बाबा बूटा सिंह ने लगाया एक बूटा उसे, शहन्शाह जी ने ज्ञान प्यार दे बढ़ाया है। बाबा गुरु 'बचन ने अपना सर्वस्व होम , ...
बाबा बूटा सिंह ने लगाया एक बूटा उसे,
शहन्शाह जी ने ज्ञान प्यार दे बढ़ाया है।
बाबा गुरु 'बचन ने अपना सर्वस्व होम ,
जगत के कोने-कोने तक पहुँचाया है।
बाबा हरदेव ने भ्रमण कर सारा जग,
सर्वस्व देके विश्व वाटिका सजाया है।
माता सविन्दर हरदेव आज 'कुसुमाकर'
बाटिका की माली बन सुमन खिलाया है। १ ।
काँटों भरी दुनिया के दु;ख-दर्द झेलि-झेलि,
तेरी किरपा से कुछ फूल चुन पाया हूँ।
तुम हो कृपालु मातु अति ही दयालु ताते,
हिम्मत जुटा के तेरे चरणों में लाया हूँ।
अब चाहे प्यार दो तू चाहे दुत्कार माता,
जग सारा छोड़ के शरण तेरी आया हूँ।
जनम-जनम अघ करम निरत रहा,
जैसा भीहूँ 'कुसुमाकर' तेरा ही बनाया हूँ।२।
परमपिता कृपालु कृपा सिन्धु नररूप हरि,
फाड़कर खम्भा प्रह्लाद को बचायो हैं।
रावण को जब अत्याचार बढ़ गयो नाथ,
राम बन कुल सह उसे निबटायो है।
तव भक्तों पे जब कंस अत्याचार कियो,
कृष्ण रूप धर उसे क्षण में मिटायो है।
कितना खुशकिस्मत आज जग 'कुसुमाकर',
माता 'सविन्दर हरदेव' आज आयो हैं।३।
प्यार भरे दिल को तू क्रूरता से काहे चीरे ,
ईर्ष्या ,घृणा में निज जीवन बिताता है।
दूसरों की खुशियों में लगाकर आग प्यारे ,
बता तो कभी क्या किसी जन को तू भाता है।
शर्म-ओ- हया को छोड़ , धरम से नाता तोड़,
जाने किस धुन में कुकर्म किये जाता है।
स्वार्थ में आज अन्धा हुआ'कुसुमाकर'है तू ,
दीन असहायों का ही खून पिये जाता है। ४।
कदम कदापि कहीं ऐसा न उठायें हम ,
दूसरे किसी की देह कुचल ही जाये ना।
निज घर में दिये जलायें तो जरूर पर ,
उससे किसी के घर आग लग जाये ना।
सबसे ही प्यार करें , सब में दुलार भरें,
मन में कभी भी द्वेष दंभ को बसाये ना।
ऐसी चले चाल सारे जग में मिसाल बनें ,
'कुसुमाकर' भूल, कमजोर को सतायें ना। ५।
परम दयालु है कृपालु सद्गुरु मेरा ,
पल भर में ही परमात्मा दिखाता है।
पल-पल बस प्रीति प्यार ही निभाता सदा,
भ्रम को मिटाता ,भेदभाव को भगाता है।
सब में सुमति सद्भावना जगाता नित,
सेवा सत्कार सहज नम्रता सिखाता है।
'कुसुमाकर'ए दाता सारी खुशियाँ लुटाता,
सुख पहुँंचाता,यही सद्गुरु कहाता है। ६ ।
परमपुरुष परमात्मा को प्यारा प्रेम ,
ये पुनीत प्रेम परमेश्वर को भाता है।
परहित रत पल-पल जो रहत जन,
परम प्रभु का उससे घनिष्ठ नाता है।
गुरुपद पाके , जिन जाना यहाँ आके सच,
उसका तो गुरुआवागमन मिटाता है।
ऐसो दयावान जिन प्रभु पहचान कियो,
'कुसुमाकर' चरणों में शीश ये झुकाता है।७।
युग- युग माहि आ के प्रभु आप दुनिया में ,
जिसे अपनाता सच्चा आदमी बनाता है।
हरि एक जानो नित, एक ही को मानो सभी,
हिलमिल रहो यही सब को सिखाता है।
सद्गुरु ने सिखाई, करें सबकी भलाई ,
राखें सबसे मिताई, पाठ ये पढ़ाता है।
प्रेम 'कुसुमाकर' सिखाता , नितदाता यही ,
ब्रह्म दिखा सारा भ्रम पल में मिटाता है। ८ ।
सब हों सहनशील समरसता से युक्त ,
मन में विशालता का सहज निवास हो।
छोटे -बड़े सबका समान सम्मान करें,
हर एक माहि बस एक का ही बास हो।
निज औकात और तेरी सौगात प्रभु सदा,
याद रखें , द्वार से न कोई भी निरास हो।
दिल में सदा ही परमारथ की भावना हो ,
'कुसुमाकर' बस एक तेरी ही आस हो। ९ ।
किसकी आज्ञा को मान सूरज और चाँद ये ,
चढ़ते गगन माहि फिर छिप जाते हैं।
किसकी आज्ञा को शिरोधार्य कर गगन में ,
सुन्दर सितारे सारी रात जगमगाते हैं।
किसने प्रदान किये सुन्दर ये वस्त्र तुम्हें ,
छत्तीस पकवान किसका दिया ये खाते हैं।
'कुसुमाकर'सद्गुरु चरणों में बैठ देखो ,
सारे ही भरम पल माहि मिट जाते हैं। १०।
प्रभु जो हमारे अँंग - सँग नित रहता है ,
दुनिया में एक मात्र यह ही हमारा है।
रिश्ते हैं ए सारे झूठे सच्चा रिश्तेदार यही ,
मन्दिर मस्जिद यही , यही गुरुद्वारा है।
माल-खजाना यही , यही धन-दौलत मेरी,
• यही अखिल भुवन का पालनहारा है।
'कुसुमाकर' ए आया ,आड़े वक्त है बचाया,
जब भी किसी, ने जहाँ भी तुझे पुकारा है।११।
निज दर किसी के न अवगुण गिने नाथ,
सबको ही पल माहि पार तू लगाता है।
जिसको जगत ने सताया ठुकराया सदा ,
दर पर तेरे उसे प्यार दिया जाता है।
दुनिया ने जिसका हमेशा अपमान किया ,
तेरे दर आके सत्कार वह पाता है।
दुःखों का जो मारा ,दुत्कारा हुआ.'कुसुमाकर',
तेरे दर आके सुख, प्यार सब पाता है।१२ ।
रूखी-सूखी,कच्ची-पक्की खा के जो गुजर करे,
पर पल भर नहीं भूले प्रभु नाम को।
तन पर फटे औ' पुराने वस्त्र भले होवें ,
नंगे पाँव भले वह जाता होवे काम को।
खाना पीना पहनना सभी उसका है शुभ,
हरि गुण गाता 'गर सुबह-ओ-शाम को।
एक छिन एक पल, प्रभु देख यश गाया ,
करे वो स्वीकार 'कुसुमाकर' के प्रणाम को I१३ ।
बेशुमार दौलत खजाना होवे पास 'गर ,
दुनिया में नाम होवे बड़ा धनवान को।
अच्छा - अच्छा खाना पीना, वस्त्र शानदार होवे ,
पर जो न याद करे इस भगवान को।
उसका तो जीवन वृथा है इस जग माहि ,
जिसने न याद रखा निज पहचान को।
'कुसुमाकर'नैया भवसागर से पार होवे ,
'गर सद्गुरु पँह लेवे ब्रह्मज्ञान को। १४ ।
तेरे बिन दुनिया में कौन है सहारा प्रभु,
दीन हीन जन का तो नाथ तू सहारा है।
माया मतवारी सदा पथ से गिराती नित,
इक तू दयालु दया करके उबारा है।
मेरी कोई बात छिपी तुमसे नहीं है नाथ,
मेरे दिल का तू हाल जान रहा सारा है।
नंगे पाँव आया, आड़े वक्त है बचाया प्रभु,
'कुसुमाकर' भक्तों ने जब भी पुकारा है। १५ ।
तूने ही प्रदान किया सुन्दर - सी देह नाथ,
तेरी ही दी साँस से ये चल रहा सारा है।
तूने ही हरेक दिल को दिया है धड़कन,
दिख रहा जो भी सब तेरा ही पसारा है।
अन्न फल फूल मूल देके है मिटाई भूख,
साँस हेतु वायु उपजा ,दिया सहारा है।
धरती निवास , रवि चन्द्र का प्रकाश प्रभु,
'कुसुमाकर'धूप-छाँव दिया सुख सारा है। १६ ।
शरण जो आये उसे नाम सद्गुरु देता,
यही नाम सभी दुःख दर्द को मिटाता है।
इस नाम में है शक्ति इतनी भरी हुई कि,
बिगड़ी हुई को यह क्षण में बनाता है ।
नूरहीन आँखों को भी देखने की देता शक्ति,
जिस घर बसे उसे स्वर्ग - सा बनाता है।
धन्य सद्गुरु धन्य'कुसुमाकर' नामी प्रभु ,
भक्तजनों को भवपार पहुँचाता है। १७ ।
अंगारे सदृश तप्त सूरज है अम्बर में,
देखो यह ऊँचा अति खुद को दिखाता है।
ऐसे अहंकारी जन, खुद को समझ ऊँचा,
रात दिन सूरज - सा जलता ही जाता है।
पर नीची धरती को देखो तो नजर भर,
हरा भरा दृश्य दिल खुश कर जाता है ।
सर्दी या गर्मी 'कुसुमाकर' खुशहाली रहे ,
धरती-सा सन्त धैर्य नम्रता दिखाता है। १८ ।
प्रभु तुम बिनु दीन हीन की सुनैगो कौन ,
कौन उठा उन्हें निज अंक से लगावैगो।
कौन है दयालु प्रभु तुम सों जहाँन माहि ,
दीनों की जो सुधि लेने दौड़ो चलो आवैगो ।
प्रभु तू तो इतनो दयालु हो कृपालु नाथ ,
तेरे बिनु कौन भव पार पहुँचावैगो ।
दीन हीन 'कुसुमाकर' कब से पुकारि रह्यो,
प्रभु जी , बचाओ वर्ना विरुद गँवावैगो।१९।
सद्गुरु परम दयालु क्षमावान अति ,
शरण आये जन के गिने न दोष पाप है।
मैल भरी कपड़ों में कितनी , न धोबी सोचे ,
व्यर्थ वह करता न कोई भी प्रलाप है।
बख्शनहार भी अनोखा जादूगर है जो ,
दोषियों के देखे ना गुनाह दोषपाप है।
सद्गुरु पूरा कभी जात पाँत पूछे नहीं,
बख्श देता 'कुसुमाकर'प्रभु चुपचाप है।२०।
जाति वर्ण आश्रम मजहब के फन्दे आज,
हर एक जन-जन के गले की फाँसी है।
ए वो बड़ी खांईं जा में डूबे बड़े-बड़े बने ,
उबर न पाये लिये करवट काशी है।
छोड़कर बैर विरोध ईर्ष्या का भाव मित्र,
. मिलजुल रहें , नहीं होगी बड़ी हाँसी है।
जिसने भी 'कुसुमाकर' रम्ज यह जान लिया ,
समझो ये माया मतवारी वाकी दासी है।२१।
उलझ गया जो बन्दा द्वैत भावना में यहाँ ,
समझ लो वह दीनानाथ से भी दूर है।
दुई के चक्कर फँस सर्वस्व गँवाता निज ,
आला हस्ती से भी वह होय जाता दूर है।
फँस इस चक्कर में आँख मीचे बैठा बन्दा ,
जान न सका ये प्रभु हाजिर हजूर है।
मान तज, गुरुदर,बन्दा आये , होवे भला,
'कुसुमाकर' आना जरा कठिन जरूर है। २२ ।
जप तप करने से हरि नहीं हासिल हो ,
दिल का कमल कभी खिल नहीं पाता है।
बिना माझी भवसागर में है जीवन नैया ,
बड़ी. तेज धार कहो पार कौन पाता है।
वस्त्र यदि फट गया हो तो 'कुसुमाकर' उसे ,
बिना सूई भला कोई कैसे सिल पाता है।
यह मिल सकता है , मिलता है , पर बन्धु ,
गुरु के इशारे से ही यह मिल पाता है। २३၊
होवे भले बेसहारा , और अपमानित हो,
जिसे कोई जगत में नहीं पहचानता।
गलियों के तिनके से भी मान नि:सार जिसे,
कोई भी न जानता है और न है मानता।
धन हीन, बेकदर , सिर पर छाँव नहीं,
फटे वस्त्र, दाने हित खाक होवे छानता।
गुरु की कृपा हो वह पल में अमीर बने,
'कुसुमाकर' ऐसी सद्गुरु की महानता।२४।
जिस रब का है फरमान निसदिन यहाँ ,
चला रहा रवि शशि और ए सितारों को।
जिसका हुकुम मान ठहरा है धरातल ,
सीने पर चला रहा नित जल धारों को।
आसमान माहि है बनाई ए भयंकर आग ,
मात करे.'कुसुमाकर' जो कि अंगारों को।
वायु जीव आकाश चलाये यह रात - दिन,
अपने आदेश से घुमाता नवद्वारों को। २५।
चाहे कोई कितना भी नीच या कुचाली होवे ,
चुगल खोर,क्रोधी, लोभी या कि हत्यारा हो।
चोर हो ,शराबी हो या जूएबाज लुटेरा हो,
कुछ भी करता हो बिलकुल नकारा हो।
छूट जायें ए कुकर्म . नजर मेहर की हो ,
आवागमन से 'कुसुमाकर' छुटकारा हो। २६ ।
सारा जग चल रहा ,तेरी सत्ता से ही प्रभु,
तेरी सत्ता बिन कोई खिलता न फूल है।
जीवन -मरण हानि-लाभ , यश-अपयश,
तेरे हाथ में है ,तेरे चरणों की धूल है।
जिस हाल में तू रखे, तेरी ही रजा में राजी,
तेरा दिया फटा वस्त्र भी लगे दुकूल है l
भला हूँ, बुरा हूँ,जैसा भी हूँ, प्रभु तेरा ही हूँ ,
बख्शले तू' कुसुमाकर' भुला सारी भूल है। २७ ।
सब के दिलों के तार जोड़ दे जो दुनिया में ,
समझो कि दुनिया का यही करतार है।
इसका ही कृपा से ये दुनिया है चल रही ,
सारे ही जहाँ का बस यही करतार है।
सबकी ही करता ये साज-सँंभाल नित ,
इसका ही दिया खाता सारा संसार है I
'कुसुमाकर' हरि बिन काम ना बनेगा कोई,
गुरु पद रज ही लगाये बेड़ा पार है। २८ ।
सारे संसार के ही प्यार हित दुनिया में ,
सर्वशक्तिमान प्रभु सद्गुरुआता है।
मात्र पर उपकार हेतु तन धरता है ,
दुनिया के बस उद्धार हित आता है।
सद्गुरु का काम बस एके का प्रचार यहाँ ,
गुरु के समान यहाँ और नहीं दाता है।
गुरु ही तो जगत को रब से मिलाता बन्धु,
'कुसुमाकर' गुरु बिना रम्ज न पाता है।२९।
कर्ता जगत का है रक्षक भगत का जो ,
परम दयालु ए सभी का रखवारा है।
एक- सा शरीर बना ,एक सा- ही अंग दिये,
एक- सा ही प्राण हर तन संचारा है।
मानव को सब कुछ. जिसने प्रदान किया,
ऐसे दानी प्रभु को भी नर ने बिसारा है।
कभी ए न सोचा 'कुसुमाकर' दयालु प्रभु,
सबको बनाया, विश्व कुटुम्ब हमारा है। ३० ।
प्रभुजी तुम्हारे सिवा कौन है जहाँ में मेरा,
तेरे चरणों के सिवा और ना सहारा है।
दुनिया ने सदा दुत्कारा ठुकराया हमें ,
पर नाथ तूने दिया सब को सहारा है।
अब बस एक तूहीं हरजाँ नजर आये,
'कुसुमाकर' मेरे प्रभु आसरा तिहारा है।
जैसे चाहो वैसे राखो, दास तो तुम्हारा ही हूँ ,
तेरे सिवा दुनिया में और को हमारा है।३१।
इस दुनिया में रहने के लिये प्राणियों को ,
जिस तरह बन्धु यह प्राण जरूरी है।
जैसे तीखे तीर को चलाने हेतु नावक को ,
एक खूब. अच्छा सा कमान जरूरी है।
धरती बिना तो कोई काम ही चलेगा नहीं,
इसके लिये भी आसमान जरूरी है।
'कुसुमाकर' ऐसे ही प्रेमा भक्ति की खातिर ,
पूरे सद्गुरु का ए ज्ञान अति जरूरी है।३२।
पूरा गुरु कभी गुरु सिखों को बताये नहीं ,
गंगा- जमुना में जाय करने स्नान को।
कभी न कहे कि तीर्थ-व्रत , पुण्य-दान करो',
कभी ना पढ़ाये वेद अंजील कुरान को।
जंगल निवास न, समाधि और ध्यान नहीं ,
सिर्फ बताये गुरु ए के की पहचान को।
ऐसे सन्त सदगुरु जिसे मिल जायें धन्य ,
'कुसुमाकर' गुरु पे लुटाये निज जान को।३३।
जब से मिला है धर्मगुरु मुझे पूरा बन्धु ,
हुआ है खतम मेरा आना और जाना है।
मुझको मिली है अब सहज अवस्था ये ,
खतम हुआ अब बन्धु कष्ट उठाना है।
मिल गया रूह रानी को है रब राजा आज,
बंद हुआ अब इसका रोना चिल्लाना है।
गुरु की कृपा से क्षण माहि हो गया मिलाप,
'कुसुमाकर' मिल गया साजन सुहाना है।३४।
माया की गफलत में पड़े वो प्यारे बन्दे ,
हीरा जनम तू गँंवाये कौड़ी मोल' है।
हरि नाम बिना सब पाप है जो खाये पीये,
दुष्टों से प्रीति,किया सन्तों का न तोल है।
प्रभु ने कृपा की तुझे मानुष जनम दिया ,
. व्यर्थ ही रहा तू इसे मिट्टी माहि रोल है।
समय के सदगुरु से तू ज्ञान पाले बन्दे ,
'कुसुमाकर' जन्मफल पा ले अनमोल है।३५।
उल्टा लटक चाहे ध्यान लगाये कोई ,
चाहे जा के तीरथों में करे अस्नान है।
सब कुछ अपना लुटा दे चाहे कोई जन ,
सोना चाँदी हीरे मोती करे खूब दान है।
पूजा -पाठ निसदिन सारी उम्र करता हो ,
पढ़ -पढ़ चाहे खुद समझे सयान हो।
'कुसुमाकर' सब कुछ एकदम व्यर्थही है,
गुरु बिन रब की न होती पहचान है।३६।
ज्ञान की है हाट सद्गुरु ने लगाई यहाँ,
मेरा 'ज्ञान दाता' गुरु बड़ा व्योपारी है।
श्रेष्ठ, पूत , निर्मल वाणी , सन्तों का सरमाया',
एक अकेला सन्त लाखों पे भारी है।
समय-समय पर सद्गुरु ने लाखों तारे ,
'कुसुमाकर' आया, आज बारी हमारी है।
पग धूली अमर खजाना जाने , सन्तजन,
जाने न जो , वह जानो परमअनारी है। ३७ ।
अजब , गजब लीला, लीलाधर होती यहाँ,
झगड़े जहाँ में इन्सां से इन्सानों के ।
बन्दे का है बैरी बन्दा ,समझ न आये प्रभु,
बन्दा हो के काम करे नित शैतानों के।
मजहब - मजहब में देखे झगड़े यहाँ ,
लिपियों जुबानों औ' जनेऊ किरपानों के।
एक ही खुदा की ए सारी खलकत प्यारे,
'कुसुमाकर' काम यहाँ शीरीं जुबानों के।३८।
जिसने रचाई सारी दुनिया बताओ बन्धु ,
बिना कर जिसने किया ये शुभकाम है।
जिसके हैं हम सब बच्चे बताओ भला ,
ऐसे हम सब के जनक का क्या नाम है?
जिसके हजारों लाखों नाम हैं वो प्रभु कौन?
जिसका चले है सारी दुनिया में नाम है।
वेद शास्त्र जिसको हमेशा 'नेति -नेति' कहें ,
रंग रूप न्यारे पिता प्रभु को प्रणाम है। ३९ ।
रहन-सहन बोलचाल में अलग हैं जो,
सकल समाज में वो अलग दिखाते हैं।
नफरत बैर विरोध दिल माहि बसे,
पर वह बाहर से प्यार दिखलाते हैं।
प्रभु अन्तर्यामी से तो कुछ भी छिपा है नहीं ,
कितनों छिपायें ऐब छिप नहीं पाते हैं।
'कुसुमाकर'जिस मन माहि निरंकार बसे ,
निर्मल वाणी से संसारी तर जाते हैं। ४० ।
हम सब बच्चे जिस एक परमात्मा के ,
कौन है जनक ? क्या कभी ये बिचारा है।
तीन लोक चौदह भुवन निर्माण किया ,
सारी सृष्टि का जो एकमात्र सहारा है।
जिसके हजारों लाखों नाम हैं , वो नामी कौन?
जिसका जग नाम लेवे प्रभु वो हमारा है।
रूप रंँग रेखहीन , भेद जिन जान लिया,
'कुसुमाकर' कृपालु उसे पार उतारा है।४१।
जाति - पाँति मजहब ,रसम -रिवाज कोई ,
मेरे दीनानाथ प्रभु ने नहीं बनाये हैं।
हिन्दू मुस्लिम सिख ईसाई बौद्ध जैन भी ,
रब ने ये कोई झगड़े नहीं लगाये हैं।
कच्छा किरपान हो , जनेऊ चाहे सुन्नत हो,
यह कोई जगत में सँग नहीं लाये हैं।
खान-पान रहन-सहन हो ,या और कुछ ,
'कुसुमाकर' बन्धन न प्रभु ने लगाये हैं।४२।
किसी - किसी को है निज तन का गुमान यहाँ ,
कोई धन-दौलत पे अति गर्वीला है।
कोई राज पाट पे गुमान किये बैठा है ,
कोई निज ताकत के वास्ते हठीला है।
किसी के है स्वकुल का मान उर अन्तर तो,
कोई - कोई अमीरी का ही मानी रँगीला है।
तरह-तरह के हैं'कुसुमाकर'मान यहाँ ,
भक्तजन सद्गुरु पे मान का नशीला है।४३।
निष्काम होके सन्त सेवा जो हमेशा करे ,
प्रति श्वाँस प्रभु सद्गुरु का ही ध्यान हो।
निसदिन चित्त लगा रहे सत्संगति में ,
मन बच कर्म से जो एक ही समान हो।
मन में पवित्रता हो, वाणी सुमधुर बोले,
शुभकर्म मन में न जरा अभिमान हो।
'कुसुमाकर' मन में न भावना हो बदले की ,
निन्दा और स्तुति को जो मानता समान हो।४४।
गुरु करे कृपा तो ए पापी भी पुनीत बने ,
पल भर में ही नृप रंक को बनाता है।
गुरु किरपा से सारे सुख दुनिया के मिलें,
रोग, दोष, दुःख कभी निकट न आता है।
होवे गुरु की कृपा हैवान इनसान बने ,
सन्त सज्जनों को मिल गले से लगाता है।
'कुसुमाकर' सबको ही खुशियाँ प्रदान करे ,
सद्गुरु सन्तों को सुख बरसाता है।४५।
अगर गुरु का मिले तनिक इशारा प्यारे ,
तेरा अविनाशी घर तुझे मिल जायेगा।
गुरु की कृपा से रामकृष्ण कामिल पीर बने ,
कुसुमाकर' सज्जनों का दिल खिल जायेगा' ।
तज अभिमान जो भी गुरु की शरण आये ,
रब जान,चौरासी से वह बच जायेगा। ४६ ।
अगम अगोचर अलौकिक त्रिकालसत्य ,
अटल अचल तेरी महिमा अपार है।
संगी साथी बीबी बच्चे माता पिता भाई बन्धु ,
जितने हैं नाते सब निपटअसार हैं '၊
घट - घट वासी , प्रभु करुणानिधान तेरी ,
कृपा से ही पातकी तरत भवपार है।
तेरा आदि है न अन्त , तेरी लीला है अनन्त,
'कुसुमाकर' तूहीं अविनाशी करतार है।
कण-कण माहि तेरी सूरत दिखाई देती,
पत्ता - पत्ता, बूटा - बूटा लिखा तेरा नाम है।
इधर-उधर चारों ओर मैं निहारूं जहाँ,
तेरी ही ए सूरत दिखाये मेरे राम है।
चन्दन में खुशबू , पवित्रता तू गंगा माहि,
रवि में प्रकाश ,ताप ,तेज और घाम है।
'कुसुमाकर' फूलों में है सौन्दर्य बन बसा,
कलियों में कोमलता ललित ललाम है।४८।
करें जो एकत्र कई - कई हम जबानें मित्र ,
तो भी यश गान इसका न कर पाते हैं।
सारे कवि जग के, एकत्र हो , लिखें जो गुण ,
इसके, कदापि सब लिख नहीं पाते हैं।
सागर में डाल स्याही कर लें दवात 'गर,
लिखवायें महिमा न कोई लिख पाते हैं।
'कुसुमाकर' 'नेति-नेति' कहके पुकारें वेद ,
प्रभु परमेश्वर का अन्त नहीं पाते हैं। ४९ ।
प्रभु ने तो तुझको बनाया इन्सान प्यारे ,
माया मतवारा बन बैठा हैवान तू ।
छल औ' कपट में लगा रहा तू रात दिन ,
काम करता है यहाँ बन शैतान तू' ।
तन उजला है पर मन अति मैला तेरा ,
भवतरे कैसे गले बाँधा है पाषाण तूI
मन में है लोभी कुत्ता लार टपकाये सदा,
'कुसुमाकर' भौंक - भौंक करे परेशान तू। ५० I
झूठी दुनिया है, झूठी नगरी है, राजा झूठा,
मैंने जो देखा भाई झूठा संसार है।
झूठे हैं बेटी बेटे, कुटुम्ब कबीला झूठा ,
इस जग माहि देखा झूठे रिश्तेदार हैं ।
झूठा ही है खाना पीना सोना पाँव पसार भी ,
झूठी माया, झूठी छाया, झूठा ए संसार है।
'कुसुमाकर' श्वाँसों का यह भाँडा भी झूठा ही है,
जिस पर प्यारे तू करता एतबार है।५१।
सच एक यही है अगर जान पाये प्यारे ,
गुरुदरशन सच , सच ए दीदार है।
यही एकदाता ,या की महिमा का गान करें ,
निसदिन इस पर करना विचार है।
सच्चे रब ने है यहाँ , सच ही बनाया सब,
सच खुद सब जग का ए करतार है।
सदगुरु पूरा सच्चा 'कुसुमाकर' जान ले तू ,
सच्चा बस इससे करना ही प्यार है।५२।
सच - सच यही है अगर करे एतबार,
सच्चा सबका है स्वामी , सच करतार है।
सत्य सद्गुरु की है सच्ची यह संगत ,
सच्ची गुरु पूजा है , सच्चा सत्कार है।
सच्चा गुरु मन्दिर है , निरमल सच्चा यह,
सचमुच जग का ए , सच्चा दरबार है।
'कुसुमाकर' सच कहूँ , सच पहचाने जो भी ,
गुरु की कृपा से बेड़ा होता भव पार है। ५३ ।
निरंकार को यहाँ जो कोई पहचान लेवे ,
उसका तो सेवक ए सकल जहान है।
चाकर है धरती आग और पानी सारे ही ,
सेवक ही तारे चाँद रवि आसमान हैं।
याद से ही इसकी ये सब कुछ मिलता है ,
दुःखों का काट यही करे कृपा निधान है।
'कुसुमाकर' सन्त सद्गुरु से जो ज्ञान पाये ,
नमन हमारा जिसे इसकी पहचान है।५४।
सारी दुनिया में इक दानी मेरे दाता तूहीं ,
सबकी ही झोली भरता तू करतार है।
सबसे अव्वल हस्ती तेरी मालिक है तू' ,
भक्तों की रूहों का इक तू ही तो आधार है।
कोई गुण पल्ले नहीं , ना कोई सिफत दाता ,
तेरे सिवा कौन मेरा आखिरकार है।
हाथ जोड़'कुसुमाकर' विनती हमारे नाथ ,
नमन पदों में तेरे लाख हूँ हजार है।५५।
सद्गुरु परम दयालु दयासागर हैं ,
जिसके समक्ष किया पाँच इकरार है।
सन्त सज्जनों की नित ,सेवा करें मान त्याग',
जगत में रहें सदा बन सेवादार हैं।
जहाँ भक्त ,सन्तजन , हरिजन मिल जायें.
'कुसुमाकर' उनका हम करें सत्कार है।
अब तो मेहर कर,इतनी सी दाता मेरा,
सन्त संँगत से ये बना रहे प्यार है।५६।
जिन हरि दरशन कर नहिं पाये नाथ,
समझो जहाँ में वह पाप भारी करता।
अपनी जुबाँसे हरि गुण 'गर गाया नहीं ,
समझो वह व्यर्थ ही जीता और मरता।
मान गँवाया नहीं , शीश झुकाया नहीं,
मन गुरु चरणों पे जो है नहीं धरता।
ऐसे पापी जन को ठिकाना कहीं ठौर नहीं ,
'कुसुमाकर' केवल सद्गुरु माफ करता। ५७ ।
निरंकार गुरु निज सेवक की , सुन बन्धु ,
इज्जत बचाता और करता सहाय है।
पड़ जाये संकट मुसीबत या कष्ट कोई ,
यह गुरु हाथ बढ़ा करता उपाय है।
मालिक ए मान बड़ाई करे सेवक की
बड़ा है रहमदिल होता ए सहाय है।
जिस सेवक को मालिक बख्श देवे प्रभु ,
है वो महान कहता ढोलक बजाय है।५८।
ज्ञानी व अज्ञानी दोनों देखने में एक लगें ,
पर पहचाने जाते बोलने बुलाने से।
ज्ञानी को प्रभुजाहिर ,अज्ञानी है अनजान ,
बगुला हंस पता चले करम कमाने से।
वह रब को न जाने , इस का रब डेरा है,
बहकायें लोग , बहके ने बहकाने से।
सद्गुरु दयालु देखो नाम धन बाँट रहा,
ले लो 'कुसुमाकर' कहे सारे जमाने से I५९ ।
बोलों से न मिले हरि न तो साधे मौन से ही ,
दान-पुण्य लेन-देन से न मिल पाता है।
जीवन के वश नहीं ,नहीं वश मरण के,
नहीं किसी हाकिम का जोर लग पाता है।
मन बुद्धिहारी और योग ध्यान टारी यह,
धरतीआसमान में भी नहीं समाता है।
.'कुसुमाकर लाखों इल्मी जोर लगा के हारे ,
गुरु साधु पूरा मिले परदा हटाता है । ६०।
करे निरंकार की जो पहचान प्यारे बन्धु ,
बीच योनियों के आना जाना मिट जाता है၊
निरंकार पहचाने खेल प्रभु का जो जाने ,
वह कभी मृत्यु का दुःख नहीं पाता है।
निरंकार प्रभु को जो जन पहचाने वह ,
सदा रहे मौज माहि ,दुःख भाग जाता है।
अहं चतुराई तजे, हरि रँग उसे मिले ,
'कुसुमाकर'सद्गुरु सन्त संँग पाता है।६१।
गुरु मुख आज्ञा को सत कर माने सदा,
मनमुख आज्ञा से करे इनकार है।
गुरु मुख गुरु सन्त सेवा नित प्रति करे,
उल्टे ए मनमुख करे तकरार है।
गुरुमुख सहज हो सबसे ही प्यार करे,
मनमुख ऊपर प्यार अन्दर खार है।
अहंकार रहित ए गुरुमुख रहे सदा ,
'कुसुमाकर' मनमुख करे अहंकार है। ६२ ।
जिस भी मनुज की जुबाँसे दिन रात प्रभु ,
बीते तेरा नाम इक तूहीं तूहीं कहते।
हर संकट दुःख सुख माहि याद रखे,
इसी के सहारे नाथ! रात दिन रहते।
सद्गुरु भक्ति और संतजन सेवा करे ,
हर क्षण बीते प्रभु यश तेरा कहते।
सद्गुरु चरणों में जिस का लगा है मन,
'कुसुमाकर' उसमें निरंकार रहते। ६३ ।
यह रब रीझे नहीं जप तप पाठ किये,
रीझे नहीं तीरथों में डुबकी लगाने से।
चाहे जितना भी इसके हम गुण गायें पर,
रीझे नहीं यह दान- पुण्य करवाने से।
पूरे गुरु शरण जो आये तज मान यहाँ ,
वह तो है भिन्न आज सारे ही जमाने से।
'कुसुमाकर'सद्गुरु बड़ा ही रहम दिल,
लुटा रहा, ले लो चाहे जितना खजाने से।६४।
जिस दिल माहि निरंकार बस जाये भाई,
उसको जगत नहीं झूठा कर सकता।
कमल रहे ज्यों जल बीच प्यारे बन्धु ,
जल भी कभी ना उसे जूठा कर सकता।
जिसके ए मन की जगी है ज्योति मेरे भाई ,
दिल पर उसके न दाग लग सकता।
दुनिया के सुख भोग करते हुए भी मित्र !
'कुसुमाकर' दुनिया से वह नहीं लगता। ६५ ।
तेरे दर आता वही पाता है दरश तेरा ,
तेरे सिवा कुछ भी नजर अब आये ना।
बिक जाती अपनी ए दुनिया सुहानी नाथ!
मैं और मेरी का तो ध्यान रह जाये ना |
चारों ओर दिखे इक तूहीं तू ऐ दीनानाथ ,
नजर के बीच अब और कुछ आये ना।
तेरी इस दुनिया में ऐसे बस गये नाथ ,
'कुसुमाकर' अपनी भी सुधि अब पाये ना। ६६ ।
जोड़ देवे जो दिलों का तार करतार है ए ,
रखवाली होती तेरी इसी दरबार से।
इससे ही सारा जग माँग कर खाता सदा,
जाता नहीं कोई खाली हाथ इस द्वार से।
इसकी कृपा ना हो तो कोई काम सरे नहीं,
कृपा हो तो बन्दा मिले सबसे ही प्यार से।
इसकी कृपा से 'कुसुमाकर' सब सुख पाये,
इसी की कृपा से बन्दा मिले निरंकार से।६७।
साबुन-साबुन कहने से कपड़ा धुलेना कोई ,
लाखों साल तम ढोये रोशनी नआई है।
बार-बार उपचार - नुसखा पढ़े से भाई ,
कभी भी न रोगों से मुक्ति मिल पाई है।
रोटी-रोटी कहने से कभी भी बुभुक्षित की ,
'कुसुमाकर' कहीं भला भूख मिट पाई है।
हरिनाम लेने और कहने में अन्तर है ,
समझे वही जो गुरु कृपा से ए पाई है। ६८ ।
पूरा सद्गुरु यदि चाह ले ऐ प्यारे बन्धु ,
हर विधि से ये तेरा घर भरपूर हो।
सद्गुरु परम कृपालु कृपानाथ यही,
चाहले तो दिल तेरा बन्दे पुर नूर हो।
गुरु हो प्रसन्न यदि चाहले तो क्षण माहि,
अल्प रज कण भी कहाने लगे तूर हो।
सद्गुरु कृपा' कुसुमाकर'जिस पर करे,
पलभर माहि परदा ए सारा दूर हो। ६९ ।
उल्टे लटक धूनी लगा थक - थक गये ,
ध्यान माहि निज सारी उमर गँवाई है।
नदियों में जाके नित पूजा अस्नान करें ,
इस भाँति अपनी वो देह भी गलाई है।
तीरथ मन्दिर पहाड़ वन जा-जा थके,
दर-दर जा के हर अलख जगाई है।
फिर भी न जान पाये कोई 'कुसुमाकर'तुम्हें ,
गुरु बिन रम्ज किसी ने नहीं पाई है। ७० ।
गुरुसिख का तो बस काम इतना है बन्धु ,
जो भी गुरु बोले वह हुकुम बजाना है।
जो भी प्रभु देवे वह हँसी खुशी सिरधारे ,
खाना पीना और प्रभु का शुकर मनाना है।
चाहे सुख देवे चाहे दुःख देवे दाता उसे ,
प्रभु की रजा में रह जीवन बिताना है।
जिस रँग माहि राखे उस में ही रह कर ,
'कुसुमाकर'प्रभु गुरु प्रेम निभाना है।७१।
रब को जो अंग -सँंग दिखलाये प्यारे बन्धु ,
दुनिया में वही पूरा सद्गुरु होता है।
तपता हुआ जो जीवन क्षण में बनाये शान्त,
समझो कि वही पूरा सद्गुरु होता है।
घर माहि घर दिखलावे सारे सन्तों को,
मेरे भाई वही गुरु पदवी संँजोता है।
'कुसुमाकर' रूह को जो स्वामी से मिलावे वही ,
दुनिया का मुक्तिदाता सद्गुरु होता है l७२।
जगह-जगह जाय पूछता है नित बन्दा ,
कोई तो बताओ कैसे प्रभु पहचान हो।
अगर मिला दे मुझे कोई परमात्मा से ,
तो मैं निज जीवन वा पे करूंँ कुरबान हो।
तन मन धन सारा अर्पण कर दूंँ मैं,
पग धूली में मैं नित करूंँ असनान हो।
'कुसुमाकर' जो भी निरंकार मिला दे ,उसका ,
जीवन पर्यन्त मैं मानूँ एहसान हो। ७३ ।
माता-पिता भाई बन्धु जिसका न कोई होवे ,
उस बन्दे का साथी एक निरंकार है।
मौत भी जो तुझको अकेला देखती है बन्धु ,
करने झपटती वो तुझ पर वार है।
लाख करो हरि की पूजा हरि ना स्वीकारे है ,
पाप कटे, कहे जानकर ,एक बार है।
गुरु मुख से जो सुन' कुसुमाकर' नाम ले ले,
कहे बस.' एक तूहीं तूहीं निरंकार है I'७४ ।
होगी नहीं मन की अगन ए शीतल प्यारे,
वेश अनेक तू चाहे भले बदलाये जा ।
प्रभु के दुवारे होगी ए तेरी मंजूर नहीं,
चाल तू चाहे यहाँ कितनी ही चलाये जा ।
तेरे सारे कर्म ही बन्धन बनेंगे तेरे,
कर्म तो सोच के किये औ' कराये जा ।
नाम हरीका जाने जो, न, नहीं मुक्ति पाता है,
'कुसुमाकर' गुरु जन बन गुणगाये जा । ७५ I
सब घट माहि मेरा साँवरा विराजमान ,
यही सोच सब साथ प्यार कर लीजिये।
सब में हरि रम रहा इस वास्ते ही ,
जो भी मिले सेवा सत्कार कर लीजिये।
गुण नित एक इसी निरंकार के ही गाओ .
इस एक का ही दीदार कर लीजिये।
श्वाँस-श्वाँस 'कुसुमाकर' एक का ही सुमिरन,
एक सँंग जुड़ बेड़ा पार कर लीजिये।७६।
तेरा ही सहारा लेके करूंँ सब काम प्रभु,
मेरे सद्गुरु तुझे लाखहूँ प्रणाम है।
तूही है साकार और तू ही निराकार भी है,
तेरे ही बनाये बने दुनिया का काम है।
समझ न आये,बिनु कृपा कोई पाये नहीं,
शरण जो आये उसे लेता तूँही थाम है।
'कुसुमाकर' है आया,है ए तेरा ही बनाया,
तूने कभी पूछा जात पाँत ना मुकाम है।७७।
यही एक अविनाशी,सर्वव्यापी,सुखराशी,
जिस का ये चारों वेद करे यशगान हैं।
छह शास्त्र निसदिन इसके ही गुणगायें ,
भगवद्गीता में भी इस का बयान है।
गुरु ग्रन्थ में भी महिमा है इसी एक की ही,
इसके जिकर से ही भरा ए कुरान है।
'कुसुमाकर' बाईबल एक रब को ही माने ,
सद्गुरु एक को दिखाये जो महान है। ७ ८ ।
दीवारें कभी भी किसी महल की हों न खड़ी,
यदि उसकी ये बुनियाद प्यारे कच्ची हो।
सत्य का महल भी न कभी बन पाता बन्धु ,
उसकी अगर बुनियाद नहीं सच्ची होi
चतुराई और चालाकी से न प्रभु रीझे,
रिझाने के लिये करनी न माथापच्ची हो।
'कुसुमाकर' अन्दर बाहर से हों एक बन,
भवजल तरें 'गर प्रीति यह सच्ची हो।७९।
दरदों के इस संसार माहि खुशियाँ भी ,
अकसर अश्कों का हार बन जाती हैं।
सपने ही सपने हैं और परछाइयाँ हैं ,
बन्दे का तो बस एआधार बन जाती हैं।
झूठा वैभव झूठी वाहवाही इस बन्दे को ,
इस जग माहि दिनरैन तड़पाती है।
'कुसुमाकर' प्यार की दुनिया की खुशियाँ ये ,
गुरु आज्ञा से तेरे घर बिछ जाती हैं।८०।
लोग कहते हैं इस घोर कलयुग माहि ,
परमपिता का पाना नहीं कोई खेल है।
जब तक करें नहीं घोर तप जंगलों में,
तब तक ईश्वर से होता नहीं मेल है।.
घर द्वार सब छोड़ बसे जाके वन माहि,
मची सारे जगमाहि ठेलमठेल है।
'कुसुमाकर' जिस ने भी गुरु को प्रसन्न किया ,
हुआ भवपार झट होता प्रभु मेल है।८१।
जिसके भी दिल में निवास करे स्वामी तुम ,
वह तो स्वयं बन जाता निरंकार है।
उसकी तो बात मान सद् आचरण करें,
वो होता बिन ही प्रयास भव जलपार है।
मानव जो तुझे जाने और तेरी आज्ञा माने,
तुझे देख - देख जो हमेशा करे प्यार है।
उसकी चरण रज जिन सिरधार लिया ,
वो तो भवसागर से होता झटपार है। ८२ I
यह सतरंगी माया जो तू देख रहा बन्दे ,
देख - देख जिसे तेरा मन ललचाता है।
पक्की बात मान ले तू मेरी , जो हूँ कह रहा ,
यह सब रुकता नहीं है आता जाता है।
सुख दुनिया के हैं ए छाया ज्यूंँ चलायमान,
दिल जो लगाया , ढले छाया , पछताता है।
सन्त कृपा से यदि प्रभु का दीदार मिले,
'कुसुमाकर' वह भव जल तर जाता है। ८३ ।
तूहीं तूहीं निरंकार जुबाँ से कहे जा भाई,
पल- पल इसको ही याद किये जाइये।
गुरु ने दिया है अमृत , जी भर के पीयो. ए ,
दिल शादऔर तन स्वस्थ बनाइये I
गुरु मुख से है सुन हरि नाम पाया यदि ,
इसे अंग सँंग देख आनन्द मनाइये।
हरिनाम प्याला प्यार भरे लब से जो पिये,
'कुसुमाकर' उसे नित शीश झुकाइये।८४ ।
माया के जो लोभी गुरु, दुनिया में शिष्य बुला ,
उनसे ए धरम करम बतलाते हैं।
शिष्य जब पास आते उनके हैं तब वह,
नाम रटा , पाहन को शीश झुकवाते हैं।
तीरथों में भेज ,असनान, दीपदान ,दान -
करा कर, प्रतिमा को भोग लगवाते हैं।
'कुसुमाकर'माया लोभी, जाल में फँसा के नित ,
हज की बड़ाई गुण काबे के ए गाते हैं। ८५ ।
तेरी रचना का कोई पार नहीं पाया दाता,
विस्तार का भी तेरे प्रभु कोई अन्त ना।
तेरा कहीं आर-पार दिखलाई देता नहीं ,
पाया कोई आज तक आदि और अन्त ना ।
नाम हैं अनन्त तेरे फिर भी अनाम है तू ,
नाम का तुम्हारे प्रभु, होना कभी अन्त ना ।
राम को दिखाये और प्रभु को मिला ये यही,
'कुसुमाकर'सद्गुरु-सा है कोई सन्त ना। ८६ ।
एक ही है नूर हर एक में समाया हुआ ,
चाहे वह नर होवे , या कि होवे नारी है।
ब्राह्मण क्षत्रिय शूद्र वैश्य एक की है सन्तान ,
एक ही खालिक की ए खलकत सारी है।
सबकी ही काया एक सा ही है बनाया प्रभु ,
इसी एक रब ने ए सृष्टि भी सँवारी है।
सबको समान जान , अहं त्याग सेवा करे ,
'कुसुमाकर' वही जन , सच्चा निरंकारी है I८७ ।
जन कोई गुरु से विमुख रह जग माहि ,
यहाँ वहाँ कहीं भी न पाता स्थान है।
जनम मरण में फँसा ही सदा रहता है ,
मिलता न जग माहि आदर सम्मान है।
ऐसा बन्दा हरदम दुःख ही है सहता औ'
माया में भुलाया बना फिरे शैतान है।
सद्गुरु शरण आये, दुःख रोग मिट जाये,
जो इसे ले जान वही जग में महान है। ८८ ।
सन्त सेवा कर - कर जिसका मिटा है मान ,
मैं और मेरी का ना तनिक गुमान है।
जगत में सबसे जो नीचा होके चलता है ,
समझो कि सबसे बड़ा है वो, प्रधान है।
जो भी तज कर केबुराई धारे पावनता,
सन्त पद-रज माने स्वर्ग के समान है।
जात-पाँत छोड़ 'कुसुमाकर' माने मानवता ,
सुख-दुःख सम माने वह ही महान है। ८ ९ I
सेवक उस स्वामी का हूँ जो है त्रिलोकी बन्धु ,
और सारे ब्रह्माण्ड का जो राज जानता।
घेरकर आसमान और धरती को जो है ,
अपनी विशालकाय चद्दर तानता I
कर्त्ता जो सारे जग का , निज जन सँग बसे,
कोई ढूँढ़ पाये नहीं, कोई पहचानता।
ऐसे जन की है पद-रज बड़ी मूल्यवान,
'कुसुमाकर' जो मिला ये गुरु की महानता। ९० ।
यह निरंकार युग-युगन से हरदम ,
यह सच्चा है , इसका नाम ही सच्चाई है।
पहले भी था ये , आज भी है , आगे होगा भी ए ,
इस ने ये खूब सारी रचना रचाई है।
ऊँचा - ऊँचा सबसे ऊँचा, उससे भी ऊँचा यह ,
इसका ही पाक मुकाम मेरे भाई है।
सच्चा है , पावन है ,पूत औ' पवित्र भी है,
'कुसुमाकर' सारी सृष्टि इसकी बनाई है। ९१ ।
प्रभु के मिलन की तू राह बन्दे पूछ रहा,
पत्थरों से , ढेलों से औ' इन ईंट गारों से।
तरह-तरह के जतन नित करता है,
वेद ग्रन्थों से , नदी ,गंगा के किनारों से।
मढ़ी और मशान ढूँढ़े , जंगल बियावान,
कभी पूछा ईंट की बनी हुई दीवारों से।
ऐसे प्रभु हरगिज मिल सकता है नहीं,
समझो 'कुसुमाकर'सद्गुरु के इशारों से। ९२ |
तन ,मन, धन और बाल -बच्चे ,संगी -साथी ,
कोई भी न साथ देगा , सभी नाशवान हैं।
रथ- वस्त्र ,घोड़े -हाथी ,प्यार से हँसते साथी,
कल ना रहेंगे सब , आज जो जवान हैं।
ठाठ अमीरी , शान शौकत में भूले जन ,
राज,' धन -दौलत न इन का ठिकान है।
साधु से मिल अजरामर पहचाने राम ,
'कुसुमाकर'जन वह परम सुजान है। ९३ ।
धिक्कार उन लोगों पर है जो कि जग माहि,
रहते हुये भी यहाँ कुफ्र कमाते हैं।
दिल में न सच का निवास हुआ प्यारे बन्धु ,
कैसे भला ऐसे जन पाक कहलाते हैं।
सूख-सूख जाये , जल जाये , बिन जल खेती,
जहाँ पर होती नहीं कभी बरसातें हैं।
घिक्कार कृपण की दौलत को 'कुसुमाकर' ,
काम न पराये आये , खुद भी न खाते हैं। ९४ ।
जिस प्रभु ने है तुम्हें सुन्दर शरीर दिया,
सुघर सलोनी यह सुन्दर जवानी दी।
इकपल भी न उसे भूल इस दुनिया में ,
जिसने तुम्हें ये मदमस्त जिन्दगानी दी।
सभी जीवों में तुम्हें है उत्तम बनाया प्रभु ,
मात-पिता भाईं - बन्धु सुन्दर - सी रानी दी।
ऐसे प्रभु को तू भूलने की भूल करना ना ,
'कुसुमाकर' वर्ना कहोगे परेशानी दी। ९५।
धरम करम में फँसा है आज बन्दा यहाँ ,
देखो प्रभु की याद बिलकुल भुलाया है।
कीचड़ में पाँव फँसता ही चला जा रहा है ,
जैसे-जैसे कदम वो आगे को बढ़ाया है।
और रिश्ते नाते उसे याद हैं बराबर पै,
प्रभु का ये रिश्ता उसे याद नहीं आया है।
मूर्ख 'कुसुमाकर' झूठे धन्थों में गँवाया जन्म ,
कभी सन्त सद्गुरु प्रभु याद आया है। ९६ ।
बीती हुई बातों पर, या कि भावी सपनों पे ,
ललचाना , समय बिताना , यह माया है।
भूलकर निरंकार , धन पे लगाये आश,
ब्रह्म ज्ञान बिना, खाना पीना सब माया है।
नेम,व्रत,सुचि,संयम ,पूजा,पाठ,दान,पुण्य ,
माया से मुक्ति हित कर्म कमाना ,माया है।
मन मरजी का काम माया में शुमार होय,
'कुसुमाकर' गुरु बख्श , माया को भगाया है। ९७'၊
गफलत माहि दिन रैन है गुजार रहा ,
आँख मूँद सो रहा है कैसे इनसान तू ।
नींद त्याग, जल्दी जाग, काम निज पूरा कर ,
आया यहाँ जिसके लिए है ऐ नादान तू ।
समय जो बीत रहा , फिर नहीं आना बन्धु ,
हाथ ए न आये, पछताये, अनजान तू ।
जल्दी करो जो भी 'कुसुमाकर' तुझे करना है ,
इस दुनिया में चार दिन मेहमान तू । ९८ ।
जा को मिले साधु सँग उसका सुधार होय ,
मिट जाते उसके तमाम काले दाग हैं।
साधु सँग मिलते ही खुशियाँ प्रकट होये,
मन - वीणा छेड़े अति सुन्दर -सा राग है।
संगत प्रभाव से ही तीनों गुण दूर हो वें ,
खुश रहे मन और दिलबाग - बाग है।
सन्त और राम में न'कुसुमाकर' भेद कोई ,
सन्त मिलते ही जन हो जाता बेदाग है। ९९ ।
जिस पर हरि का है रँग चढ़ गया भाई ,
जो भी वह करता है, सोई कह जाता है।
हरि रंग चढ़ा व्यक्ति हरि सँग वास करे ,
होनी हो सो होय जरा गम न दिखाता है।
रब का किया धरा सदैव उसे मीठा लगे
निज मनमाहि नाम दीपक जलाता है।
'कुसुमाकर' सन्त इसी से है यहाँ आता और ,
हरि गुणगाता गाता इसी में समाता है।१००।
(इति सविन्दर शतक )
© डॉ०एस.आर.यादव 'कुसुमाकर' आचार्य
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