कहानी // मुंशीजी का नौकर // विद्याभूषण ’श्रीरश्मि’

SHARE:

कहानी मुंशीजी का नौकर विद्याभूषण ’श्रीरश्मि’ (1960-63) आज मुंशीजी की बरबस याद आ रही है। दिल्ली आये एक वर्ष से ऊपर हो रहा है, पर अब तक एक नौक...

कहानी

मुंशीजी का नौकर

image

विद्याभूषण ’श्रीरश्मि’

(1960-63)

आज मुंशीजी की बरबस याद आ रही है। दिल्ली आये एक वर्ष से ऊपर हो रहा है, पर अब तक एक नौकर नहीं मिला मुझे। एक छोकरा मिला भी, तो उसका ’ब्राण्ड न्यू’ रूप श्रीमतीजी को बर्दाश्त न हुआ और सातवें ही दिन उसे विदा करना पड़ा। पर नौकर का अभाव अब भी मैं बुरी तरह अनुभव कर रहा हूँ - शायद इसलिए, कि उसके हिस्से के एक-चौथाई काम मुझे ही करने पड़ते हैं। एक-चौथाई काम तो महरी कर जाती है और आधा श्रीमतीजी रो-गाकर स्वयं कर लेती हैं, पर बाकी एक-चौथाई से बचने का मेरे पास कोई उपाय नहीं है। पता नहीं, मेरी उन मित्राणी का भाग्य ब्रह्मा ने किस कलम से लिखा है, जिन्हें पिछले सात वर्षों में एक दिन भी नौकर का अभाव न रहा। नौकर एक-के-बाद-एक इस तरह उनके पास आते हैं, जैसी किसी अच्छी फिल्म के प्रीमियर के दिन ’बुकिंग काउंटर’ पर दर्शकों के हाथ बढ़ते हैं। मैं तो इसे उनके ’श्रीमानजी’ का अहोभाग्य ही मानता हूँ, नहीं तो उन्हें भी पता चल जाता कि आजकल सब्ज़ियों के क्या भाव हैं, कपड़े ’प्रेस’ करने में कमर कितनी दुखती है, कुछ लिखते-लिखते अचानक सिगरेट ख़रीदने जाने पर कैसा अनुभव होता है, बिछावन लगाते समय श्रीमतीजी का हाथ बँटाने में कितनी खीझ होती है, आदि-आदि! ख़ैर, वे किस्मत के धनी हैं - उन्हें याद करना बेकार है इस समय। अभी तो मुझे मुंशीजी की याद आ रही है, जिनकी स्थिति में मैं अपने को बावन तोले पाव रत्ती पा रहा हूँ।

’मुंशीजी’ से शायद आप यह समझ रहे हों कि वे किसी गद्दी पर मुनीम होंगे या किसी ज़मींदार के पटवारी। जी नहीं, वे सरकार बहादुर के एक वफ़ादार नौकर थे - किसी बड़े अफसर के गज़टशुदा पी. ए.। लेकिन चूँकि उनका नाम था प्रेमचंद, इसलिए लोगों ने उन्हें ’मुंशी प्रेमचंद’ का ’मुंशी’ बतौर ’ऑनरेरी’ ख़िताब दे दिया था और वे चपरासियों तथा अपने मातहतों के अलावा सब लोगों द्वारा ’मुंशीजी’ के ही नाम से पुकारे जाते थे। मैं भी उन्हें ’मुंशीजी’ ही कहता था। पड़ोसी होने के साथ-साथ वे मेरे मित्र भी थे, इसलिए उन्हें ’मुंशीजी’ कहने में मुझे कभी संकोच न हुआ। वे भी मुझे ’रशीमजी’ कह कर पुकारते थे - पता नहीं, जानबूझ कर वे ऐसा करते थे, या ’रश्मि’ कहने में उन्हें कठिनाई होती थी।

मुंशीजी की अवस्था यही चालीस के लगभग थी। घर में पत्नी थीं, बूढ़ी माँ थीं और परमपिता के सात प्रसाद थे - बस, दस आदमियों का ’छोटा-सा’ परिवार था। इसके अनुसार ही, उन्होंने एक छोटा-सा मकान भी ले रखा था, जिसमें दो कमरे थे और मकान-मालिक फ़ी कमरा उनसे तीस रुपये भाड़ा लिया करता था। तनख़्वाह भी भगवान् की दया से कुछ बुरी नहीं थी - पचहत्तर कम पूरे चार सौ! लेकिन उनकी श्रीमतीजी - माफ़ कीजिएगा, यहाँ मैं थोड़ी लिबर्टी ले रहा हूँ - एक हद तक फूहड़ थीं। सबेरे पाँच बजे से उठ कर रात के ग्यारह बजे तक वे इस तरह काम में लगी रहती थीं, जैसे एवरेस्ट की चढ़ाई की तैयारी कर रही हों - सोने की तो बात दूर, दो क्षण बैठने का भी समय वे नहीं निकाल पाती थीं। ऐसी हालत में मुंशीजी का खीझना वाजिब ही था। वे कभी-कभी तुनक कर पत्नी से कहते - ’’यह क्या दिन-भर मज़दूरिन की तरह कमर कसे खड़ी रहती हो। कभी दो मिनट बात करने का भी समय नहीं मिलता।’’ लेकिन उनकी श्रीमतीजी को जैसे कोई मतलब ही नहीं था उनकी सुकुमार भावनाओं से। वे छूटते ही आँखें तरेर कर बोलतीं - ’’चार नौकर लगा रखे हैं न घर में! मुझे तो पागल कुत्ते ने काट रखा है, जो दिन-भर देह खटाती रहती हूँ!’’ और, मुंशीजी को ऐसा लगता, जैसे उन्हें एक साथ चार-पाँच चाँटे रसीद कर दिये गये हों। वे दबे स्वर में बुदबुदाते - ’’सौ बार तो कहा कि एक नौकर रख लो।’’ और धीरे-धीरे वहाँ से खिसकने लगते; लेकिन पीछे से पत्नी की आवाज़ पीछा करती रहती - ’’हाँ, नौकर के मुँह थोड़े ही होगा - वह तनख़्वाह थोड़े ही लेगा। बच्चों के लिए पूरा दूध तो हो नहीं पाता, रखेंगे नौकर!’’ मुंशीजी तड़प जाते इस अन्तिम वाक्य को सुन कर, पर विवाद बढ़ाना उन्हें कभी अच्छा नहीं लगा, सो ग़म खाकर एक गिलास ठंडा पानी पी लेते और दिन-भर सोचते रहते कि वे नौकर क्यों नहीं रख सकते। उनकी समझ में नहीं आता कि उनसे कम वेतन पानेवाले उनके पड़ोसी जब नौकर रख सकते हैं, तो वे क्यों नहीं रख सकते। आखिर, मौक़ा देख कर यह सवाल वे अपनी पत्नी के समक्ष रखते और जवाब में उन्हें सुनने को मिलता कि उनकी आमदनी कम है।

एक दिन अपनी पत्नी से यह उत्तर सुन कर उनका स्वाभिमान जाग उठा; बोले - ’’मेरे बराबर किसी की तनख़्वाह है भी आसपास में? खन्ना तीन सौ पाता है, उसके यहाँ नौकर है। सिन्हा को सिर्फ़ दो सौ अस्सी मिलते हैं, उसके यहाँ नौकर है। गाँगूली ढाई सौ पाता है, उसके यहाँ नौकर है। औरों को तो छोड़ो, पौने दो सौ पानेवाले त्रिवेदी ने भी नौकर रख छोड़ा है।’’

लेकिन उनकी पत्नी को जवाब देने के लिए एक मिनट की भी ज़रूरत नहीं हुई। उन्होंने तुरन्त कहा - ’’खन्ना तीन सौ पाता है, लेकिन उसके परिवार में कुल पाँच प्राणी हैं। सिन्हा और गाँगूली के यहाँ भी सिर्फ चार-चार प्राणी हैं। त्रिवेदी तो अकेले मियाँ-बीवी ही है। किसी की भी आमदनी आदमी-पीछे साठ रुपये से कम है? लेकिन तुम्हारी? आदमी-पीछे साढ़े बत्तीस रुपये। ... पता नहीं, इस बुद्धि से तुम दफ़्तर में काम कैसे करते हो!’’

इसके साथ ही, मुंशीजी की बुद्धि पर छाये बादल इस तरह फटे कि वे पसीने से सराबोर हो गये। उनसे कुछ कहते नहीं बन पड़ा। वे इस उधेड़बुन में पड़ गये कि उनकी तनख़्वाह छः सौ रुपये कैसे होगी, कब होगी, होती क्यों नहीं! यदि उनके वश में होता, तो एक क्षण की भी देर किये बिना वे अपनी तनख़्वाह बढ़ाने का ऑर्डर निकाल देते। लेकिन अफ़सोस! बेचारे होंठ चबा कर रह गये।

एक दिन मुंशीजी मेरे पास आकर बोले - ’’भाई रशीमजी, आप नौकर क्यों नहीं रखते?’’

मैं उनके इस अप्रत्याशित सवाल से चौंक उठा, बोला - ’’नौकर रखूँ? मैं? आख़िर क्यों?’’

वे बोले - ’’हाँ, आप! दूसरे लोगों ने जिस लिए नौकर रखे हैं, उसी लिए!’’

’’लेकिन मुझे ज़रूरत क्या है नौकर की? अकेला आदमी हूँ। होटल मे खाता हूँ। दिन-भर रहता हूँ बाहर, रिपोर्टरी के चक्कर में। नौकर क्या करूँगा रख कर?’’

मुंशीजी ने एक ठंडी आह भरी - ’’हाँ, ठीक ही तो है! आपको नौकर की क्या ज़रूरत!’’ और, वे निराश-से चलने लगे। मैंने उन्हें रोका - ’’लेकिन सुनिए तो। ऐसी क्या बात हो गयी आज?’’

मुंशीजी रुक गये, वापस लौट आये; फिर भरे दिल से कहने लगे - ’’ये नौकर लोग भी, पता नहीं, अपने को क्या समझते हैं!’’

मेरा कौतूहल जाग उठा, पूछा - ’’क्यों मुंशीजी, किसी नौकर ने गुस्ताख़ी की आपके साथ? किसने?’’

मुंशीजी का क्रोध उबल पड़ा, बोले - ’’वही त्रिवेदी का नौकर। पता नहीं, क्या समझता है अपने को! कहा कि भैया, ज़रा दो सिगरेट ला दे बाज़ार से, तो फट से बोला कि मुझे फ़ुर्सत नहीं है सिगरेट-फिगरेट लाने की। ... मालिक तो करता है क्लर्की और नौकर की यह शेख़ी!’’

मैंने जवाब दिया - ’’उससे आपने बेकार कहा। वह तो बदतमीज़ है ही। किसी दूसरे से कहा होता!’’

मुंशीजी निराशा से भर उठे, बोले - ’’अरे भाई, किससे कहता! सबको देख चुका हूँ। सब एक ही थैली के चट्टे-बट्टे हैं।’’

’’लेकिन गाँगूली का नौकर तो अच्छा-भला है! वह तो ऐसा नहीं है!’’ अपने अनुभव के आधार पर मैंने कहा, क्योंकि जब भी मुझे ज़रूरत होती थी, वह मेरे काम आता था।

मुंशीजी बोले - ’’वह तो सही है। बेचारा सीधा-सादा, भला-सा लड़का है, लेकिन गाँगूली की बीवी वैसी हो, तब न! एक दिन उसने चुपचाप मेरी श्रीमतीजी से आकर कहा कि मेरा काम करने पर उसकी मालकिन बिगड़ती है। ... सच तो यह है कि जितने बुरे नौकर नहीं हैं, उससे ज़्यादा उनके मालिक-मालकिन हैं। नौकरों को सिर चढ़ने के लिए शह देते हैं। खन्ना का नौकर तो मुझे देख कर यों बीड़ी का धुआँ उगलता है, जैसे मैं उसका चपरासी होऊँ। कोई तमीज़ नहीं। छिः-छिः! सिन्हा के नौकर का भी यही हाल है। गली में मिल जाएगा, तो मुझे ही एक ओर दब कर रास्ता देना पड़ेगा, वह अपनी अकड़-भरी चाल नहीं रोकेगा। अब तो, ऐसा लगता है, जैसे नौकर न रखना कोई पाप करना है। एकदम भिखमंगा ही समझते हैं लोग मुझे! ... लेकिन मैंने भी अब तय कर लिया है। मैं भी नौकर रखूँगा, चाहे जो हो जाए!’’

और, सचमुच, मुंशीजी के यहाँ तीसरे दिन ही एक नौकर आ गया। पता नहीं, उन्होंने अपनी श्रीमतीजी को इसके लिए राज़ी कैसे किया। अब मुंशीजी के चेहरे पर थोड़ी चमक आ गयी, मानों नौकर न हुआ, फ़ेसपॉलिश हो गया। पड़ोसियों के नौकर भी अब उनका थोड़ा लिहाज करने लगे, लेकिन पड़ोसिनों के मन में थोड़ी धुकुर-पुकुर मची। वे उनके नौकर को लेकर कानाफूसी करने लगीं। गाँगूली की बीवी ने तो स्पष्टतः मुझसे कहा - ’’ले तो आया है नउकर, लेकिन खोर्चा काहाँ से चोलाएगा। आप देखिएगा, चार दिन बाद चोला जाएगा। पोनरो (पन्द्रह) टाका में कोउन नउकर ठाहरेगा!’’

और, वास्तव में सातवें दिन ही मुंशीजी का नौकर उनके घर से इस तरह ग़ायब हुआ, जैसे गदहे के सिर से सींग। मुंशीजी ने आह भर कर मुझे बतलाया - ’’दुष्टों ने बहका दिया उसे! ... लेकिन कोई बात नहीं, दूसरा छोकरा लाऊँगा।’’

मुंशीजी ने ग़लत नहीं कहा था। उनके घर दूसरा छोकरा आया, पर वह भी चार दिन की चाँदनी दिखा कर मुंशीजी को फिर अन्धेरे में छोड़ गया। उसके बाद तीसरा नौकर आया, पर उसे चौथे दिन ही खन्ना की बीवी ने पाँच रुपये अधिक का प्रलोभन देकर अपने एक रिश्तेदार के यहाँ लगवा दिया। मुंशीजी फिर हाथ मलते रह गये। उन्होंने खन्ना-परिवार से बातचीत बन्द कर दी, पर खन्ना परिवार को इसका कोई मलाल न हुआ, उल्टे खन्ना की बीवी ने अपनी पड़ोसिनों से सगर्व कहा - ’’चलो, एक बला से छुट्टी मिली।’’

लेकिन मुंशीजी के यहाँ जो नई बला आयी, उस पर न तो खन्ना की बीवी का जादू चला और न गाँगूली की बीवी का। सिन्हा और त्रिवेदी के नौकर भी उससे बात करने में हिचकते। मुंशीजी का यह नौकर इस तरह अकड़ कर चलता, जैसे मुहल्ले का मालिक हो। मुंशीजी को अपने इस नौकर पर गर्व था और नौकर को अपने मालिक पर। वह बड़ी शान से दूसरे नौकरों से बोलता - ’’अरे, शर्म नहीं आती तुम्हें अपने मालिक की तारीफ़ करते? मेरे मालिक का मुक़ाबला तेरे पिद्दी मालिक करेंगे? मेरे मालिक गज़टिड आपीसर हैं, गज़टिड आपीसर। तेरे मालिकों-जैसे लोग सत्रह बार उन्हें सलाम करते हैं दिन-भर में। जा, जाकर अपनी-अपनी मालकिन की गोद में मुँह छिपा कर रो ले अपनी क़िस्मत पर!’’ उसके इस अभिमान पर सारी पड़ोसिनें क्षोभ से भर उठीं। उन्होंने मुंशीजी की बीवी से, और उनके श्रीमानों ने मुंशीजी से शिकायत की; पर दोनों ने एक ही जवाब दिया - ’’नौकरों के मामले में हमें नहीं पड़ना चाहिए। उनके आपस के झगड़ों में पड़ने से हमारी नीचता साबित होगी।’’ लेकिन यह आदर्श पड़ोसियों को पसन्द न आया, वे झगड़े पर आमादा हो गये। पर जिस तेज़ी से वे झगड़े पर आमादा हुए, उतनी ही तेज़ी से अपने-अपने घर में भी घुस गये। मुंशीजी के नौकर का रौर्द-रूप उनके लिए कुनैन की टिकिया बन गया। उसने यहाँ तक कह दिया कि यदि वे अधिक गड़बड़ करेंगे, तो अपने स्वनामधन्य चार-पाँच साथियों को बुलवा कर वह उनकी हड्डी-पसली बराबर करवा देगा। पड़ोसियों ने यह सुना, तो चुप बैठ गये; बोले - ’’गुंडे से लगना ठीक नहीं!’’

लेकिन यह बहादुर नौकर भी चार महीने बाद मुंशीजी के यहाँ से चला गया - बिना अपने मालिक से लड़े-झगड़े, शान्ति के साथ। मुझे थोड़ा आश्चर्य हुआ कि ऐसे आदमी ने नौकरी छूटने पर शोर-शराबा क्यों नहीं मचाया - बड़े प्रेमपूर्वक उसने विदा कैसे ले ली? पर यह बात मैं मुंशीजी से पूछता कैसे? सो, चुप ही रहा - दो-चार दिन में यह बात पुरानी भी पड़ गयी।

फिर शायद मुझे उस नौकर की कभी याद भी न आती, अगर उस दिन मुंशीजी मेरे पास आकर उसकी चर्चा न करते। उन्होंने आते ही कहा - ’’भाई रशीमजी, सौ रुपये होंगे आपके पास? कर्ज़ चाहिए।’’

मुंशीजी और कर्ज़ - यह कैसी अनहोनी बात! मैंने कहा - ’’आपको कर्ज़ चाहिए? लेकिन आप तो ... ’’

’’हाँ, मैं कर्ज़ नहीं लेता; लेकिन क्या करूँ, ज़रूरत ही ऐसी आ पड़ी है! ... उस नौकर को तनख़्वाह देने के लिए मैंने भृंगराजजी से सौ रुपये कर्ज़ लिए थे। उनकी माँग आ गई है!’’ - मुंशीजी बोले।

मैंने उन्हें रुपये देते हुए पूछा - ’’लेकिन उसे आपने हटा क्यों दिया? अच्छा-भला तो था!’’

मुंशीजी मुस्कराये, बोले - ’’उसे रखने की अपनी हैसियत कहाँ थी, भाई? चार महीनों में ही तो सौ रुपये कर्ज़ करना पड़ा। पचास रुपये महीना तनख़्वाह और खाना-पीना! कम होता है इतना? फिर, उसे लाया भी तो था चार महीने के लिए ही। उस समय उसके मालिक-मालकिन विदेश गये हुए थे!’’

मुंशीजी की बातों से मेरा कौतूहल थोड़ा और जागा। मैंने पूछा - ’’लेकिन इतनी अधिक तनख़्वाह पर चार महीने के लिए उसे अपने यहाँ रखने की ज़रूरत क्या थी आपको?’

’’ज़रूरत थी, भाई, थी! ... वे अट्टहास कर उठे - ’’अब देखते नहीं, पड़ोसी कितने सीधे हो गये। उनकी सारी अकड़ हिरन हो गयी! अब ज़रा देखिए, गाँगूली की बीवी कैसे लथपथ होकर बर्तन माँजती है; खन्ना की बीवी कैसे झाड़ू लगाते-लगाते उठ कर कमर सीधी करती है; त्रिवेदी की बीवी अब शाम को सजने-सँवरने की बजाय किस तरह गाल में कालिख लगाये स्टोव पम्प करती नज़र आती है!’’

सचमुच तो! मैंने इस बात पर ध्यान ही नहीं दिया था। पिछले दो महीनों में सबके नौकर पैंतीस-चालीस रुपये तनख़्वाह की माँग कर नौकरी छोड़ चुके थे।

इसके कुछ दिन बाद सुनने को मिला, पड़ोसियों ने मुंशीजी से अनुरोध किया था कि यदि वे नौकर न रखने का वचन दें, तो वे फिर नौकर रख लें। उन्होंने उन्हें यह भी आश्वासन दिया था कि उनके नौकरों से वे ज़रूरत-बेज़रूरत बेहिचक काम ले सकेंगे।

उसके बाद मुंशीजी ने कभी नौकर नहीं रखा। नौकर रखने की ज़रूरत भी क्या थी भला - मुहल्ले के सभी नौकर उनके ही तो थे। काश! मुझे भी मुंशीजी की तरह नौकर रखने की ज़रूरत न पड़ती, मुहल्ले के नौकरों से ही काम चल जाता।

--

विद्याभूषण ’श्रीरश्मि’- परिचय

विद्याभूषण ’श्रीरश्मि’ हिन्दी अकादमी द्वारा पुरस्कृत लेखक थे। यह पुरस्कार उन्हें स्वयं उनके जीवन पर आधारित उपन्यास, ’दिव्यधाम’, के लिए 1987 में मिला था। विद्याभूषण ’श्रीरश्मि’ (11 दिसम्बर 1930 - 25 अगस्त 2016) का वास्तविक नाम विद्याभूषण वर्मा था।

वे मात्र 16 वर्ष की वय में दिल्ली के ’दैनिक विश्वमित्र’ समाचारपत्र के सम्पादकीय विभाग में नौकरी करने लगे। वे रात में काम करते और दिन में पढ़ते। अल्प वेतन से फ़ीस के पैसे बचा-बचा कर उन्होंने विशारद, इंटरमीडियेट, साहित्यरत्न, बी. ए. तथा एम. ए. की परीक्षा उत्तीर्ण की।

’श्रीरश्मि’ ने ’दैनिक विश्वमित्र’ के अतिरिक्त ’दैनिक राष्ट्रवाणी’, ’दैनिक नवीन भारत’, साप्ताहिक ’उजाला’, साप्ताहिक ’फ़िल्मी दुनिया’ तथा मासिक ’नवनीत’ के सम्पादन में भी सहयोग दिया। वे 1959 से भारतीय सूचना सेवा से सम्बद्ध हो गये।

’श्रीरश्मि’ की लगभग तीन सौ रचनायें 1960 के दशक की प्रमुख हिन्दी, उर्दू, गुजराती तथा कन्नड़ पत्र-पत्रिकाओं में प्रकाशित हुईं। हिन्दी पत्रिकाओं में से कुछ के नाम हैंः ’नीहारिका’, ’साप्ताहिक हिन्हुस्तान’, ’कादम्बिनी’, ’त्रिपथगा’, ’सरिता’, ’मुक्ता’, ’नवनीत’, ’माया’, ’मनोहर कहानियाँ’, ’रानी’, ’जागृति’ तथा ’पराग’।

उनके उपन्यास हैंः ’दिव्यधाम’, ’तो सुन लो’, ’प्यासा पंछीः खारा पानी’, ’धू घू करती आग’, ’आनन्द लीला’, ’यूटोपिया रियलाइज़्ड’ तथा ’द प्लेज़र प्ले’।

उन्होंने ’विहँसते फूल, नुकीले काँटे’ नाम से महापुरुषों के व्यंग्य-विनोद का संकलन किया।

’श्रीरश्मि’ द्वारा अनुवादित रचनायें हैंः ’डॉ. आइन्सटाइन और ब्रह्मांड’, ’हमारा परमाणु केन्द्रिक भविष्य’, ’स्वातंत्र्य सेतु’, ’भूदान यज्ञः क्या और क्यों’, ’सर्वोदय और शासनमुक्त समाज’, ’हमारा राष्ट्रीय शिक्षण’ तथा ’विनोबा की पाकिस्तान यात्रा’।

COMMENTS

BLOGGER
नाम

 आलेख ,1, कविता ,1, कहानी ,1, व्यंग्य ,1,14 सितम्बर,7,14 september,6,15 अगस्त,4,2 अक्टूबर अक्तूबर,1,अंजनी श्रीवास्तव,1,अंजली काजल,1,अंजली देशपांडे,1,अंबिकादत्त व्यास,1,अखिलेश कुमार भारती,1,अखिलेश सोनी,1,अग्रसेन,1,अजय अरूण,1,अजय वर्मा,1,अजित वडनेरकर,1,अजीत प्रियदर्शी,1,अजीत भारती,1,अनंत वडघणे,1,अनन्त आलोक,1,अनमोल विचार,1,अनामिका,3,अनामी शरण बबल,1,अनिमेष कुमार गुप्ता,1,अनिल कुमार पारा,1,अनिल जनविजय,1,अनुज कुमार आचार्य,5,अनुज कुमार आचार्य बैजनाथ,1,अनुज खरे,1,अनुपम मिश्र,1,अनूप शुक्ल,14,अपर्णा शर्मा,6,अभिमन्यु,1,अभिषेक ओझा,1,अभिषेक कुमार अम्बर,1,अभिषेक मिश्र,1,अमरपाल सिंह आयुष्कर,2,अमरलाल हिंगोराणी,1,अमित शर्मा,3,अमित शुक्ल,1,अमिय बिन्दु,1,अमृता प्रीतम,1,अरविन्द कुमार खेड़े,5,अरूण देव,1,अरूण माहेश्वरी,1,अर्चना चतुर्वेदी,1,अर्चना वर्मा,2,अर्जुन सिंह नेगी,1,अविनाश त्रिपाठी,1,अशोक गौतम,3,अशोक जैन पोरवाल,14,अशोक शुक्ल,1,अश्विनी कुमार आलोक,1,आई बी अरोड़ा,1,आकांक्षा यादव,1,आचार्य बलवन्त,1,आचार्य शिवपूजन सहाय,1,आजादी,3,आत्मकथा,1,आदित्य प्रचंडिया,1,आनंद टहलरामाणी,1,आनन्द किरण,3,आर. के. नारायण,1,आरकॉम,1,आरती,1,आरिफा एविस,5,आलेख,4288,आलोक कुमार,3,आलोक कुमार सातपुते,1,आवश्यक सूचना!,1,आशीष कुमार त्रिवेदी,5,आशीष श्रीवास्तव,1,आशुतोष,1,आशुतोष शुक्ल,1,इंदु संचेतना,1,इन्दिरा वासवाणी,1,इन्द्रमणि उपाध्याय,1,इन्द्रेश कुमार,1,इलाहाबाद,2,ई-बुक,374,ईबुक,231,ईश्वरचन्द्र,1,उपन्यास,269,उपासना,1,उपासना बेहार,5,उमाशंकर सिंह परमार,1,उमेश चन्द्र सिरसवारी,2,उमेशचन्द्र सिरसवारी,1,उषा छाबड़ा,1,उषा रानी,1,ऋतुराज सिंह कौल,1,ऋषभचरण जैन,1,एम. एम. चन्द्रा,17,एस. एम. चन्द्रा,2,कथासरित्सागर,1,कर्ण,1,कला जगत,113,कलावंती सिंह,1,कल्पना कुलश्रेष्ठ,11,कवि,2,कविता,3239,कहानी,2360,कहानी संग्रह,247,काजल कुमार,7,कान्हा,1,कामिनी कामायनी,5,कार्टून,7,काशीनाथ सिंह,2,किताबी कोना,7,किरन सिंह,1,किशोरी लाल गोस्वामी,1,कुंवर प्रेमिल,1,कुबेर,7,कुमार करन मस्ताना,1,कुसुमलता सिंह,1,कृश्न चन्दर,6,कृष्ण,3,कृष्ण कुमार यादव,1,कृष्ण खटवाणी,1,कृष्ण जन्माष्टमी,5,के. पी. सक्सेना,1,केदारनाथ सिंह,1,कैलाश मंडलोई,3,कैलाश वानखेड़े,1,कैशलेस,1,कैस जौनपुरी,3,क़ैस जौनपुरी,1,कौशल किशोर श्रीवास्तव,1,खिमन मूलाणी,1,गंगा प्रसाद श्रीवास्तव,1,गंगाप्रसाद शर्मा गुणशेखर,1,ग़ज़लें,550,गजानंद प्रसाद देवांगन,2,गजेन्द्र नामदेव,1,गणि राजेन्द्र विजय,1,गणेश चतुर्थी,1,गणेश सिंह,4,गांधी जयंती,1,गिरधारी राम,4,गीत,3,गीता दुबे,1,गीता सिंह,1,गुंजन शर्मा,1,गुडविन मसीह,2,गुनो सामताणी,1,गुरदयाल सिंह,1,गोरख प्रभाकर काकडे,1,गोवर्धन यादव,1,गोविन्द वल्लभ पंत,1,गोविन्द सेन,5,चंद्रकला त्रिपाठी,1,चंद्रलेखा,1,चतुष्पदी,1,चन्द्रकिशोर जायसवाल,1,चन्द्रकुमार जैन,6,चाँद पत्रिका,1,चिकित्सा शिविर,1,चुटकुला,71,ज़कीया ज़ुबैरी,1,जगदीप सिंह दाँगी,1,जयचन्द प्रजापति कक्कूजी,2,जयश्री जाजू,4,जयश्री राय,1,जया जादवानी,1,जवाहरलाल कौल,1,जसबीर चावला,1,जावेद अनीस,8,जीवंत प्रसारण,141,जीवनी,1,जीशान हैदर जैदी,1,जुगलबंदी,5,जुनैद अंसारी,1,जैक लंडन,1,ज्ञान चतुर्वेदी,2,ज्योति अग्रवाल,1,टेकचंद,1,ठाकुर प्रसाद सिंह,1,तकनीक,32,तक्षक,1,तनूजा चौधरी,1,तरुण भटनागर,1,तरूण कु सोनी तन्वीर,1,ताराशंकर बंद्योपाध्याय,1,तीर्थ चांदवाणी,1,तुलसीराम,1,तेजेन्द्र शर्मा,2,तेवर,1,तेवरी,8,त्रिलोचन,8,दामोदर दत्त दीक्षित,1,दिनेश बैस,6,दिलबाग सिंह विर्क,1,दिलीप भाटिया,1,दिविक रमेश,1,दीपक आचार्य,48,दुर्गाष्टमी,1,देवी नागरानी,20,देवेन्द्र कुमार मिश्रा,2,देवेन्द्र पाठक महरूम,1,दोहे,1,धर्मेन्द्र निर्मल,2,धर्मेन्द्र राजमंगल,1,नइमत गुलची,1,नजीर नज़ीर अकबराबादी,1,नन्दलाल भारती,2,नरेंद्र शुक्ल,2,नरेन्द्र कुमार आर्य,1,नरेन्द्र कोहली,2,नरेन्‍द्रकुमार मेहता,9,नलिनी मिश्र,1,नवदुर्गा,1,नवरात्रि,1,नागार्जुन,1,नाटक,152,नामवर सिंह,1,निबंध,3,नियम,1,निर्मल गुप्ता,2,नीतू सुदीप्ति ‘नित्या’,1,नीरज खरे,1,नीलम महेंद्र,1,नीला प्रसाद,1,पंकज प्रखर,4,पंकज मित्र,2,पंकज शुक्ला,1,पंकज सुबीर,3,परसाई,1,परसाईं,1,परिहास,4,पल्लव,1,पल्लवी त्रिवेदी,2,पवन तिवारी,2,पाक कला,23,पाठकीय,62,पालगुम्मि पद्मराजू,1,पुनर्वसु जोशी,9,पूजा उपाध्याय,2,पोपटी हीरानंदाणी,1,पौराणिक,1,प्रज्ञा,1,प्रताप सहगल,1,प्रतिभा,1,प्रतिभा सक्सेना,1,प्रदीप कुमार,1,प्रदीप कुमार दाश दीपक,1,प्रदीप कुमार साह,11,प्रदोष मिश्र,1,प्रभात दुबे,1,प्रभु चौधरी,2,प्रमिला भारती,1,प्रमोद कुमार तिवारी,1,प्रमोद भार्गव,2,प्रमोद यादव,14,प्रवीण कुमार झा,1,प्रांजल धर,1,प्राची,367,प्रियंवद,2,प्रियदर्शन,1,प्रेम कहानी,1,प्रेम दिवस,2,प्रेम मंगल,1,फिक्र तौंसवी,1,फ्लेनरी ऑक्नर,1,बंग महिला,1,बंसी खूबचंदाणी,1,बकर पुराण,1,बजरंग बिहारी तिवारी,1,बरसाने लाल चतुर्वेदी,1,बलबीर दत्त,1,बलराज सिंह सिद्धू,1,बलूची,1,बसंत त्रिपाठी,2,बातचीत,2,बाल उपन्यास,6,बाल कथा,356,बाल कलम,26,बाल दिवस,4,बालकथा,80,बालकृष्ण भट्ट,1,बालगीत,20,बृज मोहन,2,बृजेन्द्र श्रीवास्तव उत्कर्ष,1,बेढब बनारसी,1,बैचलर्स किचन,1,बॉब डिलेन,1,भरत त्रिवेदी,1,भागवत रावत,1,भारत कालरा,1,भारत भूषण अग्रवाल,1,भारत यायावर,2,भावना राय,1,भावना शुक्ल,5,भीष्म साहनी,1,भूतनाथ,1,भूपेन्द्र कुमार दवे,1,मंजरी शुक्ला,2,मंजीत ठाकुर,1,मंजूर एहतेशाम,1,मंतव्य,1,मथुरा प्रसाद नवीन,1,मदन सोनी,1,मधु त्रिवेदी,2,मधु संधु,1,मधुर नज्मी,1,मधुरा प्रसाद नवीन,1,मधुरिमा प्रसाद,1,मधुरेश,1,मनीष कुमार सिंह,4,मनोज कुमार,6,मनोज कुमार झा,5,मनोज कुमार पांडेय,1,मनोज कुमार श्रीवास्तव,2,मनोज दास,1,ममता सिंह,2,मयंक चतुर्वेदी,1,महापर्व छठ,1,महाभारत,2,महावीर प्रसाद द्विवेदी,1,महाशिवरात्रि,1,महेंद्र भटनागर,3,महेन्द्र देवांगन माटी,1,महेश कटारे,1,महेश कुमार गोंड हीवेट,2,महेश सिंह,2,महेश हीवेट,1,मानसून,1,मार्कण्डेय,1,मिलन चौरसिया मिलन,1,मिलान कुन्देरा,1,मिशेल फूको,8,मिश्रीमल जैन तरंगित,1,मीनू पामर,2,मुकेश वर्मा,1,मुक्तिबोध,1,मुर्दहिया,1,मृदुला गर्ग,1,मेराज फैज़ाबादी,1,मैक्सिम गोर्की,1,मैथिली शरण गुप्त,1,मोतीलाल जोतवाणी,1,मोहन कल्पना,1,मोहन वर्मा,1,यशवंत कोठारी,8,यशोधरा विरोदय,2,यात्रा संस्मरण,31,योग,3,योग दिवस,3,योगासन,2,योगेन्द्र प्रताप मौर्य,1,योगेश अग्रवाल,2,रक्षा बंधन,1,रच,1,रचना समय,72,रजनीश कांत,2,रत्ना राय,1,रमेश उपाध्याय,1,रमेश राज,26,रमेशराज,8,रवि रतलामी,2,रवींद्र नाथ ठाकुर,1,रवीन्द्र अग्निहोत्री,4,रवीन्द्र नाथ त्यागी,1,रवीन्द्र संगीत,1,रवीन्द्र सहाय वर्मा,1,रसोई,1,रांगेय राघव,1,राकेश अचल,3,राकेश दुबे,1,राकेश बिहारी,1,राकेश भ्रमर,5,राकेश मिश्र,2,राजकुमार कुम्भज,1,राजन कुमार,2,राजशेखर चौबे,6,राजीव रंजन उपाध्याय,11,राजेन्द्र कुमार,1,राजेन्द्र विजय,1,राजेश कुमार,1,राजेश गोसाईं,2,राजेश जोशी,1,राधा कृष्ण,1,राधाकृष्ण,1,राधेश्याम द्विवेदी,5,राम कृष्ण खुराना,6,राम शिव मूर्ति यादव,1,रामचंद्र शुक्ल,1,रामचन्द्र शुक्ल,1,रामचरन गुप्त,5,रामवृक्ष सिंह,10,रावण,1,राहुल कुमार,1,राहुल सिंह,1,रिंकी मिश्रा,1,रिचर्ड फाइनमेन,1,रिलायंस इन्फोकाम,1,रीटा शहाणी,1,रेंसमवेयर,1,रेणु कुमारी,1,रेवती रमण शर्मा,1,रोहित रुसिया,1,लक्ष्मी यादव,6,लक्ष्मीकांत मुकुल,2,लक्ष्मीकांत वैष्णव,1,लखमी खिलाणी,1,लघु कथा,288,लघुकथा,1340,लघुकथा लेखन पुरस्कार आयोजन,241,लतीफ घोंघी,1,ललित ग,1,ललित गर्ग,13,ललित निबंध,20,ललित साहू जख्मी,1,ललिता भाटिया,2,लाल पुष्प,1,लावण्या दीपक शाह,1,लीलाधर मंडलोई,1,लू सुन,1,लूट,1,लोक,1,लोककथा,378,लोकतंत्र का दर्द,1,लोकमित्र,1,लोकेन्द्र सिंह,3,विकास कुमार,1,विजय केसरी,1,विजय शिंदे,1,विज्ञान कथा,79,विद्यानंद कुमार,1,विनय भारत,1,विनीत कुमार,2,विनीता शुक्ला,3,विनोद कुमार दवे,4,विनोद तिवारी,1,विनोद मल्ल,1,विभा खरे,1,विमल चन्द्राकर,1,विमल सिंह,1,विरल पटेल,1,विविध,1,विविधा,1,विवेक प्रियदर्शी,1,विवेक रंजन श्रीवास्तव,5,विवेक सक्सेना,1,विवेकानंद,1,विवेकानन्द,1,विश्वंभर नाथ शर्मा कौशिक,2,विश्वनाथ प्रसाद तिवारी,1,विष्णु नागर,1,विष्णु प्रभाकर,1,वीणा भाटिया,15,वीरेन्द्र सरल,10,वेणीशंकर पटेल ब्रज,1,वेलेंटाइन,3,वेलेंटाइन डे,2,वैभव सिंह,1,व्यंग्य,2075,व्यंग्य के बहाने,2,व्यंग्य जुगलबंदी,17,व्यथित हृदय,2,शंकर पाटील,1,शगुन अग्रवाल,1,शबनम शर्मा,7,शब्द संधान,17,शम्भूनाथ,1,शरद कोकास,2,शशांक मिश्र भारती,8,शशिकांत सिंह,12,शहीद भगतसिंह,1,शामिख़ फ़राज़,1,शारदा नरेन्द्र मेहता,1,शालिनी तिवारी,8,शालिनी मुखरैया,6,शिक्षक दिवस,6,शिवकुमार कश्यप,1,शिवप्रसाद कमल,1,शिवरात्रि,1,शिवेन्‍द्र प्रताप त्रिपाठी,1,शीला नरेन्द्र त्रिवेदी,1,शुभम श्री,1,शुभ्रता मिश्रा,1,शेखर मलिक,1,शेषनाथ प्रसाद,1,शैलेन्द्र सरस्वती,3,शैलेश त्रिपाठी,2,शौचालय,1,श्याम गुप्त,3,श्याम सखा श्याम,1,श्याम सुशील,2,श्रीनाथ सिंह,6,श्रीमती तारा सिंह,2,श्रीमद्भगवद्गीता,1,श्रृंगी,1,श्वेता अरोड़ा,1,संजय दुबे,4,संजय सक्सेना,1,संजीव,1,संजीव ठाकुर,2,संद मदर टेरेसा,1,संदीप तोमर,1,संपादकीय,3,संस्मरण,730,संस्मरण लेखन पुरस्कार 2018,128,सच्चिदानंद हीरानंद वात्स्यायन,1,सतीश कुमार त्रिपाठी,2,सपना महेश,1,सपना मांगलिक,1,समीक्षा,847,सरिता पन्थी,1,सविता मिश्रा,1,साइबर अपराध,1,साइबर क्राइम,1,साक्षात्कार,21,सागर यादव जख्मी,1,सार्थक देवांगन,2,सालिम मियाँ,1,साहित्य समाचार,98,साहित्यम्,6,साहित्यिक गतिविधियाँ,216,साहित्यिक बगिया,1,सिंहासन बत्तीसी,1,सिद्धार्थ जगन्नाथ जोशी,1,सी.बी.श्रीवास्तव विदग्ध,1,सीताराम गुप्ता,1,सीताराम साहू,1,सीमा असीम सक्सेना,1,सीमा शाहजी,1,सुगन आहूजा,1,सुचिंता कुमारी,1,सुधा गुप्ता अमृता,1,सुधा गोयल नवीन,1,सुधेंदु पटेल,1,सुनीता काम्बोज,1,सुनील जाधव,1,सुभाष चंदर,1,सुभाष चन्द्र कुशवाहा,1,सुभाष नीरव,1,सुभाष लखोटिया,1,सुमन,1,सुमन गौड़,1,सुरभि बेहेरा,1,सुरेन्द्र चौधरी,1,सुरेन्द्र वर्मा,62,सुरेश चन्द्र,1,सुरेश चन्द्र दास,1,सुविचार,1,सुशांत सुप्रिय,4,सुशील कुमार शर्मा,24,सुशील यादव,6,सुशील शर्मा,16,सुषमा गुप्ता,20,सुषमा श्रीवास्तव,2,सूरज प्रकाश,1,सूर्य बाला,1,सूर्यकांत मिश्रा,14,सूर्यकुमार पांडेय,2,सेल्फी,1,सौमित्र,1,सौरभ मालवीय,4,स्नेहमयी चौधरी,1,स्वच्छ भारत,1,स्वतंत्रता दिवस,3,स्वराज सेनानी,1,हबीब तनवीर,1,हरि भटनागर,6,हरि हिमथाणी,1,हरिकांत जेठवाणी,1,हरिवंश राय बच्चन,1,हरिशंकर गजानंद प्रसाद देवांगन,4,हरिशंकर परसाई,23,हरीश कुमार,1,हरीश गोयल,1,हरीश नवल,1,हरीश भादानी,1,हरीश सम्यक,2,हरे प्रकाश उपाध्याय,1,हाइकु,5,हाइगा,1,हास-परिहास,38,हास्य,59,हास्य-व्यंग्य,78,हिंदी दिवस विशेष,9,हुस्न तबस्सुम 'निहाँ',1,biography,1,dohe,3,hindi divas,6,hindi sahitya,1,indian art,1,kavita,3,review,1,satire,1,shatak,3,tevari,3,undefined,1,
ltr
item
रचनाकार: कहानी // मुंशीजी का नौकर // विद्याभूषण ’श्रीरश्मि’
कहानी // मुंशीजी का नौकर // विद्याभूषण ’श्रीरश्मि’
https://blogger.googleusercontent.com/img/b/R29vZ2xl/AVvXsEiLYWpHaP2vRAD868W3hyphenhyphenBVG-F60Q9S0mkZyTZd8lFP98s4mPHf6vogdJApgts4BCvNLiy8HYnivdDhSCys9-CnxC5gyDA87nrmtSiv3eU7ZwxKNsNw-Atz7VTrznXdidVfkqGb/?imgmax=800
https://blogger.googleusercontent.com/img/b/R29vZ2xl/AVvXsEiLYWpHaP2vRAD868W3hyphenhyphenBVG-F60Q9S0mkZyTZd8lFP98s4mPHf6vogdJApgts4BCvNLiy8HYnivdDhSCys9-CnxC5gyDA87nrmtSiv3eU7ZwxKNsNw-Atz7VTrznXdidVfkqGb/s72-c/?imgmax=800
रचनाकार
https://www.rachanakar.org/2017/10/blog-post_32.html
https://www.rachanakar.org/
https://www.rachanakar.org/
https://www.rachanakar.org/2017/10/blog-post_32.html
true
15182217
UTF-8
Loaded All Posts Not found any posts VIEW ALL Readmore Reply Cancel reply Delete By Home PAGES POSTS View All RECOMMENDED FOR YOU LABEL ARCHIVE SEARCH ALL POSTS Not found any post match with your request Back Home Sunday Monday Tuesday Wednesday Thursday Friday Saturday Sun Mon Tue Wed Thu Fri Sat January February March April May June July August September October November December Jan Feb Mar Apr May Jun Jul Aug Sep Oct Nov Dec just now 1 minute ago $$1$$ minutes ago 1 hour ago $$1$$ hours ago Yesterday $$1$$ days ago $$1$$ weeks ago more than 5 weeks ago Followers Follow THIS PREMIUM CONTENT IS LOCKED STEP 1: Share to a social network STEP 2: Click the link on your social network Copy All Code Select All Code All codes were copied to your clipboard Can not copy the codes / texts, please press [CTRL]+[C] (or CMD+C with Mac) to copy Table of Content