गुड़ी की नजर से बचकर बाहर की कोई बात न तो गाँव में पाँव धर सकती है न ही पाँव उठाकर गाँव से बाहर जा सकती है। गुड़ी ऐसी जगह है जहाँ टेम -कुटेम द...
गुड़ी की नजर से बचकर बाहर की कोई बात न तो गाँव में पाँव धर सकती है न ही पाँव उठाकर गाँव से बाहर जा सकती है।
गुड़ी ऐसी जगह है जहाँ टेम -कुटेम दो-चार मनखे गपशप लड़ाते -बैठे मिल ही जायेंगे। यह अभी की बात नहीं है। ऐसा बाप-दादों के जमाने से चला आ रहा है। इस नए जमाने में बस यही एक मौन और बूढ़ी परम्परा हांफती हुई जीवित है जो इस समाज के बदलते परिवेश की रेतीली और मरूभूमि पर गुप्त गंगा की भाँति अभी तक निर्बाध रूप से बहती चली आ रही है।
यह सिलसिला कई पीढ़ियों तक जारी रहेगा ऐसा कहना संभव और असंभव के बीच रखकर अपने आपको झूठी तसल्ली देने के सिवाय कुछ नहीं होगा। अब यह बता पाना भी संभव नहीं है कि गुड़ी पर बैठना लोगों की परिपाटी है या लोगों का बैठना गुड़ी की अपनी परिपाटी है। हाँ ! मगर इतना जरूर कहा जा सकता है कि लोगों का बैठना ही गुड़ी की पहचान है।
विजय दिन में कम से कम दो बार सायकल चलाते हुए गुड़ी से होकर जरूर गुजरता। गुजरते सब थे, पर विजय के गुजरने में खास बात थी।
आम दिनों में आम लोगों की तरह विजय का गुड़ी से गुजरना भी पहले आम बात ही थी।
पहले एकाध शक्की नजर पड़ी। दो- चार दिन बाद शक सबूत के पांव लगाकर चलने लगा । फिर बात जवान होकर आम से खास हो चली।
विजय, लाभचंद का छोटा लड़का। महज दस साल का। तीन महीने पहले ही तो सायकल चलाने में दक्ष हुआ वह।
वैसे तो उसकी सायकल सीखने की कोशिश बोचकती चड्डी संभालने और सुड़सुड़ाती बहती नाक पोछना सीखने की उम्र से जारी थी। कामयाबी अभी अभी मिली है।
पहले पहल वह सायकल पकड़े फकत घूमा फिरता। पैदल। कभी इधर घसीटता कभी उधर घसीटता। कभी इस गली -कभी उस गली। कभी सड़कों पर तो कभी मैदान में। कभी साइकल की चैन तोड़कर लाता। कभी अपनी पैंट फाड़ डालता तो कभी लहू बहाती कुहनी लिए आता। पर इन सबके बाद भी उसके मासूम चेहरे पर घुँघराले बालों के बीच छिपा उसका आत्मविश्वास मुस्कुराता रहता।
सफलता के हर ताले की एकमात्र कुंजी है -आत्मविश्वास।
आखिर उसने साइकल चलाना सीख ही लिया। पहले कैंची फाँक, फिर डण्डी में। उसके बाद सीट पर बैठकर।
कैंची फाँक साइकिल चलाना सीखा तभी से वह संगियों के साथ खम्हरिया जाने लगा। नये जोश, नयी उमंग और नया शौक के आगे धरती और आकाश की दूरी तुच्छ है। खपरी और खम्हरिया की यह दूरी क्या है ? महज 7 कि. मी. तो है। दो पाइडिल का बूता, बस।
लाभचंद ऐसा पियाग है जिसका कोटा पूरा करते -करते शराब खुद थकने लगती, पर वह नहीं छकता। आॅफिस से लौटते समय गले तक तो भट्ठी में ही टोटे तक ढोंक लेता। साथ में एकाध शीशी और रख लेता। घर आकर फिर चढ़ाता।
वह शराब से मुँह धोता और उसी से अचोंता।
लाभचंद यूँ ही पियक्कड़ नहीं हुआ। उसकी भी अपनी एक रामकहानी है।
वैसे तो हर मनखे की कोई न कोई अपनी एक रामकहानी अवश्य होती है। इस तरह हर आदमी अपनी -अपनी रामकहानी का नायक होता है।
लाभचंद जब छः साल का था, माता-पिता दोनों गुजर गये। देखरेख व पढ़ाई उनके चाचा के जरिये हुई। लाभचंद के चाचा बलराम बडे नेक, समझदार व उदारमना थे। लाभचंद की शिक्षा- दीक्षा में उन्होंने कोई कसर नहीं छोड़ी। उन्होंने पूरी कोशिश की कि लाभचंद को कभी-भी मां -बाप की कमी का एहसास न हो ।
लेकिन माता-पिता के खाली ही सही दया और आशीष धरे हाथ का साया भी जितना विश्वसनीय और सुखदाई होता है उतना भरे हुए गैर हाथों के नहीं हो सकते।
अपना आसमान आखिर अपना होता है चाहे वह मुट्ठी -भर ही क्यों न हो ?
माँ-बाप की कमी लाभचंद को कहीं न कहीं भीतर तक खलती थी।
वह चंचल और होशियार तो बालपन से ही था। बहुत जल्दी वह बिजली विभाग में मिस्त्री हो गया। दो हेल्पर साथ लेकर साईड जाता। साइड में अतिरिक्त आय की कोई कमी नहीं थी। सौ-पचास रोज मिल जाते। वे उसे आपस में बाँट लेते। कभी-कभी बराबर बाँटने में परेशानी होती। कभी कम मिलने से बाँटना अच्छा नहीं लगता और उसे किसी के पास छोड़ रखना भी जी को कचोटता।
वे कभू-कभार इन्हीं झटकों से एकाध पौवा मिल -बाँटकर पी लेते। बस यही कभू-कभार कब रोजाने में बदल गया किसी को भनक नहीं लगी। खुद लाभचंद को भी नहीं। इस तरह कल का सीधा -सादा होनहार लाभचंद आज का बेवड़ाराम हो गया।
विजय के साइकिल सीखने से किसी को लाभ हो न हो , लाभचंद का काम बैठे-बैठे होने लगा। जिन खोजा तिन पाइयाॅ गहरे पानी पैठ।
लाभचंद को जब भी पीने की इच्छा होती, विजय को भट्ठी भेज देता। विजय बाप का कहना जरूर मानता। इससे विजय को भी फायदे होते। एक तो उसे सायकल चलाने मिलता। थोड़ी -बहुत जेबखरचा और सबसे बड़ी बात पढ़ने के नाम पर डाँट नहीं खानी पड़ती।
इसी बहाने वह लाभचंद का दुलरवा भी हो गया। दुलरवे का दस दोष माफ। यह बात लाभचंद के और दो बेटों में नहीं थी।
समाज के विकास में जितना महत्व शिक्षा और साधन का होता है उससे कहीं ज्यादा संस्कार का होता है। संस्कार ही है जो समाज को नई दिशा और ऊँचाईयाँ देता है। इसके अभाव में समाज शिक्षित हो सकता है लेकिन सभ्य नहीं हो सकता, साधन सम्पन्न हो सकता है लेकिन विकसित नहीं हो सकता।
वास्तव में समाज की छवि संस्कार ही बनाता और संस्कार ही बिगाड़ता है। एक संस्कार ही तो है जिससे आदमी-आदमी, समाज और समाज, पीढ़ी और पीढ़ी के बीच अपनी पहचान बनाता है। संस्कार, कोई पेट से तो धरकर पैदा नहीं होता। बच्चे बड़ों को देख-सुनकर ही सब सीखते हैं। यह मानव प्रजाति की एक मौन और सतत साधना है।
विजय के साथ भी ऐसा ही कुछ हुआ। वह पिता के लिये दारू लाता। चुपचाप खडे़-खडे़ देखता रहता। जब लाभचंद पूरी बोतल उड़ेल लेता तब विजय खाली शीशी बेचने के लिये एक जगह सकेलकर रख लेता।
बच्चे मन के जितने सच्चे होते हैं उतने ही कच्चे भी होते है। वे किसी बात के परिणाम को नहीं सोचते। उनका जिज्ञासु मन किसी चीज को केवल जानने -करने का इच्छुक होता है।
एक दिन उनके मन में हुआ कि आखिर इस दारू में क्या खास बात है ?
उसने शीशियों में बची खुची थोड़ी-थोड़ी शराब एक शीशी में सकेल ली। आधी कप शराब उसके मन को मथने और मजा देने के लिये काफी थी। मजा आखिर मजा होता है।
फिर क्या ! यहीं से विजय का विजयक्रम शुरू हो गया। वह भट्ठी से लाते -लाते रास्ते में ही कुछ शराब गटक जाता और उसकी जगह पानी मिला देता। इस तरह विजय अपने बाप से मिले संस्कार में पलने -बढ़ने लगा।
आज विजय लगी-लगी में बहुत ज्यादा शराब उड़ेल गया। आज पहिली बार पूरी बोतल और शराब दोनों का मन पानी-पानी हो गया। आज विजय के रूप में लाभचंद की भावी छवि दिख रही थी।
विजय के लाकर रखते ही लाभचंद पूरी बोतल एक साँस में गटक गया। पर यह क्या ? एकाएक लाभचंद के माथे पर आड़ी तिरछी रेखाएॅ उभरने लगी। उसे समझने में जरा भी देर नहीं लगी। भले वह पहले से पीया हुआ था।
लाभचंद के गले में एक कड़वा घूट अटक सा गया। वह गुस्से में आग बबूला हो गया। चिल्लाते हुए उठ खड़ा हुआ।
“ अबे विजय ! कहाँ है रे तू ”
विजय बरामदे के पास खड़ा टुकुर - टुकुर सब देख था मानो वह मौके का बारीकी और मुस्तैदी से मुआयना कर रहा हो। पूरे घर में एक पल के लिए सन्नाटे ने अपनी बिसात बिछा दी। पर शायद विजय इस बात से पहले से ही वाकिफ हो।
या शायद वह यही परिणाम चाहता रहा हो। वह चुपचाप वहीं खड़ा रहा। अविचलित।
लाभचंद लड़खड़ाते कदमों से विजय के पास गया और बोला -“ अपने बाप से गद्दारी करता है। तेरी ऐसी की .......................” और लाभचंद के बस्साते मुंह से गोबर -सी भद्दी गाली का लोंदा भद्द से गिरा।
घर के सारे लोग बोकबाय देख रहे हैं। डरे हुए-से सहमें हुए-से। निश्चित तो नहीं कहा जा सकता कब से, लेकिन बीते कुछ दिनों से उस घर में एक रिवाज ने अपने पांव पसार लिया है कि जब लाभचंद बोलता है तब पूरे घर में किसी और को कुछ कहने बोलने का हक नहीं होता। न दरो -दीवार न छत, न धरती न आसमान। बोलता है तो सिर्फ और सिर्फ लाभचंद।
लेकिन विजय ने घर की उस बरसो पुरानी परिपाटी को आज तोड़ दिया । उसने रूआँसा होकर कहा - “ गाली मत दो पापा ”
लाभचंद विजय के बाल पकड़ लिए और झिंझोड़ने लगा - “ अरे ! तू मुझे सिखाता है। बता ...... बता तूने शराब पी है या नही ?” मारे गुस्से के लाभचंद की आँखें लाल हो गयी। उनके होंठ तितलियों के पंख की तरह फड़फड़ा रहे थे। लगातार, बिना किसी रूकावट के।
अचानक विजय छिटककर दूर हो गया और जोर जोर से चिल्लाते हुए रोने लगा - “ हाँ, हाँ। मैंने शराब पी है ! पी है !! पी है !! आप भी तो पीते हैं। बड़े होकर बच्चों के सामने गाली बकते हैं। मारने के पहले शर्म तो आपको आनी चाहिये। ”
इसी बीच झम्म - सी एक जोरदार आवाज बहुतेरे कानों में गूँजी। सब के सब सवाली आँखों से एक दूसरे का मुंह देखने लगे। मानो पूछ रहे हो - क्या हुआ ?
शायद वह आवाज किसी थपरे की हो।
या हो न हो शीशा टूटने की आवाज हो।
दोनों की भी हो सकती है।
कभी-कभी दो बिन्दुओं के बीच अंतर करना असम्भव सा हो जाता है जिस तरह बहते पानी में लकीर खिंचना। आज शायद यही असम्भव उस घर के आंगन में किसी बाहुबली की तरह पैर जमाए अडिग खड़ा है।
बस, इतना सुनते ही लाभचंद का सारा नशा पानी-पानी हो गया।
शायद ! वह आवाज थपरे की ही हो। शायद !!
वह थपरा लगा तो आखिर किसके गाल पर ? विजय, लाभचंद या समाज के गाल पर ?
थपरा चाहे किसी के गाल पर लगा हो, लगा तो जरूर।
लेकिन आज सिर्फ गुड़ी ही नहीं पूरे गाँव में केवल एक ही गूंज है - थपरे की !
धर्मेन्द्र निर्मल
ग्राम पोस्ट कुरूद भिलाईनगर
जिला दुर्ग (छत्तीसगढ़)
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