साहित्य समाज का यथार्थ है न कि दर्पण // सुशील शर्मा

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समाज और जीवन दोनों ही एक दूसरे के पूरक हैं । आदिकाल के वैदिक ग्रंथों व उपनिषदों से लेकर वर्तमान साहित्य ने मनुष्य जीवन को सदैव ही प्रभावित क...

समाज और जीवन दोनों ही एक दूसरे के पूरक हैं । आदिकाल के वैदिक ग्रंथों व उपनिषदों से लेकर वर्तमान साहित्य ने मनुष्य जीवन को सदैव ही प्रभावित किया है ।साहित्य की ही अद्‌भुत व महान शक्ति है जिससे समय-समय पर मनुष्य के जीवन में क्रांतिकारी परिवर्तन देखने को मिलते हैं । साहित्य की परम्पराओं और अंतर्दृष्टि का आंकलन करें  तो हम पाते हैं कि  समाज में व्याप्त विभिन्न विसंगतियों पर प्रहार करने और विद्रूपताओं को उजागर करने के लिए साहित्य सबसे महत्वपूर्ण भूमिका में नजर आता है।  इस काम को आगे बढाने के लिए स्त्री-विमर्श, दलित-विमर्श, आदिवासी विमर्श जैसे अनेक विमर्शों के माध्यम से हस्तक्षेप किया जा रहा है। जीवन और साहित्य का अटूट संबंध है । साहित्यकार अपने जीवन में जो दु:ख, अवसाद, कटुता, स्नेह, प्रेम, वात्सल्य, दया आदि का अनुभव करता है उन्हीं अनुभवों को वह साहित्य में उतारता है । इसके अतिरिक्त जो कुछ भी देश में घटित होता है जिस प्रकार का वातावरण उसे देखने को मिलता है उस वातावरण का प्रभाव अवश्य ही उसके साहित्य पर पड़ता है। अगर साहित्यकार में  ,दृष्टि  और प्रतिबद्धता  है तो उसकी रचना  जीवित, प्रासंगिक व वैश्विक रहेगी। और जिसमें नहीं है,  उसकी रचना न तो बहुत जीवंत रहेगी न सार्थक रहेगी।

इतिहास के पृष्ठों को पलट कर देखें तो हम पाते हैं कि साहित्यकार के क्रांतिकारी विचारों ने राजाओं-महाराजाओं को बड़ी-बड़ी विजय दिलवाई है । अनेक ऐसे राजाओं का उल्लेख मिलता है जिन्होंने स्वयं तथा अपनी सेना के मनोबल को उन्नत बनाए रखने के लिए कवियों व साहित्यकारों को विशेष रूप से अपने दरबार में नियुक्त किया था । प्राचीन काल में भारतीय सभ्यता अति समृद्ध थी. हमारी सभ्यता इतनी उन्नत थी कि हम आज भी उस पर गर्व करते हैं. किसी भाषा के वाचिक और लिखित सामग्री को साहित्य कह सकते हैं. विश्व में प्राचीन वाचिक साहित्य आदिवासी भाषाओं में प्राप्त होता है. भारतीय संस्कृत साहित्य ऋग्वेद से प्रारंभ होता है. व्यास, वाल्मीकि जैसे पौराणिक ऋषियों ने महाभारत एवं रामायण जैसे महाकाव्यों की रचना की. भास, कालिदास एवं अन्य कवियों ने संस्कृत में नाटक लिखे, साहित्य की अमूल्य धरोहर है. भक्त साहित्य में अवधी में गोस्वामी तुलसीदास, बृज भाषा में सूरदास, मारवाड़ी में मीरा बाई, खड़ीबोली में कबीर, रसखान, मैथिली में विद्यापति आदि प्रमुख हैं.

मध्यकाल में भूषण जैसे वीररस के कवियों को दरबारी संरक्षण एवं सम्मान प्राप्त था । बिहारीलाल ने अपनी कवित्व-शक्ति से विलासी महाराज को उनके कर्तव्य का भान कराया था । संस्कृत के महान साहित्यकारों कालीदास और बाणभट्‌ट को अपने राजाओं का संरक्षण प्राप्त था ।

” नहिं पराग नहिं मधुर मधु नहिं विकास इहिं काल । अली, कली सी सौं बँध्यो आगैं कौन हवाल ।”

भारत की आजादी के 70 वर्ष पूरे हो चुके हैं। 15 अगस्त, 1947 से शुरू हुर्इ इस यात्रा में जहाँ जमींदारी-जागाीरदारी प्रथा का उन्मूलन अस्पृश्यता उन्मूलन, ग्राम-भूदान आंदोलनऋ पंचवर्षीय योजनाएँ, पंचायती राज सत्ता का विकेंद्रीकरण,औद्योगीकरण -शहरीकरण, मिश्रित अर्थव्यवस्था, बैंकों का राष्ट्रीयकरण, प्रीवीपर्सों की समाप्ति आपातकाल एवं इंदिरा-युग का उत्थान व पतन कांग्रेस के एक छत्रराज का अंत व बहुदलीय सरकार या गठबंध्न राजनीति की शुरुआत वैश्वीकरण की असंख्य प्रक्रियाओं का विस्फोट भारत की नेहरूकालीन वैदेशिक नीति में परिवर्तन व यूरो-अमेरिकी शिविर की अनुचरी जैसी घटनाओं को 'मील का पत्थर कहा जा सकता है।  वहीं इसके समानांतर भारतीय लोकतांत्रिक व्यवस्था की त्रासदियों, विरूपताओं, विडंबनाओं आदि की भी यात्रा चलती रही है। इस यात्रा के रूप में भारत विभाजन की बेशुमार पीड़ाएं आधुनिकता के प्रयोग के साथ-साथ सामंती मूल्य व्यवस्था की निरंतरता कृषि भारत का विपन्नीकरण किसानों की आत्महिंसा का ज्वार नक्सलवादी-माओवादी आंदोलन की शक्ल में ग्रामीण-आदिवासी भारत के असंतोष का विस्पफोट मंडल-कमंडल आंदोलन व सामाजिक-सांप्रदायिक सौहाद्र् का  बिखराव दलित व स्त्री अस्मिता का उभार अपसंस्कृति  का प्लावन परिवार का विखंडन व तथाकथित मध्यमवर्ग का  बढ़ता वर्चस्व राज्य का जन से विलगन जैसी परिघटनाओं को गिनाया जा सकता है।

अपने समय और समाज से साहित्यकार का गहरा नाता होता है। एक संवेदनशील प्राणी होने के नाते यह संभव नहीं है कि वह अपने देश और विश्व में होने वाली घटनाओं से निरपेक्ष और निर्द्वंद्व होकर रहे। वह अपने लेखन के द्वारा उन सब चुनौतियों और समस्याओं को जरूर अभिव्यक्ति  देता है जो उसे विचलित करते है। वह न केवल अभिव्यक्ति  देता है, बल्कि वह अपेक्षा भी करता है कि उसका साहित्य पढ़ने वालों में नर्इ चेतना पैदा करे। वह बेहतर दुनिया बनाने के उसके संघर्ष में भागीदार बने।

साहित्य में भी स्त्री  और दलित स्वर पहले के किसी भी दौर से अधिक व्यापक और मुखर हुआ है। आजादी के बाद के हिंदी साहित्य को पूंजीवादी विकास के साथ भी जोड़ा जाता है। उसने हमारे समय और समाज को विविध् रूपों और दृष्टियों से पेश किया है। आज हमें यह विचार करना है कि क्या साहित्य  वर्तमान परिदृश्य में अपनी सार्थक भूमिका निभा रहा है? क्या यह आजादी के बाद के यथार्थ को अभिव्यक्ति प्रदान करने में सक्षम रहा है और क्या वह अनुभूति और अभिव्यक्ति से आगे जाकर अपने पाठकों को मानसिक विकास  की ओर अग्रसर कर सका है? मानसिक विकास  राजनीतिक अर्थों में नहीं बल्कि  चेतना और दृष्टि  के स्तर पर भी है।   

आज के परिवेश में  व्यवस्था या अनुभूत घटनाओं का यथार्थ नहीं होता, बल्कि ऐतिहासिक या स्मृति का यथार्थ भी होता है, जिसने आज को बनाने में महती भूमिका निभार्इ होती है। पर जो साहित्य  को, मात्रा वृतांत या दस्तावेज से अलग बनाता है, वह घटित यथार्थ का विवरण नहीं, रचना में घुली-मिली, चिंतन से उत्पन्न लेखक की जीवन दृष्टि होती है।

साहित्य के  स्वरूप में उसका यथार्थ ही व्यंजित होता है, बल्कि अधिक तीक्ष्ण और विचारोत्तेजक ढंग समकालीन व्यवस्थाओं को उकेरने की क्षमता होनी चाहिए । क्योंकि वह समकालीन व भावी यथार्थ के विद्रूप और मोहभंग को उभारता है। इसीलिए वह पाठकों की दृष्टि और चेतना को विस्तृत, मुक्त और परिपक्व करने में, ज्यादा सटीक और प्रेरक भूमिका निभाता है। मुक्तिबोध ने कहा था, साहित्य  में अनुभूत का वह स्वरूप पुनर्सृजित है, जो स्मृति, कल्पना आदि से समृद्ध  हो। जैनेंद्र ने भी रचना में अनुभूति और चिंतन पर समान बल दिया था।

साहित्य का सबसे बड़ा कार्य अपने समय में उसका होना है यानी साहित्य एक नैतिक कर्म है। पशिचम में इस पर काफी बहस हुर्इ है। मिजेनेर तो यहां तक मानते हैं कि नैतिक समस्या ही साहित्यकार को विचलित करती है और वह संयत तथा तार्किक ढंग से उसका मुकाबला करता है। डी.एच. लारेन्स भी कहते हैं कि साहित्य इसीलिए विशिष्ट है कि वह जिंदगी के बारे में होता है। साहित्य की नैतिकता जिंदगी से जुड़ी है  और कदाचित इसकी प्रतिबद्धता भी, पर प्रतिबद्धता की यांत्रिकता की साहित्य  को दरकार नहीं है। प्रतिबद्धता साहित्य में एक दृष्टि के रूप में अवश्य होना चाहिए, पर किसी भी किस्म की क्षेत्रीयता , स्थानीयता जैसी विचारधाररत्मक प्रतिबद्धताएं साहित्य को यांत्रिक बना देती हैं। प्रतिबद्धताएं  अपने से, अपने समाज से और अपने समय से अवश्य होनी चाहिए ,क्योंकि वह साहित्य  का नैतिक तकाजा है, लेकिन प्रतिबद्धताएं विचारधारात्मक घोषणा-पत्र न बन जाए ये देखना जरूरी है । यह देखा गया है कि अपने यहां लेखक संगठनों के लोग प्रतिबद्धता  का यांत्रिक इस्तेमाल कर रचनाओं के वैशिष्टय को नष्ट कर देते हैं। संगठन चूंकि उनके प्रसार में सहायक होता है, इसीलिए वे लेखक बन जाते हैं, पर वे जनता में जगह नहीं बना पाते।

पिछले छह दशकों में, साहित्य में उन क्षेत्रों, अंचलों, जातियों, वर्गों को स्थान मिला है, जिन्हें अब तक नहीं मिला था। और अधिकतर भुक्तभोगियों के लेखन द्वारा। स्त्री और दलित इसी श्रेणी में आते हैं। जब भुक्तभोगी अपना अनुभव स्वयं लिखता है तो निश्चय ही उसका स्वरूप उससे भिन्न होता है, जो संवेदनशील दर्शक या चिंतक उसके बारे में लिखता है। पर समग्र सत्य या यथार्थ को ग्रहणशील बनाने में, दोनों महत्वपूर्ण हैं।

साहित्य की पाठकों की चेतना को विवेक-संपन्न बनाने में अहम भूमिका होती है। अति में व्यंजित जीवन-दृष्टि की होती है। इसलिए नहीं कि उसके केंद्रीय पात्र पुरुष हैं या स्त्री । महत्वपूर्ण यह नहीं है कि पात्र कहां से उठाए गए हैं या वे क्या कहते हैं,बल्कि यह कि वे विभिन्न जीवन-सिथतियों में क्या करते हैं। उनके किए को पढ़कर ही, पाठक रूढि़गत मान्यताओं व अन्याय से प्रतिरोध् करने की प्रेरणा पा सकता है। इसलिए यह सहज संभव है कि कोर्इ स्त्री-केंद्रित साहित्यिक रचना , इतिहास, राजनीति, समाज, और व्यवस्था के विद्रूप की सक्षम और सूक्ष्म व्यंजना करे जैसे पटरंगपुर पुराण या कठगुलाब और पुरुष-केंद्रित साहित्य ,स्त्री वादी  विमर्श का सबल प्रतिपादन करे, जैसे अनित्य और जिंदगीनामा आदि।  पिछले दो-तीन दशकों से हमारा अधिकतर साहित्य नगर केंद्रित  होता गया है। गांव-कस्बे का अनुभव, वहां की सामाजिक विसंगतियां, वहां के संघर्ष और वहां की जनता की आकांक्षाएं नगरीय लेखकों के अनुभवों का हिस्सा नहीं रह पार्इ हैं, इसलिए यांत्रिकता का दबाव बढ़ गया है। भाषा भी संकुचित हो गर्इ हैµ उसमें बड़े अनुभवों की जगह भी नहीं है। अलग-अलग अस्मिताओं को व्यक्त करने वाले चरित्रों  का भाषिक वैविध्य  अब गायब ही हो गया है। अब यथार्थवाद रचना की अंतर्वस्तु का हिस्सा नहीं होता, कथा के सीधे विन्यास में अमिधा में व्यक्त होता है, यह साहित्य  सबसे बड़ा संकट है।

साहित्य समाज का दर्पण है कहने की जगह अगर हम कहें कि साहित्य, यथार्थ का दर्पण होता है,क्योंकि दर्पण में छवि हमेशा विपरीत होती है दर्पण में सीधा उल्टी तरफ दाएं बाएं और बाएं दाएं दिखता है। वह आपकी सही छवि नहीं दिखाता। मगर साहित्य जो होता है, वो कसौटी का पत्थर होता है। वो आपको एक दृष्टि देता है।

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रचनाकार: साहित्य समाज का यथार्थ है न कि दर्पण // सुशील शर्मा
साहित्य समाज का यथार्थ है न कि दर्पण // सुशील शर्मा
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