सुशील शर्मा *त्वं शरणं मम* मन अंदर है गहन अंधेरा। चारों ओर दुखों का घेरा। जीवन की पथरीली राहें। तेरे चरण हैं मृदुल सबेरा। हे शैलपुत्...
सुशील शर्मा
*त्वं शरणं मम*
मन अंदर है गहन अंधेरा।
चारों ओर दुखों का घेरा।
जीवन की पथरीली राहें।
तेरे चरण हैं मृदुल सबेरा।
हे शैलपुत्री त्वं चरणं मम।
हे हिमपुत्री त्वं शरणं मम।
जन्म जन्म की यात्रा पर हूँ।
अधम कोटि का मैं पामर हूँ।
काम क्रोध मद लोभ ने घेरा।
मानव रूप धरे विषधर हूँ।
ब्रह्मचारिणी त्वं शरणं मम।
रूपधारणी त्वं चरणं मम।
मानव विकृति के पथ पर है।
चढ़ा हुआ अहम रथ पर है।
अंधाधुंध वह दौड़ रहा है।
दिशा हीन दुर्गम पथ पर है।
हे चंद्रघण्ठे त्वं चरणं मम।
हे मृदुकान्ता त्वं शरणं मम।
कन्या भ्रूण को लोग मारते।
फिर तेरी आरती उतारते।
नवरात्रि में पूजन करके।
तुझको वर देने पुकारते।
हे कुष्मांडे त्वं चरणं मम
हे ब्रम्हमांडे त्वं शरणं मम
शिक्षा अब व्यापार बनी है।
उच्छ्रंखल व्यवहार बनी है।
बच्चे सब मशीन है जैसे
धन कुबेर की शिकार बनी है।
स्कंदमाते त्वं चरणं मम।
जीवन दाते त्वं शरणं मम।
एक भी बचा नही है जंगल
नेताओं का हो रहा मंगल।
पर्यावरण प्रदूषित सारा।
सारे देश में मचा है दंगल।
हे कात्यायनी त्वं चरणं मम।
हे हंसवाहनी त्वं शरणं मम।
कष्ट कंटकों से घिरा है मानव।
धन,सत्ता,बल बने हैं दानव।
सरकारें सब सो रही हैं।
टैक्स लग रहे सब नित अभिनव।
हे कालरात्रि त्वं चरणं मम।
हे महारात्रि त्वं शरणं मम।
अपने सब हो गए बेगाने।
आभासी चेहरे दीवाने।
आसपड़ोस सब सूने हो गए।
सब रिश्ते रूखे अनजाने।
महागौरी त्वं चरणं मम।
सिंहवाहनी त्वं शरणं मम।
विपदा विकट पड़ी है माता।
सुत संकट में तुझे बुलाता।
कोई नही है इस दुनिया में।
तेरे सम सुख शरणम दाता।
हे सिद्धिदात्री त्वं चरणं मम।
हे सर्वशक्ति त्वं शरणं मम।
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रेवड़ियां बँट रहीं हैं
शिक्षा का सम्मान बिकाऊ है भाई।
पैरों पर गिरना टिकाऊ है भाई।
तुम मेरे हो तो आ जाओ मिल जायेगा।
मैं अध्यक्ष हूँ मैडल तुम पर खिल जायेगा।
क्या हुआ गर शिष्याओं को तुमने छेड़ा है।
क्या हुआ गर शिक्षा को तुमने तोड़ा मोड़ा है।
क्या हुआ गर माता पिता को दी तुमने हाला है।
मत डरो समिति का अध्यक्ष तुम्हारा साला है ।
शिक्षा को भरे बाज़ारों में तुमने बेंचा है।
ट्यूशन में अच्छा जलवा तुमने खेंचा हैं।
क्या हुआ गर शिष्यों के संग बैठ सुरा पान किया।
क्या हुआ गर विद्या के मंदिर का अपमान किया।
सम्मान की सूची में सबसे ऊपर नाम तेरा।
नोटों की गड्डी में बन गया काम तेरा।
अपने अपनों को रेवंड़ियाँ बाँट रहे।
दीमक बन कर ये सब शिक्षा को चाट रहे।
योग्य शिक्षक राजनीति में पिसता है।
चरण वंदना का सम्मानों से रिश्ता है।
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हिंदी की सोच
हिंदी दिवस
सुना सुनाया सा नाम लगता है।
अच्छा आज हम हिंदी पर
हिंगलिश में बात करेंगें।
आज हम कहेंगे
हिंदी में बात करना चाहिए।
हिंदी खतरे में है।
सरकारें सो रही हैं।
आज हम चिल्ला चिल्ला कर कहेंगे।
हिंदी राष्ट्र भाषा है
हमें इसका सम्मान करना चाहिए।
और फिर हम चल पड़ेंगे
कान्वेंट स्कूल अपने बच्चे को लेने।
हम भाषण देंगे
हिंदी की अस्मिता को बचाना है।
फिर 'सॉरी ' हेलो, हाय, बेबी,
शब्दों से उघड़ाते हैं उसका बदन।
बाज़ारीकरण के इस असभ्य दौर में।
अंग्रेजी एक चमचमाता "मॉल" है।
जिसमें सब मिलता है।
जॉब्स से लेकर जिप तक
और हिंदी एक परचून की दुकान
जो हमारी आत्मा तो तृप्त करती है।
पर पेट का पोषण नहीं
भारतीयता तो मिल सकती है।
किन्तु वरीयता नहीं।
हिंदी उस देव के समान बन गई है।
जिसको पूज कर लोग
उसी के सामने अश्लील नृत्य करते हैं।
संसद से लेकर सड़क तक।
सब हिंदी का गुणगान करते हैं।
लेकिन व्यवहार में अंग्रेजी अपनाते हैं।
तारीफ पत्नी की करते हैं
और "दूसरी" के साथ समय गुजारते हैं।
बंद दरवाजे का शौच
और हिंदी की सोच
अपनाने की आवश्यकता है।
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हे शरद के चंद्र
हे शरद के चंद्र
तुम इतने शुभ्र शीतल
प्यार में पूरे पगे से
रात कुछ सोए जगे से
स्वप्नीले आसमान में
तुम इतने निर्मल
हे शरद के चंद्र
तुम इतने शुभ्र शीतल।
नील लोहित शाम
का है इशारा
उड़ती गोधूलि बेला
अद्भुत नजारा।
नील मणि सदृश्य
आकाश में तरल
हे शरद के चंद्र
तुम इतने धवल।
प्रिय प्रेम पाश में बंधी
अनवरत विकल
ये चांदनी क्यों बिछी
हीरक सी तरल।
ये नवयौवना सी सरिता
क्यों भागे उछल उछल
हे शरद के चंद्र
दिखते तुम नवल।
अधखुले झरोखे से
झांकती चन्द्रकिरण
विह्वल मदमाती सी
करती पिया का वरण
मौन प्रिय प्रवास
होता कितना विरल।
हे शरद के चंद्र
तुम इतने विह्वल।
नीड़ में कुछ स्वप्न
आशाओं से मढ़े हैं
नवल कलियों के मुख
अब खुल पड़े हैं।
स्वच्छंद सुमंद गंध
बहती अविरल
हे शरद के चंद्र
तुम क्यों इतने सरल।
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डा. सुरेन्द्र वर्मा
हाइकु रचनाएं
ताना मारते
खिलखिलाते फूल
बेशर्म गर्मी
पानी ग़ायब
ताल का, तालाब का
सूनी आँख का
तेज सूर्य का
सह न पाई धरा
दरारें पडीं
बंद कमरे
दोपहर खामोश
सर्वत्र मौन
अतृप्त मन
प्यासा ही लौट आया
गागर खाली
अंधेरी रात
ढूँढ़ती बिल्ली काली
जो है ही नहीं
भूखे को रोटी
नंगे तन कपड़ा
हरि श्रृंगार
रास्ते में खड़े
दरकिनार न हों
चाहते प्यार
आपकी बातें
थोड़ी सी हाँ, थोड़ा ना
भ्रमित मन
डा. सुरेन्द्र वर्मा / १०/१ सर्कुलर रोड / इलाहाबाद -२११००१
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पद्माजंलि
बोनसाई
इतनी जीवंतता थी उस जीवन बीज में;
अचानक से उग गया था वो उर्वरा जमीन में...
अनुकूल खाद-पानी मिला नहीं
फिर भी रहा कभी गिला नहीं...
आंधियों की मार झेली, भीगता रहा बारिशों में
अप्राकृत बचपन ,ले रहा था प्राकृत पोषण...
बाहरी उपेक्षा बन रही थी आंतरिक जड़ों का विशेषण
उसकी जड़ें जमने लगीं...
आसपास की मिट्टी थमने लगी....
कानों में पहने समय की सुनहरी बालियां;
उसमें फूटने लगी हरीतिमा लिए डालियां....
उसके जड़-तना,रंग-रूप से,
उस पर खिलने वाली घूप से;
आस-पास वालों को,'कथित रखवालों' को;
अंदाजा हो गया उसके आकार का
जैसे ही वक्त आया उसके प्रसार का,
आसमां छूने वाले सपने के साकार का;
तभी स्थिति-परिस्थिति,
निश्चय और नियति जैसे मजबूत तारों से बांध दिया उसकी जड़ों को...।
वो बंधन में कसमसाता रहा....
अपनी ही टूटन में छटपटाता रहा....
अब यह है विकास का विकृत स्वरूप,
एक ''बोनसाई'' है ''देवदार'' का परिवर्तित रूप...
आज की प्रकट-परिस्थिति में जब लोग उसकी जीवतंता को सराहते है;
कोई क्यों जाने ,'तरूण-वृक्ष' के अन्दर कितने वृक्ष के अंदर कितने दर्द कराहते हैं....
'इंतज़ार'
मुसीबत की बारिश में भीगी हुई चिड़िया हूँ मैं;
ज़िन्दगी की धूप में पंख सुखा रही हूँ.....
दुआ में बंद हैं आँखें हरदम,
'वक्त की बिल्ली' से खुद को छिपा रही हूँ.....
मुझे मालूम है खुले आसमानों की राहें,
क्षितिज ने फैला रखी हैं मेरे लिए बाँहे.....
खुले पिंजरे में कैद हूँ मैं,
फिर भी सपनों में खुद को उड़ा रही हूँ.....
'वक्त की बिल्ली' से खुद को बचा रही हूँ.....
इस हाल में भी की है, उड़ने की कोशिश,
पर पंखों ने साथ नहीं दिया.....
हिम्मत के हैं अवशेष, पर ताकत नहीं शेष;
'कथित अपनों' ने भी बढ़ कर हाथ नहीं दिया.....
इशारों से अनुकूल हवाओं को बुला रही हूँ.....
पंखों को सुखा रही हूँ.....
एक दिन तो उड़ पाऊंगी!
और भी निखर कर, जा बैठूंगी शिखर पर;
देखेंगे सब चमकीली आँखों से,
पर हाथ नहीं आऊंगी.....
इस सुनहरी सोच से दर्द में मुस्करा रही हूँ.....
'वक्त की बिल्ली' से खुद को बचा रही हूँ.....
गुड़िया
औरत जैसा है तन-मन, पर 'गुड़िया' जैसा है जीवन;
मैं खुशी कहाँ से लाऊँ .....
बाबुल ने ब्याह रचाया था, एक गुड्डा मुझे दिलाया था.....
पर जान डालनी भूल गए वो, क्या माँ तुझे बताया था.....?
ना 'वो' समझे, ना मुझे जाने.....
जीवन तो काटा यूँ ही अन्जाने, पर खुशी कहाँ से लाऊँ .....
परियों जैसी सोच दी तुमने,
फिर क्यों परों को काट दिया.....
मैं थी लाडली;
फिर क्यों किसी को हाथ दिया.....
ना उसने मेरे भावों को धरती दी,
ना सपनों को आकाश दिया.....
बोलो! फिर मैं खुशी कहाँ से लाऊँ .....
माँ, अब तक कुछ नहीं मांगा तुमसे,
ना खेल-खिलौने, ना कपड़े-गहने;
पर आज मैं इतना चाहूँ.....
मुझको बाबुल का पता बता दे,
उसके सीने में छुप जाऊँ .....
और शायद खुशियाँ पा जाऊँ .....
मिट्टी
किस्मत के चाक पे मैं मिट्टी-सी ढल गई.....
'उसकी' उंगली के इशारों से हर पल बदल गई.....
किसी 'अनछुई-सी धरती' की कोख से,
लाया था 'वो' मुझको कितने शौक से.....
मुझे गौर से जो देखा, कुछ अलग थी मेरी कुदरत.....
गढ़ने के लिए मुझको, उसने चाही थी थोड़ी फुरसत.....
सोचने में जाने कितना वक्त लगाया.....
पर क्या बनाए मेरा, ये समझ ही न पाया.....
मुझ पर से जाने कितनी आँधी-बारिश निकल गई.....
कुछ तो बह गई मैं, पर थोड़ी संभल गई.....
उसकी उंगली के इशारे-पे.....
कभी पैरों से गया रौंदा, कभी हाथों से संभाला.....
धीरे-धीरे से मेरा सारा रंग-रूप बदल डाला.....
फिर एक दिन उसने कुछ रंग मिलाने की सोची.....
'मुझ मिट्टी' से इक मूरत ही बनाने की सोची.....
पर वो मूरत सवाल करती थी,
उसकी सीरत बवाल करती थी.....
बदला उसने अपना वो इरादा.....
मूरत-सा तोड़ दिया खुद का ही वादा.....
फिर उसने बनाया एक गज़ब तमाशा.....
'बिना पहचान' के एक बुत में तराशा.....
पर भूल से थोड़ी-सी जान, भी डल गई.....
'उसकी' उंगली के इशारे से हर पल बदल गई.....
इस बुत से वो अचरज में पड़ा.....
बस बनाने की सोची आख़िर में इक घड़ा.....
पर 'घायल मिट्टी के आँसूओं ने उसे सूखने न दिया.....
'भीतर की सुलगती आँच' पे भी पकने न दिया.....
'उसने' उठाई समय की ठोकर,
बड़ी ज़ोर से घड़े पर मारा
बिगाड़ दिया.....अपना ही खेल सारा.....
मिट्टी ही तो थी आखिर.....
मिट्टी में मिल गई.....
'उसकी' उंगली के इशारे पे हर पल बदल गई.....
'वो'
जब आँसूओं से भीगी लकड़ी-सा सुलगता था मन;
तब वो चूल्हे के धुएँ को दोष दिया करती थी.....
जाने किस बात पे रोना और 'बात पर भी न हँसना,
ऐसे ही कितने काम तो वो हर रोज़ किया करती थी.....
पी लेती थी अक्सर गिलास भर के आँसू.....
बड़ी आसानी से वो उसे ख़ारा पानी सोच लिया करती थी.....
जब भी होती थी झमाझम-सी बारिश.....
'बिना भीगे' ही वो अपना पल्लू निचोड़ लिया करती थी.....
आँसू के निशाँ ना पड़े कही गुलाबी गालों पर,
किसी भी बच्ची के आँसू वो झट से पोंछ दिया करती थी.....
पद्मांजलि
फरीदाबाद हरियाणा
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शालिनी तिवारी
मेरे लफ़्ज तुझसे यकीं माँगें
झुरमुट में दिखती परछाइयाँ
घुँघुरू की मद्दिम आवाज
लम्बे अर्से का अन्तराल
तुझसे मिलने का इन्तजार
चाँद की रोशन रातों में
पल हरपल थमता जाए
ऐसा लगता है मानो तुम
मुझसे आलिंगन कर लोगी
पर कुछ छण में परछाइयाँ
नयनों से ओझल हो जायें
दिन की घड़ी घड़ी में बस
बस तेरी ही याद सताये
सच कहता हूँ मै तुमसे
मेरे लफ़्ज तुझसे यकीं माँगे.
सच में सच को समझ न पाना
यह मेरी ऩादानी थी
एक दीदार को मेरी ऩजरें
हरपल प्यासी प्यासी थी
वक्त के कतरे कतरे से
एक झिलमिल सी आहट आई
मेरी रूहें कांप उठी
जब उसने इक झलक दिखाई
चन्द पलों तक मैं खुद को
उसकी बाहों में पाया था
यही वक्त था जिसने मुझको
गिरकर उठना सिखाया था
सच कहता हूँ मै तुमसे
मेरे लफ़्ज तुझसे यकीं माँगे.
दिल की चाहत एक ही है
तुम मेरी बस हो जाओ
गर इस जनम न मिल पाओ तो
अगले जनम तुम साथ निभाओ
जग सूना सूना है तुम बिन
तुम ही मेरी खुशहाली हो
मेरे आँका खुदा तुम्ही हो
मेरी रूह की धड़कन तुम हो
साथ में मरना साथ ही जीना
दो होकर भी एक हो जाऊँ
जनम जनम तक साथ मिले बस
इससे ज्यादा क्या बतलाऊँ
सच कहता हूँ मैं तुमसे
मेरे लफ़्ज तुझसे यकीं माँगे.
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मिथिलेश_राय
मुक्तक
तेरी उम्र तन्हाई में गुजर न जाए कहीं!
तेरी जिन्दगी अश्कों में बिखर न जाए कहीं!
क्यों इस कदर मगरूर हो तुम अपने हुस्न पर?
कोई गम कभी दामन में उतर न जाए कहीं!
000000000000000000000
मुकेश कुमार
महकाने बनकर मेरे दिलों में ...
ग़ज़लों की रूहानी शाम गुज़रती हैं
महकाने बनकर मेरे दिलों में ...
शमसीर बनके आँखों में चुभती है
महकाने बनकर मेरे दिलों में...
दिन रात तेरे वादों की ख़िलाफ़त होती रही
महकाने बनकर मेरे दिलों में...
उम्र गुज़र गयी तुझे भुलाने में
महकाने बनकर मेरे दिलों में ...
हर शाम किसी टेबल के कोने पर
मय्यसर शाम गुज़रती हैं तेरे मेरे अफसानों
को तकियों से शिकायतें कर करके
महकाने बनकर मेरे दिलों में ...
हर शाम तुझको पैमाने के साथ भूल जाता हूँ
महकाने बनकर मेरे दिलों में ...
मुकेश कुमार
सीकर राजस्थान (332001)
000000000000000000
नैनाराम देवासी
इश्क़ का ख़ुमार
हमारा इंतज़ार , उनका आना
ओर यूँ ही सर झुकाए गुजर जाना
मानो पतझड़ में सावन का आना
मालूम है उनको कि
इंतज़ार हम उनका ही करते हैं
बताता है उनका धीमे से मुस्कुरा कर चले जाना
दीदार उनका पाकर
मेरे चेहरे का खिल जाना
लगता है पल भर में बरसों जी जाना
न तड़प है ना तिश्नगी
मुक्कमल होना मेरे इश्क का
उनका आना और चले जाना
है मुक्तसर सा तो
इश्क़ उनको भी हमसे
बताता है उनका उसी गली से गुज़र जाना
चढ़ रहा है ख़ुमार
धीरे धीरे इश्क़ का
बताता है अलसुबह उनका चेहरा याद आना
पता- मुकाम पोस्ट सांकरणा तह.-आहोर
जिला-जालोर (राज.)
343001
000000000000000000
दामोदर लाल जांगिड़
अरे तुम !
अरे तुम रो रहे हो आज क्यों कर ?
जबकि हक रोने का तुम तो खो चुके हो,
मैं बहुत अर्से से तुमको जानता हूँ ।
और केवल एक मैं ही तो नहीं जो,
कि बहुत पहले से तुमको जानता हूँ।
हां सिवा मेरे भी कितने लोग तुमको जानते होंगे,
पता हैं क्यों ?
क्यों कि तुम अपनी ही बेटी के कभी कातिल रहे हो।
तुम वही तो शख्स हो जिसने बिचारी एक मां की
कोख को ही कत्लगाह में बदल डाला ।
तुम्ही ने मार डाला कभी अपनी ही बेटी को।
बधिक तो हो मगर कैसे बधिक हो तुम,
कसाई जन्म ले लेने देते सब्र करते
मगर तुम एक अर्से बाद कैसे रो रहे हो ?
शायद मुझको देख कर कि रो रहा हूँ मैं, हां रो रहा हूँ मैं।
मगर तू गौर कर के देख ले खुद ही कि
कितना फर्क हैं जो कि बयां करता
तेरे अब छिप रोने में, दहाड़ें मार कर रोने में मेरे।
तेरे रोने में केवल और केवल एक अपराधी का पछतावा झलकता हैं
जबकि आज मैं जो रो रहा हूँ अपनी बेटी को विदा कर उसके के ही घर से,
कि जिसकी पहली किलकारी से ले के अब विदा होते समय कैसे दहाड़ें मार ने तक
के सफ़र को याद कर कर के कि जब वो घर में आयी थी तभी रोते हुए आई,
विदा की आज घर से तो तनिक भी हंस नहीं पायी
आज भी रोते हुए निकली फफक कर अपने ही घर से।
लिपट कर उसका रोना क्या कभी भी भूल सकता हूँ।
0000000000000000000
पंडित विनय कुमार
मेघा आये .
मेघा आये जल्र बरसाये
धरती की प्यास बुझाये
मेघा आये जल बरसाये
घरती पर हरियाली छाए
बादल उमड़ घुमड़कर
बिजली भी बरसाये ।
मेघा आए जल बरसाये
मन प्राणों में आस जगाये ।
खेती हरी भरी दिखती अब
फसलों में सुन्दरता लाये ।
काले काले प्यारे बादल
गरज गरज कर जल बरसाये ।
मेघा आये जल बरसाये
धरती की प्यास बुझाये ।
-- पंडित विनय कुमार, शिक्षक ,
महेश हाई स्कूल अनिसाबाद , पटना -800002
(बिहार).
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रघुवीर सहाय श्रीवास्तव
बुंदेली कविता : रमुआं की घरवारी
1. देखो, ठांड़ी खेत रखा रई रमुआं की घरवारी
अपने सास-ससुर, प्रीतम की, वा प्रानन से प्यारी ।।
2. तिरछी हेरन, निगन अनौखी वनक, ठनक है वांकी
छलक जात है घुंग्टा में हो गोरे मुख की झांकी।
जैसई रूप और रंगवारी वैसई है गुनवारी
अपने सास-ससुर, प्रीतम की वा प्रानन से प्यारी।।
3. पथरा धर गुथना के भीतर हाथ घुमा फटकारे
देखे होत उजार खेत में वा तुरतई ललकारे
ठांड़ी रहे मेड़ पे दिन भर करत खेत रखवारी
अपने सास-ससुर, प्रीतम की वा प्रानन से प्यारी।।
4. रोज पिसान पसैरक पीसत आलस तनकउं नईंयां।
अपने हाथन बीन लियावे कण्डा और नकईयां।
टोर खेत से खुदई लिआवे मनमानी तरकारी
अपने सास-ससुर, प्रीतम की वा प्रानन से प्यारी।।
5. नाक नथनियां नौनी दमके झुंमकन मुतियां चमके।
ककरा डारे पांव पैज़नी खूब खनाखन खनके।
नौ लर की करदौनी नौनी करया कसी निआरी
अपने सास-ससुर, प्रीतम की वा प्रानन से प्यारी।।
6. हांथन हंसिया लेय लछारो चारौ कॉटन जावै।
हरष, हरष के चारौ काटे हंस, हसंके वा गावे।
लट, लटके गालन के ऊपर चुटिया नागन-कारी।
अपने सास-ससुर, प्रीतम की वा प्रानन से प्यारी।।
7. चटक चाल चलवै चटकीली बिछिअन छमक सुनौवे
हिरनी नाई नैननवारी सेनन से मुस्कावै।
कौउ कहे किशोरीबाई कोउ कहे झलकारी
अपने सास-ससुर प्रीतम की वा प्रानन से प्यारी।।
रघुवीर सहाय श्रीवास्तव
परसोन वाले, कोटरा, भोपाल मप्र
000000000000000000000
सीताराम साहू
माँ ये चिट्ठी हमारी तू ले लीजिये ।
जब समय हो सही उनको दे दीजिये ।
मुझको पाला ,सम्भाला ,बनाया बहुत ।
मैं ही भूला हूँ तुमने निभाया बहुत ।
तेरे अहसान मैं कुछ नहीं मानता,
मानता हूँ कि मैंने सताया बहुत ।
पुत्र का मैंने रिश्ता निभाया नहीं,
किन्तु माँ का तू रिश्ता निभा दीजिये।
माँ ये चिट्ठी हमारी तू ले लीजिये ।
जब समय हो सही उनको दे दीजिये ।
मातृशक्ति को करता रहे सर नमन ।
मातृभूमि का खिलता रहे ये चमन।
कर करे काम केवल तुम्हारे लिए,
दीन दुखियों के दुख में दुखे मेरा मन ।
अपना ही सबको समझूं ये वर दीजिये ।
मौत से झूमने का हुनर दीजिये ।
माँ ये चिट्ठी हमारी तू ले लीजिये ।
जब समय हो सही उनको दे दीजिये ।
माँ कोई भय मुझे अब सताए नहीं ।
तेरी छबि के सिवा कुछ भी भाये नहीं ।
तेरी ही गोद में सोऊं अंतिम समय,
मौत मेरी किसी को रूलाये नहीं ।
अंतिम इच्छा यही पूरी कर दीजिए ।
अपने चरणों में अंतिम नमन लीजिए।
माँ ये चिट्ठी हमारी तू ले लीजिये ।
जब समय हो सही उनको दे दीजिये ।
--
मुहब्बत नाम है माँ का अगर समझो समझ जाओ ।
ये गीता भी है रामायण अगर समझो समझ जाओ ।
इसी मां ने बड़े ही प्यार से भगवानों को पाला है ।
इसी ने अपनी ममता से हम सभी को सम्भाला है ।
नहीं परवाह की अपनी और न अपने जीवन की
सभी कुछ अपनों पे वारा न्योछावर कर ही डाला है ।
कि सेवादार इनका नाम गर समझो समझ जाओ ।
ये गीता भी है रामायण अगर समझो समझ जाओ ।
जिसे भी कह दिया अपना मान भगवान बैठी है ।
उसी को सोप जीवन डोर ले उसकी आन बैठी है ।
है इनका प्यार अंधा और है विश्वास भी अंधा,
किया है प्यार जिससे उसको अपना मान बैठी है ।
कि ईश्वर नाम है माँ का अगर समझो समझ जाओ ।
ये गीता भी है रामायण अगर समझो समझ जाओ ।
किसी के दर्द को ये दसगुना महसूस करती है ।
कोई इज्जत करे इनकी तो उस इशां पे मरती है ।
स्वयं का दर्द तो होता नहीं है इनके तन मन को ,
किया अपमान इनका तो शिकायत रब से करती है ।
गुरु भी नाम है इनका अगर समझो समझ जाओ ।
ये गीता भी है रामायण अगर समझो समझ जाओ ।
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कनकने राखी सुरेन्द्र
'कन्या पूछे'
देवी के सारे रूप पूज कर...
कन्या भोज कराएँ...
फिर रावण को आग लगा कर...
बुराई पर जीत का जश्न मनाएँ...
मैं कन्या पूछूं तोसे...
खत्म हुई बुराई जब सृष्टि से...
फिर क्यों अब भी मोहे डर लागे...
यत्र तत्र सर्वत्र हैं रावण ठाढ़े...
कोई तो इनको भी जलाये...
बलात्कार की प्रथा खत्म कराए...।
- कनकने राखी सुरेन्द्र,
मुंबई
000000000000000000
राहुल कुमावत
आज खुद से टूटा हूँ,
खुद ही खुद से रूठा हूँ
तन्हा तन्हा सी इस दुनिया में
तन्हा में एक अकेला हूँ
मेरी खामोशी मेरी हँसी
सब फितरत की नौटंकी
आधी आधी रात में रोता हूं
दिन को हँसकर सब कुछ सहता हूं
मैंने किरदार नहीं बदला
बस वक्त बदल गया
सब कुछ
अब धुंधला धुंधला सा रह गया
बादल भी इस मौसम
बिन बरसे ही रह गया
में आज भी वही "बच्चा" हूँ
जिसे दर्द ने पाल रखा है
जख्मों की निशानियों को
खुद के भीतर संभाल रखा है
मुझे इस
जमाने से कोई शिकायत नहीं
में ही कलयुगी पापी हूँ
गलतियों के भंडार से
अभिशापी हूँ
आज
हार जीत के खेल में
अनाड़ी बनकर में हार गया
अपनों से ही कैसे लड़ लूं
विपक्षी की भूमिका से में भाग गया
मैदान ए जंग में गर
दुश्मन होते तो
कब्र पर उनकी फूल चढ़े होते
पर आज
खुद की सेज सजा डाली
अब
कब्र पर डालो मेरे फूलों की डाली
अपनों की खातिर
हम तो यूँही पीछे हट जाते
पर पता नहीं क्यूँ
अपने ही यूं पराये कर जाते
गलतफहमियाँ ही दूरियां
बढ़ा देती है
बैठे बैठे ही बिछुड़न की साजिशें
रचा देती है
इंतज़ार की घड़ी देखते देखते
कब सवेरा हो चला
फिर अपनों से लड़कर
आँसू बहाने से क्या भला
राहुल कुमावत "बच्चा"
0000000000000000
प्रदीप उपाध्याय
स्वयं का होना
स्वयं का होना
पर्याप्त नहीं है
क्यों हैं किसके लिए हैं
इसमें नैराश्य का भाव है
अकेलेपन का अहसास है,
अपने उपयोगी होने पर सवाल है
अपने अस्तित्व पर प्रश्नचिन्ह है
स्वयं का कुछ होना
सुकून देता है
स्वयं को भी
अपनों को भी
और दूसरों को भी
लेकिन यदि स्वयं कुछ नहीं हैं
तब किसी के लिए आप कुछ नहीं हैं
लेकिन कुछ होने के लिए
बहुत कुछ खोना पड़ता है
दूसरों की अपेक्षाओं पर
खरा उतरना पड़ता है
अपनों के लिए भी
स्वयं का कुछ होना
जरुरी है वरना
चाहे अपनों के या परायों के लिए
स्वयं का होना कोई मायने नहीं रखता
जब तक खुद का कुछ होना
साबित नहीं हो जाता।
डॉ प्रदीप उपाध्याय,१६,अम्बिका भवन,बाबुजी की कोठी,उपाध्याय नगर,मेंढकी रोड़,देवास,म.प्र.
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आशीष श्रीवास्तव
जिसके लिए मेरा शहर, साल भर तरसा
वो पानी, अमृत बनकर नवरात्र में वर्षा
गर्मी, उमस ने सूबे को, कर रखा था बेचैन
ठण्डी पड़ी फुहार तो सभी का मन हर्षा
जिसके लिए मन मेरा, सालभर तरसा
वो पानी, अमृत बनके नवरात्र में बरसा
मानसून की आस में बीत गया इक अरसा
बिजली चमकी, बादल गरजे, पर पानी न बरसा
आए जो नवरात्र तो, टूट के ऐसे बरसे बदरा
जैसे उड़ते बादलों में, हवा ने मारा हो फरसा
जिसके लिए गांव मेरा, साल भर तरसा
वो पानी अमृत बनकर नवरात्र में बरसा
बारिश की बूंदों ने भर दिया खाली कलसा
उत्साही भक्तों ने मनाया, होली का भी जलसा
तृप्त हुई धरती, सूखे पेड़ों को मिला नवजीवन
मुस्काती बौछारों ने, खेतों को भोजन परसा
जिसके लिए हर प्राणी, साल भर तरसा
वो पानी, अमृत बनकर, नवरात्र में बरसा
-------.
वो मुस्कुरा भी दें तो सलाम लग जाता है
अच्छा सोचो तो, आराम लग जाता है
यहां तो सच्चे पर भी इल्जाम लग जाता है
जो काम करने वाला है, करता रहता है
जो नहीं करता उसका नाम लग जाता है।
लगाना चाहो] गमले में आम लग जाता है
बाहर न निकलो तो भी घाम लग जाता है
ये दिखावे की दुनिया है दोस्तों
यहां झूठे के हाथ भी ईनाम लग जाता है।
किसी के देखने भर से लगाम लग जाता है
वो मुस्कुरा भी दे तो सलाम लग जाता है।
ये मतलबी दुनिया है दोस्तों
यहां चलते रहो फिर भी जाम लग जाता है।
नीलामी से पहले ही दाम लग जाता है
यहां अच्छे-अच्छों का काम लग जाता है
समय बड़ा बलवान है दोस्तों,
ल{य पाने में सुबह से शाम लग जाता है।
अच्छा सोचो तो, आराम लग जाता है
सच्चे पर भी कभी इल्जाम लग जाता है
जो काम करने वाला है, करता रहता है
जो नहीं करता उसका नाम लग जाता है।
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महेन्द्र देवांगन "माटी"
एक दीपक बन जायें
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करो कुछ ऐसा काम साथियों,घर घर खुशियां लायें ।
भूले भटके राह जनों का,एक दीपक बन जायें |
चारों तरफ है आज अंधेरा,किसी को कुछ न सूझे।
पथराई है सबकी आंखें,आशा की किरण बुझे ।
कर दें दूर अंधेरा अब,नया जोश हम लायें ।
भूले भटके राह जनों का,एक दीपक बन जायें ।
शोषित पीड़ित दलित जनों का,हम सेवक बन जायें ।
सभी हैं अपने बंधु बांधव,इसको मार्ग दिखायें ।
कोई रहे न भूखा जग में,मिल बांटकर खायें ।
भूले भटके राह जनों का, एक दीपक बन जायें ।
शिक्षा का संदेश लेकर,घर घर पर हम जायें ।
अशिक्षा अज्ञानता के, तम को दूर भगायें ।
नहीं उपेक्षित कोई जन अब,अपना लक्ष्य बनायें ।
भूले भटके राह जनों का, एक दीपक बन जायें ।
ऊंच नीच और जाति पांति के,भेद को दूर भगायें ।
अमावश की कालरात्रि में,मिलकर दीप जलायें ।
त्योहारों की खुशियां हम सब,मिलकर साथ मनायें ।
भूले भटके राह जनों का,एक दीपक बन जायें ||
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महेन्द्र देवांगन "माटी"
गोपीबंद पारा पंडरिया
जिला-कवर्धा (छ.ग)
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अशोक सिंह
माँ भारती के अँचलों में हो रही ठिठोलियाँ
रहते हैं माँ के अँचलों में बोले विरोधी बोलियाँ ।।
माँ भारती के ये वाशिंदे होश में जीते नहीं
बोले हमेशा बोल तीखे राष्ट्र को संजोते नहीं ,
कहीं पत्थरों की होती बारिश चलती कहीं है गोलियाँ
रहते हैं माँ के अंचलों में बोले विरोधी बोलियाँ ।।
मिट्टी से लेकर जन्म वे मिट्टी को ही दहला दिये
लेकर विद्रोही शस्त्र वे मानवता को झुठला दिये ,
जिस देश के रहमों करम उनको मिली थी खोलियाँ
आज उनका ही अपमान कर बरसा रहे हैं गोलियाँ
रहते है माँ के अँचलों में बोले विरोधी बोलियाँ ।।
यहाँ राष्ट्र भक्ति रूपी चोला गलियों में बिकता दिखे
चोले को धारण कर यहाँ इंसान भी बिकता दिखे ,
यहाँ धर्म-जाति से सनी लगती हैं नित्य बोलियाँ
रहते हैं माँ के अँचलों में बोलें विरोधी बोलियाँ ।।
अशोक सिंह आजमगढ़ उत्तर प्रदेश
00000000000000000000
हिमांशु सिंह 'वैरागी'
जुलाई का वो महीना,
तूने हाथ पे लगाया था हिना,
सुन! मेरी दिलरुबा, मेरी हसीना....
तूने बहुत घुमाया मुझे मक्का-मदीना,
एक बार फिर से याद कर,
हम दोनों ने कसमें खाई थी,
हमें साथ में है जीना।
जुलाई का वो महीना.....
तूने कभी सोचा था,
तेरा ये प्यार,
ये बिछड़न,
ये आतिफ....
किसी को बना सकती है कमीना,
फ़िलहाल अब तो सबकुछ भूल गया,
वरना अगर औकात पे आ जाता,
तो नचाता तुझे उसी ताल पे,
जिससे आवाज़ आती है ती, ती, ना, धिना, धिना....
जुलाई का वो महीना.....
तुझे उस गुलाबी टी-शर्ट में देखकर,
मुश्किल हो गया था मेरा जीना,
मैं तो हो गया था पूरी तरह पसीना-पसीना,
बस एक गलतफहमी में पड़ चूका था,
की तूही है मेरी बिना,
हे मरजीना! आख़िरकार तूने मुझे बना ही दिया कमीना.
---.
हे अनुरक्त स्त्री!(वनिता) तुझे सत्-सत् नमन...
तेरे प्यार ने किया दुर्बल-निर्बल, एक कल,
तू नहीं कर सकती मेरा दमन,
हे प्रेयसी! तुझे सत्-सत् नमन...
मंदोन्मत्त गुल-खिलाया,अंगुल भर समझकर
उंगली पर नचाया;
अपनी आवाज में तूने कुछ तो मिलाया,
फिर पिलाया,फिर पिलाया
गिराया,बार-बार गिराया,
लेकिन तू छीन ना सकी मेरा अमन,
क्योंकि तेरी इतनी औकात नहीं,
तू कर दे मेरा दमन।
हे प्रिया! तुझे सत्-सत् नमन...
मैं मानता हूँ,
तेरे हजारों रक़ीब,
आतिफ है तुझपे।
जिससे तुझे लगता,
तू कर लेगी मेरा दमन,
अब क्या कहूँ तेरा ये अबोधपन...
हे! उन आतिफ की दी'वानी,
तेरे बस का नहीं,
कर पाना दमन,
हे सुप्रिया! तुझे सत्-सत् नमन...
-हिमांशु सिंह 'वैरागी'
000000000000000000
जितेन्द्र कुमार
०००००० गिद्ध ००००००
होते थे गिद्ध
एक जमाने में
जो मरे हुए पशुओं और मनुष्यों को
खा जाते थे
नोच-नोच कर।
नहीं रहे अब वे
उस रूप में
ले लिया है पुनर्जन्म
घुल-मिल गये हैं मनुष्यों में
फैल गये हैं हमारे चारों ओर
हर चौराहे,
हर गली,
हर रास्ते पर
ये मानव वेशधारी गिद्ध
जो
अवसर पाते ही
नोच डालते हैं
हमारी बहू-बेटियों के जिस्म को
पुनः डाल लेते हैं
अपने तन पर
मनुष्यता का आवरण।
नहीं शिक्षा लेते
उस गिद्ध से
जिसने दे दी अपने प्राणों की आहुति
एक स्त्री की लाज बचाने के लिए।
------------------०------------------
आदमी को कभी अपनी कमी नहीं मिलती
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पहले मिलती थी मगर अब कहीं नहीं मिलती।
ढूँढने पर भी कभी अब खुशी नहीं मिलती॥
सभी दिखावे को हँसते हैं मुस्कराते हैं,
किसी के चेहरे पर निश्छल हँसी नहीं मिलती।
अगर जीना है तो हवा से छीन लो साँसें,
माँगने से यहाँ पर मौत भी नहीं मिलती।
हमेशा दूसरों में दोष ही झलकते हैं,
आदमी को कभी अपनी कमी नहीं मिलती।
दो कदम चलके सभी साथ छोड़ देते हैं,
अमर हो जाए ऐसी दोस्ती नहीं मिलती।
वो जो बीती है माँ के प्यार की पनाहों में,
चाहने पर भी कभी वो घड़ी नहीं मिलती॥
जितेन्द्र कुमार
आज़मगढ़
मो. न.- 8808489463
000000000000000000000
लोकनाथ साहू ललकार
गर इज़ाज़त हो तो अधरों में,
शरद के मैं छंद लिखूँ
गर इनायत हो तो पहलू में,
शरद के मैं निबंध लिखूँ
तेरी धड़कनों का ये आमंत्रण है,
साँसों के अनुबंध लिखूँ
बागों में, बहारों में, नदियों में, कछारों में,
जंगल और पहाड़ों में, शरद के ही नज़़ारे हैं
मौजों में, धारों में, ठहरे हुए किनारों में
बर्फीली नज़ारों में, शरद के ही शरारे हैं
समय का ये आमंत्रण है,
गर तुम संग दो तो प्रेमग्रंथ लिखूँ
गर इज़ाज़त हो तो अधरों में,
शरद के मैं छंद लिखूँ
नूरे-हुस्न की गलियों में, शरारे भरी अंखियों में,
बल खाती बतियों में, शरद के ही इशारे हैं
शाखों में, मंजरियों में, कोपलों में, पत्तियों में,
फूलों और कलियों में, शरद की ही बहारें हैं
तेरी झुकी पलकों का ये आमंत्रण है,
तेरे तन-मन में मकरंद लिखूँ
गर इज़ाज़त हो तो अधरों में,
शरद के मैं छंद लिखूँ
चाँद है राजसी वेश में, चाँदनियों के देश में
राधा-कृष्ण परिवेश में, शरद के ये फ़साने हैं
द्वापर में हुआ महारास है, प्रेम पवित परिभाष है,
प्रेम ही सत्य प्रकाश है, शरद के ये माने हैं
तेरी अंगड़ाई का ये आमंत्रण है,
शरद के मैं रसरंग लिखूँ
गर इज़ाज़त हो तो अधरों में,
शरद के मैं छंद लिखूँ
--
लोकनाथ साहू ललकार
बालकोनगर, कोरबा
मोबाइल - 9981442332
00000000000000000000000000
नन्दलाल भारती
।।।।।। कैसी मजबूरी।।।।।
ये कैसी सल्तनत है
जहां शोषितों को आंसू
अमीरों को रत्न धन मोती,
मिलते हैं,
शोषितों के नसीब दुर्भाग्य
बसते हैं
पीडित को दण्ड शोषक को
बख्शीश क्या इसी को
आधुनिक सल्तनत कहते हैं
ये कैसी सल्तनत है
जहाँ अछूत बसते हैं........
दर्द की आंधी जीवन संघर्ष
अत्याचारी को संरक्षण
निरापद को दण्ड यहां
हाय. रे बदनसीबी
जातिवाद, अत्याचार,चीर हरण
हक पर अतिक्रमण, छाती पर
अन्याय की दहकती अग्नि
विष पीकर भी देश महान
कहते हैं
ये कौन सी सल्तनत में
सांस भरते हैं.....................
श्रमवीर,कर्मठ, हाशिये के लोग
अभाव,दुख,दर्द मे जी रहे
खूंटी पर टंगता हल,
हलधर सूली पर झूल रहे
महंगाई की फुफकार
आमजन सहमे सहमे जी रहे
अभिव्यक्ति की आजादी लहूलुहान
कलम के सिपाही मारे जा रहे
चहुंओर से सवाल उठ रहे
कैसी सल्तनत ,लोग
भय आतंक के साये में जी रहे......
बढ रहा है खौफ़ निरन्तर
जातिवाद का भय भारी
जातिविहीन मानवतावादी
समाज की कोई ले नहीँ रहा जिम्मेदारी
जातिवादी तलवार पर सल्तनत है प्यारी
इक्कीसवीं सदी का युग पर,
छूआछूत ऊंच नीच का आदिम युग है जारी
इक्कीसवीं सदी समतावादी विकास का युग
जातिवाद रहित जीवन जीने का युग
हाय रे सल्तनत तरक्की से दूर
जातिवाद का बोझ ढो रहे
हम कौन सी सल्तनत मे
जीने को मजबूर हो रहे........।
हाय रे सल्तनत बस मिथ्या
शेखी
कभी, बाल विवाह, गरीबी, शिक्षा के
दिन पर गिरते स्तर,बेरोजगारी,स्वास्थ्य
जातीय उत्पीडन,घटती कृषि भूमि
घटती खेती किसानों की मौत पर
सामाजिक जागरण या कोई बहस देखी
अपनी जहाँ वालों आधुनिक सल्तनत
हमसे है हम सल्तनत से नहीं
ऐसी क्या मजबूरी है कि मौन
सब कुछ सह रहे
सल्तनत कि जय जयकार कर रहे...........
-----------.
कैसा शहर
ये कैसा शहर है बरखुरदार
ना रीति ना प्रीति
धोखा, छल फरेब,षड़यंत्र
ये कैसे लोग कैसा तन्त्र
मौत के इन्तजाम, छाती पर प्रहार
ये कैसा शहर है बरखुरदार......
ये कैसा शहर,आग का समंदर
डंसता घडिय़ाली व्यवहार
पारगमन की आड़ में अश्रुधार
रिश्ते की प्यास , जड में जहर
हाय रे पीठ मे भोकता खंजर
पुष्प की आड़ ,नागफनी का प्रहार
ये कैसे लोग हैं बरखुरदार...........
मन मे पसरा बंजर ,तपती बसंत बयार
जश्न के नाम करते घाव का व्यापार
छल स्वार्थ के चबूतरे ,दिखावे के जश्न
जग हंसता,चक्रव्यूह में रिश्ते वाले प्रश्न
छल,भय,जादू से ना जुड़ सकती प्रीत
ना कर अभिमान, ना पक्की जीत
धोखे से असि का ना कर प्रहार
बदनाम हो जाओगे बरखुरदार......
ना लूट सपनों की टकसाल
ना कर मर्यादा पर वार
तेरा भी लूट जायेगा एक दिन संसार
आंसू दिये जो , मिलेगा तुम्हें गुना हजार
कैसे मानुष जिह्वा पर विष,मन मे कटार
युग बदला तुम ना बदले कैसे तुम, कैसा शहर ?
कैसी रीति कैसी प्रीति कैसा लोकाचार
रिश्ते को ना करो बदनाम बरखुरदार.......
--.
रिश्ते की बहार।।।
अफसोस है दुख है अपमान का
जिसके बारे में कोई सोच भी नहीं सकता
अदना कैसे सोच सकता था
सरेआम मौत रुपी अपमान के बारे में......
हाँ गलती हुई आदमी को
पहचानने में
जिसे रिश्ता था समझा
सौदागर सौदा बना दिया.......
ठगा गया रिश्ते का भूखा
रिश्ता अभिशापित हो गया
अदने का लूट गया आबरू
पूंजी था जिन्दगी का जो
रिश्ते की आड़ में...........
जिन्दगी के अरमां थे जो
बाढ़ के पानी ले डूबे
सपनों के संसार को
रिश्ते कहाँ मरते हैं ठगी के बाजार मे
रिश्ते की आड़ मे अपमान देने वाले
कलंकित हो जाते हैं
रिश्ते की बहार में........
--.
दर्द से खुदा बचाये।
बाबू अपनों के दर्द से खुदा बचाए
अपनों का दर्द बदनसीब के हिस्से ना आए
सच बाबू अपनों से मिला घाव
देता है दर्द बहुत दर्द.....
दर्द मे लूट जाती है दुनिया
कैद हो जाता है सुकून
साथ होता है अथाह दर्द का दरिया
सुलगता घाव उखड़ता पांव
जीवन हो जाता है नरक........
दर्द में थमने लगती है सांसे
कांप उठती है रूह
दूर जब होता है या रूठ जाता है
अपनों का हाथ
भरी जहाँ में आदमी हो जाता है अनाथ
सच बाबू अपनों का घाव
देता है दर्द बहुत दर्द.........
दांत का दर्द तो बन जाता है
जैसे फांसी का फन्दा
का़ंपने लगता है बदन का भूगोल
घूमने लगती है धरती गोल गोल.......
कान उगलने लगता है धुआं
नयनों से रिसने लगता है
दहकता हुआ नीर
नाक को सूझता है बस दर्द
जिह्वा पाजी हो जाती है दुश्मन
रो उठता है मन........
शरीर में मच जाता है भूचाल
सच ऐसा ही तूफानी होता है
अपनों से मिला दर्द
सच है बाबू अपनों का दिया दर्द
चाहे कान का दर्द हो
दांत का दर्द या औलाद का
शब्दों में नहीं कर सकते बयां
निःशब्द हो जाते हैं अर्थ
तन को मन को आत्मा को
जब बेधता है दर्द..........
सच है बाबू दांत का दर्द हो या
कान का हो या सगे या औलाद का दिया दर्द
जानलेवा होता है, कभी कभी तो ले भी लेता है
बाबू जीने के लिए दर्द को भी
अपना बनाना पड़ता है
कल की आस में आज को फ़ना करना पड़ता है
बाबू अपनों के दर्द से खुदा बचाए
ऐसा दर्द बदनसीब के हिस्से ना आए......
---.
डॉ नन्दलाल भारती
16/09/2017
0000000000000000000
प्रदीप चन्देल
चिर शांति में स्थान मिलें
तिमिर की लिपटी काया में, ऐसा एक दंश लगा ।
दानव सी निर्मम रात ने, ऐसा एक दांव रचा ।।
उस मस्त हंसी सी महफ़िल में, जैसे सब-कुछ ठहर गया ।
एक तेज हवा के झोंके से मेरा फूल टूटकर बिखर गया ।।
न साथ रहा बस याद रही, तेरी हर दिन हर रातों में ।
हर मन हुआ सूना-खाली, सर्दी-गर्मी-बरसातों में ।।
माँ की ममता यू उजड़ गयी, जैसे संकट संग्राम सा था ।
हर प्रयत्न पिता का विफल हुआ, ऐसे विस्मय तूफान उठा ।।
जब भी देखूं उस आंगन को, हर बात तेरी तरसाती है ।
राखी भी सुनी बहना की, बस याद तेरी ही आती है ।।
हर बंधन-रिश्ते-घर-बिस्तर, आज भी सब कुछ वही है ।
साथ यहां है अब भी सब, बस एक तू ही नहीं है ।।
तू फिकर न कर माँ-पापा की यहां सब को में मना लूंगा ।
डरता हूँ गर कमजोर पड़ा, खुद को कैसे मैं संभालूंगा ।।
हर पल, हर शब, हर पहरों में, में तुझे सोचता रहता हूं ।
धरती-अम्बर-जल-लहरों में, मैं तुझे खोजता रहता हूं ।।
भीड़ भरी इस दुनिया में, तन्हा तन्हा से रहता हूं ।
देख आईना खुद में भी, बस तुझे टटोलता रहता हूं ।।
हर मन, घर, घट, बाज़ारों में, मैं तुझे भुला न पाऊंगा ।
पर खेद है चीर के नभ को भी, मैं तुझे बुला न पाऊंगा ।।
अब उठे घटा अम्बर के भी तारे सारे ये झड़ जाये ।
दीपक तेरा न बुझे कभी, मन यादों में तू अमर रहें ।।
है दुआ हमारी तेरे संग, तू जहां भी हो ख़ुशहाल मिलें ।
में प्रार्थी हूं उस ईश्वर का, चिर शांति में स्थान मिलें,
चिर शांति में स्थान मिलें.....
--
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अमित कुमार गौतम "स्वतंत्र'"
"नियरानि सरपंची"
----------------------------
ककऊ अब नियरानि सरपंची,
दौडय लागे भईया।
जेंखर दिनभर घर मॉ बीतय,
वोउ बनिगे घुमईया।।
नौ बजे तक नीद खुलत रही,
सकारे छोडय लागे खटिया।
ककऊ अब नियरानि सरपंची,
दौडय लागे भईया।।
चुनाव के पहिले देखतय ककऊ का,
पिराय लागय करिहा।
ककऊ के पहुचतय भईया अब,
उठाई लेत हा कनिया।।
ककऊ के अब खिंच गा रेरा,
चढी कराही छनि गई भजिया।
ककऊ अब नियरानि सरपंची,
दौडय लागे भईया।।
विनती भाव से हाथ जोडि के,
घर घर लागे पहुचय।
चंगू मंगू छानि के मदिरा,
दौडय लागे लई फटफटिया।।
जब मॉगिन आशिर्वाद,
स्वतंत्र कहिमारिन कल्याण हो भईया।।
ककऊ अब नियरानि सरपंची,
दौडय लागे भईया।।
-अमित कुमार गौतम "स्वतंत्र'"
(रचनाकार,पत्रकार)
ग्राम-रामगढ नं.2, तह-गोपद बनास, सीधी, मध्यप्रदेश,486661
0000000000000000000
राजकुमार यादव
घाटी के लड़के आज पत्थरबाज बन रहे हैं,
गुमराह हो रहे है, बदमिजाज बन रहे हैं.
दहशतगर्दी का हद काफी बढ़ चुका हैं,
डरे-सहमे लोगों के समाज बन रहे हैं.
कुछ खामिया सियासत का भी हैं,
इसलिए बेगाने यहां दखलअंदाज बन रहे हैं,
कश्मीर के वादियों से आज रौनक गुम है,
फिजां में परिन्दे भी बेइम्तियाज बन रहे हैं
तवारीख* के पन्नों में खूबसूरती दब चुकी है,
एक दूसरे को मारने के लिए अल्फाज बन रहे हैं.
गमदीदा हो गया होगा रूह-ए-हिन्दोस्तान,
जब कौमीयत के रखवाले ही धोखेबाज बन रहे हैं.
अब जम्हूरियत दिखाने मात्र की बात रह गई हैं,
'राज' घपले-घोटाले तो तवारीख-ए- आज बन रहे हैं.
तवारीख-इतिहास
000000000000000000
मुकेश बोहरा अमन
मानवता की जय करने
आओं बच्चों साथ चले ,
हाथ में ले हम हाथ चले ।
हिलमिल सबमें अपनापन और ,
प्रीत-प्यार की बात चले ।।
मानव का मानव से नाता ,
सभी रहे एक, बनकर भ्राता ।
आपस में हो भाईचारा ,
देखो वक्त दूर से गाता ।।
मानवता की जय करने को ,
संयम, समता को अपनाये ।
आई सम्मुख नई भोर को ,
चलो बढ़े हम पास बुलाये ।।
भवदीय,
mukesh bohra aman | mukesh.marsa@gmail.com
000000000000000000
शक्ति बारैठ
रचना का उनमान - "लगेगा एक और बरस"
लगेगा एक और बरस
बर्फ से ठंडे कन्धों पर लेकर उठेंगे
अस्थियाँ महबूब के उबलते जिस्म की
रेत को पिघलने
मौन को जलने
लपटों को मचलने में
होने में फिर से मुहब्बत , फिर से प्रेम
फिर , अतीत के परचम को भूलकर
लम्बे इंतज़ार में
लगेगा एक और बरस
ख़ुद से ख़फ़ा होने में
लगेगा एक और बरस
आरजू थी की अधिष्ठाता बनाऊं तुम्हें
मगर अभी दरबारी जागते है
मुक़द्दर सोख लेगा तुम्हारे आजन्म की हार
मवेशी लौट आएंगे
गोधूली होगी ज़मीन
आसमान रात के सर पर मंडराएगा
ढहने में महल
झोपड़ियों के महल होने में
लगेगा एक और बरस
पांचवा दोस्त रामद्वार खंदे के पास
अभी भी दिखाता है कठपुतली का खेल
चुनता है शाम ढले मिटाने को शराब की प्यास
जमा हुए चंद बेरंग सिक्के
जो कभी खेलता था रंगमंच पर किरदार
संवेदनशील शुतुरमुर्ग का
भूलने में उसे
लगेगा एक और बरस
पहली महिला
हुआ करती थी कभी नवयौवना
में छोड़कर दौड़ पड़ा था
पकड़ने को छुट्टियों वाली रेल
दार्जिलिंग के पहाड़ों के उस और
सिक्किम की घाटियों में
गाते मिलन की गीतों को ठहरने में
लगेगा एक और बरस
सुलगती दिमागी नशों के ज्वर को
होने में शीतल
लगेगा एक और बरस
मिटने में मेरी माशूक के नाखून की
वो पहली खुरच
वो आखिरी छुहन
लगेगा एक और बरस
ये बेशुमार थकन , फिर भी गूंजती माघ लहरियां
वो कुमकुम का टीका
गंगा घाट , रेगिस्तान का फैला रेतीला समन्दर
और उठते मेरे मन में त्रिपुरा के आदिवासी गीत,
जैसे छेनी लेकर कुरेदता है ईश्वर मेरे अथाह मन की गुफाओं को ,
तोड़ता है बाज़ आखिरी क्षणों में नाख़ून,
उखाड़ता है पंख,
मंडराती है मंदिरों पर कोई चील,
बेहोश होकर गिरते है मोटे गिद्ध आमों के बागीचे में,
में दौड़ता हूँ की जैसे गिरा हो कोई मोटा आम,
और दिखती है विशाल म्रत आत्मसात हुई काया
शांत - चीर अनिद्रा में
सोचता हूँ
में विचारक बनूंगा
मेरा चौथा मित्र उकेरेगा मेरे गीत
उठेगी और नाचेगी फिर से कोई नई सरगम मेरे मंच पर
कथानक पलटा जाएगा
उठ खड़ा होगा कोई साधक झाड़ कर भभूत ब्रह्म तन से
बरपेगी भीषण ख़ामोशी
एक रोयेगा , दूसरा गायेगा
बचूंगा सिर्फ में
लगेगा एक और बरस
लगेगा एक और बरस ।।
#बारैठ
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यार से मिलने की
यार से मिलने की तदबीर बहुत की
मिल सकूँ उनसे यह तक़दीर नहीं थी
उम्मीद मिलने की सोने नहीं देती
चाह मिलने की मरने नहीं देती
क्या उनकी निगाह कभी मुझ पे पड़ेगी
दीदार से अपने मुझे निहाल करेगी
उनके इन्तज़ार में ज़िन्दगी गुजर रही है
उनको ख़बर भी है, मालूम नहीं है
ये बादलो मेरी क़िस्मत को जगा दो
पैग़ाम मेरा ज़रा उन तक पहुँचा दो
अब तो पड़ गई है आदतेइन्तिज़ार
उम्मीदों में ही ज़िन्दगी कट जायेगी मेरे यार
—-लक्ष्मीनारायण गुप्त
—-४ सितम्बर २०१७
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सत्यनारायण द्विवेदी
करतल बीन बजी!
स्वरधारा के अमृत स्पर्श से,
जीवन भूमि सजी !
कुन्द- कांति जन- मन अभिरामा
सत्य-स्वरूपा विद्युद्यामा
प्रतिभा जग कर हुई सकामा
साम-गान की धुन में कवि ने रामायण सिरजी!
ऋतुम्भरा मधुकर-कल-केशीअमल-धवल
शोभन वर वेशी कम्र कटाक्ष-कला- संदेशी।
नवनव नवोन्मेषिनी प्रज्ञा प्रति मन गयी भजी।
नव कौमुदी-कला—कमनीया
दुरित-द्वन्द भव-भय-दमनीया
लोक-लोकपति की नमनीया
कीर्ति-कलित-मती-हंसासीना रुप रूप उपजी!
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मैं हर वक्त बदलता हूँ
मैं जीवन में हर वक्त बदलता हूँ
लिखता हूँ कविता शब्द बदलता हूँ
बोलने से पहले लफ्ज बदलता हूँ
मैं जीवन में हर वक्त बदलता हूँ
कभी अन्धेरे में रोशनी भरता हूँ
कभी जीवा पर चाशनी धरता हूँ
कभी अधिकार तो कभी व्यवहार बदलता हूँ
मैं जीवन में हर वक्त बदलता हूँ
कभी काटो भरी राहो में फूल बिछाता हूँ
तो कभी पेडों से सूखे पत्ते गिरता हूँ
कभी मौसम कि आहट में संसार बदलता हूँ
मैं जीवन में हर वक्त बदलता हूँ
Regards
Moni
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कुमारी अर्चना
पापा ओ पापा
कहाँ खो गए तुम
पापा ओ पापा
कहाँ छूप गए तुम!
क्या आप कोई
खोई हुई वस्तु हो
पर मेरी रबड़,पेंसिल तो खोकर
मिल जाती है घर में
फिर आप खोकर
क्यों नहीं मिल रहे हो
क्या आप बादल हो
जो अभी पास दिखते है
फलक झपकते ही दूर!
क्या आप कोई
जादूगर हो पापा
जादू दिखाकर मुझे
कहीं गायब!
पापा ओ पापा
ढूंढ़ा तुम्हें चाँद में
ढूंढ़ा तुम्हें तारों में
फिर भी तुम ना मिले
सुना है जाने के बाद
सब वही मिलते है
फिर क्यों मेरी नजरें
तुम्हें देख नहीं पा रही
आकाश बहुत दूर है इसलिए
या मेरी नन्हीं आँखों की रोशनी
सूरज की तरह तेज नहीं
जो झट से कोणों कोणों में
पहुँच जाए
क्या जब मैं बड़ी हो जाऊँगी तो
तुम्हें अवश्य ही
चाँद तारों में ढूंढ़ लूँगी
सबसे चमकता सितारा
तुम हो ना पापा
फिर मैं ढूंढ़कर "अलादीन के चिराग" जैसी छुपा दूँगी
जब भी चिराग को धीरे से रगड़ूँगी
आप परियों व जिन्न जैसे प्रकट हो जाएगे!
तभी पापा दूर प्रदेश की ड्यूटी से
वापस लौट कर दरवाजे पे
आवाज़ लगाते हैं बिटू बेटा
कहाँ हो तुम !
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"वायरल"
ये कैसा एंटीवायरस है
पहले वायरल होकर
कम्पयूटर के सीपीयू
को बेकार करता था
अब सामाजिक व्यवस्था को!
किसी का उप्स दिखाया देता
तो किसी का आएएस का अय्याशी
विडियो वायरल होता
किसी का न्यूड फोटो वायरल होता
तो किसी का सेक्स वीडियो वायरल
किसी नेता का भष्ट्राचार करता वीडियो जारी होता
तो मोदी जी द्वारा जूता पहन कर झंडा फहराने का!
जाने अनजाने सब कुछ कैसे वायरल हो रहा
वर्षों से दफ़न पड़ा सच सामने आ जाता
आये दिन किसी ना किसी का
वीडियो वायरल हो जाता
कोई खुद से करवाता तो
कोई किसी और से करवाता
तो कभी कोई और फ़न में कर देता!
कोई विश्व प्रसिद्ध होना चाहते
तो कोई फिल्म हिट करना चाहता
कोई अपनी रेट बढ़ाना चाहता
तो कोई अपनी पहचान बनाना चाहता
कोई विश्व पटल पे छा जाना चाहता
तो कोई खबरों में बना रहना चाहता
कोई खुब नाम कमाना चाहता
तो कोई किसी को बदनाम करवाना चाहता
इसलिए बिना कुछ किए भी
सब कुछ वायरल हो जाता!
हे प्रभु जी कैसा अच्छा दिन आया है
भरी दुनिया में इन्सान
कपड़ेवाले को कपड़े और नंगे को नंगा कर रहा
झूठी वाह वाही के लिए
सब छलावे की दुनिया में
खुद को ही छल रहे
फिर बैठ ए.सी के कमरों में बैठ
तमाशे का मज़ा ले रहे!
वायरल हो गया
वायरल हो गया
जोर शोर से चिल्ला रहे!
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"पाषाण बन जाउँगी मैं"
इन पत्थरों की मूर्तियों की तरह
मैं भी पाषाण बन जाउँगी
और मेरे युग का इतिहास भी!
ढूँढ़ते रहोगे तुम मुझे अवशेषों में
फिर भी मैं ना मिलूँगी!
मिश्र व सिन्धु की सभ्यताओं जैसी
इस सभ्यता के अंत के पश्चात
मैं भी पुरात्वविद्धों के खोज की वस्तु जैसी बन जाउँगी
लिपि,मूर्ति,बरतन,अवशेष भवनों
और महत्वपूर्ण स्मारक जैसे
हडिड्यों के ढेर के बीच बिखरे होंगे मेरे कंकाल!
कार्बन पद्धति से होगा निर्धारण मेरा
मेरा समय क्या था
मेरी सभ्यता व संस्कृति कैसी थी
मेरा सामाजिक व आर्थिक जीवन कैसा था
मेरी मृत्यु किन कारणों से हुई थी
और ना जाने क्या-क्या!
मैं तुमसे मिलने कब-कब गई
मैं तुमसे कितना प्यार करती थी
कोई भी कार्बन पद्धति बता ना पाएगी
क्यों असमय काल-कवलित होकर
मैं पाषाण बन गई!
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"नदी हूँ मैं"
नदी हूँ मैं
सभ्यताओं को बसाती
और उनका उजाड़ती भी
मिश्र में नील नदी बनके
हड़प्पा में सिन्धु नदी !
नदी हूँ मैं
तोड़ दूँगी अपनी धारा को
लांध जाऊँगी अपनी ही
लक्ष्मण रेखा को!
नदी हूँ मैं
देश सीमा में ना बँधी
जिसे मैं पार ना कर सकूँ
सिन्धु,रावी व ब्रह्मपुत्र नदी
की बहती अमृत धारा हूँ!
नदी हूँ मैं
कोई धर्म नहीं
जो संहिताबद्ध हो
प्रकृति रूप में दैवी समझ
पूजा अर्चना की जाती हूँ
इसलिए धरा पे पाप मिटाने
आपदा बनके प्रलय लाती हूँ
नदी हूँ मैं
कभी जीवन दायनी बन जाती
तो कभी पापनाशनी बन जाती
कभी सरस्वती जैसी सुख जाती तो
कभी कोशी व गंगा जैसी बाढ़ लाती हूँ
अरबों की जनसंख्या का
गंदगी का बोझ उठाते उठाते
मैं थक चुकी हूँ
यूँ कहे की मैं हार चुकी हूँ
आखिर मैं छोटी नदी हूँ
सागर तो नहीं
जो सब समाँ लूँ
अपने तल में
सब निगल लूँ
सब पचा लूँ
और ठेकार तक ना करूँ!
नदी हूँ मैं!
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"अस्तित्वहीन"
तुम्हारे लिए ही तो
स्वयं को अस्तित्वहीन कर
समुद्र का जिस्म़ ओढ़ लिया
तुम भी अपने पुरूषार्थ का प्रत्याग कर
नदी बन बह जाओ
आकर मुझ में सम़ा जाओ!
तुम बिन मैं अपवित्र हूँ
खारा जल हूँ
जो किसी के सुग्रह्य नहीं
तुम मुझ में संगम कर
मुझे गंगा कर दो!
मैं रोज-रोज लहरों की
चोट सहकर भी जीवित हूँ
तुम आकर इन इठलाती हुई
लहरों को शांत कर दो!
आओ हम प्रेम का मंथन करें
दोनों के शेष बचे हुए अहंम को
समाप्त कर
संसार के लिए अमृतधारा बन
बह जायें!
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कुमारी अर्चना
पूर्णियाँ,बिहार
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भगवान सहाय "अनन्त"
बिखर -बिखर अब सिमट रहा है
कतरा -कतरा बन लिपट रहा है
रात और गहरा पसर रहा यहाँ
पर लिखा कलम से अमिट रहा है
खोकर पाना है रीत पुरानी
पाकर खोना बड़ा मुश्किल रहा है
खत्म नहीं होती कभी कहानी
सफर शिखर का विकट रहा है
बिखर -बिखर अब सिमट रहा है
कतरा- कतरा बन लिपट रहा है ||
-@भगवान सहाय "अन्नंत"
भवदीय,
भगवान सहाय अनंत | bhagwanshayakumawat@gmail.com
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