व्यंग्य // प्रकाशक-पुराण // वीरेन्द्र 'सरल'

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प्रकाशक स्वयं प्रकाशित नहीं होता पर वह लेखक को प्रकाशित करता है। बिना प्रकाशन के रोग लगे कोई लेखक हो भी नहीं सकता। पर मेरे साथ जरा उल्टा हुआ...

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प्रकाशक स्वयं प्रकाशित नहीं होता पर वह लेखक को प्रकाशित करता है। बिना प्रकाशन के रोग लगे कोई लेखक हो भी नहीं सकता। पर मेरे साथ जरा उल्टा हुआ, मुझे जब लेखक होने का भ्रम हुआ तब प्रकाशित होने का रोग लगा। डायरी पर लिखी हुई मेरी कुछ रचनाएं मुझे बार-बार प्रकाशित होने के लिए उकसाने लगी। अपनी ही रचनाओं की उलाहना से परेशान होकर मैंने प्रकाशित होने का फैसला किया और जी-जान लगाकर प्रकाशक की तलाश में जुट गया। एक मित्र ने मुझे धड़कन प्रकाशन का पता और मोबाइल नम्बर देते हुए बताया कि यह सर्वाधिक प्रतिष्ठित प्रकाशनों में से एक है, आप इनसे सम्पर्क करके देखिए।

प्रकाशन की पीड़ा से व्यथित होकर मैंने एक दिन धड़कन प्रकाशन के मुखिया को फोन मिलाया। पर पता नहीं ऐसा करते हुए क्यों मेरा दिल जोर-जोर से धड़क रहा था। हैलो कि आवाज सुनते ही मैंने पूछा-''क्या मेरी बात धड़कन प्रकाशन के मुखिया धड़कनसिंह से हो रही है?'' जवाब मिला-''आपके दिल की धड़कन की आवाज मैं साफ सुन रहा हूँ। यदि आपको अंदाज हो कि आपका दिल जोरों से धड़क रहा है, तो जरूर हो रही है।'' मैंने कहा-''सर! यदि आपके शान में गुस्ताखी न हो तो मैं आपसे प्रकाशन संबंधी चर्चा करने की जुर्रत करूँ?

''जरूर-जरूर, आप बात कर सकते हैं। बोलिए, मैं आपकी क्या सेवा कर सकता हूँ?''

''सर! आपके प्रकाशन से अपनी एक किताब प्रकाशित कराना चाहता हूँ।''

''अरे! ये तो बहुत खुशी की बात है। हमने तो अच्छे-अच्छों को प्रकाशित करके रख दिया है तो फिर आपको कैसे छोड़ सकते है। अब आप आ ही रहे हैं तो आपको भी प्रकाशित करके ही छोड़ेंगे, अब तो खुश हो न?''

मैंने कहा-''बहुत-बहुत धन्यवाद सर! आपसे बात करते हुए पता नहीं क्यों मुझे बहुत डर लग रहा था।''

'' अरे आप अभी से क्यों डर रहे हैं भाई! वह तो बाद की बात है।''

तभी फोन पर किसी और कि आवाज सुनाई दी जो धड़कनसिंह से कह रहा था, सर मुर्गा फँसा? धडकनसिंह की आवाज आई। अरे! तुम उधर फँसाओ यार, मुझे जरा इधर देखने दो। फिर धड़कनसिंह ने मुझसे कहा-''हाँ, आप बोलिए, ये इधर अपने ही कार्यालय का कर्मचारी था।

मैंने कहा-''सर! यदि आप अभी व्यस्त हों तो मैं बाद में बात करूँ?

''नहीं-नहीं। मैं व्यस्त नहीं हूँ। अच्छा आप करते क्या हैं? मेरा मतलब है आप लेखन के अतिरिक्त और क्या काम करते है?

मैंने कहा-''सर! मैं स्कूल मास्टर हूँ। तभी फोन पर कुछ घरघराहट हुई, शायद नेटवर्क की दिक्कत आ गई थी। फिर से नेटवर्क मिलते ही धड़कनसिंह जी का सुर बदल गया था। अब वे बड़े अदब से पेश आ रहे थे। उन्होंने मुझसे बहुत सम्मानित ढंग से बातचीत करते हुए पूछा-''अभी आपकी ड्यूटी किस जिले और किस राज्य में है साहब?''

मैंने अपने राज्य और जिले का नाम बता दिया। वे खुशी से उछलते हुए बोले-'' आप साहित्य की किस विधा में लिखते है सर। मैंने जरा शरमाते हुए कहा-''बस यूँ ही, जो मन में आता है वह लिख लेता हूँ भाई। यह कौन सी विधा है, मैं भी आज तक इसी दुविधा में हूँ।

उन्होंने प्रसन्नता व्यक्त करते हुए कहा-''अरे! वाह साहब! आप तो छुपे रूस्तम निकले, साहित्य में 'यूँ ही' विधा के प्रर्वतक साहित्यकार होने का गौरव तो बस आपको ही मिलेगा। बस आपकी किताब प्रकाशित होने भर की देर है। यदि आप अपना जॉब हमें पहले से ही बता देते तो हम स्वयं ही आपकी पाण्डुलिपि लेने आपके घर पहुँच जाते। खैर कोई बात नहीं, देर आये दुरस्त आये। आप सही जगह पहुँचे या नहीं, ये तो हम नहीं जानते। लेकिन हम तो बिल्कुल सही जगह पहुँच गये हैं। अब तो आपकी सारी किताबें हम ही छापेंगे। जो मन में आये, आप लिखिए और हमें भेजते जाइए। यदि कुछ भी न लिख सकें तो भी कोई बात नहीं, केवल अपना नाम लिखकर हमें भेज दीजिए। किताब हम स्वयं ही लिखकर आपके नाम से छाप लेंगे। बस आप तो एक अनुबंध पेपर में दस्तखत करके हमें दे दीजिए। आप हमें पाण्डुलिपि भेज रहे है या लेने के लिए हम पहुँचे आपके पास? वैसे आप किस कैडर से है सर।''

मैंने कहा-''मैं किसी के डर से लेखक नहीं हूँ भाई! लेखन का शौक मैंने स्वयं अपने रिस्क पर उठाया है।''

''वाह सर वाह! आप तो बहुत अच्छा मजाक कर लेते है। बस एक बार आपकी दयादृष्टि हो जाय तो हम भी धन्य हो जायेंगे। आप अपनी पाण्डुलिपि तुरन्त भेजिए। मेरा सब्र का बांध टूटा जा रहा है। जी चाह रहा है कि आपको जितना जल्दी हो सके, प्रकाशित करूँ।''

धड़कन सिंह जी की आतुरता से मैं आश्चर्यचकित था। उनकी विनम्रता और सहृदयता का मैं कायल हो गया। मैं मन ही मन सोच रहा था कि धड़कनसिंह जी के पूज्य पिताजी जरूर स्कूल मास्टर ही रहे होंगे तभी इनके मन में मेरे लिए इतना सम्मान का भाव है वरना आजकल स्कूल मास्टर को कौन भाव देता है, सब अपना प्रभाव ही दिखाते हैं।

बातचीत जारी रखते हुए मैंने कहा-'' देखो भाई! स्कूल में बच्चों के बीच रहते हुए मेरा स्वभाव भी बच्चों जैसा हो गया है। छल-छद्म, ईर्ष्या-द्वेष से मैं कोसो दूर रहता हूँ। जुगाड़ या तिकड़म करना मैं नहीं जानता। लेन-देन की कोई बात हो तो निःसंकोच बता दीजिए। मैं कुछ और कह पाता उससे पहले ही धड़कनसिंह जी कहने लगे-''अरे आप बिल्कुल चिन्ता मत कीजिए सर! ये सब तो हम करते है और बहुत अच्छे ढंग से कर लेते है। जहाँ तक लेन-देन की बात है तो हम तो केवल लेन करते है देन के मामले में बहुत मितव्ययी हैं। प्रकाशित पुस्तक की सौ प्रति देने की बात करते हैं और पूरा रकम वसूल लेने के बाद बीस-पच्चीस प्रति देकर अपना पल्ला झाड़ लेते हैं। मगर आप घबराइए नहीं आपके साथ ऐसा नहीं होगा। आप जितनी प्रतियां चाहेंगे, हम उससे पांच गुणा ज्यादा प्रतियां आपको देंगे। फिर उन्होंने जरा ठिठकते हुए आगे कहा-'' लेकिन सर! कलेक्टर होते हुए भी आप स्कूल में बच्चों के बीच क्या करते है? यह बात समझ में नहीं आई।

अब मेरा माथा ठनका। मैंने चौंकते हुए कहा-''आपको किसने बताया कि मैं कलेक्टर हूँ। मैंने तो आपको बताया कि मैं स्कूल मास्टर हूँ।''

स्कूल मास्टर का नाम सुनते ही धड़कनसिंह जी एकदम गरम हो गये। अब वे बेसुर नहीं बल्कि लगभग असुर ही हो गये थे। दाँत किटकिटाते हुए बोले-'' अरे! तो साफ-साफ अपने आप को स्कूल मास्टर बताना था न? कलेक्टर क्यों बताया। तुम्हें शर्म आनी चाहिए। स्कूल मास्टरी करते हो और साहित्यकार बनने का शौक चर्राया है। अरे, पहले अधिकारी बनो अधिकारी। तब लेखक बनने की सोचना। जो लेखक अधिकारी होते है वही हमारे यहाँ से प्रकाशित होने के अधिकारी होते हैं, समझे? नेताओं की किताब हम चमचों में खपा देते है और अधिकारियों की किताब उनके मातहातों में तथा सरकारी ग्रंथालयों में खपा देते है। यदि तुम कालेज में प्रोफेसर वगैरह होते तब भी एक बार सोचा जा सकता था कि तुम्हारी किताबें सरकारी कालेज के ग्रंथालयों में खप जायेगी। पर एक स्कूल मास्टर की किताब हम कहाँ खपायेंगे। इसके लिए तो हमें जिन्दगी भर दिमाग ही खपाना पड़ जायेगा। हमारा प्रकाशन बहुत प्रतिष्ठित प्रकाशन संस्थान है, यहाँ लेखन का कद नहीं बल्कि लेखक का पद देखा जाता है। आप कितना महत्वपूर्ण लिखते हो, यह हमारे लिए मायने नहीं रखता बल्कि आप कितने ऊँचे पद पर हैं यह मायने रखता है, समझे? तुमने खामखाह मेरा टाइम बर्बाद कर दिया। अब दोबारा मुझे फोन करने की गलती मत करना वरना मैं तुम्हें सीधे पुलिस को सौंप दूंगा। इतना कहकर धड़कनसिंह जी ने फोन पटक दिया।

अब मामला मुझे समझ में आया। मैंने उन्हें अपने आप को स्कूल मास्टर बताया था पर वे नेटवर्क की कमी के कारण इसे कलक्टर सुन लिया था। पहले मैं उनकी बातों का कायल हुआ था और अब घायल पड़ा हूँ।

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वीरेन्द्र 'सरल'

बोड़रा (मगरलोड़)

पोस्ट-भोथीडीह

जिला-धमतरी ( छत्तीसगढ़)

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व्यंग्य // प्रकाशक-पुराण // वीरेन्द्र 'सरल'
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रचनाकार
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