हिन्दुओं का मुख्य पर्व दीपावली क्यों मनाया जाता है इस संबंध में सर्वकालिक मत है कि भगवान श्री राम द्वारा रावण को पराजित कर अयोध्या वापसी पर ...
हिन्दुओं का मुख्य पर्व दीपावली क्यों मनाया जाता है इस संबंध में सर्वकालिक मत है कि भगवान श्री राम द्वारा रावण को पराजित कर अयोध्या वापसी पर अयोध्यावासियों ने दीप प्रज्ज्वलित कर स्वागत किया और यही दीपावली का त्यौहार बन गया। इसी दीपोत्सव पर्व को लेकर विभिन्न मत और कारण भी इस त्यौहार को मनाये जाने के पीछे बताया जाते है। स्कंद पुराण, पद्म पुराण तथा भविष्य पुराण में इस पर्व से संबंधित विभिन्न मान्यताएं बतायी गयी है। इन्हीं ग्रंथों में महाराज पृथु द्वारा पृथ्वी दोहन के साथ धन, धान्य से समृद्घ राज्य बना देने के उपलक्ष्य में दीपावली का पर्व मनाने का उल्लेख मिलता है। ऐसे उद्घरण भी मिलते है कि कार्तिक मास की अमावस्या तिथि को समुद्र मंथन से भगवती लक्ष्मी के प्रादूर्भाव की प्रसन्नता ने जनमानस ने उल्लास के आयोजन को दीपोत्सव का रूप प्रदान करते हुए दीपो की लड़ी सजायी थी और यही दीपावली का पर्व बन गया। इन्हीं पुराणों में ऐसे भी कथानक भी मिलते है कि जो कार्तिक कृष्ण पक्ष चतुर्दशी को भगवान श्री कृष्ण द्वारा ताडक़ासुर का वध करना बताते है। साथ ही ताडक़ासुर के बंदी गृह से 16 हजार राजकुमारियों के उद्गार तथा अगले दिन अमावस्या को उनके विवाह के उपलक्ष्य में श्री कृष्ण जी का अभिनंदन करने दीपों की सजावट की गयी। जो वर्तमान दीवाली का रूप है। कहीं पांडवों के वनवास से सकुशल लौटने को भी दीपावली पर्व से जोड़ा जाता रहा है। यह भी कहा जाता है कि सम्राट विक्रमादित्य के शकों पर विजयोपलक्ष्य जनता द्वारा दीप मलिका सजाकर राजा का अभिनंदन करने के लिए दीपावली पर्व की शुरूआत हुई।
भारतीय धर्म ग्रंथों में शामिल सनत्कुमार संहिता इस पर्व के संबंध में निर्देशित करता है कि भगवान विष्णु ने कार्तिक कृष्ण पक्ष की त्रयोदशी से अमावस्या तक तीन दिनों में दैत्य राज बलि से संपूर्ण लोक छिनकर उसे पाताल लोक जाने विवश कर दिया और बलि को वर मांगने कहा। बलि ने भगवान विष्णु से वर के रूप में मांग करते हुए कहा कि आपने तीन दिन में मुझसे तीन लोक छिने है अत: उपर्युक्त तीन दिनों में जो भी प्राणी मृत्यु के देवता यम के नाम से दीप दान करेगा। उन्हें यम की यातना न भोगनी पड़े तथा उनका घर परिवार सदैव धन, धान्य से परिपूर्ण हो। भगवान वामन (विष्णु) ने बलि की मांग स्वीकार की तभी से दीपावली मनाने और यम के निमित्त दीपदान करने का प्रचलन शुरू हुआ बताया जाता है। पर्व का तीसरा दिन अर्थात अमावस्या इस पर्व का प्रमुख दिन माना जाता है। इस दिन मां लक्ष्मी की पूजा अर्चना दीपमलिका सजाकर की जाती है। कृषि प्रधान भारत वर्ष में दीपावली का प्रचलन ऋतु पर्व के रूप में हुआ है। फसल पकने के बाद जब कटकर कृषक के घर पहुंच जाती है, तब खुशी के रूप में यह दीवाली का रूप अख्तियार कर घर घर फूट पड़ती है। जैसे जैसे समय बीतता गया, काल क्रमानुसार इस पर्व के साथ अनेक कथाएं जुड़ती चली गयी है। पुराणों में दीपावली की रात को महालया महारात्रि की संज्ञा दी गयी है। तंत्र-मंत्र, सिद्घी के लिए दीपावली की रात अत्यंत शुभ एवं प्रभावी मानी जाती है।
दीपावली पर्व मनाने को लेकर चली आ रही मान्यताओं में लगभग प्रत्येक धर्म सम्प्रदाय में अलग अलग विचार धाराएं प्रचलित है। ईशा पूर्व चौथी शताब्दी में रचित कौटिल्य के अर्थशास्त्र को माने तो अमावस्या के दिन मंदिरों और घाटों पर बड़े पैमाने पर दीप जलाने की परंपरा चलन में थी, जो धीरे धीरे दीवाली में परिवर्तित हो गयी। कहते है अमृतसर के स्वर्ण मंदिर का निर्माण भी दीपावली के दिन शुरू हुआ था। जैन धर्म के 24वें तीर्थंकर भगवान महावीर ने भी दीपावली के दिन ही विहार कर पावापुरी में अपना शरीर त्यागा था। यही कारण है कि महावीर निर्माण संवत्ï दीपावली के दूसरे दिन से शुरू होता है। दीपमालिका के पर्व का उल्लेख प्राचीन जैन धर्म ग्रंथों में भी मिलता है। जैन धर्म के जानकारों का मानना है कि कल्पसूत्र में स्पष्टï वर्णन है कि महावीर निर्वाण के साथ जो अंतज्र्याेति सदा के लिए शांत हो हो गयी है, आओ हम उसकी प्रतिपूर्ति के लिए बहीज्र्योति के प्रतीक दीप प्रज्ज्वलित करें।
पंजाब में जन्में स्वामी रामतीर्थ के विषय में भी ऐसे उल्लेख मिलते है कि उनका जन्म और महाप्रयाण दोनों ही दीपावली के दिन हुआ। स्वामी रामतीर्थ ने अपने जीवन के उद्देश्यों को पूरा करने के साथ दीपोत्सव पर्व के दिन गंगातट पर स्नान करते समय ‘ओम्’ कहते हुए समाधि ले ली। महर्षि दयानंद सरस्वती ने भारतीय संस्कृति के महान जननायक की उपाधि प्राप्त करने के पश्चात दीपावली के दिन अजमेर के पास अवसान लिया। दयानंद सरस्वती जी ने ही आर्य समाज की स्थापना में अमूल्य सहयोग प्रदान किया। इतिहास के पन्नों में मुगल सम्राट द्वारा भी दीपावली मनाये जाने की जानकारी मिलती है। कहते है दीन-ए-इलाही के प्रवर्तक माने जाने वाले मुगल सम्राट अकबर के शासन काल में दौलतखाने के सामने 40 गज ऊंचे बांस पर एक बड़ा आकाशदीप दीपावली के दिन प्रज्ज्वलित किया जाता था। बादशाह जांहगीर द्वारा दीपावली धूमधाम से मनाये जाने का वर्णन मिलता है। इसी प्रकार शाह आलम द्वितीय के काल में भी संपूर्ण शाही महल को दीपो से सुसज्जित कर लाल किले में आयोजित कार्यक्रमों और आयोजनों में हिंदू, मुस्लिम एक साथ हिस्सा लेते थे।
दीपावली से एक दिन पूर्व मनाया जाने वाला नरक चतुर्दशी का पर्व भी काफी महत्व रखता है। एक पौराणिक कथानक के अनुसार रंतिदेव नामक एक पुण्यात्मा राजा ने अपने जीवनकाल में अनजाने में भी पाप नहीं किया था, लेकिन जब मृत्यु का समय आया तो अपने समक्ष यमदूतों को देखकर राजा आश्चर्य में पड़ गया और बोला मैंने तो कभी कोई पाप नहीं किया है, फिर आप लोग मुझे लेने क्यों आये हो। आप मुझ पर कृपा करें और बतायें कि मेरे किस अपराध के कारण मुझे नरक में जाना पड़ रहा है। राजा की ऐसी वाणी सुनकर दूतों ने कहा कि राजन आप के द्वार से एक बार एक ब्राह्मïण भूखा लौट गया था, यह उसी पाप कर्म का फल है। कहते है कि राजा ने यमदूतों से एक वर्ष का समय लेकर ऋषियों के पास जाकर पाप मुक्ति का उपाय पूछा। ऋषियों ने राजा को कार्तिक मास की कृष्ण पक्ष की चतुर्दशी का व्रत करने का सुझाव दिया और कहा कि उस दिन ब्राह्मणों को भोजन कराकर आशीर्वाद लें तथा अपनी भूल के लिए क्षमा याचना करें। राजा ने ऐसा ही किया और अंत में विष्णु लोक में स्थान पाया। उसी दिन से नरक चतुर्दशी छोटी दीवाली के रूप में मनायी जाने लगी।
(डा. सूर्यकांत मिश्रा)
जूनी हटरी, राजनांदगांव (छत्तीसगढ़)
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