटिंग उपकरणों पर हो रहा है, और हिंदी भाषी लेखन के लिए भी यह बात लागू है....
अगर मैं ग़लत हूँ, तो मुझे टोकिए, और रोकिए - आज का अधिकांश लेखन कंप्यूटिंग उपकरणों पर हो रहा है, और हिंदी भाषी लेखन के लिए भी यह बात लागू है. और, बेहद ही निकट भविष्य में, शायद ही कोई कॉपी-पेन की सहायता से पांडुलिपि तैयार करे. और, जो लोग अभी भी कॉपी और पेन की सहायता से लेखन करते हैं, वे नहीं जानते कि वे इस शानदार माध्यम की उतनी ही शानदार सुविधाओं कितने वंचित हैं! डिजिटल माध्यम ने रचनाकारों की सृजनात्मकता को नए आयाम तो दिए ही हैं, कई-कई गुना उत्पादकता भी प्रदान की है. और, अब तो तकनीक ने इतनी ऊँचाईंया छू ली हैं कि आप बोलकर भी लिख सकते हैं – सीधे अपने कंप्यूटिंग उपकरण के स्क्रीन पर, और वह भी लगभग सौ प्रतिशत शुद्ध! कभी मैंने कहा भी था, और इस बात पर कायम भी हूँ - हिंदी के नए सूर और तुलसी सोशल माध्यम (पर लिखकर व स्व-प्रकाशन) से ही पैदा होंगे.
मगर, यदि सुविधा मिलती है, तो नव-तकनीकों के साथ-साथ ढेर सारी दीगर समस्याएँ भी आती हैं. खासकर यदि हिंदी कंप्यूटिंग की बात करें तो.
हिंदी में कंप्यूटिंग की शुरूआत अस्सी के दशक के अंत में डॉस ऑपरेटिंग सिस्टम की शुरूआत के साथ-साथ ही हो गई थी जब ‘अक्षर’ जैसे हिंदी के शब्द संसाधक डॉस ऑपरेटिंग सिस्टम में 1.2 या 1.44 मेबा वाले फ्लॉपी डिस्क पर या 20 मेबा (जी हाँ, आपने सही पढ़ा. 1.2 मेगा बाइट के फ्लॉपी डिस्क पर, जिसमें ऑपरेटिंग सिस्टम भी इंस्टाल रहता था और प्रोग्राम भी! और तब कंप्यूटिंग की दुनिया कितनी आसान थी! कोई अधिक विकल्प भी तो नहीं थे,) के हार्ड डिस्क पर, श्वेत-श्याम स्क्रीन पर आराम से चलते थे. तब इंटरनेट का पदार्पण नहीं हुआ था, और आमतौर पर कंप्यूटिंग दस्तावेजों को जिस प्रोग्राम में तैयार किया जाता था, उसी प्रोग्राम के साथ-साथ ही साझा किया जाता था. केवल एक दिक्कत होती थी, फ्लॉपी ड्राइव अक्सर करप्ट हो जाती थी, और अपना सारा किया कराया धरा रह जाता था. बैकअप बनाने का प्रचलन उन्हीं दिनों शुरु हो गया था.
नब्बे के दशक आते-आते इंटरनेट नामक दैत्य ने अपना जाल चहुँ-ओर फैलाना प्रारंभ कर दिया था और विंडोज 95 के आने से कंप्यूटरों की पैठ लोगों के घरों तक होने लगी और फिर जल्दी ही, कंप्यूटर और इंटरनेट की जुगलबंदी ने न केवल साहित्यिक, बल्कि हर तरह की रचनाधर्मिता को नए आयाम दिए. हिंदी साहित्य भी क्यों अछूता रहता. तब आज के फ़ेसबुक की तरह याहू! जियोसिटीज़ जैसा प्रकल्प था, जहाँ एक मुफ़्त खाता खोलकर चाहे जो छाप लो. पर, एक पेंच था. हिंदी फ़ॉन्टों में लिखी सामग्री कचरा हो जाती थी. तब यूनिकोड नहीं था. ऐसे में हम जैसे अर्ली एडॉप्टरों ने याहू! जियोसिटीज में अपनी हिंदी की रचनाएँ चित्र के रूप में प्रकाशित करना प्रारंभ कर दिए. बहुतों ने हिंदी पीडीएफ़ फ़ाइलों को वहां टांगना शुरू कर दिया. मगर ये सही समाधान नहीं थे. हिंदी की कुछ शुरूआती वेब साइटें तात्कालिक समाधान वाली थीं- जैसे कि अभिव्यक्ति-अनुभूति साहित्यिक साइट लंबे समय तक शुषा फ़ॉन्ट में थी, जिसका इस्तेमाल करने के लिए आपके कंप्यूटर पर वह खास शुषा फ़ॉन्ट इंस्टाल होना आवश्यक होता था. विश्व की पहली हिंदी साइट वेब-दुनिया – खास डायनामिक फ़ॉन्ट ‘वेबदुनिया’ पर आधारित थी, जो इंटरनेट एक्सप्लोरर ब्राउजर में स्वयमेव इंस्टाल हो जाती थी. मगर जैसे ही आप किसी दूसरे ब्राउजर या अन्य आपरेटिंग सिस्टम उपयोग करते थे तो यह काम नहीं करता था. तात्कालिक जुगाड़ के रूप में कोई ढाई सौ से ज्यादा हिंदी फ़ॉन्ट आनन-फानन में बन गए, और इन्हें टाइप करने के उतने ही कीबोर्डिया जुगाड़ भी. रेमिंगटन टाइपराइटर आधारित हिंदी के कंप्यूटिंग कीबोर्ड – जिसमें कृतिदेव और चाणक्य फ़ॉन्टों से टाइप करने की सुविधा थी, लोगों की पसंद बन गए.
नब्बे दशक के अंत में आते आते भाषाई कंप्यूटिंग ने बड़ी छलांग मारी, और इंटरनेट पर विश्व के तमाम भाषा के तमाम फ़ॉन्टों की सामग्री को ठीक से प्रदर्शित करने व डिजिटल दस्तावेज़ों के आसान साझाकरण करने के लिए यूनिकोड का प्रादुर्भाव हुआ और धीरे-धीरे ही सही तमाम क्षेत्रों में इसकी स्वीकार्यता बढ़ी.
मगर, इधर भारत में कुछ व्यापारिक बाध्यताओं और कुछ सरकारी-संस्थाओं की अदूरदर्शिता के कारण यूनिकोड को टाइप करने के लिए लोकप्रिय रेमिंगटन कीबोर्ड क बजाय सीडैक के इनस्क्रिप्ट नामक कीबोर्ड को मानक माना गया जिससे तमाम समस्याएँ आईं और लोग अभी भी इससे उबर नहीं पाए हैं, और तमाम कंप्यूटिंग उपकरणों में अभी भी रेमिंटन कीबोर्ड से यूनिकोड टाइप करने की समस्या बरकरार है, और तमाम जुगाड़ करने पड़ते हैं. कोढ़ में खाज यह है कि यूनिकोड हिंदी और कीबोर्ड कंप्यूटर सिस्टम में इंस्टाल नहीं आता है और इन्हें अलग से इंस्टाल या इनेबल करना होता है.
सन् दो हजार के शुरुआती दशक में ब्लॉगों ने धूम मचाना प्रारंभ किया. यूनिकोड हिंदी का समर्थन तमाम ऑनलाइन सेवाओं में आने लगा और गूगल ने तमाम ऐसे छोटे स्टार्टअप को लीलना चालू किया जिनमें संभावनाएँ थीं. ब्लॉगर भी ऐसा ही प्रकल्प था. ब्लॉगर में निःशुल्क खाता खोलना और मनचाही चीज प्रकाशित करना. एक रचनाकार को और चाहिए क्या. पूरी दुनिया में रीयल टाइम में, बस्तर से न्यूयॉर्क तक पहुँचने का इससे सस्ता, सुलभ साधन और क्या हो सकता है भला? तो औरों की तरह हमने भी याहू जियोसिटीज से अपना माल असबाब बटोरा और ब्लॉगर में खाता खोलकर अपनी हिंदी में रची सामग्री प्रकाशित करने लगे. तब इंटरनेट पर हिंदी नई थी और लोगों तक यह बताने के लिए, कि भाई, अब हिंदी में भी ब्लॉगिंग संभव है – नाम दिया रवि रतलामी का हिंदी ब्लॉग.
जल्द ही यह समझ में आ गया कि और तमाम रचनाकारों के द्वारा यूनिकोड अपनाने की राह में अभी लंबा वक्त लगने वाला है. इसीलिए मैंने अपना ब्लॉग बनाने के कोई साल भर बाद ही रचनाकार नाम ( रचनाकार.ब्लॉगस्पॉट.कॉम ) से एक साहित्यिक ब्लॉग बनाया जिसमें तमाम अन्य रचनाकारों की रचनाओं को प्रकाशित करने की सुविधा दी गई. इसमें रचनाकारों को यह खास सुविधा दी गई कि वे अपनी रचनाएँ किसी भी फ़ॉन्ट में भेज सकते हैं, जिन्हें यूनिकोड में बदल कर रचनाकार ब्लॉग पर प्रकाशित किया जाता है. यूनिकोड हिंदी में टाइप करने की चिरकालिक समस्या के कारण अभी भी तमाम रचनाकार बंधु कृतिदेव, चाणक्य, शुषा आदि फ़ॉन्टों में रचनाएँ टाइप करते हैं, और फिर उसे तमाम उपायों से यूनिकोड में बदलते हैं. पेजमेकर जैसे आसान सॉफ़्टवेयरों में यूनिकोड का समर्थन तो लंबे समय तक नहीं आया, जिससे समस्या और बनी रही.
किसी भी प्रकल्प में, शुरूआती उत्साह को लंबे समय तक बनाए रखना बड़ी समस्या होती है, खासकर यदि कहीं से भी किसी तरह का कोई प्रोत्साहन न मिले. रचनाकार में आरंभिक सामग्री संकलन कुछ उत्साही कंप्यूटर प्रेमी रचनाकारों जो कंप्यूटर पर रचनाएँ लिखते व भेजते थे, के साथ साथ कुछ प्रसिद्ध साहित्यिक पत्रिकाओं में पूर्व प्रकाशित सामग्री का अनुमति प्राप्त कर डिजिटाइजेशन किया गया. पोस्टकार्ड से अनुमति मांगी जाती थी, जिसका प्रत्युत्तर कभी सहर्ष मिलता था तो कभी आशंकाओं के साथ – क्योंकि डिजिटल माध्यम की जानकारी बहुतों को नहीं होती थी. कंप्यूटर उनकी पहुंच से बाहर होते थे. हालाकि उस दौर में, भारत के हर गली कूचे में साइबर कैफ़े खुल गए थे, फिर भी हिंदी साहित्यकार इनसे दूरी ही बनाए रहे.
प्रारंभ में रचनाकार के पन्नों को कोई दर्जन भर लोग दिन में देखते पढ़ते थे. क्योंकि रचनाकार के पन्नों की संख्या सीमित थी, और लोगों के पास कंप्यूटर पर देखने पढ़ने की सुविधा कम थी. जो पाठक थे, वे भी अमरीकी और यूरोपीय देशों के आप्रवासी हिंदी भाषी थे जो हर सूरत में भारतीयता से जुड़े रहना चाहते थे. मगर देखते ही देखते स्थिति में तेजी से परिवर्तन हुआ.
दो हजार के अंतिम दशक और दो हजार दस के शुरुआती दशक के आते-आते रचनाकारों ने यह समझ लिया था कि यदि लोगों तक अपनी रचनाएँ पहुँचाना है तो डिजिटल माध्यम अपनाना ही होगा. दो हजार के अंतिम दशक में डाटकाम बर्स्ट होने से पहले, हिंदी साइटों में गूगल एडसेंस भी बढ़िया चलने लगा था और साहित्य-सृजकों को लगने लगा था कि हिंदी साहित्य सृजन से भी रोजी-रोटी का जुगाड़ किया जा सकता है. रचनाकार ब्लॉग ने नया रूप धरा और रचनाकार.ऑर्ग बन गया और एडसेंस विज्ञापनों की आय से रचनाकार.ऑर्ग के दैनंदिनी खर्चे-पानी का जुगाड़ हो गया था. मगर अनहोनी को कोई टाल नहीं सकता, डाटकाम बर्स्ट हो गया और गूगल ने हिंदी साइटों से एडसेंस विज्ञापन हटा लिये, जो फिर से कोई दस साल बाद वापस आए. इस बीच, फ़ेसबुक आया और अपनी विशेष रणनीति और बेहद आसान उपयोगकर्ता-मजमा-जमाने-की-सुविधा के फलस्वरूप हिंदी ब्लॉगों को लील गया.
इस दौरान रचनाकार.ऑर्ग का काम जैसे तैसे चलता रहा. निजी होस्टिंग आदि बेहद खर्चीली व्यवस्था से दूरी ही बनाई रखी गई ताकि आर्थिक विपन्नता की वजह से यह कभी बंद न हो. बहुत से निजी होस्टिंग वाले हिंदी साहित्य के ई-प्रकल्प धूम-धड़ाके से आए और उतनी ही तेजी से नामालूम कहां चले गए. और, रचनाकारों ने – जिनमें अधिकांश नव-पल्लवित किस्म के थे, अपनी नव सृजित रचनाओं को प्रकाशित करने का माध्यम रचनाकार.ऑर्ग को ही चुना. रचनाकार.ऑर्ग को गर्व है कि अनुज खरे जैसे प्रसिद्ध व्यंग्यकार को प्रारंभिक प्लेटफ़ॉर्म प्रदान करने का माध्यम बना – जिसे अनुज खरे स्वयं सार्वजनिक रूप से स्वीकार करते हैं. रचनाकार की प्रचुर सामग्री को कुछ तथाकथित कोशनुमा साइटों ने अपनी दुकान जमाने के लिए प्रारंभ में कॉपी-पेस्ट भी किया – मात्रा-कॉमा आदि की गलतियों के साथ – जिसमें शासकीय-फंड पोषित साइटें भी शामिल रहीं.
रचनाकार.ऑर्ग में बहुत से कार्य पहले पहल हुए – यह न केवल यूनिकोडित हिंदी की पहली साहित्यिक ई-पत्रिका है, हिंदी साहित्य पॉडकास्ट व यूट्यूब वीडियो से दृश्य-श्रव्य माध्यम का प्रचुर नव-प्रयोग भी किया गया. फ़ोन से रेकार्ड कर अपनी आवाज में कविता कहानी पाठ प्रकाशन का सफल आयोजन भी किया गया. रचनाकार.ऑर्ग पर कुछ तथाकथित गुणीजन टेढ़ी निगाह भी मारते हैं कि इस साइट पर रचनाएँ बहुधा नव-रचनाकारों की होती हैं, और स्टैंडर्ड का अभाव रहता है. तो उन्हें केवल रचनाकार.ऑर्ग का सर्च-आईना दिखाया जा सकता है – रचनाकार.ऑर्ग के अंतहीन पन्नों में वरिष्ठ असग़र वजाहत का प्रसिद्ध शाह आलम की रूहें भी हैं, तो नव-लेखक की पहली रचना भी. रचनाकार.ऑर्ग में एक दिन में उतनी सामग्री प्रकाशित होती है जितनी की एक मासिक पत्रिका में पूरे एक माह में प्रकाशित होती है. प्राची जैसी प्रिंट की लोकप्रिय साहित्यिक पत्रिका की पूरी सामग्री यूनिकोड में रचनाकार.ऑर्ग में नियमित प्रकाशित होती रही है. आपको बस इतना करना है कि अपनी रूचि और अपने स्टैंडर्ड के हिसाब से रचनाएँ ढूंढना और पढ़ना है. यहाँ सबकुछ मिलेगा. बारह हजार से अधिक पोस्टों में हर विधा की रचनाएँ हैं, हर स्टैंडर्ड के रचनाकारों की हर स्टैंडर्ड की रचनाएँ हैं. और इसीलिए, अब इसके पन्नों को लाखों लोग नियमित रूप से पढ़ते हैं.
पर, रचनाकार.ऑर्ग का स्व-वित्त-पोषित होने के साथ-साथ आर्थिक संबल प्राप्त करने का संघर्ष अभी जारी है ताकि आमंत्रित रचनाकारों को सम्मानित राशि के मानदेय का भुगतान भी किया जा सके.
मैंने आपका विस्तृत लेख पढ़ा, अच्छा प्रयास है की आपने रचनाकार के माध्यम से पाठकों को हिंदी के प्रसिद्धि प्राप्त लेखों से जोड़ दिया ! धन्यवाद सहित हरेंद्र
जवाब देंहटाएंबहुत ही सराहनीय, प्रेरणादायक कार्य आपके द्वारा किया जा रहा है। आपको हमारी ओर से बहुत धन्यवाद। हम सभी साहित्यप्रेमियों की ओर से आपके प्रति आभार व्यक्त करते हैं। विश्वास है भविष्य में भी आपका मार्गदर्शन प्राप्त होता रहेगा।
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