हवाएँ ग़ज़ल कहती हैं ग़ज़ल संग्रह कुमार रवीन्द्र रचनाकार.ऑर्ग की प्रस्तुति भूमिका : काँचघरों के अक़्स हिंदी ग़ज़ल: कुछ सवाल-कुछ विचार ...
हवाएँ ग़ज़ल कहती हैं
ग़ज़ल संग्रह
कुमार रवीन्द्र
रचनाकार.ऑर्ग
की प्रस्तुति
भूमिका : काँचघरों के अक़्स
हिंदी ग़ज़ल:
कुछ सवाल-कुछ विचार
आधुनिक हिंदी कविता के इतिहास में दुष्यंत कुमार त्यागी के ग़ज़ल संग्रह 'साये में धूप' का आना एक बेहद रोचक प्रसंग है। उसमें ग़ज़ल की जो बानगी प्रस्तुत हुई, उसने ग़ज़ल की गुफ़्तगू के समूचे अंदाज़ को ही बदल कर रख दिया। वक्त के मिजाज़ को बयाँ करतीं ये ग़ज़लें अपने कथ्य और कहन दोनों में ही अलग किसिम की थीं। यहीं से हिंदी ग़ज़ल की सही रूप में शुरुआत हुई, ऐसा माना जाता है। वैसे तो चौदहवीं सदी के मध्य में जिस कवि ने हिन्दोस्तान में ग़ज़ल-लेखन का शुभारम्भ किया, उसने अपनी भाषा को 'हिन्दवी' यानी हिंदी ही कहा था। इस ढंग से सोचें तो यही मानना उचित होगा कि उक्त पुरानी हिन्दी के कवि अमीर खुसरो द्वारा रची ग़ज़ल से ही हिदी ग़ज़ल की शुरुआत हुई। और इस तरह हिन्दुस्तान की ग़ज़ल मूलतः हिन्दी कविता की ही एक विधा है। उर्दू भाषा, जो हिन्दी की एक शैली के रूप में विकसित हुई और बाद में एक स्वतंत्र भाषा के रूप में स्थापित हुई, ने बाद में ग़ज़ल को जो ऊँचाइयाँ बख्शीं, उसने ग़ज़ल को मूल रूप से शुद्ध उर्दू शाइरी का ही हिस्सा मानने का भ्रम पैदा हुआ।
वस्तुतः आधुनिक काल में भारतेन्दु से लेकर छायावाद काल के प्रसाद तक सभी प्रमुख हिन्दी कवियों ने ग़ज़ल की कहन का सफल प्रयोग अपनी कविता में किया। किन्तु हिन्दी ग़ज़ल को हिन्दी कविता की एक स्वतंत्र विधा के रूप में पहचान पहली बार दुष्यंत की ग़ज़लों से ही मिली, इसमें कोई दो राय नहीं है। इस तरह हिन्दी ग़ज़ल को साहित्य में स्थान दिलाने का श्रेय दुष्यंत को ही दिया जाना चाहिए। वैसे दुष्यंत ने स्वयं अपनी ग़ज़लों को न तो हिन्दी ग़ज़ल कहा और न ही इस आशय का कहीं कोई दावा ही किया। उसने अपने संग्रह की भूमिका में यही कहा - "मैं स्वीकार करता हूँ - कि उर्दू और हिन्दी अपने-अपने सिंहासन से उतर कर जब आम आदमी के पास आती हैं, तो उनमें फ़र्क कर पान मुश्किल होता है। मेरी नीयत और कोशिश यह रही है कि इन दोनों भाषाओँ को ज़्यादा से ज़्यादा क़रीब ला सकूँ। इसलिए ये ग़ज़लें उस भाषा में कही गईं हैं, जिसे मैं बोलता हूँ।" इसी आमफ़हम 'देशज कहन' को ज़हीर कुरेशी ने हिन्दी ग़ज़ल की आत्मा कहा है। डॉ. कुँअर बेचैन ने कथ्य के धरातल पर हिन्दी ग़ज़ल के अलगाव की बात उठाई - "आज के हिन्दी ग़ज़ल के कहने वालों ने ग़ज़ल को छंद के रूप में ही स्वीकार किया है। उसको कथ्य अपना ही दिया है और यह कथ्य ग़ज़ल की चली आती हुई परम्परा से टकराता हुआ चलता है।" इस प्रकार हम पाते हैं कि पारम्परिक कथ्य से टकराहट और देशज कहन, यही दो विशिष्टियाँ हैं, जिनसे हिन्दी ग़ज़ल की अलग पहचान क़ायम होती है।
'दरख्तों के साये में धूप' की पहली आवृत्ति सन १९७५ में हुई थी। इसके कुछ पहले इनमें से कुछ ग़ज़लें इधर-उधर पढ़ने में आईं थीं। मई १९७६ के 'सारिका' के 'दुष्यंत स्मृति' विशेषांक ने इन्हें हिन्दी ग़ज़ल के मानक के रूप में स्थापित कर दिया। लगभग तीन दशक के इस अंतराल में हिन्दी में ग़ज़ल-कहन का चलन जिस रफ़्तार से हुआ है, उसके देखते हिन्दी कविता का समग्र मूल्यांकन ग़ज़ल को अलग रखकर करना नामुमकिन है। आज ग़ज़ल हिन्दी कविता का अटूट अंग बन चुकी है। लगभग सभी स्थापित गीतकवियों ने ग़ज़लें कही हैं। विभिन्न पत्र-पत्रिकाओं में रोज़ ही ग़ज़लें पढ़ने को मिल जाती हैं। तमाम समवेत संकलन भी प्रकाशित हुए हैं, प्रकाशित हो रहे हैं। दुष्यंत की ग़ज़लों ने हिन्दी के पाठक को चौंकाया था, चकित-विस्मित भी किया था। उर्दू के ग़ज़लगो उससे चौकन्ने हुए थे। आज स्थिति यह है कि बशीर बद्र जैसे मानक और नामी गिरामी उर्दू ग़ज़लकार को भी यह मानने-कहने में कोई संकोच नहीं है कि वैसे तो ग़ज़ल की भाषा ग़ज़ल की होती है; वह न उर्दू होती है, न हिन्दी; फिर भी आज हिन्दी में जो ग़ज़लें कही जा रही हैं, उनको उर्दू ग़ज़ल से किसी भी तरह कमतर आँकना गलत होगा। और यह भी कि 'ग़ज़ल का आने वाले कल का बड़ा शाइर अब हिन्दी में ही पैदा होगा'। और यह भी गलत नहीं है कि हिन्दी में ग़ज़ल की आज की कहन ने उर्दू ग़ज़ल को भी नये साँचे में ढलने, उसे आज के सरोकारों से जुड़ने और मुख्तलिफ़ भाषा-शैलियों को अपनाने को प्रेरित किया है।
आज समूची ग़ज़ल-कहन में एक क्रन्तिकारी बदलाव आ चुका है। कथ्य की विविधता, अहसासों की शिद्दत और कहन की नई-नई भंगिमाएँ उसमें आई हैं, जिससे पारम्परिक ग़ज़ल से उसका पूरी तरह अलगाव हो चुका है। हाँ, इससे हिन्दी और उर्दू की ग़ज़लगोई एक-दूसरे के एकदम नज़दीक आ गईं हैं। तज़ुर्बों की एकसारता से दोनों के एक-दूसरे के विरुद्ध एतराज़ों और अपने अलग-अलग अंदाज़ेबयाँ की ज़िद में कमी आई है। ज़हीर कुरेशी के अनुसार 'मध्यम मार्ग का अनुसरण' करने की प्रवृत्ति दोनों भाषाओँ में बढ़ी है। वास्तव में दोनों भाषाओँ के देशज मुहावरे तो एक ही हैं। हाँ, सोच के संस्कार, जो जातीय अस्मिता से उपजते हैं, अवश्य अलग-अलग रहे हैं। अब वे संस्कार भी धार्मिक अलगाववादी अनुष्ठानों से अलग होकर एक ही परम्परा को पोषित कर रहे हैं। इसलिए अब यह सवाल बेमानी है कि दुष्यंत के इस शे'र 'ये सारा जिस्म झुककर बोझ से दुहरा हुआ होगा / मैं सज़दे में नहीं था, आपको धोखा हुआ होगा' और बशीर बद्र के इस शे'र 'गीले-गीले, मंदिरों में बाल खोले देवियाँ / सोचती हैं उनके सूरज देवता कब आएँगे' में कौन-सा शे'र उर्दू रवायत का है और कौन-सा हिन्दी रवायत का। जब विश्व स्तर पर सोच और अहसास की रवायतें एक हो रही हैं, तब इस प्रकार का अलगाव कैसे रह पायेगा, यह भी सोचने की बात है। दुष्यंत कुमार की उर्दू-हिन्दी भाषाओँ को नज़दीक लाने की कोशिश आज की हिन्दी-उर्दू ग़ज़लगोई में क़ामयाब हुई साफ़ दिखाई देती है।
यह सही है कि जिस नाज़ुकख़याली की बात उर्दू ग़ज़ल के सन्दर्भ में पारम्परिक रूप से की जाती है, वह हिन्दी ग़ज़ल में अक्सर नहीं देखने को मिलती। वज़ह साफ़ है। आज की हिन्दी ग़ज़ल का मज़मून इंसान की नाज़ुक मासूमियत नहीं है। वह उसकी वक्तन-ब-वक्तन बदलती फ़ितरत और आज की पेचीदा ज़िन्दगी की उलझनों और तनावों से वाबस्ता है। उस चुस्ती-दुरुस्ती की ओर भी वह तवज़्ज़ो दिलाती है, जो इंसानी न होकर हैवानी और मशीनी ज़्यादा हैं। इसी से उसमें वह नज़ाक़त और नफ़ासत क़तई नहीं है, जो एक सामन्तवादी समाज में उर्दू ग़ज़ल के नवाबी अंदाज़ में पैदा हुई थी। आज हिन्दी कविता की किसी भी विधा में नाज़ुक़ख़याली नहीं मिलती है। जीवन की आम जटिलताओं के निरन्तर बढ़ते दायरे में नाज़ुक़ख़याली के लिए वैसे भी कोई ज़गह नहीं है। तमाम तरह के सामाजिक अनाचारों और राजनैतिक उपद्रवों एवं आर्थिक तनावों से जूझता आज का आम आदमी संवेदना के धरातल पर लगभग कंगाल हो गया है। हिन्दी ग़ज़ल इस संवेदना को भी ज़िन्दा रखने की पुरज़ोर कोशिश में रही है। यह कोशिश उसे ज़िन्दगी के किसिम-किसिम के खुरदरे अहसासों और कँटीले सवालों से जुडा रहने को मज़बूर करती है। आज के यक्ष-प्रश्न अक्सर अनुत्तरित रह जाते हैं, कई बार आहत भी कर जाते हैं। मनुष्य की इसी आहत अस्मिता को हिन्दी ग़ज़ल ने अपना वर्ण्यविषय बनाया है। इसी से उसमें एक खुरदुरे दर्द और घायलपन का व्यापक अहसास है। निजी या वैयक्तिक अन्तःपुरी अनुभूति को हिन्दी ग़ज़ल में ज़गह कम ही मिली है। आत्मीयता के जो सरोकार उसमें आये भी हैं, वे पूरे समाज के हैं। ज़ख़्मी हुई मानुषी आस्था के चित्र उसमें बड़ी संख्या में मिलेंगे। ग़ज़ल की बहरबयानी में उन्हें सूत्र रूप में बिम्बात्मक संकेतों में पिरोना आसान काम नहीं है। वही मुश्किल साधना हिन्दी ग़ज़ल ने की है।
ग़ज़ल के संदर्भ में सहजबयानी को आदर्श माना जाता है। किन्तु यह कहन की सादगी सपाटबयानी न हो जाये, इसके लिए उसे बिम्बों में प्रस्तुति की दरकार होती है। आज की ग़ज़ल में पारम्परिक शमा-परवाना, ज़ाम-ओ-मीना जैसे बिम्बों को छोड़कर आज के कथ्य के अनुरूप नये-नये अछूते रूपाकार बिम्बों की तलाश एवं संरचना की है। हिन्दी ग़ज़ल की इस दृष्टि से अहम भूमिका रही है। उसमें हिन्दी काव्य और विशुद्ध भारतीय सांस्कृतिक परम्परा एवं परिवेश से प्राप्त बिम्बों का बड़ा सफल प्रयोग किया गया है और साथ ही कई नये किसिम के आधुनिक बिम्बों की भी अन्विति की गई है। हिन्दी की नवगीत विधा से हिन्दी ग़ज़ल को बहुत कुछ मिला है। इसकी ख़ास वज़ह यह है कि अधिकांश हिन्दी गज़लकार हिन्दी की गीतिकाव्य परम्परा से ही आये हैं। वैसे यह असर दोतरफ़ा है। ग़ज़ल की कहन की सादगी के असर से हिन्दी गीत का मुहावरा भी बदला है - वह अधिक सहज, सादा और सटीक हुआ है। आज सादी-सहज बिम्बात्मक मुहावरेदार कहन एक आम काव्य-प्रवृत्ति है।
हिन्दी में ग़ज़लगोई की अब तो एक पूरी परम्परा बन चुकी है। फिर भी अभी तक हिन्दी ग़ज़ल शक़-ओ-शुब्ह की गिरफ्त में बनी हुई है। कुछ हद तक इसके लिए हिन्दी के गज़लकार भी जिम्मेदार हैं। हिन्दी ग़ज़ल का कोई मानक स्वरूप अभी तक निश्चित नहीं हो पाया है। कुछ लोग संस्कृत-निष्ठ तत्सम शब्दावली के प्रयोग को ही हिन्दी ग़ज़ल का निर्धारक तत्त्व मानते हैं तो कुछ उर्दू ग़ज़ल की कहन का ही लिप्यान्तरण कर उसे ही हिन्दी ग़ज़ल बनवाने-मनवाने की कोशिश में हैं। हिन्दी कविता में उर्दू शाइरी की भाँति 'इस्लाह' की परम्परा न होने से आज जो सामान्य अराजकता का माहौल दिखाई देता है, उसका असर हिन्दी ग़ज़ल के क्षेत्र में भी दिखाई देता है। हर कोई जो तुक में या बेतुकी भी दो-चार लाइनें गढ़ लेता है, वह अपने को महान गज़लकार मानने-मनवाने का दंभ पालने लगता है। इस अराजकता से मुक्ति पाने के लिए यह ज़रूरी है कि उर्दू ग़ज़ल के बरअक्स हिन्दी ग़ज़ल की भी व्याकरण निश्चित की जाए और उसका पूरी गम्भीरता से पालन हो। हिन्दी के विविध छंदों, जो फ़ारसी की बहरों से काफ़ी मेल खाते हैं, का सफल प्रयोग हिन्दी ग़ज़लकारों ने किया है। उनकी शाइरी को कसौटी के रूप में लागू किया जाए तो हिन्दी ग़ज़ल के मानक स्वरूप की पहचान बन सकती है। कथ्य के धरातल पर अपनी समृद्धि और उपादेयता हिन्दी ग़ज़ल ने पहले ही सिद्ध कर दी है।
कुमार रवीन्द्र
क्षितिज ३१० अर्बन एस्टेट -२ हिसार -१२५००५
ई-मेल: kumrravindra310@gmail.com
हवाएँ ग़ज़ल कहती हैं
ग़ज़ल
मीठे जल की बात करें हम
चलो, ग़ज़ल की बात करें हम
ढाई आखर की महफिल में
छुवन-पर्व की बात करें हम
सपने जो हो गये पहेली
उनके हल की बात करें हम
पिछले कल की भूलें उलझन
अगले कल की बात करें हम
जिससे यह सन्नाटा टूटे
उस हलचल की बात करें हम
हवामहल की बातें हो लीं
माटी-हल की बात करें हम
ग़ज़ल
आँख में फिर खुशबुओं को बीजिये
घने जंगल की इबादत कीजिये
नदी के हर मोड़ को पहचानिए
साँस झरनों के सुरों की लीजिये
देखिये, पगडंडियाँ जातीं कहाँ
उन्हें सपनों की दिशाएँ दीजिये
संग रहिये फूल-पत्तों के सदा
पत्थरों के शहर में मत छीजिये
आ रहा सूरज लिए अमरित-कलश
रौशनी के जाम भर-भर पीजिये
ग़ज़ल
फिर किसी ने ग़ज़ल सुनाई है
धूप परबत पे निकल आई है
फिर किसी पद्मिनी का ज़िक्र हुआ
यह उसी रूप की लुनाई है
गुनगुनाते उतर रहे झरने
बीन किसने इधर बजाई है
दिल पे तस्वीर इक उभरती है
किस फ़रिश्ते ने यह बनाई है
पुल सुरों का किसी ने बाँधा है
झील पे नाव थरथराई है
आह भरकर हवा हुई चुप है
चोट गहरी किसी ने खाई है
देखिये तो पिघल रहे पत्थर
पीर अपनी नहीं पराई है
इश्क़ को जिस्म दिया है जिसने
आँख में सबके वह समाई है
उस नज़ाकत का, यार, क्या कहिये
जिसने नाज़ुक ग़ज़ल यह गाई है
ग़ज़ल
थरथराया जिस्म मीठी तान से
झर रही है धूप रोशनदान से
कौन है जो गा रहा है ये ग़ज़ल
आ रही आवाज़ बाहर लॉन से
फूल की घाटी में दिन का कारवाँ
घिर गया महके हुए तूफ़ान से
सोचते कमरे के पर्दे झूम कर
किसने बींधा है गुलाबी बान से
गूँज मीठी याद की जादूभरी
आइनों को छू रही मुस्कान से
रंग इतने हैं हवाओं में घुले
अक्स सारे रँग गये पहचान से
पूछते वो ज़िक्र किसका हो रहा
क्या कहें हम नासमझ मेहमान से
ग़ज़ल
गुनगुनाते हैं प्यार कमरे में
साथ उनके बहार कमरे में
साथ बिजुरी के फिर रही छत पर
आग धर कर फुहार कमरे में
भीगकर खुशबुएँ हुईं पागल
गा रहा दिन मल्हार कमरे में
देख मौसम का खेल घुस आईं
तितलियाँ बेशुमार कमरे में
आइने कनखियों से देख रहे
चाँदनी के उतार कमरे में
कर रही उम्र से ग़ज़ल बैठी
आपका इंतज़ार कमरे में
ग़ज़ल
हर चीज में खुशबू की छुवन देख रहे हैं
हम आपकी सूरत की गठन देख रहे हैं
आँखों में फरिश्तों की हँसी - नूर का दरिया
गालों पे गुलाबों की तपन देख रहे हैं
जैसे हो झुकी धूप के सागर पे कोई रात
होंठों पे झुके तिल का वज़न देख रहे हैं
हैं पत्तियां भी, फूल भी, सूरज के अक्स भी
चेहरा नहीं हम पूरा चमन देख रहे हैं
यह आपकी सूरत का करिश्मा है या कुछ और
हम आइने में शे'र-ओ-सुखन देख रहे हैं
ज्यों डूब के पहुँचे हों समुंदर के बीच में
हम सोने के टापू का सपन देख रहे हैं
कुछ और देखना नहीं मुमकिन है, यार, अब
हम आपका यह गुल-सा बदन देख रहे हैं
ग़ज़ल
तुम नदी-सी उमड़कर बहीं रात-दिन
खो गये उस नदी में कहीं रात-दिन
जिस गली से गुज़र भी गईं तुम कभी
खुशबुएँ उस गली में रहीं रात-दिन
जबसे देखा इन्हें तुमने भर के नज़र
सुन रहे तब से हैं ये यहीं रात-दिन
कल से तुमने जो इनसे नज़र फेर ली
कुछ हुए और ही, ये नहीं रात-दिन
जिस्म छू के तुम्हारा जो आतीं नहीं
हमने वे भी हवाएँ सहीं रात-दिन
ग़ज़ल
पानी में देख धूप नज़र यों फिसल गई
जैसे सुबह की चाँदनी सूरज में ढल गई
मौसम में, यार देखिये, खुशबू का ज़िक्र है
इक शमा-सी हर आँख के कोने में जल गई
सपनों की परी शोख है, नाज़ुक-शरारती
आई वो पास और फिर छूकर निकल गई
फूलों की घाटियों का अज़ब जादुई हिसाब
कोंपल ने छुआ जैसे ही चट्टान गल गई
दो मछलियाँ हैं ताल में, दोनों नशे में हैं
आई किनारे एक तो दूजी मचल गई
बहता गुलाब-जल है नदी में सुबह से शाम
लहरों में जैसे लाल की लाली पिघल गई
पत्तों के बीच में हवा घुंघरू बजा रही
तुम हो यहीं, यही तो उसे बात खल गई
ग़ज़ल
तट पर नदी के डूबते सूरज को देखिये
पानी में तैरते हुए अचरज को देखिये
लहरों पे लाल धूप का जादू बिखर रहा
टापू पे रंग की नई सजधज को देखिये
दिन आग की चट्टान पर चढ़कर फिसल गया
रेती में जो खिला, उसी नीरज को देखिये
जिस पर लिखी है प्यार की पाती हवाओं ने
रंगीन उस घटाओं के कागज़ को देखिये
छूकर जिसे शिलाएँ भी लेने लगीं हैं साँस
सरजू के घाट पर बिछी उस रज को देखिये
ग़ज़ल
ताज्ज़ुब- चट्टान पानी हो गई
वो अहल्या की कहानी हो गई
रात मछली ने निगल ली रौशनी
इक अँगूठी की निशानी हो गई
पत्थरों पर छाँव सूरज की पड़ी
हर छटा चढ़ती ज़वानी हो गई
रीझकर दर्पण में खुद को देखती
पद्मिनी, लगता, सयानी हो गई
प्रेमरस में लग रही है वह पगी
चाँदनी मीरा दिवानी हो गई
तैरती गहरे समुंदर में शिला
रामजी की वह कहानी हो गई
चतुर केवट कह रहा है धूप से
काठ की डोंगी पुरानी हो गई
ग़ज़ल
कल चुपके से धूप हमारे घर आई
इक पड़ोस की लडकी भी है मुस्काई
रही रात भर इधर चाँदनी भी पूरी
सुबह सुनी बिस्मिल्ला खाँ की शहनाई
घुँघरू बजे कि वंशी, दोनों ही मीठे
गूँज रही है कल से अपनी अमराई
दर्पण में महके गुलाब का जादू है
देख अक्स खुद का ही वो है शरमाई
बच्चे हँसे- हमारे भीतर फूल खिले
धूप-छाँव ने यादों में ली अँगड़ाई
ग़ज़ल
मछलियाँ हो रहीं पत्थर, देखिये
हाँ, समुन्दर से गुज़रकर देखिये
आईं नदियाँ, हो गईं गुमनाम वे
हैं समाई वे यहीं पर देखिये
उधर उस चट्टान के नीचे कहीं
मछलियों का है दुआघर, देखिये
रौशनी में कल हवाएँ थीं इधर
हो गया सोनल ये पोखर, देखिये
जल गवाही दे रहा दर्पण की है
भाई, यह छिछला समुंदर देखिये
ग़ज़ल
पिछली बू-बासों का, बोलो, क्या करें
अपने अहसासों का, बोलो, क्या करें
हाँ, समय के साथ गुजरेंगे सभी
अभी इन साँसों का, बोलो, क्या करें
पतझरों के बीच भी ज़िंदा रहे
शोख मधुमासों का, बोलो, क्या करें
जो महकते आज भी अन्दर कहीं
उन गुलाबाँसों का, बोलो, क्या करें
है जुआघर ज़िंदगी, माना, मगर
शकुनि के पासों का, बोलो, क्या करें
एक नन्दनवन हमारे लिए भी
चुभ रही फाँसों का, बोलो, क्या करें
ग़ज़ल
इधर इस नीम पे चिड़ियों का आशियाना है
उधर गली में हमारा भी इक ठिकाना है
हवाएँ इस ज़गह हर रोज़ ग़ज़ल कहतीं हैं
हुस्न औ' इश्क का तो बस इन्हें बहाना है
हम सवालों के शहर में रहे अभी तक हैं
वहाँ से जा चुका गुजरा हुआ ज़माना है
एक मस्जिद है इधर - सामने ही मंदिर है
यहाँ अभी भी नदी-जल वही पुराना है
यहाँ की आबोहवा में खुमार बाकी है
अभी भी ज़िंदा है वो पीर जो दिवाना है
ग़ज़ल
गली के उस मोड़ पर इक शख्स रहता है
मीर-ग़ालिब के अभी भी शे'र कहता है
याद उसको है अभी भी हँसी बच्चों की
वह गुलाबों की महक का ज़िक्र करता है
कल बहा था शहर में जो आग का दरिया
बस उसी की सोचकर वह आह भरता है
यह इलाका शहर के आखीर में पड़ता
यहाँ दरिया अभी भी चुपचाप बहता है
वक्त ने की है तरक्की पर न जाने क्यों
आदमी वह हर किसी का दर्द सहता है
होवे मंदिर रामजी का, साथ में मस्जिद
शख्स वह इसकी दुआएँ रोज़ करता है
जानता वह- आएगी रितु, पेड़ फूलेगा
आज जो इन आँधियों में रोज़ झड़ता है
ग़ज़ल
हमारे साथ चलकर देखिये तो
कभी घर से निकलकर देखिये तो
अँधेरों की भी अपनी रौशनी है
नज़र का रुख बदलकर देखिये तो
शहर में लौटने वाली सुबह फिर
शमा की तरह जलकर देखिये तो
बहुत दिन आपने सबको छला है
कभी खुद को भी छलकर देखिये तो
पुराने का मनाया ग़म कई दिन
नये साँचे में ढलकर देखिये तो
उगा दीवार के उस पार फिर है
नया सूरज - उछलकर देखिये तो
खिले हैं फूल- कितनी तितलियाँ हैं
ज़रा बाहर निकलकर देखिये तो
ग़ज़ल
महकते दिलों का खज़ाना शहर है
अभी भी है ज़िंदा -पुराना शहर है
हवाओं में फिर आँधियों की ख़बर है
हँसे जा रहा है, दिवाना शहर है
हैं पिछले ही दस्तूर, रिश्ते वही हैं
परायों का भी आबोदाना शहर है
गली-कूचों में आज भी है न दहशत
नये लोग कहते - बेगाना शहर है
यकीं क्यों नहीं आपको आ रहा है
अरे यार, सदियों पुराना शहर है
चमन में हैं फूलों के आँसू न थमते
हुआ गोलियों का निशाना शहर है
फ़रिश्तों ने था इस शहर को बसाया
इसी से सभी का ठिकाना शहर है
ग़ज़ल
दादी-बाबा आजकल किस्से सुनाते हैं नहीं
इस शहर के लोग परियों को बुलाते हैं नहीं
इन दिनों सूरज का कोई नाम तक लेता नहीं
गोप-ग्वाले भी यहाँ वंशी बजाते हैं नहीं
कुछ दिनों से इन घरों में धूप है आती नहीं
फिर भी जाने क्यों शहर दीये जलाते हैं नहीं
आप खुश हैं -बस्तियों में अब भी गाने का चलन
लोग अपने-आप इन गीतों को गाते हैं नहीं
अस्लियत को देखने की शहर को आदत नहीं
लोग पत्थर के हुए -अब कुछ बताते हैं नहीं
आइनों का ज़िक्र भी करना यहाँ पर ज़ुर्म है
आइनों का ज़ुर्म है कि वो छिपाते हैं नहीं
सबको अपना मानने का यों भरम मत पालिये
लोग अपनों को यहाँ अक्सर बसाते हैं नहीं
आप नाहक रोज़ ख़ुशबू की सजाते महफ़िलें
आपकी इन महफिलों में लोग आते हैं नहीं
ग़ज़ल
ये टूटे घरों की कहानी है बस्ती
शहर भर में सबसे पुरानी है बस्ती
वही रोज़ दीवार ढहने के किस्से
बुजुर्गों की अंतिम निशानी है बस्ती
नदी-पार के खण्डहर कह रहे हैं
पुराने समय की जवानी है बस्ती
नये गुंबजों में खड़े लोग नंगे
हुई शर्म से पानी-पानी है बस्ती
समझदार लोगों से अक्सर सुना है
ये पीरों औ' संतों की बानी है बस्ती
उजड़ने के वैसे बहाने कई हैं
मगर सच है यह- आनी-जानी है बस्ती
ग़ज़ल
लोग भी हैं अजब, घर जलाते रहे
और नदियों के किस्से सुनाते रहे
हाथ में रोज़ जलती मशालें लिये
मोम की छावनी में बुलाते रहे
ज़िक्र प्यासे शहर का वो करते रहे
आग पानी में खुद ही लगाते रहे
बस्तियाँ नेह की हैं उजड़ती रहीं
लाख के लोग गुंबज बनाते रहे
रात बारूद के खेल होते रहे
जश्न सपनों के यों सब मनाते रहे
देखिये तो ज़रा इनकी जिंदादिली
राख के ढेर पर गीत गाते रहे
हादसे के इलाके में चुप हैं सभी
गाल अपने वो फिर भी बजाते रहे
हमने ढूँढा बहुत, पर मिले वो नहीं
आग जो आँसुओं से बुझाते रहे
साथ लौटे थे जो कल जले घाट से
रास्ते भर ग़ज़ल वो सुनाते रहे
एक मीनार अक्सों की है हाट में
लोग चेहरे उसी में छिपाते रहे
ग़ज़ल
नदी है और प्यासी जलपरी है
हमारे शहर की जादूगरी है
जो चढ़ते थे उतरते ही गये वे
अरे, मीनार यह उलटी धरी है
तमाशे आग के हैं गुंबजों में
सुबह से राख बस्ती में झरी है
शहर के खास बाशिंदे करें क्या
ये बस्ती नये चेहरों से भरी है
घरों से लोग मुँह-ढाँपे निकलते
पुरानी चोट है, अब भी हरी है
हुईं ज़ख़्मी हवाएँ हादसों में
वही पहचान दिन की आखरी है
गिरा फिर आग-पीती झील में दिन
हवा जैसे चिताओं पर धरी है
ग़ज़ल
लोग धूप के किस्से अक्सर कहते हैं
बंद खिडकियों वाले घर में रहते हैं
बूढ़ी गौरैया बैठी है नीम-तले
दिन अपने दुख-दर्द अकेले सहते हैं
रोज़ रात-भर रोती परियों की रानी
आँसू दिन-भर वही नदी में बहते हैं
पत्थर की दीवारों के किस्से सुनकर
काँचघरों के अक्स पुराने ढहते हैं
सर्द बहुत हैं साये सपनों के घर के
उसमें बैठे हम लपटों में दहते हैं
ग़ज़ल
क्या कहें क्यों रेत से हारी नदी
लोग पगले - पी गये सारी नदी
कल यहाँ पर रात-भर जलसे हुए
चुप पड़ी है आज बेचारी नदी
घोलते दिन रोज़ पानी में ज़हर
लोग कहते- हुई हत्यारी नदी
शर्म की है बात - सारे कह रहे
पाँव भारी हुए - है क्वाँरी नदी
घाट पर हर वक्त लाशें जल रहीं
कौन फिर इसको कहे- प्यारी नदी
जी-हुजूरी में बिछी गुंबज-तले
हो गई है खास दरबारी नदी
आग से लड़ती रही यह उम्र भर
राख पीकर हो गई खारी नदी
ग़ज़ल
सबके हाथों में कटे सर देखिए
यह नज़ारा खास है- 'सर' देखिए
हर सडक पर हैं मशालों के जुलूस
पास में हैं लाख के घर, देखिए
भीड़ ने ज़ज्बात को अंधा किया
जल रहे हैं ढाई आखर, देखिए
नाव कितनी दूर जाएगी, हुज़ूर
झील में गहरे उतर कर देखिए
मोम के पुतले कहाँ पर जल रहे
पत्थरों के शहर चलकर देखिए
रात-भर मीनार पर जलसे हुए
सुबह परियों के कटे पर देखिए
खुशबुओं की खोज में आये थे वे
हो गये हैं लोग पत्थर देखिए
इस शहर में हादसे आदत हुए
खून से हर आँख है तर, देखिए
दूर तक जाने की बातें हो रहीं
पाँव ज़ख्मी- रास्ते भर देखिए
ग़ज़ल
सरे-शाम बुझते दियों की ख़बर है
शहर में मरी तितलियों की ख़बर है
तुम्हारे शहर में हुए होंगे जलसे
हमें तो जले ताज़ियों की ख़बर है
बढ़ी प्यास सबकी, नदी घट रही है
किनारे डरी मछलियों की ख़बर है
मिले कल कई खत पुराने शहर से
सभी में वही आँधियों की ख़बर है
मसीहों के मरने पे सबने बजाईं
गुनहगार उन तालियों की ख़बर है
महल से हुआ कल है फ़रमान ज़ारी
बिके जो उन्हीं बाग़ियों की ख़बर है
नये लाखघर में जो छिपकर खड़े हैं
उन्हीं मोम की पुतलियों की ख़बर है
बने नीड़ इतने कि सारे शहर में
उजड़ते हुए पंछियों की ख़बर है
मोहल्ले के बच्चे हैं क़ाबिल, उन्हें भी
बदलती-हुई गद्दियों की ख़बर है
ग़ज़ल
गुज़रते हैं दिन फिर मशालों के नीचे
शहर हैं उबलते सवालों के नीचे
जले घर - गली में धुआँ-ही धुआँ है
खड़े लोग हैं ठूँठ डालों के नीचे
कहाँ जाएँ अब प्यास अपनी बुझाने
मिले खौलते जल हैं तालों के नीचे
अज़ब हाल है इस पुराने किले का
हुआ कैद मकड़ी के जालों के नीचे
ज़रा सोचकर भेंटिए दोस्तों को
छिपे बघनखे हैं दुशालों के नीचे
बचेगा ये कैसे शहर -सोचते हम
सुलगते हुए इन ख़यालों के नीचे
ग़ज़ल
न पूछो कहाँ है लुटेरों की बस्ती
यही है नये धनकुबेरों की बस्ती
सँभलकर गुज़रिये - ज़हर है हवा में
यहीं पास में है सँपेरों की बस्ती
ख़बर है, समुंदर की हालत है खस्ता
कई दिन से भूखी मछेरों की बस्ती
पुराने शहर के नये ज़ख्म देखो
नदी-पार ही है लुटेरों की बस्ती
हुए ऊँचे गुंबद, अँधेरे बढ़े हैं
करे क्या ये गुज़रे सबेरों की बस्ती
ग़ज़ल
कड़ी है धूप यहाँ, आप न आएँ, भाई
नदी में आग लगी, पुल न बनाएँ, भाई
ज़माने भर से यहाँ लोग बड़े प्यासे हैं
समुंदरों की हवा और न लाएँ, भाई
ये शहर ज़हरबुझा, फूल यहाँ के नकली
आप बुलबुल की तरह गीत न गाएँ, भाई
पत्थरों का है इलाका, यहाँ चुपचाप रहें
ढाई आखर की कहानी न सुनाएँ, भाई
यही अच्छा है कि न यहाँ अब आए
खासकर बच्चों को हरगिज़ न बुलाएँ, भाई
आपकी आँख में सपनों के घने साये हैं
पर यहाँ धूप में उनको न सुलाएँ, भाई
ओस की बूँद यहाँ राख हुई है कबसे
घास झुलसी हुई; इस शहर से जाएँ, भाई
ग़ज़ल
आये हैं लोग, गया नहीं कोई निकलकर
रहिये, हुज़ूर, लाख की कोठी में सँभलकर
अब रात के आने में बहुत देर नहीं है
खण्डहर में धूप ढल चुकी गुंबज से निकलकर
बस्ती से उठ रहा ये धुआँ दूर नहीं है
लगता है मरी कोई सुबह आग में जलकर
मीनार में सजे हुए, हैं पुतले मोम के
जब आंच लगेगी तो ये बिखरेंगे पिघलकर
सुनते हैं कि पाताल से ये सीधी जुड़ी है
कितनी गरम सुरंग है, देखें न ये चलकर
ग़ज़ल
पिछले दिनों यहीं पर डूबी थी नाव, साहेब
इस बावरी नदी में रखिये न पाँव, साहेब
चुपचाप बह रही है, पर कब उमड़ पड़ेगी
कैसे बताएँ इसके कितने हैं दाँव, साहेब
पत्तों को नींद आई -सब उसमें जाके सोये
उसके तले बिछी है जंगल की छाँव, साहेब
बरसों से ये अँधेरे शहरों में रह रही है
अब खोजिये न इसमें सूरज के ठाँव, साहेब
कंधों पे लद के आये जो लोग भी यहाँ पर
वापस नहीं गये वे फिर अपने गाँव, साहेब
बुलबुल को लाइए मत इस इस बावली के तट पर
बोलेगी वो भी आकर बस 'काँव-काँव', साहेब
ग़ज़ल
हवाएँ खड़ीं थिर नदी के किनारे
यहीं पर था मंदिर नदी के किनारे
धुआँ कल शहर-भर में इतना घना था
घटाएँ रहीं घिर नदी के किनारे
सुना, रात गलियों में धड़ घूमता था
मिला है कटा सिर नदी के किनारे
बहुत रात तक नाव गहरे में पैठी
पड़ी वह मिली फिर नदी के किनारे
गुनहगार है धूप, दिन भर चली थी
अचानक पड़ी गिर नदी के किनारे
अज़ब लोग भोले, यही पूछते हैं
हुआ क्या है आखिर नदी के किनारे
ग़ज़ल
समाचार लाये वे जलते दियों के
शिकार हो गये हैं ग़लतफहमियों के
असल में बुझे थे दिये शाम को ही
जलाये हुए थे नई बाँदियों के
शुरू रात से नीड़ जलने लगे थे
सुलगने लगे थे सिरे घाटियों के
उन्हीं को वे समझे नई रौशनी थे
न समझे अँधेरे थे वे पीढ़ियों के
हवाओं में चिनगारियाँ उड़ रहीं हैं
उसी से भरम हो रहे तितलियों के
जहाँ दाँव लगते जली बस्तियों के
ये किस्से जुए की उन्हीं बाज़ियों के
गुनहगार है साँप या और कोई
निकलती लपट छेद से बाँबियों के
ग़ज़ल
खून में भीगी हुई गहरी घटाएँ कब से हैं
इस गली में, यार, तूफानी हवाएँ कब से हैं
हमने घर-घर में बनाये थे खुले आँगन कभी
यार, हर आँगन में ये अंधी गुफाएँ कब से हैं
खुशबुओं से सींचकर हम लाये थे सूरज यहाँ
रात के ये कारवाँ, कुछ तो बताएँ, कब से हैं
राख के हैं ढेर - सपनों की जली तस्वीर है
इस गली में मौत की ये बददुआएँ कब से हैं
हमने सोचा भी नहीं था, यह गली मर जाएगी
क्या कहें, ये मोड़ पर बैठी बलाएँ कब से हैं
ग़ज़ल
रात-भर शहर के जलने की खबर लाये हैं
अपनी आँखों में नई आग के डर लाये हैं
कल गये थे वे नदी-पार से सूरज लाने
एक झुलसा हुआ सुर्खाब का पर लाये हैं
कई सदियों से था, सोने का महल राख हुआ
अपनी मुट्ठी में वही राख ये भर लाये हैं
अंधी बस्ती में मिला और नहीं कुछ इनको
एक दस्ताना मिला खून से तर - लाये हैं
जो ज़माने से थी चुपचाप पड़ी जंगल में
बावरे हैं ये, उसी आग को घर लाये हैं
ग़ज़ल
पत्ते रोज़ नदी में बहते, पत्तों का क्या है
हर पल नये थपेड़े सहते, पत्तों का क्या है
पगडंडी पर इनके गिरने से क्या होता है
वैसे ही ये झरते रहते, पत्तों का क्या है
कल फूलों की घाटी में इनका था ज़िक्र हुआ
आज सभी इतना ही कहते - 'पत्तों का क्या है'
एक लगी चिनगारी, पूरा जंगल राख हुआ
कौन बताये कब से दहते, पत्तों का क्या है
नाहक हैं अफ़सोस कर रहे इनके मरने का
साथ पेड़ के ये भी ढहते, पत्तों का क्या है
ग़ज़ल
परियों के संग रात गुज़ारी सपनों ने
अब चलने की की तैयारी सपनों ने
खुशबू के दिन सब में बाँट दिए जाएँ
यह फ़रमान किया है ज़ारी सपनों ने
सदियों से है रही उजडती यह बगिया
अब इसकी है नज़र उतारी सपनों ने
नये-नये सपनों की बाज़ी हो जिससे
जानबूझ कर बाज़ी हारी सपनों ने
फिर मिठास बस्ती में लौटे, इसीलिए
पिया रात-भर पानी खारी सपनों ने
सबको प्यार बाँटने की इस आदत से
बड़े-बड़ों की खाई गारी सपनों ने
ग़ज़ल
खून-खराबे, झगड़े आये मंदिर में
सुनते, शाहों ने ठहराये मंदिर में
आगज़नी जो राजमहल में रहती थी
कब से रहती कौन बताये मंदिर में
सबने हाथों में दस्ताने पहने हैं
किसने फिर ये दाग लगाये मंदिर में
बस्ती में था रात तमाशा साँपों का
सुबह गये वे सारे पाये मंदिर में
महलों में कल शहजादों ने पाले हैं
घुस आये छुट्टा चौपाये मंदिर में
कबिरा, तुलसी, सूर सभी सिर धुनते हैं
उलटे भजन गये हैं गाये मंदिर में
ग़ज़ल
बस्ती में सजधज के राजे निकले हैं
लोग शहर से लिये जनाज़े निकले हैं
रंगमहल में सपनों के जलसे होते
अंधे लेकर टूटे बाजे निकले हैं
कल तुमने था कहा- शहर पत्थर होंगे
सही तुम्हारे सब अंदाज़े निकले हैं
तुम कहते - गुलाब की कलमें रोपीं थीं
नागफनी के जंगल ताज़े निकले हैं
पिछले कर्ज़ों का हिसाब भी बाकी है
राजमहल से नये तकाज़े निकले हैं
शहर आग से घिरा हुआ, फिर भी देखें
शहंशाह मय गाजे-बाजे निकले हैं
ग़ज़ल
बनावट से अपनी उबर के तो देखें
हमारी गली से गुज़र के तो देखें
गलीचों पे चलने के आदी रहे हैं
कभी धूल में पाँव धर के तो देखें
रहे दूर से सिर्फ लहरों को गिनते
समुन्दर के भीतर उतर के तो देखें
खुदी को समेटे रहे आप हरदम
कभी बेखुदी में बिखर के तो देखें
सुनहरे लिफाफों में लिपटे रहे हैं
कभी चीथड़ों में सँवर के तो देखें
महल में हैं नकली उजालों की बातें
कभी धूप को आँख भर के तो देखें
बड़े काम करते हुए उम्र बीती
कोई काम छोटा-सा करके तो देखें
रहे पूजते आप दूजों के मन्दिर
कभी देवता अपने घर के तो देखें
सदा बात करते रहे कोंपलों की
सरे-शाम पेड़ों से झर के तो देखें
नहीं ज़िंदगी सिर्फ़ साँसों को लेना
किसी के लिए आप मर के तो देखें
ग़ज़ल
तुम्हें क्या बुझी दोपहर का पता है
वही, यार, अपने शहर का पता है
न जाने कहाँ लोग अमरित हैं पीते
हमें सिर्फ़ कातिल ज़हर का पता है
जहाँ तुम महल का पता हो बताते
वहीं तो कहीं खंडहर का पता है
बताएँ तो कैसे लहर है कहाँ अब
समुन्दर को ही बस लहर का पता है
जहाँ आज चिनगारियाँ उड़ रहीं हैं
वही तो ज़गह जो कहर का पता है
बड़े लोग क़ाबिल, मगर क्या उन्हें भी
हमारी ग़ज़ल की बहर का पता है
ग़ज़ल
कहते हैं कि आनी-जानी पगडंडी
सपनों की कह रही कहानी पगडंडी
रही जोडती यह पर्वत को घाटी से
सदियों से है रही सयानी पगडंडी
मीरा-कबिरा कभी, कभी यह सरमद है
रही सदा संतों की बानी पगडंडी
जब भी लोग भटककर लौटे सड़कों से
मिली यही जानी-पहचानी पगडंडी
महलों से यह दूर अकेली फिरती है
कहीं न रूकती यह अभिमानी पगडंडी
महल-दुमहले-हरम-अटारी सब खोए
कालचक्र में नहीं बिलानी पगडंडी
राजपथों के जलसे कल चुक जायेंगे
सिर्फ़ बचेगी यह अनजानी पगडंडी
ग़ज़ल
जलपरियों का घर देखा है
कल हमने सागर देखा है
लहरों के हैं खेल निराले
हमने उनमें डर देखा है
शंख-सीपियों के सँग तिरते
मुर्दा एक शहर देखा है
डूबी हुई धूप को हमने
पानी के भीतर देखा है
जिसने सागर पार किये हैं
उस पक्षी का पर देखा है
जिसे पूजती हैं जलपरियाँ
हमने वह पत्थर देखा है
जो सागर-मंथन से उपजा
हमने वही ज़हर देखा है
जल में पेठे जलसाघर को
हमने एक नज़र देखा है
जिसे देखते रहे देवता
वही इधर मंजर देखा है
ग़ज़ल
मरे रामधन, कभी बुलाकी, बड़ा शहर है
रोज़ वही खबरें हत्या की, बड़ा शहर है
एक बड़ी मीनार हवा में उलटी लटकी
बाँट रही उसमें विष साकी, बड़ा शहर है
जोड़-घटाना करते-करते लोग थक गये
सपनों का हिसाब है बाकी, बड़ा शहर है
किस-किस को रोये, भाई जी, यहाँ कबिरा
घर-घर चलती उलटी चाकी, बड़ा शहर है
नाहक आप यहाँ देवों को पूज रहे हैं
नहीं जरूरत इसे दुआ की, बड़ा शहर है
किस-किस को वह अपने घर का हाल बताये
सोच रही है बूढ़ी काकी, बड़ा शहर है
वही बोलता जो राजाजी उससे कहते
सोना-मढ़ी चोंच तोता की, बड़ा शहर है
ग़ज़ल
फिर हवाओं में घुटन है, या ख़ुदा
हर घड़ी लंकादहन है, या ख़ुदा
कल बहा था खून पूजाघरों में
हो रहा अब फिर भजन है, या ख़ुदा
छँट नहीं पाया अभी कल का धुआँ
आज फिर होता हवन है, या ख़ुदा
धूप का लम्हा, जो चन्दन था कभी
आग की लगता छुवन है, या ख़ुदा
पत्थरों के शहर की आबोहवा
आप कहते हैं अमन है, या ख़ुदा
काँपते बीती है सारी रात यह
धूप अपने में मगन है, या ख़ुदा
जिन रिवाज़ों से हुए मुर्दा सपन
लो, उन्हीं का फिर चलन है, या ख़ुदा
ग़ज़ल
एक बच्ची कल इधर रोती मिली
उसे परसों एक ही रोटी मिली
रात-भर खोजा, सुबह की है ख़बर
खोई लड़की की फटी चोली मिली
आये हैं जो कल नदी को पारकर
कह रहे- उस ओर रितु सोती मिली
उनके आँगन में गुलों की महफ़िलें
यहाँ खुशबू भी हमें खोटी मिली
दाँव उनके खूब हैं - हर दाँव पर
उनके हाथों में छिपी गोटी मिली
जहाँ जलसे में सभी नंगे हुए
सुरतिया की वहीँ पर पोती मिली
आँख में बडकी के आंसू ही मिली
हुस्न के बाज़ार में छोटी मिली
ग़ज़ल
नम हवाएँ और जंगल पास में
ले रही है साँस बरखा घास में
मोर खोले पंख करते हैं दुआ
फिर नहाये मेघ बिजुरी-रास में
डुबकियाँ लेती रहीं परछाइयाँ
रात-भर भीगे-हुए एहसास में
दिन घटाओं से लिपट कर भीगते
खुशबुएँ हैं वही पास में
ले रहा संतूर लंबी तान फिर
धुन वही है झील की बू-बास में
राख थीं जो हुईं साँसें धुल गईं
जले आँगन रह गये इतिहास में
दूरियाँ औ' फ़र्क सारे मिट गये
साँस कुछ ऐसे समाई साँस में
ग़ज़ल
जिसमें अपने सगे सभी घर
वही गली है अपने भीतर
संग रहे हम ज़िंदा जिनके
वही पुराने ढाई आखर
जो सबमें है-हममें भी है
हुआ ख़ुदा का नूर उजागर
सुबह हमारी आँखों में थी
अभी मिली किरणों में आकर
सबको गले लगाया जिसने
वही हमारा है पैगंबर
ग़ज़ल
पूछते हो तुम समुंदर की ख़बर
हमें तो है लाख के घर की ख़बर
नदी में भी बूँद-भर पानी बचा
वही देता जले पोखर की ख़बर
एक जंगल भी यहीं है पास में
उसे ही है बस बवंडर की ख़बर
हम हवाओं के सिरे पर खोजते
फिर किसी सुर्खाब के पर की ख़बर
एक बुढ़िया है हमारी गली में
रोज़ देती वही खँडहर की ख़बर
चंद लमहों में हुआ था हादसा
काँचघर में पत्थरों की थी ख़बर
एक ही आँगन बचा है गाँव में
यार, यह पिछले दिसंबर की ख़बर
दूरियाँ कुछ भी नहीं थीं, पर हमें
हो न पाई ढाई आखर की ख़बर
कुछ कहो मत, वक्त है आया नया
दे रहा टूटे मुकद्दर की ख़बर
अभी गुज़रेंगे यहीं से देवता
दे रहे हम तुम्हें अंदर की ख़बर
ग़ज़ल
जहाँ कोहरे के पल सबसे घने हैं
उसी सीमांत की हम धड़कनें हैं
हम गुलाबी कोंपलों-से थे कभी
मगर अब ठूँठ हैं, उजड़े तने हैं
कहीं पर आज भी जलसे हुए हैं
हमारी साँस में बस उलझनें हैं
सुबह से शाम तक बुनते अँधेरे
बहुत ऊबे हुए, दिन अनमने हैं
जहाँ सूरज की खबरें हैं पुरानी
उसी अख़बार की हम कतरनें हैं
ग़ज़ल
आँधी में काँपते हुए चिड़ियों के घोंसले
पतझर में हाँफते हुए चिड़ियों के घोंसले
जब हों हवाएं सर्द - मिलेंगे धुओं के बीच
बेदम व खाँसते हुए चिड़ियों के घोंसले
या टहनियों में गूँजती बरखा की रात में
दुख के गुमाश्ते हुए चिड़ियों के घोंसले
मौसम हो चाहे कोई - ये गहराई दर्द की
सपनों से नापते हुए चिड़ियों के घोंसले
पहुँचे कहाँ से धूप की चिट्ठी हवाओं को
सूर्यास्त के पते हुए चिड़ियों के घोंसले
ग़ज़ल
हर घर-ओ-दीवार पर हैं नाप के पर्दे
ढँक रहे बेपर्दगी को आप के पर्दे
जब सभी कमरों के अंदर धूप आती है
सोचते हैं -क्या हुआ यह, काँप के पर्दे
सभी चेहरों के मुखौटे खुल नहीं पाते
ढाँप लेते हैं सुनहरी छाप के पर्दे
अज़नबी रहना यहाँ दस्तूर है सबका
कौन पहचाने ये किसके बाप के पर्दे
इस इलाके में सुबह से शाम रहती है
पुण्य इतना कर रहे ये पाप के पर्दे
ग़ज़ल
सभी रितुएँ बैपरे हैं घास के तिनके
पतझरों में भी हरे हैं घास के तिनके
हर घड़ी से जोड़ते मधुमास के रिश्ते
रात-दिन सुख से भरे हैं घास के तिनके
जब हवाओं में सलोने गीत होते हैं
खुशबुओं के अन्तरे हैं घास के तिनके
रोज़ इन पर अनमनी यात्राएँ होतीं हैं
हर शिकायत से परे हैं घास के तिनके
रोज़ बुनते हैं गलीचे मखमली रितु के
धूप गोपी, साँवरे हैं घास के तिनके
बंजरों में,खँडहरों में भी उगा करते
बावरों में बावरे हैं घास के तिनके
इनकी ज़िद है ये रखेंगे साँस को जिंदा
अपने वादे के खरे हैं घास के तिनके
ग़ज़ल
रौशनी की उम्र कम होने न दी
शमा की लौ पस्त-ए-दम होने न दी
हादसों में ज़िंदगी गुज़री, मगर
हमने अपनी आँख नम होने न दी
उम्र भर पाबंदियाँ लगती रहीं
भोंथरी अपनी कलम होने न दी
रोज़ हमले हुए, लेकिन चुप रहे
साँस अपनी बेरहम होने न दी
एक पत्ता क्या गिरा, जंगल डरा
साँस हमने ज़ेर-ए-ग़म होने न दी
हमने जो वादा किया, पूरा किया
कोई भी झूठी कसम होने न दी
ग़ज़ल
एक घायल फाख्ता हमको मिला
नीड़ भी उजड़ा हुआ हमको मिला
बहुत ढूँढ़ा हर तरफ बेकार ही
दर्द सीने में छिपा हमको मिला
पत्तियाँ उड़कर गईं किस ओर हैं
यह हवाओं से पता हमको मिला
आई जंगल की खबर अख़बार में
इधर बरगद काँपता हमको मिला
रात-भर जाने कहाँ भटका है ये
सुबह से सूरज थका हमको मिला
ग़ज़ल
कहाँ सपनों का है घर, देखिये तो
ज़रा इस ओर आकर देखिये तो
उमड़कर आ रहा जो चाँदनी में
समुंदर को नज़र भर देखिये तो
हज़ारों जले चाँदी के दिए हैं
उधर पेड़ों के ऊपर, देखिये तो
हँसी गूँजी किसी मेहरुन्निसा की
इधर उड़ते कबूतर देखिये तो
सुनहरे अक्स चारों ओर बिखरे
सुबह का है ये मंजर, देखिये तो
किसी कान्हा की कलगी में लगा था
गिरा यह मोर का पर, देखिये तो
नहीं यह जिस्म, परियों की गुफा है
हमें भी, यार, छूकर देखिये तो
ग़ज़ल
हर किसी को हँस के देती जिंदगी है
तुमने जंगल की हवा देखी कभी है
धूप के हैं अक्स बिखरे हर लहर में
झील है यह या सुबह की आरसी है
शांत देखो है खड़ा सदियों से कैसा
यह नहीं परबत, कोई जोगी-जती है
टिक के रहती है नहीं यह एक तट पर
एक चंचल शोख लड़की-सी नदी है
उधर देखें, धूप में जंगल नहाया
हो रहा मन भी हमारा आरती है
कोई रोया, आँख में इसके नमी है
भाई, मानें, यही असली आदमी है
कभी है सन्तूर, वंशी-धुन कभी है
साँस की यह तान बिलकुल आखरी है
ग़ज़ल
समुंदर को गुफाएँ देखतीं हैं
अँधेरे में हवाएँ देखतीं हैं
हमें अक्सर लगा है साँझ-बीते
ताज्ज़ुब से दिशाएँ देखतीं हैं
जो सबमें है, उसी का नूर, मानो
हमारी ये ऋचाएँ देखतीं हैं
अभी आकाश होने की खबर है
यही डर है बलाएँ देखतीं हैं
कभी जब आँख में आँसू उमड़ते
हमें माँ की दुआएँ देखतीं हैं
ग़ज़ल
दूर-दूर तक कोहरा है मैदान में
बैठे इधर कबूतर रोशनदान में
खोज रहा दिन सूरज को टहनी-टहनी
धुआँ उठ रहा नुक्कड़ की दूकान में
घने धुंध में तैर रहे हैं सारे घर
टपक रहे चंपा के पत्ते लॉन में
झील-शिकारा-मंदिर-मस्जिद-चौबारा
सब लगते हैं जैसे डूबे ध्यान में
पाला लटका हुआ हमारे छज्जे से
धूप खोजते दिन बैठे सुनसान में
आकृतियाँ दिखतीं हैं - ओझल हो जातीं
आता नहीं कहीं कोई पहचान में
और बर्फ़ के इस तिलिस्म का जादू है
खोज रहे हम ख़ुशबू रेगिस्तान में
ग़ज़ल
बड़े सबेरे आई पाती
मौसम ने भिजवाई पाती
हमें नहीं वे अक्षर आये
बच्चों से पढ़वाई पाती
आधी बोली थी ख़ुशबू की
तितली ने समझाई पाती
एक याद थी मीठी-मीठी
खबर उसी की लाई पाती
ढाई आखर की कहती है
सब कहते - बौराई पाती
हमने सुनी कोंपलों से थी
देती वही दुहाई पाती
उड़ती फिरती जंगल-जंगल
ऐसी हवा-हवाई पाती
ग़ज़ल
जब भी हम धूप में खड़े होते
अपनी परछाईं से बड़े होते
आइनों का हिसाब टेढ़ा है
काश, अक्सों को हम पढ़े होते
ज़िदगी यों ही बीत जाएगी
रोज़ सपनों के आँकड़े होते
ग़र हमें सीढियाँ मिली होतीं
हम भी मीनार पर खड़े होते
तुम अगर साथ यों न देते तो
हम कहीं राह में पड़े होते
ग़ज़ल
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वक़्त की मीनार के नीचे खड़े
पढ़ रहे हैं हम सुबह के आँकड़े
फागुनी आकाश की बाँची कथा
इधर बगिया में नए पत्ते झड़े
झील-तट पर मौत के जलसे हुए
पाँव दलदल में मसीहों के गड़े
शहर-भर के आइने अंधे हुए
कुछ पुराने अक़्स हैं बिखरे पड़े
लाखघर के साथ फूलों की गली
पार उनके बने पूजाघर बड़े
घर हुए किस्से - उजड़ते गाँव हैं
क़ब्रगाहों में गए हीरे जड़े
राम-रहिमन सँग रहे थे पीढ़ियों
उनके बंदे,सुना, कल दिन-भर लड़े
ग़ज़ल
आयने में झुर्रियों के अक्स हैं, हम क्या करें
उम्र-भर के दर्द दिल पर नक्श हैं, हम क्या करें
क्या बताएँ- हम हुए किस्सा पुराने वक्त के
शहर में तो अज़नबी सब शख्स हैं, हम क्या करें
साल पहले मरे अपने दोस्त रामादीन थे
रात पिछली मरे अल्लाबख्श हैं, हम क्या करें
कहीं होते रोज़ जलसे- कहीं अंधी रात है
और नंगे हो रहे अब रक्स हैं, हम क्या करें
फेन साबुन का नदी पर- ताल पर भी झाग है
इन दिनों परियाँ लगातीं लक्स हैं, हम क्या करें
ग़ज़ल
ज़िंदगी के मायने हम पूछते
प्रश्न ऐसे, लोग हैं कम पूछते
काश, लड़की की, उधर जो है खड़ी
आँख क्यों हो रही है नम, पूछते
संत होते तो उन्हीं से आज हम
क्यों जला कल रात आश्रम, पूछते
गर हमें मिलता शहर लखनऊ तो
गोमती क्यों हुई बेदम, पूछते
साधु असली अगर होते, तभी तो
क्यों अपावन हुआ संगम, पूछते
ग़ज़ल
धीरे-धीरे गीत पुराने हो गये
यादों के वे पते-ठिकाने हो गये
राख हुई पगडंडी की बातें करते
जीने के बस यही बहाने हो गये
आमदरफ्त धूप की होती है अब भी
रिश्ते-नाते आने-जाने हो गये
अंधे युग में रहते-रहते थका समय
जाने कब दुख-दर्द सयाने हो गये
दिव्य दृष्टि पाई थी जिनने पुरखों से
नये वक्त में वे ही काने हो गये
कोशिश थी देवता बनें- सबको सुख दें
ख़ुद ही दुख के ताने-बाने हो गये
ग़ज़ल
जनम-ज़िंदगी हाट-लाट से परे रहे वे
युग खोटा यह- इसमें भी हैं खरे रहे वे
समझ न पाये दुर्योधन की राजसभा को
भीतर अपने रामराज को धरे रहे वे
संत नहीं थे, फिर भी धूप सभी को बाँटी
सहज नेह से अपने मन को भरे रहे वे
नहीं सजावट बने किसी के नंदनवन के
वे बरगद थे, पतझर में भी हरे रहे वे
अपने जीवट से उनने यह स्वर्ग बनाया
नहीं किसी के भी, साधो, आसरे रहे वे
ग़ज़ल
वक्त के अख़बार के हैं हाशिये हम
काँचघर में अक्स बनकर हैं जिये हम
दिन अँधेरों की गुफा में क़ैद है यह
जो अँधेरों से लड़े, वो हैं दिये हम
राख की मीनार पर हो रहे जलसे
खड़े नीचे फूल हाथों में लिये हम
दुश्मनों तक को दुआ देता रहा जो
पीर की उस क़ब्र के हैं मरसिये हम
शाह अमृत-कलश लेकर महल बैठे
हम प्रजा, युग का हलाहल ही पिये हम
ग़ज़ल
कोट के नीचे दुआघर
लाख की मीनार ऊपर
आग के उड़ते बगूले
कभी बाहर- कभी भीतर
सगुनपाखी उड़े कैसे
जले उसके पंख औ' पर
रौशनी के राजपथ पर
खाई सबने रोज़ ठोकर
रच रहे क़ातिल सुनामी
लाँघकर सीमाएँ सागर
जहाँ बचपन में नहाये
कहाँ जाने गये पोखर
ग़ज़ल
धूप-छाँव है खास शहर में
सिंथेटिक है घास शहर में
प्लास्टिक के फूलों की खुशबू
नकली हर बू-बास शहर में
हाट बड़ा है, बौने सुख हैं
ठगा गया विश्वास शहर में
नदी-ताल ख़ुद प्यासे सारे
बढ़ी सभी की प्यास शहर में
गाँव-गाँव में झगड़े व्यापे
मुंसिफ़ का इजलास शहर में
आधा-परधा पढ़ा कभी था
सपनों का इतिहास शहर में
ग़ज़ल
सभी हुए बेहाल शहर में
साँस हुई जंजाल शहर में
चेहरों पर नकली मुसकानें
खिंची सभी की खाल शहर में
पानी मरा सभी का ऐसा
सूखे नदिया-ताल शहर में
अच्छे-भले रहे वे घर में
हुआ बुरा है हाल शहर में
पंखकटे हैं सगुनापाखी
पड़ा हुआ है जाल शहर में
हुए संतजन भी अपराधी
ऐसा हुआ क़माल शहर में
खूब बजी है टूटी खंजड़ी
सुर सारे बेताल शहर में
ग़ज़ल
आँसुओं की कथा यह फिर-फिर कहेगा
हाँ, हमारा गीत यह ज़िंदा रहेगा
दर्द की मीनार के किस्से सुनाता
तेज झोंके भी हवा के यह सहेगा
सुनो, इसने दुक्ख की तासीर देखी
वक्त के तूफ़ान के सँग भी बहेगा
पत्तियों का शोर सुनते हो,पता है
गीत कहता - रात-भर जंगल दहेगा
जो हुआ, उसकी ख़बर देता रहा है
और जो होगा, उसे भी यह कहेगा
ग़ज़ल
अपनी मीनार से उतरिये तो
आप जंगल से बात करिये तो
यह न कहिये नदी नहीं रूकती
आप इस घाट पर ठहरिये तो
जिसपे थे रामजी चले पैदल
कभी उस राह से गुज़रिये तो
घुप अँधेरों में लोग रहते हैं
एक दीया वहाँ भी धरिये तो
देख झरने को डर गये बच्चे
निर्जला हैं शहर के दरिये तो
अक्स माना कि आपके सँवरे
आप खुद भी ज़रा संवरिये तो
ग़ज़ल
हमने एक सुबह देखा
नहीं रहा घर वह देखा
नहीं मिले अम्मा-बाबू
हमने ज़गह-ज़गह देखा
एक अजूबा था जो कल
हमने वह रह-रह देखा
यानी सूखी हुई नदी
हमने उसमें बह देखा
मंदिर-मस्जिद के आगे
मज़मा बिला-वज़ह देखा
जो जन्मों के वैरी थे
करते उन्हें सुलह देखा
छोड़ गये जिसको बेटे
उस माँ के सँग रह देखा
रोता हुआ मिलन देखा
हँसता हुआ विरह देखा
ग़ज़ल
सुनो साधुओ, आदिम बानी
सच है बस आँखों का पानी
बुझते दीये चौखट रक्खे
नये वक्त की यही कहानी
महानगर आ सगुनापाखी
खोज रहा है छप्पर-छानी
छिपी रही गुंबद के नीचे
धूप, साधुओ, बड़ी सयानी
किसको कोस रही, छज्जे पर
एक चिरइया बैठी कानी
ग़ज़ल
कसमें रितु की खाते हैं
चलो, चलें, बतियाते हैं
सुख-दुख पहले के-अबके
सुनते और सुनाते हैं
देखें चलकर फूलों को
जो खिलते-कुम्हलाते हैं
दिन-भर अपनी आँखों में
सपने आते-जाते हैं
नये वक्त का हाल बुरा
झूठे रिश्ते-नाते हैं
पौरुख सबके थके हुए
चुके वक्त के खाते हैं
युवा हुए जो हैं बच्चे
मुँह वे हमें बिराते हैं
कही हवा ने पतझर में
ग़ज़ल वही हम गाते हैं
ग़ज़ल
सबके सीने में आग है वह ही
दिल में जलता चिराग है वह ही
सुन रहे हम उसे हैं जनमों से
नेह-वंशी का राग है वह ही
जिसको देखा था हमने बचपन में
वह गुलाबों का बाग है वह ही
उसके माथे सजा हुआ देखा
माँग-बेंदी-सुहाग है वह ही
अब भी चुपके से हमको डंसता है
रोज़ इच्छा का नाग है वह ही
चाहे नदियों में जल नहीं उतना
किंतु अब भी प्रयाग है वह ही
चोट खाई थी कल ज़माने से
अब भी चेहरे का दाग है वह ही
ग़ज़ल
सच कहने की बात नहीं
मजलिस में सुकरात नहीं
जात-पात हैं कई-कई
बस इन्सां की जात नहीं
घर में उनके सब कुछ है
पुरखों की सौगात नहीं
नाच रही हैं अप्सरियाँ
यह सुहाग की रात नहीं
यह तो पीला पत्ता है
अभी-खिला वह पात नहीं
घर में है सामान बहुत
दिल में हैं जज़्बात नहीं
बजते बाजे बस्ती में
आई है बारात नहीं
यह तो मातम की धुन है
कोई भजन या नात नहीं
इंदर राजा लाते जो
यह तो वह बरसात नहीं
चार दिनों का खेला है
कोई रहता साथ नहीं
ग़ज़ल
झील हो रही कीचड़-कीचड़
दिन की लाश रही उसमें सड़
शाह हुए हैं अंधे-बहरे
मौसम आया ऐसा बीहड़
राख हुई है हर पगडंडी
सुलग रही है बरगद की जड़
ठूँठ हुए हैं आम-नीम भी
पत्ता-पत्ता रात गया झड़
उलट-पलट हो रहा सभी कुछ
हवा बह रही ऐसी अक्खड़
कैसे हो निर्वाह समय से
सोच रहा है साधू फक्कड़
ग़ज़ल
घाटियों से गुज़र रहा है वो
आँख में हुस्न भर रहा है वो
शोर करती हवाएँ साथ चलीं
ढाल से अब उतर रहा है वो
रौशनी के सफर में है सूरज
पाँव किरणों पे ध्रर रहा है वो
खूबसूरत हैं अक्स जंगल के
साँसों-साँसों सँवर रहा है वो
देखता है पहाड़ के नीचे
किसी झरने-सा झर रहा है वो
फूलवन में महक-कथाएँ हैं
इश्क़ का ज़िक्र कर रहा है वो
ज़िंदगी उसने सबको बख्शी है
सुन रहे-आज मर रहा है वो
ग़ज़ल
झेलतीं वे आँधियों को
कम न समझो पत्तियों को
कभी देखो जंगलों के
ठूँठ होते हाशियों को
पाँव से कुचलो न यों तुम
पेड़ के नाज़ुक हियों को
शिखर वाले दुआघर की
सुनो बजती घंटियों को
पूछता वन - कहाँ पोसें
नीड़-उजड़े पंछियों को
ग़ज़ल
हमने दिन का सरूर देखा है
हुस्न को भी, हुज़ूर, देखा है
आज बाज़ार में थका-हारा
एक बूढ़ा मजूर देखा है
दिन गुनाहों में डूबते देखा
रात को बेकसूर देखा है
जो रहे उम्र भर डरे-सहमे
हमने उनका ग़रूर देखा है
जिसमें सब कुछ हर नज़र आता
आँख का वह फ़ितूर देखा है
जो बसा दिल में थे कभी अपने
बैठे उसको भी दूर देखा है
अक्स जिसमें गुनाह-सा लगता
आईना बेशऊर देखा है
ज़िक्र जिसका हुआ था महफ़िल में
उसकी आँखों में नूर देखा है
मानिए, शाहजी के जलसे में
दिन को ढलते ज़रूर देखा है
ग़ज़ल
पहले घर में आई चिड़िया
फिर सूरज को लाई चिड़िया
पंख सुनहरे हुए अचानक
उससे है घबराई चिड़िया
अंधों की बस्ती में आकर
बार-बार पछताई चिड़िया
नीड़ पुराना - बच्चे छोटे
है उनकी ही माई चिड़िया
आँगन का इतिहास जानती
बाँच रही चौपाई चिड़िया
जब भी सूरज खो जाता है
करती है भरपाई चिड़िया
जो सपने सच्चे - उनकी ही
देती रोज़ दुहाई चिड़िया
जब जंगल था सूना-सूना
प्रभु ने तभी बनाई चिड़िया
ऊब रहे थे बैठे-बैठे
हमने तभी बुलाई चिड़िया
ग़ज़ल
रामराज्य की फिर तैयारी
चुप बैठी हैं सियादुलारी
सोच रहीं वे - क्या उनकी है
वन जाने की फिर से बारी
मिला उन्हें है देशनिकाला
कहते जो उनको सन्नारी
अवधपुरी में बने लाखघर
सरयू का जल भी है खारी
उनकी जन्मभूमि पर झगड़ा
मुश्किल में हैं स्वयं खरारी
कितने दिन का राजपाट है
जन्मकुंडली गई बिचारी
परजा भूखी-प्यासी-नंगी
राज्यलक्ष्मी भी है हारी
लाये नए किसिम के सपने
असुर देश के हैं व्यापारी
पूज रहे सब जिस देवी को
सूपनखा की है महतारी
बालक-बूढ़े सब बौराए
सोनहिरन की देख सवारी
सब चुकाएँ राजा का कर्ज़ा
यह फ़रमान हुआ है ज़ारी
ग़ज़ल
नाक के नीचे हमारे है अँधेरा
वहीं पर है शाहजी का नया डेरा
घुप अँधेरों का सफ़र करते रहे हम
ख़बर है कि आएगा उजला सबेरा
एक जंगल गुंबदो-मीनार का है
वहीं पर है चाँदनी का रोज़ फेरा
गाँव-घर उजड़े, हुए बीहड़ दुआघर
क्या करें निकला मसीहा ही लुटेरा
कल ढहा बरगद जहाँ थे नीड़ सारे
सगुनपाखी कहाँ जाकर ले बसेरा
ग़ज़ल
भोर का इतिहास हम होते रहे
बोझ टूटे स्वप्न का ढोते रहे
राख के आकाश के नीचे खड़े
बंजरों में बीज हम बोते रहे
कुछ कथाएँ जन्म की आखों लिए
हम शहर की मौत को रोते रहे
आइने में अक्स जो हमको मिले
हम उन्हीं में स्वयं को खोते रहे
जो रटाया गया, बोले बस वही
पींजरे के, बन्धु, हम तोते रहे
जब उगे आकाश में सूरज नये
हम अँधेरों से घिरे सोते रहे
ग़ज़ल
हाट-लाट से परे रहे थे बाबूजी
दुख-सुख आये, खरे रहे थे बाबूजी
मौसम आये ताप-शाप के, उनमें भी
बरगद जैसे हरे रहे थे बाबूजी
जिए सदा अपनी शर्तों पर, दूजों के
कभी नहीं आसरे रहे थे बाबूजी
पंडित-ज्ञानी थे बाबूजी, भावुक भी
कविता के अन्तरे रहे थे बाबूजी
नये वक्त के संग नहीं ढल पाए वे
सब कहते, बावरे रहे थे बाबूजी
ग़ज़ल
सच कहने की बात नहीं है
अब कोई सुकरात नहीं है
पगला एक हाट में फिरता
उसकी कोई जात नहीं है
चाँद खड़ा है चेहरा ढाँपे
यह पूनो की रात नहीं है
तूफानों से जूझा - फिर भी
नहीं झरा, वह पात नहीं है
मिली सड़क पर पड़ी प्रार्थना
प्रभु की यह सौगात नहीं है
ग़ज़ल
क्यों अनमनी हवाएँ, शहर सोच रहा है
धुँधली हैं क्यों दिशाएँ, शहर सोच रहा है
दिन राख हुए, रात भर चिनगारियाँ दिखीं
क्यों जल रहीं चिताएँ, शहर सोच रहा है
मन्दिर में आरती-भजन, मस्जिद में हो अज़ान
लौटेंगी कब प्रथाएँ, शहर सोच रहा है
मानुष की जात एक है, किसने ये कहा था
क्यों घर हुए गुफाएँ, शहर सोच रहा है
हर घाट पर नदी के खिंची खून की लकीर
मरघट में क्यों दुआएँ, शहर सोच रहा है
पुरखों के साथ रहने के किस्से अज़ीब हैं
किसको भला सुनाएँ, शहर सोच रहा है
कुचे-गली के मोड़ पर थीं रौनकें जहाँ
रक्खीं वहीँ बलाएँ, शहर सोच रहा है
चौरे पे लाश है धरी, टूटी पड़ी मजार
दीया कहाँ जलाएँ, शहर सोच रहा है
इक काँच की सराय है, जिसमें हैं ठग बसे
कैसे नज़र बचाएँ, शहर सोच रहा है
पत्थर के आयने हैं, जले घर के अक्स हैं
सूरत किसे दिखाएँ, शहर सोच रहा है
ग़ज़ल
सबको घर का हाल बता
कहाँ लगा है जाल बता
खबर छपी - बरखा होती
सूख रहा क्यों ताल बता
नेह-प्यार की बातों का
क्यों है पड़ा अकाल बता
अख़बारों की बात न कर
कितने कहाँ सवाल बता
अगला युग है सपनों का
कैसा बीता साल बता
क्यों साहू की चौखट पर
जड़ी हुई है नाल बता
सभागार में क्यों आखिर
होता रोज़ बवाल बता
नाव रेत में धँसी हुई
किसने ताना पाल बता
कल रमुआ के बेटे की
किसने खींची खाल बता
ग़ज़ल
यह सुनहरे बादलों की पाँत ऊपर
सगुनपाखी उड़ रहा है साथ ऊपर
इधर नीचे सोनकन बिखरे हुए हैं
इन्द्रधनु से कर रहा दिन बात ऊपर
कहीं वंशी बज रही - सुर साँवरा है
इधर देखो, हँस रहा वह पात ऊपर
हवा लिखती नेह-पाती पत्तियों पर
छा रहे हैं गीत के जज्बात ऊपर
आज सपनों की कथा हम-तुम कहेंगे
आएगी जब चाँद की बारात ऊपर
ग़ज़ल
अंतिम दिन तक जीना है
बूँद-बूँद रस पीना है
साँस-साँस हमने सुख से
मृत्यु-जाल भी बीना है
मिली कसौटी कविता की
कसना हृदय-नगीना है
रहे पारखी हम दुख के
छलनी सारा सीना है
बरसों का इतिहास यही
पल-छिन-दिवस-महीना है
हमने बुनी नेह-चादर
तार-तार वह झीना है
ग़ज़ल
कैसे सुख का मर्ज़ बढ़ा
हमने वह इतिहास पढ़ा
कहने को परजा का है
आसन यह भी सोनमढ़ा
रोटी भी अनमोल हुई
शाहों का है भाव चढ़ा
खाना नहीं नसीब उसे
पहने है वो शाल कढ़ा
ऊपर से ऊँची मंजिल
भीतर है दलदली गढ़ा
ग़ज़ल
गुज़रे हुए ज़माने के आँकड़े रहे
नये वक्त की चौखट पर हम पड़े रहे
हाट-लाट के मायापुर में बसे मगर
लिये कबीरा की साखी हम खड़े रहे
तेज़ बड़ी रफ़्तार ट्रकों की सड़कों पर
बंधु, मील के पत्थर से हम गड़े रहे
बर्फीले तूफानों में हम ठूँठ हुए
फागुन में भी पत्ता-पत्ता झड़े रहे
रही ग़लतफ़हमी हमको सूरज सबका
ज़िद्दी थे हम - इसी बात पर अड़े रहे
नये वक्त के, सुनो, मसीहे और कहीं
कहने को इतिहास हमारे बड़े रहे
ग़ज़ल
कुछ तो कहिये हवाएँ क्यों चुप हैं
फागुनी ऋतु-कथाएँ क्यों चुप हैं
तच-रहे घाट पर खड़े झुलसे
पेड़ कहते - घटाएँ क्यों चुप हैं
दिन घनी छाँव खोजकर हारा
साँझ होती दिशाएँ क्यों चुप हैं
लाखघर हो रहे शहर-कस्बे
साधुओं की दुआएँ क्यों चुप हैं
साँस क्यों है भला थकी-सहमी
देह की याचनाएँ क्यों चुप हैं
एक अंधा समय है सीने में
शोर उसमें - गुफाएँ क्यों चुप हैं
ग़ज़ल
हुआ बाज़ीगर समय है - हम जमूरे
आयने में अक़्स चेहरे के अधूरे
लोग भूखे - हुई दुर्लभ दाल-रोटी
शाह कहते - क्यों नहीं खाते भटूरे
गाँव उजड़े - गली भी टूटी पड़ी है
चमचमाते कोट के सारे कँगूरे
रखी गिरवी मूर्ति है गणदेवता की
राजलक्ष्मी रात-भर दीवार घूरे
यक्ष बैठा ताल पर - ख़ुद भी पियासा
प्रश्न अनबूझे रहेंगे साल पूरे
ग़ज़ल
कुछ इधर की कुछ उधर की बात है
शहर भर में घिरी अंधी रात है
लाये सूरज को कहाँ से आप हैं
लग रहा क्यों थका-हारा प्रात है
पत्तियों में रंग भरती धुंध के
फागुनी यह हवा भी बदज़ात है
रोज़ जाला बुन रही हैं मकड़ियाँ
वक़्त का धागा रहा दिन कात है
पीढ़ियों से हम सुबह को हेरते
घनी रातों की उधर बारात है ग़ज़ल
धुआँ-ओढ़े धूप में जंगल खड़े क्यों
शहर-भर में हैं तचन के आंकड़े क्यों
पत्तियों को हवा छूकर पूछती है -
समय से पहले हरे पत्ते झड़े क्यों
क्या हुआ है इस समय के सारथी को
सिर झुका है - पाँव रेती में गड़े क्यों
देवता ये जिन्हें सूरज पूजता था
हो नकारे आज रस्ते में पड़े क्यों
तले इसके झोपड़ी टूटी पड़ी है
इस महल में लाल-पन्ने हैं जड़े क्यों
ग़ज़ल
रंज-ओ-ग़म बेहिसाब - अच्छा है
आँसुओं का दोआब - अच्छा है
रात-भर नींद में रहा जो कल
झूठ निकला वो ख़्वाब - अच्छा है
प्रश्न पूछे थे आइने ने कल
हमें आता नहीं ज़वाब - अच्छा है
शहर में क्यों है भागदौड़ बहुत
दे गया दिन हिसाब - अच्छा है
जिसकी ख़ुश्बू से हम हुए पागल
झर गया वह गुलाब - अच्छा है
ग़ज़ल
हम शहर की छाँव में मीलों चले
पाँव अपने तची सड़कों पर जले
आमजन के घर हुए हैं खंडहर
गुंबदों से वही उनके फासले
हुईं पक्की गाँव की पगडंडियाँ
फिर रहीं चिनगारियाँ बरगद -तले
वक़्त कोई हो - बदलते युग नहीं
वही अब भी शाहजी के चोचले
बर्फ़ होते हुए रिश्ते शहर में
और पुरखे सपन सारे ही गले
ग़ज़ल
आँख में सपने लिये हम आये थे
शहर में तो सिर्फ़ अंधे साये थे
कथा उनसे धूप की हमने कही
सुनी उनने और वे बौराये थे
गा रहे महिमा असुर-कुल की वही
रामजी के गुण जिन्होंने गाये थे
आरती के दिये सारे बुझ गये
रोशनी परदेस से वे लाये थे
दिखी हमको जोत थी इक छोर पर
किन्तु वे आकाश भी हरजाये थे
ग़ज़ल
आँगन में सन्ध्याएँ आईं
पतझर -हुईं हवाएँ आईं
सूरज पूजेंगे - सोचा था
छत पर घनी घटाएँ आईं
रामराज की चर्चा थी कल
घर-घर में विपदाएँ आईं
'जनगणमन ‘ यानी परजा के
हिस्से में पीड़ाएँ आईं
कैलेण्डर ही बदले केवल
वही-वही घटनाएँ आईं
'अच्छे दिन' की हुई मुनादी
जीने की चिंताएँ आईं
आखिर में तो काम हमारे
पुरखिन-हुईं दुआएँ आईं
ग़ज़ल
शाहों की महफ़िलों में पहले रही ग़ज़ल
दुनिया के रंजो-ग़म की हमने कही ग़ज़ल
इंसानियत की सूरत अब तो बदल गई
कैसे कहेगा कोई सच्ची-सही ग़ज़ल
सारा शहर धुएँ में - है राख हवा में
इक आग का समंदर - उसमें बही ग़ज़ल
इक देवता था पहले जिसने पिया था विष
इस वक़्त के ज़हर को है पी रही ग़ज़ल
अब भी हमारे हिरदय में है उजास दिन
पूजा की आरती है वह अनकही ग़ज़ल
ग़ज़ल
बड़े कोट में एक खण्डहर
कहलाता है वह पूजाघर
शाही गुम्बज - जिसके भीतर
जो भी गया हुआ वह पत्थर
एक आरती का दीया है
धुआँ दे रहा है वह जलकर
काली करतूतों के साये
उनमें ज़िंदा रहना दूभर
हुई अहल्या आज शिला फिर
लगी रामजी को भी ठोकर
(समाप्त)
शुभ संध्या
जवाब देंहटाएंपूरा संग्रह ही पढ़वा दिया आपने
आभार....
सादर