मैं सोच भी नहीं सकता था... ऐसा सोचा भी कैसे जा सकता था। मेरे प्रयोग का नतीजा इतना भयावह निकलेगा... पूरा का पूरा राष्ट्र तबाह हो जायेगा... मे...
मैं सोच भी नहीं सकता था... ऐसा सोचा भी कैसे जा सकता था। मेरे प्रयोग का नतीजा इतना भयावह निकलेगा... पूरा का पूरा राष्ट्र तबाह हो जायेगा... मेरी एक तनिक-सी भूल से...। प्रयोग जो किये जाते हैं, किसी उदात्त भावना के तहत होते हैं-मेरी भी भावना कुछ ऐसी ही थी... लेकिन उसका रूप बिगड़ जायेगा और उसका परिणाम इतना भयावह होगा... मैं तो क्या... इस घटना के पहले कोई भी नहीं सोच सकता था... मैं बहुत दुःखी था... क्षुब्ध था... किसी से कहकर अपना बोझ भी हल्का नहीं कर सकता था... जरा-सी चूक मेरे लिए ही घातक हो जाती... लेकिन दिल मान नहीं रहा था... कहूँ या न कहूँ... मैं असमंजस की स्थिति में था... क्या मुझमें इतना साहस है कि मैं दुनिया के सामने अपने अपराध को स्वीकार कर सकूँ?... मेरे सम्मान का क्या होगा? क्या लोग नहीं सोचेंगे कि एक विश्वविख्यात वैज्ञानिक खूनी अपराधी बन गया, हाँ यह खूनी अपराध ही तो था... देश के प्रमुख चार मैट्रोपॉलिटन नगर दिल्ली, कलकत्ता, चेन्नई तथा मुम्बई तबाह हो गये। काली मौत के साये में जी रहे थे लोग... राष्ट्र की आर्थिक स्थिति चरमरा गई थी..हमारी दशा ठीक वैसी ही थी जैसे हम किसी युद्ध को हार गये हों... लाखों लोग काली मौत की चपेट में आ गये और लाखों लोग दम तोड़ने की स्थिति में पहुँच गये थे। चारों महानगरों में मातम छाया हुआ था... ओह!
यह क्या हो गया, मैंने अपना सिर पकड़ लिया। मेरे दुःख की कोई सीमा नहीं थी। आपको क्या मालूम कि कई सप्ताहों से मुझे नींद नहीं आई, यहाँ तक कि मैंने एक झपकी भी नहीं ली। मुझे लगा कि मेरे सिर की नसें फट जायेंगी। मेरे अन्दर भयंकर बेचैनी। मेरी दशा ऐसी ही थी... काटो तो खून नहीं...। मेरे प्रयोगों का नतीजा इतना भयंकर होगा... जी चाहता है... आत्महत्या कर लूँ...।
मैं उठा... विष की बोतल ले आया... ओह! यह भी अपराध... मेरी भी पत्नी है... बच्चे हैं... क्या होगा उनका?
ओह! मैं ऐसी स्थिति को कैसे सहन करूँ... जब इस संसार को मेरे कारनामे का पता चलेगा तो मेरी प्रतिष्ठा धूल में मिल जायेगी। मैं इस घृणित कृत्य को गुप्त भी तो नहीं रख सकता... इतनी बड़ी बात हो जाये और मैं उसको गुप्त रखूँ... नहीं... नहीं, मुझमें अब भी तनिक ईमानदारी शेष है... लाखों लोग मर रहे हैं और मैं चुप रहूँ। लेकिन मैं इतनी बड़ी बात को कैसे रखूँ दुनिया के सामने...। अचानक मेरे दिमाग में एक विचार कौंधा कि मैं पूरी बात को अपनी डायरी में लिख डालूँ फिर विष पी लूँ... मैं अब और अधिक नहीं सह सकता... कल जब यह राज खुलेगा तो मैं कहीं का नहीं रहूँगा। मैं यह हरगिज बर्दाश्त नहीं कर पाऊँगा कि मेरी ख्याति धूल-धूसरित हो जाये और मुझे विश्व की इस सबसे बड़ी त्रासदी का जिम्मेदारी ठहराया जाये। फिर भी मैं स्वयं ही लाखों लोगों की मृत्यु का जिम्मा अपने सिर पर लेता हूँ... मेरे देश की तबाही का जिम्मा...। लेकिन मैं यह सब कुछ शीघ्र लिख देना चाहता हूँ.. कल मैं यह सब कुछ देखने के लिये जीवित नहीं रहूँगा। जहर की शीशी मेरे सामने रखी हुई है। मैं सोचता हूँ कि ख्यातिप्राप्त विज्ञानी वाटसन ने ठीक ही किया जो ‘‘जीनोम'' प्रोजेक्ट से बाहर निकल गया, लेकिन मैं ऐसा नहीं कर सका। मेरी महत्त्वाकांक्षा ने मुझे ऐसा हरगिज नहीं करने दिया... और आज इसका
भयावह रूप सामने मौजूद है...। चारों मैट्रोपॉलिटन शहरों में कहर बरपाया गया। यह ठीक ऐसे ही था, माना चारों शहरों की घनीभूत आबादी पर प्रक्षेपास्त्र छोड़ दिये गये हों... और हम हाथ पर हाथ धरे बैठे रह गये... कुछ नहीं कर पाये और चारों शहर तबाह हो गये... और वह भी महानगर... शत्रु अपने खौफनाक मंसूबे में कामयाब हो गया। हाँ, तो अब मैं आत्महत्या से पूर्व डायरी में यह रहस्य उजागर करने जा रहा हूँ... यदि डायरी आपके हाथ लग जाये तो मुझे माफ कर देना। मैं एक असाधारण प्रयोग में रत था। मैं बहुचर्चित ह्यूगो-प्रोजेक्ट का सदस्य था। यह ‘ह्यूमन जीनोम प्रोजेक्ट' भी कहलाता है। विज्ञानी जेम्स डी. वाटसन इस योजना के सूत्रधार थे। यह एक वृहत् योजना थी। यह अज्ञात को जानने का अन्तिम प्रयास था। यह जानने का प्रयास चल ही रहा था कि किसी गुणसूत्र पर जीन की ठीक-ठीक स्थिति क्या होगी। एक महान् प्रोजेक्ट के द्वारा प्रत्येक जीन की स्थिति उसकी संरचना, उसका व्यवहार आदि जानने की भरसक कोशिश की जा रही थी। यह एक अत्यन्त जटिल कार्य थी... इसकी अन्तिम परिणति भी.. मनुष्य को पूरी तरह जानना यानी जीन के माध्यम से मनुष्य को जानना...। मानव के ‘‘जीनोम'' का नक्शा पूरी तरह बनाया जा चुका था। इस नक्शे को देखकर यह पता लग जाता है कि किस गुणसूत्र का कौन-सा जीन स्थिति है तथा वह कहाँ स्थित है।
‘‘ह्यूमन जीनोम प्रोजेक्ट'' की भावना परोपकारी थी। वैज्ञानिकों की अभिलाषा तो यह थी कि इस प्रोजेक्ट द्वारा आनुवंशिक रोगों पर विजय प्राप्त की जा सके। इस प्रोजेक्ट के जरिये कुछ गंभीर पीड़ादायक या आनुवंशिक बीमारियों के लिये उत्तरदायी जीन का पता भी लगा है। हम इस बात को जानते हैं कि मानव में कुछ 23 जोड़े गुणसूत्र होते हैं। 23वाँ गुणसूत्र आदमी और औरत में विभेद करता है। यह एक्स-वाई गुणसूत्र होता है। वैज्ञानिक इस बात की खोज कर चुके थे कि गुणसूत्र-1 पर स्थित जीन में उत्परिवर्तन से ‘‘गाउचर्स'' नामक रोग हो जाता है। वैज्ञानिक ह्यूमन जीनों को नक्शे में देखने पर यह भी पता चल जाता है कि गुणसूत्र-2 पर आँतों का रोग फेमिलिअल कोलोने कैंसर, गुणसूत्र-3 पर आँखों का रोग ‘‘रेटिनाइटिस पिगमेंट'' तथा गुणसूत्र-4 पर उत्परिवर्तन से हटिंग्टन्स नामक रोग हो जाते हैं। वैज्ञानिक जीन को गुणसूत्र से पृथक् करने में सफल हो चुके थे। मैं मानवता की भलाई में लग गया। मैं आनुवंशिक रोगों का इलाज करने लगा। मुझे याद आया कि कैसे मैंने मिस मरियम को हटिंग्टन नामक आनुवंशिक रोग से छुटकारा दिलाया। ओह! कितना भयानक रोग है यह। बेचारी मरियम। बेहद सुन्दर लेकिन मासूम। उसकी मम्मी के आँसू रुकने का नाम ही नहीं लेते... बेटी की उससे दशा देखी नहीं जाती...। मानसिक विकलांगता की शिकार हो चुकी थी मरियम। बेचारी मांसपेशियों पर नियन्त्रण खो चुकी थी। उसकी स्मृति भी बहुत कम हो गई थी.. आज भी मैं उसका भोला-भाला चेहरा भुला नहीं पाता हूँ। उसकी खुशी का ठिकाना नहीं रहा, जब मैंने उसे
‘‘हटिंग्टन'' रोग से छुटकारा दिलाया। अब जबकि मैं जीवन के अन्तिम क्षणों से गुजर रहा हूँ तो मुझे याद आ रहा है कि एक-एक करके वे तस्वीरें जिन पर मैंने उपकार किया। मैं कैसे भूल सकता हूँ मि. रोहन को, वह मेरे वैज्ञानिक मित्र का साथी था। उसे ‘‘अलजाइमर'' नामक रोग हो गया था। यह रोग गुणसूत्र-14 पर स्थित जीन की विकृति से होता है। उसकी तंत्रिकायें नष्ट हो चुकी थीं। ओह! कितना खतरनाक रोग था यह, लेकिन मेरी खुशी का ठिकाना नहीं रहा, जब वह ठीक हो गया। यह मेरे लिये एक बड़ी उपलब्धि थी। मेरे उपकारों की श्रृंखला का अन्त नहीं था। मैंने असाध्य आनुवंशिक रोग ‘‘फाइब्रो मेटासिस किस्म-2'' का निदान ढूँढ निकाला। मैं कैसे भुला सकता हूँ मिस ‘‘शिखा'' को। डॉ. प्राणेश की पुत्री...। उसके मस्तिष्क के चारों ओर श्रवण तंत्रिकाओं और ऊतकों में ट्यूमर यानी गाँठ बन गई थी। ऐसा गुणसूत्र-22 पर स्थित जीन की विकृति से हुआ। आखिर मैंने उसे ठीक कर ही डाला। आज भी डॉ. प्राणेश मेरा यह उपकार नहीं भूलते। इस तरह से उपकार करते हुए मुझे स्वयं को आत्मिक खुशी मिलती थी।
ऐसे ही मैंने ‘‘शिल्पा'' को एक घातक रोग ‘‘एमाओट्रोफिकलेटरल स्क्लोरासिस'' से मुक्ति दिलाई थी। यह रोग गुणसूत्र-21 पर जीन की विकृति से होता है। मिस शिल्पा एक समाजसेविका की बेटी थी। यह रोग भी तंत्रिकाओं को नष्ट करने वाला होता है। आज भी वह मेरे घर आती रहती है। अब चूँकि मैं इस दुनिया से विदा ले रहा हूँ-मुझे वे सब चेहरे याद आ रहे हैं जो मेरे घनिष्ठ सम्पर्क में रहे तथा जिन पर मैंने उपकार किया। मैंने उन पर उपकार करके कोई एहसान नहीं किया... एहसान जताने की मेरी प्रवृत्ति भी नहीं है, लेकिन अब जबकि चारों ओर से मुझे बुराई मिलने वाली है और लोग मेरी निन्दा करते थकेंगे नहीं, तो मैं किये गये उपकारों को कैसे भूल सकता हूँ। ऐसा तो था कि मुझमें अच्छाइयाँ थी ही नहीं... या मैं इन्सानियत को खो चुका था... और यदि मैंने उपकारों को नहीं लिखा तो लोग मुझे बुरा व्यक्ति ही समझेंगे। अब मुझे सन्तुष्टि रहेगी कि मैंने लिखकर अपनी अच्छाइयों को दुनिया के सामने रखने का प्रयास किया है। दुनिया शायद ही मेरी इन अच्छाइयों को स्वीकार करेगी, लेकिन अपने मन को अभिव्यक्त करने में बुराई ही क्या है? इस डायरी को लिखने के बाद मुझे दुनिया घृणा के निगाहों से देखेगी। चारों तरह मेरी निन्दा ही निन्दा होगी। नहीं... नहीं, मैं यह सहन नहीं कर पाऊँगा... मैंने एक ऐसा घृणित कार्य किया है जिसकी वजह से लाखों लोगों की जानें चली गईं... अब मुझे जिन्दा रहने का कोई अधिकार नहीं है। हाँ, मुझे मौत को गले लगाना ही होगा.. मुझमें इतनी इंसानियत अवश्य बची थी कि मैं सत्य को उजागर करूँ... एक खौफनाक सत्य को... मैं लाखों व्यक्तियों की जानें चली जाने का जिम्मा अपने सिर लेता हूँ... अब जिन्दा रहने का कोई हक नहीं है मुझे...। हाँ, मैं इस डायरी में एक खौफनाक सत्य को उजागर करने जा रहा था... एक रोंगटे खड़े कर देने वाला रहस्य...। मेरे दिमाग में हर बात किसी सीरियल की भाँति चित्रित हो उठी।
यह उन्हीं दिनों की बात है जब मैं असाध्य आनुवंशिक बीमारियों से पीड़ित मानव को छुटकारा दिलाने में व्यस्त था। मुझे मानव को मानसिक विकलांगता से छुटकारा दिलाते हुए अत्यन्त हर्ष होता। मैं सच्चे अर्थों में मानवता की सेवा कर रहा था। मेरे प्रयासों से सैकड़ों मंदबुद्धि बच्चे सामान्य हो चुके थे, लेकिन एक दिन मेरे दिमाग में एक अद्भुत विचार कौंधा। क्यों नहीं मैं मंदबुद्धि बच्चों को अतिबुद्धिमान बच्चे बनाऊँ... इसके लिये मैंने एक मंदबुद्धि बालक ‘‘मरीचि'' को चुना। वह बालक ‘‘डाउन सिंड्रोम'' नामक घातक बीमारी से पीड़ित था। यह रोग ‘‘गुणसूत्र-21'' पर स्थित जीन की विकृति से होता है। मैंने विकृत जीन को विलगित (पृथक) किया। जीन को विलगित (पृथक्) करने से जहाँ मानव की भलाई हुई, वहीं उसका दूसरा रूप भी उजागर हुआ.
.. एक वीभत्स रूप...। मनुष्य ने इसे स्वार्थपूर्ति का साधन बनाया। उसे जरा भी भान नहीं था कि उसने एक भस्मासुर को आजाद कर दिया और वह मानव जाति को नष्ट करने पर आमादा है।
ऐसी बात नहीं थी कि इसका आभास किसी को नहीं हुआ हो। विश्वविख्यात वैज्ञानिक जेम्स डी. वाटसन को इसका आभास हो चुका था। उन्होंने ‘‘मानव-जीनोम प्रोजेक्ट'' से इस्तीफा दे दिया, लेकिन अन्य वैज्ञानिक कहाँ मानने वाले थे। नेशनल इंस्टीट्यूट ऑफ हेल्थ, अमेरिका की निदेशक बडोरडीन हीले ने जीनोम के खण्डों को पेटेंट करने का प्रस्ताव रखा। एक अन्य वैज्ञानिक ने इसे पास कराने में सफलता हासिल की... फिर क्या था... शैतानी दिमाग अपने खतरनाक मंसूबों को अंजाम देने की सोचने लगा...। मैं स्वयं ही वह व्यक्ति था जो कि एक खौफनाक मंसूबे के तहत कार्य करने लगा। मैंने ही एक भस्मासुर को आजाद किया। मैंने मंदबुद्धि बालक मरीचि के गुणसूत्र-21 पर स्थित विकृत जीन को ‘‘विलगित'' (पृथक्) किया। यही नहीं, मैंने विलगित हुई जगह पर ‘‘सुपर इंटेलिजेंस'' का जीन प्रत्यारोपित कर दिया। यह जीन मैंने कृत्रिम रूप से तैयार किया था। यह अतिमानववादी कार्य था। मैंने अपनी पूरी शक्ति इसे तैयार करने में लगा दी। बालक मरीचि मरीचि के मस्तिष्क को सुपर इंटेलिजेंस या अतिबौद्धिक बनाना ठीक उसी तरह था जैसे सुपर मानव का निर्माण। जब मैं इस कार्य में सफल हो गया तो मेरे आनन्द का कोई ठिकाना नहीं रहा। मैं बल्लियों उछलने लगा। मैंने इस बात को गुप्त रखा क्योंकि ‘‘विश्व स्वास्थ्य संगठन'' इसके खिलाफ था। लेकिन मैंने सोचा कि इसमें हानि ही क्या है? और इसी में चूक हो गई। यह कोई साधारण चूक नहीं थी। मुझे इसके भयंकर परिणामों का तनिक भी आभास नहीं था, क्योंकि मुझे अपने आप पर भरोसा था। मुझे पूर्ण विश्वास था कि मरीचि एक अतिबौद्धिक वैज्ञानिक बनेगा। एक ऐसी प्रज्ञा जो सदियों में ही जन्म लेती है। लेकिन यह तो प्रकृति के साथ खिलवाड़ था... मानव-निर्मित प्रज्ञा...। लेकिन मेरे सिर पर तो सनद सवार थी। मुझे सुपर इंटेलिजेंस मानव बनाना था...। जब से मैंने बालक मरीचि में ‘‘सुपर इंटेलिजेंस'' जीन प्रत्यारोपित किया, वह विलक्षण प्रतिभा दर्शाने लगा। उसकी मंदबुद्धि का लोप हो चुका था। ‘‘डाउन सिंड्रोन'' के अभिशाप से वह मुक्त हो चुका था, और वह सामान्य बालक नहीं रहा, उसमें असामान्य मेधा उत्पन्न हो चुकी थी... विलक्षण मेधा... किसी सुपर मानव की मेधा... वह तेजी से बढ़ने लगा तथा जल्द ही बड़ा दिखने लगा..सुपर ह्यूमन की तरह बलिष्ठ और मेधावी...। लेकिन अचानक उसके व्यवहार में परिवर्तन नजर आया, वह अपनी विलक्षण मेधा का दुरुपयोग करने लगा।
और अब तो वह शैतान का दूसरा रूप था। मुझे लगा कि मैंने एक भस्मापुर को आजाद कर दिया। मस्तिष्क में शैतान घुसने से पहले मरीचि एक सैनिक अस्पताल में संक्रमण रोगों पर अनुसंधान करने में लगा हुआ था। उसने एड्स तथा अन्य संक्रमित रोगों के टीके ईजाद किये। जब मरीचि इंसान था तो वह ‘‘विकासवाद'' की गुत्थी सुलझाने में लगा हुआ था। बंदर कैसे वनमानुषों में और वनमानुष कैसे मनुष्य में बदल गये... आज हम भिन्न प्रकार की जातियाँ देख रहे हैं, क्यों हैं ये भिन्न-भिन्न जातियाँ...? यदि वैज्ञानिक भाषा में कहें तो क्यों है यह बायोडाइवरसिटी? यह भिन्नता कैसे उत्पन्न हुई? वह इसकी तह में जाना चाहता था। उसे प्रख्यात माइक्रोबायोलाजिॅस्ट तथा नाबे ल परु स्कार से सम्मानित वैज्ञानिक बर्नर आर्बर के प्रयासों के बारे में पता था। उसी खोज को उसने आगे बढ़ाया। मरीचि ने देखा कि डाइवरसिटी से सम्बन्धित इन प्रश्नों का जवाब जीवाणुओं में निहित है। फिर वह सोचने लगा क्यों एक जीवाणु दूसरे से भिन्न है? इसका जवाब उसे मिल जायेगा, यदि उसने जीवाणुओं पर कार्य किया। जीवाणुओं पर प्रयोग करने के कई लाभ हैं। वह एक किस्म के जीवाणु से दूसरे किस्म के जीवाणु उत्पन्न कर सकेगा। एक जीवाणु को दूसरे जीवाणु में बदल देगा और यदि एक जीवाणु दूसरे जीवाणु में बदल जाता है तो वह वंश भी बदल सकता है और फिर बंदर यदि वनमानुष में या वनमानुष कालान्तर में मानव में बदल जाता है तो मानव को... किसी अन्य में... इसमें कालान्तर की आवश्यकता नहीं... क्योंकि यह कार्य तो कृत्रिम तरीके से होगा...।
यह फंतासी-सा लगता है... लेकिन जब जूलवर्ने ने रॉकेट की कल्पना की थी तो लोगों ने इसे एक महज कपाले कल्पना समझा था। नौ साल बाद यही कपाले -कल्पना सत्य साबित हुई और फिर वह तो वास्तव में ही जीवाणुओं पर कार्य कर रहा था। हाँ, उसका तर्क सही था-जीवाणुओं के विकासक्रम को अपने जीवनकाल में देखा जा सकता है। जीवाणु तेजी से वृद्धि करते हैं, अतः इनका पीढ़ी-चक्र भी बहुत छोटा होता है। जीवाणुओं में उत्परिवर्तन यानी ‘‘म्यूटेशन'' तीव्रता से होता है तथा हम इसका अध्ययन ‘‘आणविक स्तर'' पर कर सकते हैं। जीवाणु के ‘‘जीनोम'' में जीवन के लिये आवश्यक जीन होते हैं-लेकिन प्रोटीन के कवच से युक्त ऐसे जीन भी पाये जाते हैं, जिनका विकासक्रम से सम्बन्ध होता है। ऐसे ‘‘जीन'' के डी.एन.ए. में विकासक्रम के लिये आवश्यक पुनर्व्यवस्था (रिअरेंजमेंट) होती हैं। ऐसे डी.एन.ए. में पुनर्व्यवस्था की तीव्रता बहुत कम होती है, लेकिन विकास क्रम इसके बिना सम्भव नहीं है। फिर इस ‘‘पुनर्व्यवस्था'' का चयन होता है जो सबसे मजबूत चयन होता है, वह पनप जाती है। इस प्रकार जातियों में परिवर्तन हो जाता है। विकासक्रम के द्योतक के जीन ‘‘आर्किक'' जीन कहलाते हैं। मरीचि ने जीवाणुओं में उत्परिवर्तन करवाया। उसने डी.एन.ए. की ‘‘पुनर्व्यवस्था'' को पीढ़ी-दर-पीढ़ी देखा। उसने देखा कि डी.एन.ए. की कुछ पुनर्व्यवस्था का मजबूत चयन हुआ है और वह स्थायी रूप से पनप गई-यानी जीवाणु की एक जाति दूसरी जाति में बदल चुकी थी। लेकिन खोज करते-करते एक दिन अचानक उसके दिमाग में एक शैतान घुस गया। उसकी झड़प एक उच्च अधिकारी से हो गयी। वह शत्रु-देश की खुफिया एजेंसी से जा मिला। वह अपने देश की महत्त्वपूर्ण सामरिक सूचनाएँ शत्रु-देश को देने लगा। जिस खोज के सहारे वह विकासक्रम की गुत्थियों को सुलझाने में लगा हुआ था, उसकी का उसने दुरुपयोग करना चालू कर दिया।
उसने शत्रु-देश से मिलकर एक रोंगटे खड़े कर देने वाली योजना बनाई। अब वह इस दिल दहला देनी वाली योजना को अंजाम देने में लग गया। उसने ‘‘काली मौत'' के जीवाणु यानी प्लेग के जीवाणुओं पर कार्य करना प्रारम्भ किया। काली मौत का वही जानलेवा जीवाणु जो लातूर में भूकम्प आने से फिर सक्रिय हो गया और जिसने सूरत शहर पर कहर बरपाया। नाम था उसका... येरसिनिया पेस्टिस...। हाँ... ‘‘येरसिनिया पेस्टिस''... प्लेग के ये जीवाणु भारत में ‘‘जिनाप्सिला कीओपिस'' नामक पिस्सू के पेट में पनपते हैं और चूहों में रहते हैं। ये जानलेवा व्यक्ति जीवाणु जंगली चूहों में घरेलू चूहों में संक्रमित हो जाते हैं और फिर वहाँ से मनुष्य में... फिर एक व्यक्ति से दूसरे व्यक्ति में... ये इतनी तेजी से संक्रमित होते हैं कि इन्हें नियंत्रित करना कठिन हो जाती है... और भय की लहर पूरे शहर में फैल जाती है... चारों तरफ दहशत का वातावरण... यह दहशत रुकने का नाम नहीं लेती..आस-पड़ोस के क्षेत्रों से होती हुई पूरे देश में फैल जाती है। सूरत शहर पर काबू पा लिया गया और यह सब प्रतिजैविकों के कारण हुआ था। लेकिन अबकी बार ऐसा नहीं होगा... एक खौफनाक इरादे से मरीचि काम करने लगा और अपने मंसूबे को वह शैतानी जामा पहनाने लगा।
‘‘येरसिनिया पेस्टिस'' में उसने कृत्रिम उत्परिवर्तन कराया। उसने उन्हें प्रतिजैविकों के प्रति प्रतिरोधक बनाया। इस प्रकार जीवाणु के डी.एन.ए. की पुनर्व्यवस्था से एक नई जाति उत्पन्न हुई। उसका नामकरण उसने... स्वयं के नाम पर किया ‘‘मरीचि पेस्टिस''। यह नाम उसने ठीक येरसिनिया पेस्टिस का पता लगाने वाले वैज्ञानिक की तरह रखा। उसे याद आया कि 15 जून 1894 का प्लेग हाँगकाँग पहुँचा, तब वैज्ञानिक एलेक्सेन्द्र येरिसन वहीं थे। उन्होंने उसका नाम स्वयं के नाम पर रखा-येरसिनिया पेस्टिस। मरीचि ने भी ऐसा ही किया। कृत्रिम रूप से तैयार इन जीवाणुओं की एक और विशेषता थी कि ये किसी भी ज्ञात प्रतिजैविक रसायनों के प्रति प्रतिरोधक थे-यानी इन पर प्रतिजैविक-रसायनों का कोई असर नहीं होता था। उसने वृहत् पैमाने पर इन जीवाणुओं को तैयार किया और छोटी-छोटी वायल्स (शीशियों) में एकत्रित किया। उसके चेहरे पर एक कुटिल हँसी इन घातक जीवाणुओं की शीशियों को देखकर थिरक आई। आक्रमण के लिये वायल्स तैयार थे-कृत्रिम जीवाणु के और उतना ही अधीर था मरीचि। वह तैयार हो चुका था मानव का संहार करने के लिये। अपने ही देश से बदला लेने को, अपने ही देश के लाखों लोगों को मौत की नींद सुला देने के लिये। देश का वह दुश्मन बन चुका था। उसने शत्रु देश की इंटेलिजेंस चीफ से सम्पर्क किया। उसे बताया गया कि इस कार्य के लिए उसे पाँच अरब डॉलर दिये जायेंगे। बस, उसे और क्या चाहिये था.. जिधर देखो उधर लूट मची हुई थी सिर्फ पैसों के लिये.. बल्कि यूँ कहा जाये कि आज की दुनिया पैसे की ही हो गई थी, इस समाज में सम्मान केवल पैसे वालों का होता है। इस पैसे से वह न केवल धनी हो सकता था बल्कि एक बहुत बड़ा राजनीतिज्ञ भी बन सकता था..उसकी कई पीढ़ियाँ आराम से गुजर सकती थीं। पैसों ने उसे ठीक उसी तरह सम्मोहित कर दिया था, जैसे मिडास सोने को देखकर हो गया था। बस उसका एक ही उद्देश्य रह गया था-पाँच अरब डॉलर प्राप्त करना। उसे देश की कोई परवाह नहीं थी। वह वैज्ञानिक से भस्मासुर बन चुका था। मानवता का रक्षक ही अब मानवता का भक्षक बन चुका था। मरीचि की दुश्मन देश के इंटेलिजेंस चीफ से एक गुप्त जगह पर बातचीत हुई। दोनों में सौदा पक्का हो गया। अब उन्हें इंतजार था जीवाणु बम गिराने का। यह तय किया गया कि यदि देश के प्रमुख मैट्रोपॉलिटन शहरों में ‘‘जीवाणु बम'' गिरा दिया जाये तो पूरा देश तबाह हो जायेगा और ये मैट्रोपॉलिटन शहर थे-दिल्ली, चेन्नई, मुम्बई और कलकत्ता। घनी आबादी तथा साथ ही उच्च गतिविधियों के केन्द्र।
शत्रु देश में मरीचि पेस्टिस से युक्त इन वायल्स को तस्करी के जरिये पहुँचा दिया गया... इन दिनों तस्करी भी देश में सामान्य थी।
ये वायल्स अपने देश से भी गिराए जा सकते थे, लेकिन तब मरीचि पर शक किया जा सकता था, अतः उसने शत्रु देश में ही इन्हें पहुँचाना उचित समझा। इन वायल्स को दूसरे देश में पहुँचाना बड़ा जोखिम भरा कार्य था लेकिन शत्रु देश के इंटेलिजेंस चीफ ने इस कार्य में उसकी बड़ी मदद की। वहाँ गुप्तचर एजेंटों द्वारा बड़ी सफाई से शत्रु देश में ‘‘मरीचि-पेस्टिस'' की इन वायल्स को पहुँचा दिया गया।
शत्रु देश में ‘‘मरीचि पेस्टिस'' का उपयोग करके जीवाणु बम बनाया गया। वह दिन भी आया जब जीवाणु बम के गिरने की तारीख निश्चित की गई। मरीचि के दिल की धड़कन बढ़ गई थी। अब से थोड़ी देर बाद ही हमारे देश पर ‘‘जीवाणु बम'' गिरा दिया जायेगा। आश्चर्य था कि भारतीय गुप्तचर शाखाओं को इसका तनिक भी आभास नहीं हुआ और फिर यह युद्ध का समय भी नहीं था। हाँ, कश्मीर को लेकर तनाव अवश्य बना हुआ था, लेकिन ऐसा नहीं लग रहा था कि युद्ध जैसा माहौल हो। सीमा पर सैनिक टुकड़ियाँ जमा हो गई थीं।
घड़ी की सूइयों के घूमने के साथ ही दिल की धड़कन और तेज हो गई थी। अब तो सैकंड की सूई घूम रही थी... एक एथलीट की घड़ी की तरह... शत्रु देश से प्रक्षेपास्त्र तैयार थे जीवाणु बम छोड़ने के लिये। किसी को कानों-कान खबर नहीं थी... चारों तरफ शांति का माहौल हो तो कौन सोच सकता था कि अनभ्र वज्रपात हो जायेगा। उसे लगा जैसे परमाणु बम फटने वाला हो... घड़ी की सूई जैसे ही निर्धारित समय पर पहुँची उसे लगा कि उसके दिल की धड़कन रूक गई... शत्रु देश से जीवाणु बमों के लिये प्रक्षेपास्त्र छूटे...। चारों महानगरों पर एक साथ-दिल्ली, चेन्नई, मुम्बई तथा कलकत्ता...। जैसे ही जीवाणु-बम फूटे... उसे लगा कि परमाणु बम फूटे हों..जैसे हिरोशिमा पर हुआ... इनोला में से ‘‘लिटिल-बॉय''। इनोला ही वह विमान था जबकि लिटल बॉय परमाणु बम.
..। जैसे ही जीवाणु बम फूटे... महानगर प्लेग की चपेट में आ गये... देश के चारों मैट्रोपॉलिटन नगर..दिल्ली, कलकत्ता, मुम्बई और चेन्नई।
चारों मैट्रोपॉलिटन नगरों में ‘‘प्लेग'' तेजी से फैला। चूहे तेजी से मर रहे थे। ... प्लेग के बैसिलस (जीवाणु) चूहों पर स्थित पिस्सुओं के पेट में पहुँच गये और फिर जिस व्यक्ति को भी पिस्सू काटते उसे प्लेग का शिकार बना देते... केवल पिस्सुओं से ही नहीं... यह तो अब बिना पिस्सुओं के भी फैल रहा था... चारों महानगरों में दहशत फैली हुई थी... मानों भूकम्प आ गया हो... कोई घर ऐसा नहीं बचा जो प्लेग यानी काली मौत की चपेट में न आया हो। लेकिन यह कैसा प्लेग था? ...जो काबू में ही नहीं आ रहा था। प्रतिजैविकों का ‘‘मरीचि पेस्टिस'' जीवाणुओं पर कोई असर नहीं हो रहा था। प्लेग के किसी रोगी को छः-छः घण्टों से टेट्रासाइक्लिन 500 मि.ग्रा. की गोलियाँ दी जा रही थी तो किसी को क्लोरोस्फिनिकॉल। कुछ डॉक्टर प्लेग के मरीजों को ‘‘सल्फाकार्टिनोक्साजोल'' दे रहे थे तो कुछ ट्राइमिथोप्रिम-एन्टीबायोटिक तो कुछ वार्डों में मरीजों को ‘‘सिप्रोफ्लोसानिन'' दी जा रही थी-लेकिन बेअसर।
डॉक्टर हैरान थे। डॉक्टर मरीजों को प्लेग से बचाने का भरसक प्रयास कर रहे थे। कुछ व्यक्तियों के संक्रमण के दूसरे या तीसरे दिन जाँघ और बगल में गिल्टियाँ निकल आतीं, फिर तेज ज्वर से रोगी तड़फने लगते और अन्त में मौत को गले लगा लेते।
डॉक्टर प्लेग की गिल्टियों पर आयोडीन, ग्लिसरीन या बैलेडोना लगा रहे थे। अवरक्त किरणों का भी प्रयोग किया जा रहा था। गिल्टियों से मवाद निकलने पर शल्य चिकित्सक चीरा लगाकर मवाद निकाल रहे थे तथा स्थानीय एन्टीबायोटिक पाउडर से उसकी डे्रसिंग कर रहे थे, लेकिन मरीजों को कोई फायदा नहीं हो रहा था। डॉक्टर समझ नहीं पा रहे थे कि यह कैसा प्लेग है... यह प्लेग का कैसा जीवाणु है, जिस पर ज्ञात एन्टीबायोटिक का कोई असर नहीं हो रहा था। डॉक्टर असहाय होते जा रहे थे... पूरी-पूरी रात जागकर भी सेवा करने को कोई परिणाम सामने नहीं आ रहा था। बड़े से बड़े डॉक्टर ने हथियार डाल दिये थे। सभी डॉक्टर सकते में थे। किसी भी डॉक्टर का उपचार सफल नहीं हुआ। मरीज उनकी आँखों के सामने दम तोड़ रहे थे। उनकी समझ में नहीं आ रहा था कि अब क्या करें। उनकी रातों की नींद हराम हो चुकी थी। चारों तरफ हताशा और निराशा का वातावरण था। चारों तरफ घरों से चीखें उठ रहीं थीं। चारों ओर मौत का तांडव नृत्य खेला जा रहा था। भोर की किरण के साथ ही लाशों का ढेर लग जाता। चारों मैट्रोपॉलिटन नगरों में प्लेग पूरे उफान पर था। न्यूमेटिक प्लेग कहर बरपा रहा था। लाखों लोग दो- तीन दिन में ही चल बसे। लाखों व्यक्ति महानगर से बाहर निकलने का प्रयत्न कर रहे थे। प्रशासन को उन्हें रोकने के लिये बन्दूकों से गोलियाँ चलानी पड़ीं। लेकिन सैलाब को भला कोई रोक पाया है। लाखों की संख्या में लोग अश्रुगैस के गोलों और दनदनाती गोलियों के बीच निकल भागे। इससे रहस्यमयी प्लेग अब अन्य शहरों में फैल गया। महानगरों में सफाई अभियान युद्ध स्तर पर चल रहा था, लेकिन उतने ही जोरों पर था रहस्यमयी प्लेग। पहले लोगों को ठंड लगकर बुखार चढ़ता। कई बार उल्टियाँ होने लगती, सीने में दर्द होता, सूखा कफ बनता, उन्हें साँस लेने में कठिनाई होती, नाखून और जीभ नीले पड़ जाते, उनका थूक खून जैसे रंग का होता, रक्त के धब्बे दिखाई देने लगते और अन्त में वे इस संसार से विदा ले लेते। उनकी संख्या हजारों में नहीं बल्कि लाखों में थी।
महानगर में पिस्सुओं को मारने के लिये जिंक फॉस्फेट का प्रयोग किया जा रहा था। डी.डी.टी. और मेलाथिऑन रसायनों का प्रचुर मात्रा में प्रयोग किया जा रहा था। लेकिन इतने प्रयासों के बावजूद कोई परिणाम नहीं निकल रहा था। मरीजों की संख्या बजाय घटने के बढ़ती चली जा रही थी। पूरे देश में चिन्ता और दहशत का माहौल व्याप्त हो चुका था। विदेशों ने फ्लाइट्स बन्द कर दी थी। पर्यटन पूरी तरह से ठप हो गया था।
प्लेग तेजी से एक शहर से दूसरे शहर में पहुँच रहा था। काली मौत के साये में जी रहे थे शहर... कस्बे..और गाँव...। इसने याद दिला दी उस प्लेग की जिसने पूरे यूरोप को तबाह कर दिया था। भारत में भी यह महामारी के रूप में फैला था।
लेकिन यह रोग तो मानव द्वारा फैलाया जा रहा था... जो इंसान से हैवान बन चुका था। मानव ही मानव का भक्षक बन चुका था। चन्द रूपयों की खातिर उसने लाखों लोगों को मौत के मुँह में धकेल दिया।
डॉक्टर समझ नहीं पा रहे थे कि यह कैसा जीवाणु है। प्रतिजैविकों का इस पर असर क्यों नहीं हो रहा है? प्लेग के विरुद्ध इर्जाद किये गये टीकों भी असर क्यों नहीं हो रहा था? इतना तो उनकी समझ में आया कि यह कोई नया जीवाणु है लेकिन यह विश्व में ज्ञात किसी जीवाणु की किस्म नहीं है। भारतीय वैज्ञानिक शोध में लगे हुए थे, और तो और, सभी मरीचि से आशा लगाये हुए थे। कितना बड़ा धोखा खा रहे थे डॉक्टर। मरीचि ने आश्वासन दिया कि वह शीघ्र ही इसकी दवा तैयार करने में सफल होगा, लेकिन उसे एक कृत्रिम उपग्रह में जाना होगा, क्योंकि उसे आशा थी कि वह भारहीनता में इस औषधि का निर्माण अवश्य कर सकेगा।
क्या वह ऐसा करेगा? क्या मानवता का हत्यारा ही मानवता का रक्षक बनेगा? या यह भी उसकी चाल है? कौन जानता है कि वह मानवता का संहारक बन चुका है। शैतान उसके भीतर जन्म ले चुका है। लोग उसे महान वैज्ञानिक ही समझते थे और जीवाणु विज्ञान के क्षेत्र में तो उसका कोई सानी ही नहीं था। कहीं वह उपग्रह पर इसीलिये तो नहीं गया ताकि वहाँ जाकर वह अनेक राष्ट्रों में इन जीवाणुओं को फैला दे और पूरे विश्व का भस्मासुर बन जाये। उसके खौफनाक इरादों को कौन जान सकता था। हमारी इंटेलिजेंसी तथा रॉ को तनिक भी शक नहीं हुआ कि महान वैज्ञानिक अब भस्मासुर बन चुका है। ...मानवता का हत्यारा...। अचानक मरीचि करोड़पति हो गया था। अब वह अरबपति बनना चाहता था। पैसों के लालच ने उसे अंधा बना दिया था। हाँ, वह देख रहा था कि समाज में प्रतिष्ठा सिर्फ पैसों से बंधी है और इतना पैसा ईमानदारी से नहीं कमाया जा सकता। वह पूरी जिन्दगी प्रयोगशाला में खपा देगा-लेकिन उसे क्या मिलेगा? समाज से वह पूरी तरह अलग-थलग पड़ जायेगा और उसकी जिन्दगी एक प्रयोगशाला तक सिमट कर रह जायेगी। नहीं, वह ऐसा नहीं होने देगा। वह करोड़पति से अरबपति बन जायेगा। वह एक खौफनाक इरादे से कृत्रिम उपग्रह में चला गया। अब केवल एक देश ही उसकी परिधि में नहीं होगा, बल्कि अनेक देश उसके खौफनाक इरादों की चपेट में आ जायेंगे। हमारे देश में सर्वत्र तबाही मची हुई थी। रहस्यमयी प्लेग से हर रोग लाखों लोग मर रहे थे। हर रोज एक न एक शहर या गाँव इसकी चपेट में आ रहा था। किसी को भी इसका कोई उपाय नहीं सूझ रहा था। अब विश्व स्वास्थ्य संगठन ने रुचि लेना आरम्भ कर दिया था। अनेक देशों से वैज्ञानिक भारत आये तथा रहस्यमयी जीवाणु पर प्रयोग करने लगे।
शत्रु देश से युद्ध आरम्भ हो चुका था। शत्रु देश को यह आशा थी कि इस बार वह अवश्य कश्मीर को आजाद करा लेगा, क्योंकि उसे हितैषी राष्ट्रों से अत्याधुनिक शस्त्रों की नई खेप भारी मात्रा में मिली थी। अमेरिका तथा चीन नहीं चाहते थे कि भारत उपमहाद्वीप में एक महाशक्ति बन जाये। एक तरफ निरस्त्रीकरण के लिये तीसरे राष्ट्रों को बाध्य करना तथा दूसरी ओर खुफिया तौर पर मित्र राष्ट्रों को घातक परमाणु अस्त्रों की तकनीक उपलब्ध कराना अमेरिका-चीन की दोहरी नीति को उजागर करता था। लेकिन इस बार भी युद्ध में जीत का सेहरा भारत के सिर बँधा। रक्षा के मामले में भारत की स्वदेशी (इंडिजीन्स) तकनीक वरदान साबित हुई।
भारत में ही स्वदेशी तकनीक से निर्मित क्रायोजैनिक रॉकेटों से उपग्रहों के मामले में वह विश्व बाजार में उतर चुका था और स्वदेशी टैंकों, देशी लड़ाकू विमानों, स्वदेशी प्रक्षेपास्त्रों एवं स्वदेशी रक्षा-उपकरणों ने युद्ध में अपनी अहम भूमिका निभाई थी। शत्रु-देश भारत की विजय से स्तब्ध रह गया। जीवाणु बम के उपयोग से भी कोई खास सहायता नहीं मिली। उसने सोचा था कि जीवाणु-बम के प्रयोग से भारत ठीक जापान की तरह हार मान लेगा। अमेरिका ने जब हिरोशिमा पर बम गिराया तो उसकी आशा के मुताबिक जापान ने हार मान ली थी। शत्रु देश ने सोचा तो यही थी कि इसी तरह जीवाणु बम गिराने से भारत भी हार मान लेगा, लेकिन ऐसा नहीं हुआ।
युद्ध में भारत ने शत्रु-देश के बहुत बड़े हिस्सों पर कब्जा कर लिया था, लेकिन एक शांति समझौते के अंतर्गत उसने वह जमीन लौटा दी। लेकिन जीवाणु-बम की मार को जनता सह रही थी। यह आश्चर्य था कि अभी तक जीवाणु बम की साजिश का पता नहीं चला। सभी जानते और समझते थे कि शत्रु देश का इसमें हाथ था। संयुक्त राष्ट्र संघ द्वारा ‘‘जीवाणु युद्ध'' पर पूर्ण पाबन्दी लगी हुई थी। लेकिन शत्रु-देश ने अन्तर्राष्ट्रीय मान्यताओं का उल्लंघन कर जघन्य अपराध किया था।
यह स्पष्ट हो चुका था कि शत्रु देश की इंटेलिजेंस का ही इसमें हाथ था। भारतीय गुप्तचर विभाग (इंटेलिजेंस) का पूरा ध्यान शत्रु-देश के खुफिया तन्त्र पर केन्द्रित हो गया। भारत के गुप्तचर विक्रम ने इस साजिश का भंडाफोड़ करने का बीड़ा उठाया। वह शत्रु-देश की गुप्तचर संस्था में सेंध लगाने में सफल हो गया। उसका पग-पग पर ‘‘बग'' तथा अन्य खोजी उपकरण साथ दे रहे थे। एक दिन उसे शत्रु-देश के गुप्तचर दफ्तर में एक ‘‘बग'' विद्युत तारों के गुच्छों के बीच मिला। इसे विक्रम ने निकाल लिया। पता नहीं यह कैसे डिफ्यूज होने से बच गया। बैग में टेप किये हुए कुछ कोड थे। अब इस कोड की सीक्रेसी को समझना बाकी था। आखिरकार भारतीय गुप्तचर इस कार्य में सफल हो गये। यह जानकर उन्हें आश्चर्य हुआ कि इसका सम्बन्ध भारत से ही था और भारतीय सेना की मेडिकोस यूनिट के वैज्ञानिकों से था। विक्रम इन गुप्त रहस्यों के साथ भारत आ गया। अब उसे सेना के मेडिकोस यूनिट की छानबीन करनी थी। मेडिकोस यूनिट के सारे संकेत माइक्रो-बॉयलॉजी यूनिट की ओर इंगित होते थे। अब विक्रम का पूरा ध्यान माइक्रोबायलॉजी यूनिट की ओर केन्द्रित हो गया। लेकिन माइक्रोबायलॉजी यूनिट के अध्यक्ष तो विश्वविख्यात वैज्ञानिक मरीचि थे। तो क्या मरीचि इस षड्यन्त्र में शामिल हैं? नहीं, नहीं, उन पर संदेह करना गलत होगा और फिर वे तो इसी रोग से छुटकारा दिलाने के लिए एक कृत्रिम उपग्रह पर चले गये। पर सारे संकेत तो मरीचि की ओर ही इंगित हो रहे थे। वर्तमान में प्रतिनियुक्ति पर डॉक्टर वेंकटेश कार्य कर रहे थे।
डॉक्टर वेंकटेश से गुप्त रूप से इस बारे में मदद चाही गई। उपग्रह पर जाने से पहले मरीचि ने सारे सबूत मिटा दिये थे। लेकिन होशियार से होशियार व्यक्ति भी कहीं-न-कहीं चूक कर ही बैठता है।
डॉक्टर वेंकटेश प्रसाद ने इस षड्यन्त्र की तह में जाने का निश्चय किया, यदि उसका सम्बन्ध उसी की यूनिट से हो तो...।
मरीचि की यूनिट के सभी सीक्रेट कोड, टेप, फ्लॉपी, डिस्क तथा फाइलों को तलाशा गया... लेकिन उन्हें कुछ भी हासिल नहीं हुआ। लेकिन एक दिन एक ‘‘वायल'' (शीशी) पर विक्रम की नजर पड़ी। ऊपर से वह अन्य शीशियों की तरह ही दिखाई पड़ रही थी, लेकिन जेब में रखे इन्फ्रारेट डिटेक्टर ने उसमें कुछ फर्क महसूस किया। डॉक्टर वेंकटेश का उस वायल पर कोई शक नहीं था। उसमें जीवाणु का सामान्य कल्चर था। विक्रम ने उस वायल को अपने पास रख लिया। गहराई से परीक्षण करने पर उसका ध्यान लेबल पर गया। एक लेबल पर दूसरा लेबल चिपका हुआ था। उसने ऊपर वाले लेबल को हटाया तो उस पर ‘‘एम.पी'' लिखा हुआ था। एक बात और थी, इस वायल का काँच भी वह नहीं था जो वर्तमान में रखी हुई अन्य वायल्स का था।
प्लेग के कारण सभी वायल्स खारिज कर दी गई थीं और नई वायल्स लाई गई थीं, लेकिन यह वायल पुरानी ही थी।
बाहर से यह वायल नई वायल्स के समान ही दिखाई पड़ती थी, लेकिन इन्फ्रारेड ने काँच के अन्तर को पकड़ दिया। उसने पुराने काँच की वायल को गौर से ध्यानपूर्वक देखा। तब वायल्स के फाइलों में आदेशों को देखा। इस तरह के काँच की वायल्स की खरीद के लिये एक विशिष्ट कम्पनी को ऑर्डर हुए थे। उसे आश्चर्य हुआ कि इतन सारी वायल्स का एक साथ ऑर्डर। फिर कहाँ गई ये वायल्स? कम्पनी से पता करने पर उसकी सत्यता जाहिर हुई कि ये वायल्स वास्तव में उसी कम्पनी की थीं और उसे एक बड़ा आर्डर दिया गया था।
यह बड़ा आर्डर क्यों दिया गया था? फिर कम्पनी से प्राप्त उन वायल्स (शीशियों) का क्या हुआ? यह आर्डर भी मरीचि के द्वारा ही दिया गया था। वायल पर लिखे लघुनाम ‘‘एम.पी.'' से क्या आशय है? क्या इस तरह का कोई जीवाणु हो सकता है-लेकिन ‘‘एम'' का क्या आशय है यह उसने वेंकटेश से पता किया तो वेंकटेश ने बताया कि इस नाम का कोई जीवाणु ज्ञात नहीं है, लेकिन ‘‘एमपी.'' का कोड अवश्य मिल सकता है। उन्होंने फ्लॉपी डिस्क में ‘‘एम.पी.'' का आशय ढूँढा, पर फ्लॉपी डिस्क पर नाम मिटने से चूक गया। उस पर ‘‘एम.पी.'' लिखा मिल गया। कम्प्यूटर में इसे फीड किया गया। कम्प्यूटर एनेलिस्ट ने इसे आखिर बता ही दिया... ‘‘मरीचि पेस्टिस''। ओह! तो यह जीवाणु मरीचि ने इर्जाद किया था। अब तो यह भी स्पष्ट हो गया कि कम्पनी से खरीदी गई वायल्स में ‘‘मरीचि-पेस्टिस'' ही थी। खतरनाक प्लेग के बैसिलस। अब यह पता लगाना शेष था कि ये वायल्स गई कहाँ? क्या वे नष्ट कर दी गईं। मरीचि के अनुसार तो वे नष्ट कर दी गईं। रिकार्ड में भी यही दर्ज था। लेकिन रिकार्ड में कहीं ‘‘मरीचि पेस्टिस'' का नाम नहीं था। नाम तो सामान्य जीवाणु का ही थी। विक्रम को विश्वास नहीं हुआ, उसने और तहकीकात की और वायल्स भंडार में ही आये और स्टोर-कीपर से पूछताछ की। उसे रिमाण्ड पर रखा गया। वह केवल इतना ही बता पाया कि मरीचि के असिस्टेंट ने भंडार में वायल्स रखवाई अवश्य थी लेकिन उसी दिन उन्हें प्रयोग शाला में पहुँचा दिया गया। असिस्टेंट का नाम था-राघवन। लेकिन उसे पता चला कि राघवन की मृत्यु हो चुकी है और वह भी एक्सीडेंट से। एक ट्रक उनकी कार से भिड़ गया था। पुलिस ने इसे महज एक एक्सीडेंट के रूप में लिया। इस दुर्घटना में बेचारा ड्राइवर मारा गया, लेकिन यह वास्तव में राघवन की हत्या थी। एक व्यक्ति ने ट्रक ड्राइवर से लिफ्ट माँगी। ट्रक ड्राइवर ने उसे भीतर बिठा लिया। वे कुछ दूर ही चलें होंगे कि उनसे झड़प हो गई। उसने पिस्तौल की नोक पर ड्राइवर को कहे अनुसार ट्रक चलाने का आदेश दिया। जैसे ही ट्रक कार के निकट आया उसने स्टेयरिंग अपने हाथ में ले ली। ड्राइवर सीट पर बैठे हुए उससे संघर्ष भी करता रहा। जैसे ही ट्रक कार के निकट आया, वह व्यक्ति कूदा और अंधेरे में गायब हो गया। लेकिन ड्राइवर नहीं संभल पाया। ट्रक पूरी स्पीड पर था। इससे पहले कि वह ब्रेक मारता, ट्रक ने पूरी ताकत के साथ कार को टक्कर मार दी। कार चकनाचूर हो गई। असिस्टेंट राघवन की मृत्यु हो चुकी थी, साथ ही ड्राइवर भी मारा गया। यह साफ हत्या का केस था-लेकिन पुलिस की फाइल में यह महज एक एक्सीडेंट का केस दर्ज हुआ। वास्तव में मरीचि के कहने पर असिस्टेंट राघवन ने ही वायल्स शत्रु-देश में पहुँचाये। दरअसल वह एक सीक्रेट एजेन्ट था जो शत्रु-देश के लिये कार्य करता था। विक्रम ने ट्रक की फिर से चैकिंग की। ट्रक भी दुर्घटना में क्षत-विक्षत हो गया था तथा उसका अभी तक उपयोग नहीं हुआ था। यह विक्रम का सौभाग्य था। स्टेयरिंग व्हील के फिंगर प्रिन्ट अभी मिटे नहीं थे। इसके अतिरिक्त जूतों के निशान भी मौजूद थे। विक्रम फिंगर प्रिन्ट और जूतों के निशान से उस व्यक्ति का पता लगाने में कामयाब हुआ। वह व्यक्ति वास्तव में शत्रु-देश के लिये गुप्तचरी करता था। विक्रम ने पुलिस की मदद से शत्रु-देश के उस सीक्रेट एजेन्ट को धर दबोचा। पुलिस रिमाण्ड में उसने सच उगल दिया। उसने ही शत्रु देश में वायल्स पहुँचाई थी तथा शत्रु-देश को गुप्तचर संस्था के हवाले की थी। शत्रु-देश ने जीवाणु-बम बना डाले और फिर वह दिन भी आया, जब शत्रु-देश ने हमारे देश के चारों महानगरों पर जीवाणु-बम गिरा डाले और इन सब के पीछे मरीचि का हाथ था। उधर मरीचि निश्चिन्त था तथा इस बात से बेखबर था कि उसके ऊपर शक किया जा चुका है। वह अपने खतरनाक मंसूबे में लगा हुआ था तथा अन्य देशों को अपना निशाना बनाने की योजना बना रहा था। उसका इरादा अब अमेरिका, इंग्लैंड, जापान, चीन, मास्को आदि पर जीवाणु बम गिराने का था। उसके विकास-क्रम की खोज अधूरी रह गई। वह उसे कभी का तिलांजलि दे चुका था। उपग्रह में टीके की खोज केवल एक बहाना था। अचानक उसे उपग्रह में ही गिरफ्तार कर लिया गया। दूसरे दिन दुनिया भर के समाचार-पत्रों, टेलीविजन चैनल द्वारा यह सनसनीखेज खबर फैल गई कि प्रख्यात वैज्ञानिक मरीचि ने शत्रु-देश के साथ मिलकर भारत पर जीवाणु-बम गिरा दिये। अब उसका खौफनाक इरादा कई यूरोपीय तथा एशियन देशों को निशाना बनाना था। जब मैंने इस खबर को पढ़ा तो मेरी काटो तो खून नहीं वाली स्थिति हो गई। ओह! यह मैंने क्या किया? क्यों मैंने एक सुपर इंटेलिजेंट मानव को विकसित किया? मैं नहीं जानता था कि मैं एक शैतान को विकसित कर रहा हूँ। मैंने तो केवल यही सोचा था कि मेरे अनुसंधान का फायदा मानवता को मिलेगा और फिर मरीचि प्रारम्भ में ऐसा कर भी रहा था। वह विकासक्रम पर अनुसंधान में जुटा हुआ था।
यदि वह इस अनुसंधान को जारी रखता तो विकासक्रम की गुत्थियों को सुलझाने में कामयाब हो जाता, लेकिन पता नहीं कब यह शैतान उसके मस्तिष्क में प्रविष्ट हो गया। ओह! उसने यह क्या कर डाला? वह सम्पूर्ण मानव जाति को नष्ट करने में लगा हुआ है। भारत के चार महानगर मरघट बन चुके थे। लाखों लोग अब तक रहस्यमयी प्लेग से मर चुके थे। लाखों अभी इसकी मार को सह रहे थे और अब वह अन्य राष्ट्रों को भी अपनी चपेट में ले रहा था। ओह! मैंने यह क्या किया। एक जघन्य अपराध। परोक्ष रूप से मैं ही इसके लिए जिम्मेदार था। मैंने क्यों एक सुपर इंटेलिजेंट मानव विकसित किया? न ही मैं उसे विकसित करता और न ही यह त्रासदी होती। लाखों लोगों की मृत्यु का मैं ही परोक्ष रूप से जिम्मेदार हूँ..लाखों लोग मर रहे हैं और मैं उन्हें मरते हुए देख रहा हूँ। नहीं... नहीं मैं अब और सहन नहीं कर सकता। मुझे लगा, यदि मैं जीवित रहा तो मेरी नसें फट जायेंगी। आने वाला समय उन्हें कभी माफ नहीं करेगा। जीवन में जितना सम्मान अर्जित किया, वह मेरे केवल एक कृत्य से धूल-धूसरित हो जायेगा जिसे मैं बर्दाश्त नहीं कर पाऊँगा। सम्पूर्ण विश्व की उँगलियाँ मेरे ऊपर उठ रही होंगी। सम्मान की भी बात नहीं होती, लेकिन मैंने तो एक जघन्य अपराध किया था। एक ऐसा अपराध जो मानवता कभी स्वीकार नहीं करेगी। मैं अपराध के बोझ तले दबा जा रहा हूँ... अब मैं इस बोझ को और नहीं उठा सकता। अब मौत को गले लगाना ही होगा।
मैंने सामने रखी हुई जहर की शीशी उठाई और उसे होंठों से लगाया...। मेरी नब्ज छूटती जा रही थी... पलकें बंद हो रही थीं... अच्छा, अब मैं इस संसार से विदा ले रहा हूँ... हो सके तो आप मुझे माफ कर देना... अलविदा...।
ई-मेल ः harishgoyalswf@gmail.com
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(विज्ञानकथा अक्तूबर दिसंबर 2017 से साभार)
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