विभाजन के बाद सिन्धी हिंदी व् अन्य भाषाओँ के साहित्य में संघर्ष: -देवी नागरानी कविता में स्त्री स्वर -- ‘साहित्य में कविता की सिंफ में स...
विभाजन के बाद सिन्धी हिंदी व् अन्य भाषाओँ के साहित्य में संघर्ष: -देवी नागरानी
कविता में स्त्री स्वर --
‘साहित्य में कविता की सिंफ में स्त्री स्वर, मतलब नारी मन की सोच शब्दों में अभिव्यक्ति करने की क्रिया. यह भी एक संघर्ष है.
साहित्य न तो कोई शस्त्र है, न कोई क्रांति करने-कराने का ज़रिया है। वह फ़क़त इल्म की रोशनी में इंसान को स्वतंत्र ढंग से जीने की, आगे बढ़ने की, समस्याओं को समझने की, उनके समाधान पाने की, उनसे जूझने की शक्ति के लिए एक नई सोच और नज़रिया प्रदान करता है। आज़ादी के पहले और आज़ादी के दौर में साहित्य निरंतर विकास के रास्तों से गुज़रकर प्रत्यक्ष रूप में सामने आया है। आज़ादी के बाद भारत में एक नया परिवर्तन आया. जो तब न था, वो अब है- घर की चौखट के भीतर बैठी नारी आज स्वतंत्र रूप से अपने भीतर की संवेदना को, भावनाओं को निर्भीक और बेझिझक स्वर में वाणी दे पाने में सक्षमता। अपने अन्दर की छटपटाहट को व्यक्त करना अब उसका ध्येय बन गया है। स्वरूप ध्रुव के शब्दों में:
सुलगती हवा में स्वास ले रही हूँ दोस्तो
पत्थर से पत्थर घिस रही हूँ दोस्तो !
आज की बदलते युग में नारी को अपनी जात का मान सम्मान उसका अपना सम्मान लगता है और उसका अनादर स्वयं का अनादर है। वह कोई अस्तित्वहीन वस्तु नहीं जिसके साथ अव्यवहार करके उसके अस्तित्व को नकारा जाए। मेरी एक सिंधी कविता कविता का अंश भी कुछ यूं ही कह रहा है---
"नारी कोई भीख नहीं
न ही मर्द कोई पात्र है
जिसमें उसे उठाकर उंडेला जाता है
जिसे उलट-पुलट कर देखा जाता है
उसके तन की खुशबू का
मूल्य आँका जाता है
खरीदा जाता है, इस्तेमाल किया जाता है...!
तद पश्चात उसे
तोड़ मरोड़ कर यूं फेंका जाता है
जैसे कोई कूड़ा करकट फेंकता है...!
अब अवस्था बदलनी चाहिए
अब वे हाथ कट जाने चाहिए
जो औरत को
अपना माल समझकर
आदान-प्रदान की तिजारती रस्में
निभाने की मनमानी करते हैं –देवी नागरानी
सदियों से चले आ रहे नारी विमर्श के चक्रव्यूह को नारियों ने ही तोड़ा है, जो एक अरसे तक मौन की चादर ओढ़कर आगे बढ़ते हुए भी न बढ़ सकीं। पिता, भाई और पति की सत्ता के तहत उनके तबके व दबाव में वे फ़क़त घर की दहलीज़ की खामोश सांकल से बंधी रहीं। लम्बे अरसे से हो रहे दमन और शोषण के कारण नारी चेतना जागृत होकर नारी विमर्शों को जन्म देने में कामयाब हुई है. अपनी चाह का परचम लिये वह जिस राह पर जाती है, वहां संघर्ष करते हुए राह में आई हर चुनौती को स्वीकारती है. -विर्मश की नई चुनौतियां से भिड़ते हुए नये आयाम पाने में सक्रिय हो रही है - एक बेहतर जिन्दगी जीने का हक़ पा रही है. इन्हीं संभावनाओं को स्पष्टता प्रदान करती अतिया दाऊद की ये पंक्तियाँ डंके की चोट पर कह रही है ---
तुम इंसान के रूप में मर्द
मैं इन्सान के रूप में औरत
लफ़्ज़ एक है-
मगर माइने तुमने कितने दे डाले
मेरे जिस्म की अलग पहचान के जुर्म में -10
लेखिकाओं की श्रेष्ठता व दौरानुसार तीन विभाजित खंड है। पहले दौर की दस्तावेज़ी लेखिकाओं ने अपनी कलम के बलबूते पर समाज में, अपने आस-पास नारी पर होती हुई ज़्यादतियों, जात-पात के भेद-भाव, छूत-छात की विडम्बनाओं, अंतरजातीय विवाह से संबन्धित रिश्तों से जुड़े कुंठित व्यवहार, विधवाओं के साथ हो रही बेइन्साफियों को कहानी, उपन्यास, कविता में किरदारों के माध्यम से उजगार किया है। अपनी जात के खिलाफ़ होती मुसीबतों का मुक़ाबला करने के लिए नारी ने कमर कस ली है- इनके मिसाल साहित्य के पन्नों में दर्ज काव्य, कहानी, उपन्यास के अंश दरपेश करते आ रहे हैं।
औरत और मर्द दोनों संसार की उत्पति के प्रधान पहिये है, जो नवनिर्माण के अहम कारण हैं। शक्ति, बुद्धि, विवेक जितना पुरुष को प्राप्त है उतना ही स्त्री को। बावजूद इसके भारतीय समाज में पुरुष प्रधानता के कारण नारी अपने कांधों पर उठाए जिम्मेदारियों के बोझ तले दबी सी रह जाती है। अब विश्लेषण से जो सच सामने आया है वही सच अभिव्यक्ति के माध्यम से समाज के सामने ज़ाहिर होता आ रहा है. नारी की कलम अपनी ही जाति के साथ हुई कुनीतियों पर, अन्याय के खिलाफ अपनी जद्दोजहद को एक खामोश ज़बान देती है। अब नारी वह नहीं, जिसे मर्द की सत्ता के दायरे में कमजोर और अबला समझकर अपने घर की चौखट से बांधकर रखा जाय।
औरत अपनी हैसियत चाहती है, सम्मानजनक जीवन की सुरक्षा चाहती है, अगर वह फेमिनिस्ट भी है तो इसका मतलब कतई यह नहीं कि वह नारी नहीं है। सिंधी समाज कि जनि माने लेखिका पोपटी हीरानंदानी ने अपनी जीवनी में अपने विचार को स्पष्ट करते हुए लिखा है “औरत के अस्तित्व की एक खास अहमियत है, और मैं उस अहमियत को बनाए रखने के हक में हूँ। औरत और मर्द दोनों को अपने अपने दायरे में रहना और निभाना है।“
सिंधी समाज के बीच रहते हुए, पुरुष सत्ता के अधीन नारी की परिवर्तनशील अवस्थाओं के संदर्भ में सिंध की बागी शायरा अतिया दाऊद ने भी अपनी जात के हक़ में अनेक कवितायें लिखी हैं...चौंकने वाली, डंक मारती हुई. तेजाबी तेवरों में लिखी उनकी कवितायेँ कवितायें नहीं, औरत की रूदाद है, जो शब्दों में ढल गयी है. पढ़ते ही मन में हलचल सी मच जाती है. आतिया जी की इजाज़त से मैंने उनकी कविताओं का अरबी सिन्धी से हिंदी में एक थका हुआ सच नाम से अनुवाद किया है, ताकि यह भाषा और भाव से परे की अभिव्यक्ति पाठकों तक पहुंचे.
एक बात जो सूरज की रौशनी के सामान सामने आ रही है वह यह है- प्रांतीय परीधियों के बांध तोड़ता है अनुवाद...! दोस्ती का पैगंबर है अनुवाद...! आज की मांग अनुवाद है- विवाद नहीं! भाषा की विविधता के बावजूद भी मानव मन की भावनाएँ वही है, दुख-सुख वही है धूप छाँव की तरह, समस्याएँ-समाधान भी वही है, संघर्ष भी वही...!
इसी दिशा में मैंने विभाजन के बाद उखड़ने और बस जाने की प्रताड़ना को अनुवाद के माध्यम से कहानियों और कविअताओं में दरपेश किया है. कविवर बच्चन जी, जो स्वयं एक कुशल अनुवादक रहे, उनका कहना कि - “अनुवाद दो भाषाओं के बीच मैत्री का पुल है। अनुवाद एक भाषा का दूसरी भाषा की ओर बढ़ाया गया मैत्री का हाथ है। वह जितनी बार और जितनी दिशाओं में बढ़ाया जा सके, बढ़ाया जाना चाहिए।“
‘अमर गीत’ नामक कविता में इसी मानसिकता को एक नया अर्थ देते हुए अतिया जी लिखती हैं-
जिस धरती की सौगंध खाकर/ तुमने प्यार निभाने के वादे किये थे
उस धरती को हमारे लिये क़ब्र बनाया गया है / देश के सारे फूल तोड़कर
बारूद बोया गया है
एक और हक़ीक़त को सामने रखते हुए उनकी कविता :
शोकेस में पड़ा खिलौना
मुझे गोश्त की थाली समझ कर / चील की तरह झपट पड़ते हो
उसे मैं प्यार समझूँ ? / इतनी भोली तो मैं नहीं
मुझसे तुम्हारा मोह ऐसा है/ जैसा बिल्ली का छिछड़े से
उसे मैं प्यार समझूँ ?/ इतनी भोली तो मैं नहीं ---“(मांस का लोथड़ा..12)
यह है औरत की अपने हिस्से की लड़ाई, खुद से, आदमी से, समाज से, जो वह लड़ती आ रही है -कारण एक है-समाज में मान सम्मान और एक से अधिकार पाना, यही उसकी मांग है। यही नारी मुक्ति का उद्देश्य है. मतलब नारी का अपना विकास और विस्तार ! वह जानती है कि वह पुरुष की सहधर्मिणी है, पर आज सीता को आदर्श मानकर वह गर्दन झुकाकर ‘हाँ’ कहने को तैयार नहीं। उस पर लगाए इल्ज़ाम अब वह खामोशी से स्वीकार नहीं करती। वरिष्ठ कहानीकार माया राही की ‘एक कठपुतली’ नामक कविता इक्कीसवीं सदी में मात्र एक सपना है। उनकी ज़ुबानी –
नौकरी की तलाश में/ बड़ी आफिसों के
छोटे कर्मचारियों के दिए /बेरहम धक्के खाते हुए
शरीर भी घिसे-पिटे चप्पल सामान फट सा गया है.
आज की नौजवान पीढ़ी अपनी कविताओं में अपने मज़बूत इरादों को, सोच-विचार को, बिना किसी डर, बेझिझक सामने लाती है। ‘निर्भया’ आज भी हमारे दिलों में ज्वालामुखी बनकर धधक रही है जिसके लिए सिंधी कवियित्री शालिनी सागर ने लिखा है:
निर्भया के सपनों का महल, / मर्द ने चूर चूर कर दिया..... / फ़क़त अपनी वासना की पूर्ति की ख़ातिर ....!
अभिव्यक्ति, मर्द की करतूत की ओर निशाना साधकर, साफगोई से डंके की चोट पर ऐलान कर रही है। यह भी एक संघर्ष है जो आज भी नारी समाज में अपनी सुरक्षा के लिए करती आ रही है। पूना निवासी सिन्धी लेखिका इन्दिरा शबनम ने भी अपने मन की वेदना को प्रभावशाली तर्क देते हुए वाही भाव प्रकट किया है---
“चार पाँच मर्दों की वहशियत का शिकार बनी
वह बेगुनाह, मासूम बच्ची जिन्हें
काका, दादा, भाऊ, मामा कहकर पुकारती थी....”
उसी रेशमी तार से बुन हुआ यह अंश मर्द के पाखंडी वृति को दर्शा रहा है -- ‘एक हाथ मेरी गर्दन की नस पर रखकर
दूसरा हाथ मेरे सर पर घुमाते हुए प्यार जतला रहा है?
एक कड़ी जोड़ते हुए मेरी सिसकती सोच भी अपनी चीख़ों के साथ इस कविता के अंश में ज़ाहिर है--
सोचिये / सोचिये मत ग़ौर कीजिये
जब औरत वही क़दम /उठा पाने की हिम्मत जुटा पाएगी तब.... / तोड़ न पाओगे/ न मोड़ पाओगे उस हिम्मत को / जो राख़ के तले / चिंगारी बनकर छुपी हुई है दबी हुई है, बुझी नहीं है/ मत छेड़ो, मत आज़माओ,
उसको जो जन-जीवन के / निर्माण का अणु है।
ध्यान केन्द्रित करने योग्य अवस्था है, भावनाओं के सुंदर, सरल भाषा में मात्र इज़हार नहीं है, यह नारी मन की रूदाद है।
कविता न कोई आक्रोश है, न कोई जंग. यह तो फ़क़त खुद से जुड़ पाने के प्रयास की कड़ी है, जो अपने आस पास के माहौल से वाकिफ कराती है. हिंदी सिन्धी के जनि मानी लेखिका जया जादवानी की कविता नए रूप से हमसे मुखातिब हो रही है.--
पढ़ते भी आप है
नतीजा भी खुद निकालते हैं / मेरे तन की दीवारों पर
न जाने क्या क्या लिख जाते हैं लोग?
इस संघर्ष की राह पर अपनी ही जात की दुर्दशा पर अपने सीने में आक्रोश, नफ़रत की आग को दबाये, शब्दों के इस्तेमाल से नारी अपनी गाथा लिखती है. कुछ ऐसा ही तेज़ाब घोलती हुई अभिव्यक्ति सिंध की लेखिका अत्तिया दाऊद के शब्दों में हर नारी की बात का समर्थन कर रही है: यह भी तो एक नारी की चीख है--
“मेरा वजूद काटा गया है, / सच के सलीब पर, जितनी बार भी
वजूद चढ़ाया गया है / एक नया जनम मैंने भोगा है
पर बार-बार की फ़ना और तख़लीक ने / मुझे थका दिया है....!”
यह है नारी की विडम्बना!
क्या नारी तब तक अपने अपने हिस्से का बनवास भोगती रहेगी? विभाजन उपरांत पंजाब की प्रख्यात कवित्री, कहानीकार व उपन्यासकार अमृता प्रीतम ने नारी की प्रताड़ना को, ज़िल्लत भरे माहौल में पनपते देखा. उनकी कलम ने नारी के ज़हन की त्रासदी को पहचानाते हुए उनके मनोभावों को अपने तेवरों में जुबान देकर दी है. एक कविता 'पुल' का यह अंश नारी के वजूद के बिखराव की गाथा है--
"कल हम दोनों ने/ एक पुल जलाया था और एक दरिया के/ किनारों की तरह नसीब बांटे बदन झटके/ तो एक बदन की वीरानी इस किनारे थी/ और एक बदन की वीरानी उस किनारे......!"
और आज नारी चेतना जागृत हुई है। शिक्षा की रोशनी में वह खुद की पहचान पा रही है। भले ही परंपरागत अवधारणाओं में उस के रास्ते में दीवारों खड़ी कर दी हों, फिर भी वह खुद को ज़ाहिर करने के रास्ते तलाश करने में लगी है। रास्ता न मिलने पर भी वह दीवारों के भीतर की दरारों से अपनी राह पाने में आगे बढ़ रही है। उसके मन की हांडी में जब बाढ़ आती है तो प्रवाह को रोक पाना नामुमकिन है। अमृता प्रीतम के इस काव्य में यही भाव खौल रहा है --
"मिट्टी के इस चूल्हे में / इश्क की आंच बोल उठेगी
मेरे जिस्म की हँडिया में/ दिल का पानी खौल उठेगा!"
नारी अपनी जाति के अनुभव व व्यक्तिगत आपदाओं व राजनीति की यातनाएं भी काव्य-लेखन के मध्यम से सामने ला रही है। ऐसी कविताएं रेत के बवंडर बनकर आज जमाने को झकझोर रही हैं। सिंध की कवित्री अतिया दाऊद ने भी इसी खौलते उबाल को हवा देते हुए अपनी चीखती हुई आकांक्षाओं को ‘खोटे बाट’ नामक कविता में अभिव्यक्त किया है –
प्यार की सरहदें
प्यार तो मुझसे बेशक करते हो
तुमने रोटी, कपड़ा और मकान देने का
वादा किया है /उसने बदले में जीवन मेरा गिरवी रखा है
मुझे घर की जन्नत में /खुला छोड़ दिया है
जहाँ विवेक के पेड़ में सोच का फल उगता है
रोज़ उगता सूरज मुझे आगे बढ़ने के लिये उकसाता है
आज वह फल खाया है, तो / आपे से निकल गए हो
सोच ने ज़हन की सारी खिड़कियाँ खोलीं हैं
तुम्हारी जन्नत में दम घुटता है/फैसले करने की आज़ादी चाहती हूँ
सोच में फल ने ताक़त बख्शी है
रोटी, कपड़ा और मकान आसमान के तारे तो नहीं
जिन्हें तुम तोड़ सकते हो/ और मैं तोड़ नहीं सकती?
रीतियों, रस्मों, कानून, मज़हब/ पहाड़ बनाकर आड़े न लाओ
समझ की उंगली पकड़ कर / सभी कठिनाइयाँ पार कर जाऊँगी
प्यार तो मुझे बेशक करते हो /
पर प्यार को नकेल बनाकर नाक में तो मत डालो
हाँ! विवेक के पेड़ से / सोच का फल तुम भी खाओ
आओ तो फूल और खुशबू की तरह प्यार करें!
और इसी खोलते उबाल को हवा देते, जज़्बों की नैया में नारी आज पुरुष के साथ कंधे से कंधा मिलाकर चलते हुए, अपने कार्य क्षमता व अभिव्यक्ति से अपना मक़ाम पा रही है। अपने अस्तित्व के नए आयामों को छू रही है। इसी बात का समर्थन धर्मवीर भारती जी की कविता की ये पंक्तियां कर रही हैं -
"क्या हुआ दुनिया अगर मरघट बनी
अभी मेरी आख़िरी आवाज़ बाक़ी है
हो चुकी हैवानियत की इंतेहा
आदमीयात का अभी आगाज़ बाकी है
लो मैं तुम्हें फिर नया विश्वास देती हूँ
नया इतिहास देती हूँ
कौन कहता है कि कविता मर गई !"
अब मेरे विचारों की उथल पुथल कह रही है-कहीं कविता नारी तो नहीं”
देवी नागरानी
16 अप्रेल २०१७ OK
समय के साथ-साथ बहुत कुछ बदलता चला जाता है, सदा एक सा समय कभी नहीं रहता है
जवाब देंहटाएंबहुत अच्छी प्रस्तुति