विकास विकास न हुआ, रीतिकालीन नायिका का कँगना हो गया है जिसे वह नदिया किनारे ‘हिरा’ आई है और गा गाकर न मिल पाने की व्यथा व्यक्त कर रही है। इ...
विकास विकास न हुआ, रीतिकालीन नायिका का कँगना हो गया है जिसे वह नदिया किनारे ‘हिरा’ आई है और गा गाकर न मिल पाने की व्यथा व्यक्त कर रही है।
इधर कुछ लोग विकास के विरह में ऐसे पगला रहे हैं कि क़व्वाली की पंक्तियों की तरह एक ही बात बार बार दोहरा रहे हैं। तब से लेकर आज तक हालाँकि कई नदियाँ सूख गई हैं, कई दरोगा बदल गए हैं और रीतिकालीन नायिकाओं पर कई शोध लिख दिए गए हैं, फिर भी विकास का कँगना अभी तक ‘हिरा जाने’ के स्टेटस से ‘बरामद हुआ’ वाले स्टेटस पर नहीं आ सका है। माजरा किसी बड़े नामी चित्रकार की एब्स्ट्रेक्ट पेंटिंग की तरह हो गया है। पेंटिंग में चित्रकार ने विकास को घास के रूप में चित्रित किया है। जैसे ‘थ्री डी’ फिल्मों को देखने के लिए एक पोलेरॉयड चश्मा लगाना पड़ता था वैसे ही आर्ट गैलरी में आए सभी दर्शकों को प्रवेशद्वार पर ही हरे काँच का चश्मा यह कहकर उपहार में दिया जा रहा है कि इससे पेंटिंग ‘अच्छी’ दिखाई देगी। जिन्होंने यह चश्मा लगा लिया है उन्हें पेंटिंग की ऊसर ज़मीन पर भी हरी घास नज़र आ रही है।
कुछ दर्शक चित्रकार के इतने बड़े भक्त हैं कि उन्हें घोड़े की लीद भी हरी कच्च दिखाई दे रही है। ऐसा लगता है मानों उन्हें सावन के महीने में ही आँखों में मोतियाबिंद हुआ है। लेकिन दर्शक भी भाँति भाँति के होते हैं। तो यहाँ भी हैं कुछ ऐसे जिन्हें कि कहीं घास का तिनका तक नज़र नहीं आ रही है। ऐसे ‘नादानों’ को समझाने के लिए पेंटर बाबू की कुछ टुकड़ियाँ तैयार बैठी हैं। उन्हें यह कहकर समझाया जा रहा है कि पूरे केनवास पर घास ही घास थी जिसे पेंटिंग के बनने से लेकर गैलरी में आने के बीच में घोड़ा ‘चर’ गया है।
दर्शकों में कुछ ऐसे भी हैं जो अपने बाप को बाप कहने से पहले उसके बाप होने का सबूत माँगते हैं। उनकी माँग है कि उन्हें घास दिखाई जाए। अगर घास घोड़े ने चर ही ली है तो घोड़े पर कोई ‘सर्जिकल स्ट्राइक’ टाइप बात क्यों नहीं की गई? अगर घास चरते घोड़े को आपने पकड़कर कांजी हाउस में जमा कर ही दिया हो तो उसकी पावती दिखाई जाए।
छायावादी युग के कवियों को प्रकृति के कण कण में प्रेम दिखता और संगीत सुनाई देता था। उसी तरह विकासवीरों को शोर भरी आवाज़ में भी विकास का संगीत सुनाई देता है। हर धुँधले दृश्य में विकास ही विकास नज़र आने लगता है। वे कुछ इस सम्मोहक ढंग से दिखाने व सुनाने में लगे हैं कि अंधे को दृष्टि व बधिरों को श्रवनशक्ति प्राप्त हो गई है।
दुर्भाग्य से हमारे बीच कुछ ऐसे लोग भी हैं जिन्होंने विकास फूटी आँख भी न देखने की कसम खा रखी है। विकास के तो नाम से ही उन्हें कुछ ऐसी नफरत है कि अपने बच्चों के जन्म के समय किसी भावनावश विकास नाम रख दिया था, अब शपथपत्र देकर बदलवाना चाहते हैं। इसी नफरत के चलते एक मित्र ने तो बेटी के लिए एक बड़ी कंपनी के लाखों के पैकेज वाले लड़के का प्रस्ताव सिर्फ इसलिए ठुकरा दिया क्योंकि उसका नाम विकास है।
विकास और विनाश की बात करने वालों के सुर कभी कभी इतने ज़्यादा मिल जाते हैं कि समझना मुश्किल हो जाता है कि बंदा विकास की बात कर रहा है या विनाश की! कुछ विकास के नाम से ही इतने भयभीत हैं कि उन्होंने उसे बाकायदा ‘पागल’ घोषित कर दिया है। क़ानून के जानकारों का कहना है कि अगर परिवार का कोई सदस्य पागल हो जाता है तो आप उसे अपनी तमाम संपत्ति से बेदखल कर सकते हैं। शायद उनका दाँव यह हो कि कल को अगर विकास सचमुच सामने आ जाए तो उसकी कोई क़ीमत उन्हें न चुकानी पड़े, क्योंकि विकास ‘पागल’ जो ठहरा!
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परिचय
पूरा नाम - ओमप्रकाश वर्मा
पिता का नाम – श्री बाबूलाल वर्मा, (से. नि. शिक्षक)
माता का नाम – श्रीमती पन्नादेवी
जन्म - 20 जून 1955, विदिशा, मध्यप्रदेश में जन्म
शिक्षा - प्राणि- विज्ञान एवं अँगरेजी साहित्य में स्नातकोत्तर
लेखन - व्यंग्य, दोहे, ग़ज़ल एवं सामयिक विषयों पर लेखन एवं विभिन्न पत्र-पत्रिकाओं में समय समय पर प्रकाशित
म. प्र. युवा पत्रकार मंच द्वारा व्यंग्य लेखन में द्वितीय पुरस्कार।
कुछ दोहा संकलनों में दोहे, ग़ज़ल संकलनों में ग़ज़लें व व्यंग्य संकलनों में व्यंग्य संकलित। एक दोहा संकलन व एक दूसरे व्यंग्य संकलन की पाण्डुलिपि तैयार।
भारत मुद्रा निर्माण निगम लिमिटेड (एसपीएमसीआईएल) की देवास इकाई बैंक नोट प्रेस की सिक्यूरिटी प्रिंटिंग इंक इकाई में उप तकनीकी अधिकारी के पद से जून’15 में सेवा निवृत होने के बाद मार्च ’15 तक उसी संस्थान में राजभाषा विभाग में कंसल्टेंट के रूप में कार्य किया। संस्थान की त्रैमासिक गृह पत्रिका का पाँच वर्ष तक संपादन। संस्थान में राजभाषा विषयक प्रतियोगिताओं में सर्वाधिक पुरस्कार। वित्त मंत्रालय आर्थिक कार्य विभाग द्वारा सभी 9 इकाइयों (टकसाल, नोट प्रेस, सिक्यूरिटी पेपर मिल) की स्वाधीनता की स्वर्ण जयंती पर 1997 में आयोजित की गई विभिन्न प्रतियोगिताओं – कहानी में प्रथम, व अन्य दो प्रतियोगिताओं में पुरस्कृत। एसपीएमसीआईएल की निगम गीत प्रतियोगिता में प्रथम पुरस्कार।
अनुवाद - एक व्यंग्य का मराठी पाक्षिक 'आपुल्कि' में मराठी अनुवाद प्रकाशित।
लेखक द्वारा अनुवादित पुस्तक - मूल अँगरेजी पुस्तिका The Tata Code of Conduct हिंदी में 'टाटा आचार संहिता' नाम से अनुवादित।
व्यंग्य संकलन – लेखक का व्यंग्य संकलन ‘आपके कर कमलों से’ (2017) वनिका प्रकाशन, नई दिल्ली से प्रकाशित
संपर्क – 100, रामनगर एक्सटेंशन, देवास 455001 (म.प्र.)
दूरभाष – 09302379199/07272-251727
ई-मेल – om.varma17@gmail.com
ब्लॉग – omvarmadewas.blogspot.in
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