१- नन्हा भरतू और भारत बंद डा कविता भट्ट हे०न० ब० गढ़वाल विश्वविद्यालय श्रीनगर गढ़वाल उत्तराखंड mrs.kavitabhatt@gmail.com सुबह से शाम ...
१- नन्हा भरतू और भारत बंद
डा कविता भट्ट
हे०न० ब० गढ़वाल विश्वविद्यालय
श्रीनगर गढ़वाल उत्तराखंड
mrs.kavitabhatt@gmail.com
सुबह से शाम तक, कूड़े से बोतलें-खिलौने बीनता नन्हा भरतू
कतार में नहीं लगता, चक्का जाम न भारत बंद करता है
दरवाजा है न छत उसकी वो बंद करे भी तो क्या
वो तो बस हर शाम की दाल-रोटी का प्रबंध करता है
पहले कुछ टिन-बोतलें चुन जो दाल खरीद लेता था
अब उसके लिए कई ग्राहकों को रजामंद करता है
बचपन से सपने बुनते- बैनर इश्तेहार बदलते रहे
गिरे बैनर तम्बू बना, सर्द रातों में मौत से जंग करता है
सड़क पर मिले चुनावी पन्नो के लिफाफे बनाकर
मूंगफली-सब्जी-राशन वालों से रोज अनुबंध करता है
कूड़े की जो बोरी नन्हे कंधे पर लटकते-२ फट गयी
बस यही खजाना उसका, टाँके से उसके छेद बंद करता है
इतनी बोतलें- हड्डियाँ कूड़े में, यक्ष प्रश्न है- उसके जेहन में
बेहोशी-मदहोशी या नुक्कड़ की हवेली वाला आनंद करता है
निश्छल भरतू पूछ बैठा, कूड़े में नोट? आखिर क्या माजरा है?
तेरे सवाल का पैसा नहीं, अम्मा बोली- काहे दंद-फंद करता है ?
एक सवाल लाख का उनका, तेरे से क्या उनकी क्या तुलना?
बूढ़े बापू, उम्र ढली कूड़े में, तू क्यों अपना धंधा मंद करता है
इसीलिए नन्हा भरतू कूड़े, दाल और रोटी में ही खोया है
कतार में नहीं लगता, चक्का जाम न भारत बंद करता है
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२- आर-पार
जब सुलह के निष्फल हो जाया करते हैं, सभी प्रयास
शान्ति हेतु मात्र युद्ध उपाय, इसका साक्षी है इतिहास
एक सुई की नोंक भूमि नहीं दूंगा दुर्योधन हुंकारा था
हो निराश शांतिदूत कृष्ण ने कुंती का नाम पुकारा था
वीर प्रसूता जननी- तेज़स्विनी नारी का उपदेश था
“धर्मराज! तुम युद्ध करो” ये महतारी का सन्देश था
तुम निर्भय बन अत्याचारी की जड़ उखाड़ कर फेंको
कर्त्तव्य और धर्म पथ पर तुम आत्मत्याग कर देखो
साहस भरे इन वचनों से कृष्ण प्रभावित हुए अपार
आगे चलकर ये गीता- कर्मयोग के बने थे आधार
मात्र पांच गाँव की बात थी महाभारत के मूल में
कश्मीर लगा सम्मान दांव पर, सैनिक प्रतिदिन शूल में
कितने सैनिक लिपटे, लिपट रहे और लिपटेंगे अभी
तिरंगा पूछ रहा- अधिनायक! सोचो मिलकर जरा सभी
रात का रोना बहुत हो चुका अब सुप्रभात होनी चाहिए
बलिदानों पर लाल किले से निर्णायक बात होनी चाहिए
अंतिम स्टिंग, एक बार में ही सब आर-पार हो जाये बस
कोबरे-किंग-साँप-संपेरे-बाहर-भीतर,प्रलयंकार हो जाये बस
तुम निर्भय हो, उठो कृष्ण बन लाखों अर्जुन बना डालो
चिर-शांति स्थापना के लिए अब सीमा को रण बना डालो
३- प्रेम है अपना
वेदों की ऋचा सा है प्रेम अपना, मधुर ध्वनि में इसको गाना
अक्षर-अक्षर पावन मन्त्रों सा , आँख मूँद हमें है जपते जाना
गंगाजल सा शीतल मन है,
और दीप्त शिखा सा मेरा तन है
पत्र - पुष्प कांटों में से चुनती हूँ ,
जीवन विरह का आँगन-उपवन है
भगवतगीता के अमृत-रस सा, घूँट-घूँट तुम पीते जाना
वचन-वचन पावन श्लोकों सा, तर्कों में इसको न उलझाना
तुमने कानों में रस घोला था
होंठों पर मुस्कान सजायी
रोम- रोम प्रियतम बोला था
कामनाओं ने ली अंगडाई
उपनिषदों के तत्त्वमसि सा, साँस- साँस तुम्हे है रटते जाना
तुम चाहो इसको जो समझो , मैंने तुम्हे परब्रह्म सा है माना
४- इनमें खो जाऊं
ये घुन्घरू बजाती अप्सराओं सी नदियाँ
अभिसार को आतुर ये बादल की गतियाँ
बर्फीले बिछौनों पर ये अनुपम आलिंगन
सुरीली हवाओं के उन्नत पहाड़ों को चुम्बन
ये घाटी, ये चोटी ये उन्नत हिमाला
कन्या सी कड़ी शांति लिए पुष्पमाला
कभी गुनगुनाती, कभी गुदगुदाती
धूप प्रेयसी सी उँगलियाँ फिराती
मंगल गाते वृक्ष-लताएँ लिपटे समवेत
स्वर्ग को जाती सुन्दर सीढियों से खेत
युगल-पक्षियों की प्रणय रत कतारें
मृग-कस्तूरी सी सुगन्धित अनुपम बयारें
अपनी ही प्रतिध्वनि कुछ ऐसे लौट आये
जैसे प्रेयसी को उसका प्रियतम बुलाये
इस प्रतिध्वनि में डूब ऐसे खो जाऊं
पद-धन-मान छोड़ बस इनमें खो जाऊं
५- अनुबन्ध
मानव के वश में होता तो प्रकृति पर भी होते प्रतिबन्ध
कौन लता किस पेड़ से लिपटे, इसके भी होते अनुबन्ध
घटा न मचलती और न घुमड़ती
चंचल हवा चूम आँचल न उड़ती
भंवरे कली से नहीं यों बहकते
तितली मचलती न पंछी चहकते
किससे, कब, कैसे हाथ मिलाना? व्यापारों से होते सम्बन्ध
कौन लता किस पेड़ से लिपटे, इसके भी होते अनुबन्ध
झरने न बहते, नदियों पर पहरे
सीपी, न मोती सागर होते गहरे
चाँदनी मुस्कुराती न तारे निकलते
बिन शर्त सूरज-चाँद उगते न ढलते
मुखोटे पहने ये रंगीन चेहरे, नकली फूलों में कैसी सुगन्ध
कौन लता किस पेड़ से लिपटे, इसके भी होते अनुबन्ध
उन्मुक्त बहना है प्रफुल्ल रहना
जीवन की शर्त है जीवन्त रहना
हृदय की ध्वनि को यों न दबायें
बिन स्वार्थ कुछ क्षण संग बिताएं
सहजीवी बनें और बस प्रेम बांटे, झूठे व्यापारों में कैसा आनन्द
कौन लता किस पेड़ से लिपटे, इसके तो ना करो अनुबन्ध
६- मेरी बीमार माँ
मेरी नींद खुली तो दिल में हलचल बड़ी थी,
घबरा के देखा मैं अस्पताल के सामने खड़ी थी
उसी समय नर्स ने रजिस्टर देखकर पुकार लगायी
ईनाम की औरत के साथ कौन आया है भा“हिंदी”
आस-पास मेरे तथाकथित भाई बहन चिल्ला रहे थे
“आईसीयू में हमारी बुढ़िया माँ है” ऐसा बता रहे थे
जिसे हमारे पूर्वज वर्षो पहले ओल्डएज होम छोड़ आये थे
वही के कर्मचारी आज सुबह ही उसे अस्पताल लाये थे
ऑक्सीजन लगी बुढिया कभी भी मर सकती थी
अपनी वसीयत ओल्डएज होम के नाम कर सकती थी
समझी नहीं फटेहाल बुढिया को माँ क्यों बता रहे थे
घडियाली आंसुओ से मेरे भाई बहन क्या जता रहे थे
वहीँ जींसटॉप में “इंग्लिश” नामक औरत मुस्करा रही थी
जो कई सालों से खुद को हम सबकी माँ बता रही थी
क्या है, गड़बड़ झाला मुझे समझ ही नहीं आया
और मैंने पास खड़े डॉक्टर से माजरा पुछवाया
सौतन है वो माँ की जिसने साजिशन डेरा जमाया है
डॉक्टर बोला इसी ने तुम्हारी माँ को ओल्डएज होम भिजवाया है
पर मुझे लगा की डॉक्टर को भी अधूरी जानकारी थी
मात्र सौतन की नहीं, वो हम सबकी साजिश की मारी थी
लोरियां याद रही हमें लेकिन हम माँ को भूल गए
अपनी माँ की कुटिल सौतन के गले में ही झूल गए
मैं पास गयी माँ के नर्स खड़ी थी दरवाजा खोलकर
पोते पोतियों से मिलवाओ माँ रो पड़ी ये बोलकर
मैंने कहा वो अमेरिका तो कुछ इंग्लॅण्ड में पढ़ रहे है
लेकिन वो तुम्हारी चिंता छोड़, आपस में ही लड़ रहे हैं
खुद को अलग अलग परिवारों का बता रहे हैं
तुम्हारी भावी पीढ़ी हैं ऐसा कहने में घबरा रहे हैं
माँ बोली उनके साथ मुझे रखो मैं उन्हें दुलार दूंगी
तुम्हे भी सहला के जीवन रस-रंग संस्कार उपहार दूंगी
मेरी ममता और लोरियों का कर्ज चुकाओगे क्या
ओल्ड एज होम से वापस मुझे ले जाओगे क्या
मेरे जवाब के लिए अब भी वह बिस्तर पर पड़ी है
मेरे उत्तर की प्रतीक्षा में उसकी धड़कन बढ़ी है
कभी घडियाली आंसू लिए भाई बहनों को देखती हूँ
कभी अपनी बीमार माँ को देख जोरों से चीखती हूँ
चलो अब तो माँ को घर ले चलें ये है अनुरोध
इसे जीवन्त करें जिससे न हो कोई गतिरोध
धीमे-धीमे ही सही इसको खुली हवा में टहलाएँ
ये हमारी पहचान है, जड़ है, इसको सींचे-सहलाएं
७- यदि मानव के वश में होता
सोचो ...यदि मानव के वश में होता
ये प्रकृति को अनुचरी बनाता, सूरज की नित दिशा बदलती
चाँदनी भी बंधक बन जाती, निशा प्रेमगीत लिए न मटकती
धरा का धर्म है धारण करना, किन्तु ये स्वच्छंद न विचरती
आकाश-पिता अमृत कैसे बरसाता? उसमे भी रेखाएं उभरती
घटा न उमड़ती-घुमड़ती, न चुम्बन लेती, देश-परदेश विहरती
बिन वीजा हवाएं न आती-जाती, मंद-सुगंध भयभीत सिहरती
कोयल कैसे कूहू गाती, तितलियाँ कैसे सीमाविहीन उचकती
झरने न मिलते नदियों से, पहरे होते- सागर में न सिमटती
भंवरा किस कली पर मंडराए-रस चुराए, ये सब शर्तें ठहरती
वृक्ष उगे कहाँ-कैसे, लता वृक्ष-आरोहण के अनुबंध ही करती
८- शैल-बाला
पहाड़ियों पर बिखरे सुन्दर समवेत
देवत्व की सीढियों से सुन्दर खेत
ध्वनित नित विश्वहित प्रार्थना मुखर
पंक्तिबद्ध खड़े अनुशासन में तरु-शिखर
शैल-बालाओं के घाटी में गूंजते मंगलगान
वो स्वामिनी; अनुचरी नहीं, कौन कहे अनजान
दूर पहाड़ी-सूरज से पहले ही, उसकी उनींदी भोर
रात्रि उसे विश्राम न देती, बस देती झकझोर
हाड़ कंपाती शीत दे जाती गर्म कहानी झुलसाती
चारा-पत्ती, पानी ढोने में वह मधुमास बिताती
विकट संघर्ष, किन्तु अधरों पर मुस्कान
दृढ, सबल, श्रेष्ठ वह, है तपस्विनी महान
और वहीँ पर कहीं रम गया मेरा वैरागी मन
वहीँ बसी हैं चेतन, उपचेतन और अवचेतन
सब के सब करते वंदन जड़ चेतन अविराम
देवदूत नतमस्तक कर्मयोगिनी तुम्हें प्रणाम
९- फूलदेई
आज चौंक पूछ बैठी मुझसे एक सखी क्या है- फूलदेई?
मैं बोली पुरखों की विरासत है- पहाड़ी लोकपर्व- फूलदेई
मैं नहीं थी हैरान, सखी सुदूर प्रान्त की; क्या जाने- फूलदेई
किन्तु, गहन थी पीड़ा; पहाड़ी बच्चा भी नहीं जानता- फूलदेई
आँख मूँदकर तब मैं अपने बचपन में तैरती चली गयी
चैत्र संक्रांति से बैशाखी तक उमड़ती थी फुलारों की टोली
रंग-रंगीले फूल चुनकर सांझ-सवेरे सजती डलिया फूलों की
सरसों, बांसा, किन्गोड़, बुरांस; मुस्कुराती नन्ही फ्योंली सी
उमड़-घुमड़ गीत गाते थे मैं और मेरे झूमते संगी-सखी
इस, कभी उस खेत के बीठों से चुन-२ फूल डलिया भरी
गोधूलि-मधुर बेला, बैलों के गलघंटियों से धुन-ताल मिलाती
सुन्दर महकती डलिया को छज्जे के ऊपर लटका देती थी
प्रत्येक सवेरे सूरज दादा से पहले, अंगड़ाई ले मैं जग जाती थी
मुख धो, डलिया लिए देहरियाँ फूलों से सुगंधित कर आती थी
सबको मंगलकामनाएं- गुंजन भरे गीत मैं गाती-मुस्कुराती थी
दादी-दादा, माँ-पिता, चाची-चाचा, ताई-ताऊ के पांय लगती थी
सुन्दर फूलों सा खिलता-हँसता बचपन: पकवान लिये- फूलदेई
मिलते थे पैसे, पकवान नन्हे-मुन्हों को : पूरे चैत्र मास- फूलदेई
अठ्ठानब्बे प्रतिशत की दौड़ निगल गयी बचपन के गीत- फूलदेई
बोझा-बस्ता-कम्प्यूटर-स्टेटस सिंबल झूठा निगल गया- फूलदेई
ना बड़े-बूढ़े, न चरण-वंदना, मशीनें- शेष; घायल परिंदा है- फूलदेई
अगली पीढ़ी अंजान, हैरान, परेशान है और शर्मिंदा है- फूलदेई
बासी संस्कृति को कह भूले; अब गुड मोर्निंग का पुलिंदा है- फूलदेई
फूल खोये बचपन खोया; बस व्हाट्स एप्प में जिन्दा है- फूलदेई
कितना अच्छा था, खेल-कूद-पढाई साथ-२ : फूलों में हँसता- फूलदेई
गाता-नाचता, आशीष, संस्कार, मंदिर की घंटियों सा पवित्र – फूलदेई
मेरा बचपन- उसी छज्जे पर लटकी टोकरी में; खोजो तो कोई- फूलदेई
हो सके ताज़ा कर दो फूल पानी छिड़ककर; अब भी बासी नहीं- फूलदेई
शब्दार्थ –
फूलदेई- चैत्र संक्रांति से एक माह तक मनाया जाने वाला उत्तराखंड का लोकपर्व
फूलारे- खेतों से फूल चुनकर देह्लियों में फूल सजाने वाले बच्चे
बांसा, बुरांस, किन्गोड़, फ्योली – चैत्र मास में पहाड़ी खेतों के बीठों पे उगने वाले प्राकृतिक औषधीय फूल
बीठा- पत्थरों से निर्मित पहाड़ी सीढ़ीनुमा खेतों की दीवारें
छज्जा- पुराने पहाड़ी घरों में लकड़ी-पत्थर से बने विशेष शैली में बैठने हेतु निर्मित लगभग एक- डेढ़ फीट चौडा स्थान
१०- सीमाएँ
सीमाएँ
प्रगाढ़ होती निरंतर किसी वृद्धा के चेहरे की झुर्रियों सी
असीम बलवती- वर्गों की, कागजों, देशों की
सीमाएँ वर्गों की –
तय करती अंधे-बहरे-गूंगे मापदंड,
अद्भुत किन्तु सत्य श्वेत-श्याम-रंग-बेरंग
मेहनत, विफलता और संघर्ष फिर भी,
इधर भूख और प्यास भी अपराध सा है
आराम, सफलता और विजय के दावे ही
उधर दावतों का नित संवाद सा है
सीमाएँ कागजों की –
तय करती पारंगतता सच्चे-झूठे प्रमाणों से
संचालक अनकही-अनसुनी-अनदेखी पीड़ा के
इधर गली कूंचे का मेकेनिक छोकरा
असफल ही कहलाता है मैला-कुचैला,
उधर अनाड़ी टाई पहने सफल ही कहलाता
कागज धारी तथाकथित इन्जिनीयर छैला
सीमाएँ देशों की-
संघर्ष, युद्ध, शांति, संधियाँ, वार्ताएं
संकुचन-प्रसारण, सफलताएँ-विफलताएं
इन्सान तो क्या-पौधों, पशु-पक्षियों पर
लगवाती लेबल, बंध्वती ट्रांसमीटर
इन्सान है परन्तु हिन्दुस्तानी-पाकिस्तानी तय करती
नदी निरुत्तर, इधर या उधर का पानी तय करती
सीमाएँ -
प्रगाढ़ होती निरंतर किसी वृद्धा के चेहरे की झुर्रियों सी
असीम बलवती- वर्गों की, कागजों, देशों की
११- जिंदगी
कभी छत पर कभी गलियों में आते-जाते हुए
एक दिन जिंदगी मिली थी मुस्कुराते हुए
उसका पूछा जो पता तो वो तनिक सकुचाई
वो सीता और सलमा, घूँघट-बुर्के में शरमाते हुए
कभी कोई एक मंजा खरीद कर लाया
और डोरी में बंधकर उसे जो उचकाया
वो पतंग बनकर बहुत ऊंचा उड़ना चाहती थी
काट डाले पर किसीने उसके फड़फड़ाते हुए
कहते हैं गीता जिसे वो हरेक मंदिर में
और कुरआन जिसे कहते है हर मस्जिद में
हैं बहुत शर्मनाक उनकी करतूते
उन्हें ही देखा उसके पन्ने फाड़कर जलाते हुए
है जिनको गर्व बहुत अपनी संस्कृति पर
उनसे लुटती रही सलमा और निर्भया बनकर
जिनका इतिहास दुर्गा और रानी झाँसी हैं
उन्हें ही देखा चीरहरण पे सर झुकाए हुए
आज भिखारन सही वो उनकी गलियों की
कल कटोरे में उसके कुछ न कुछ तो होगा ही
आज होगा नहीं तो फिर कल होगा
उसके फटे आँचल में कभी न कभी मखमल होगा
१२- सागर का विस्तार गगन तक
सागर का विस्तार गगन तक
हे प्रिय सागर का विस्तार
क्षण पल मृदु कण सत्व-समाश्रित
कुछ अनंत और शेष अपार,
बूँद निरर्थक नहीं प्रेम की
हे प्रिय मोती-सीप अपार
मेरे मन से तेरे मन तक
बादल प्रतिफल अमृत के प्रसार
सागर का विस्तार गगन तक
हे प्रिय सागर का विस्तार
१३- मेरे भारतवर्ष का ऐसा हो बसंत
सीमा पर सरसों खिल जाये काँटों का हो अंत
बारूद नहीं बस हो गुलाल और प्रीत सजे तुरंत
मेरे भारतवर्ष का ऐसा हो बसंत
कुरान आयतों के संग गूंजे गीता सर अनंत
बस मानवता बसी रहे, कोई जाति-धर्म ना पंथ
मेरे भारतवर्ष का ऐसा हो बसंत
फाग रचे होली-गुलाल फहरे दिशा-दिगंत
हर थाली में रहे निवाला, कोई राजा न रंक
मेरे भारतवर्ष का ऐसा हो बसंत
हर बच्ची ऐसे लहराए जैसे उड़े पतंग
मुरझायें न टूटे कलियाँ, ना हो कोई प्रपंच
मेरे भारतवर्ष का ऐसा हो बसंत
खेतों में चलता रहे कलेवा गोरी प्रियतम संग
मुस्कानों का दौर चले न हो रंग में भंग
मेरे भारतवर्ष का ऐसा हो बसंत
१४- पहाड़ की नारी
लोहे का सिर और बज्र कमर संघर्ष तेरा बलशाली
रूकती न कभी थकती न कभी तू हे पहाड़ की नारी
तू पहाड़ पर चलती है हौसले लिए पहाड़ी
रूकती न कभी थकती न कभी तू हे पहाड़ की नारी
चंडी-सी चमकती चलती है जीवन संग्राम है जारी
रूकती न कभी थकती न कभी तू हे पहाड़ की नारी
एक एक हुनर तेरे समझो सौ सौ पुरुषो पर भारी
रूकती न कभी थकती न कभी तू हे पहाड़ की नारी
बुद्धि विवेक शारीरिक क्षमता तू असीम बलशाली
रूकती न कभी थकती न कभी तू हे पहाड़ की नारी
सैनिक की माता-पत्नी-बहिन मैं तुम पर बलिहारी
रूकती न कभी थकती न कभी तू हे पहाड़ की नारी
समर्पित करती कविता तुमको शब्दों की ये फुलवारी
रूकती न कभी थकती न कभी तू हे पहाड़ की नारी
१५- बिछुआ उसके पैर का
प्रेम भरे दिनों की स्मृतियों में खोया हुआ,
जब प्रिय था उसके संग टहलता हुआ
कन्च-बर्फ के फर्श पर सर्द सुबहें लिये,
कांपता ही रहा मैं सिर के बल चलता हुआ
जेठ की धूप में गर्म श्वांसें भरते हुए,
एक-एक बूँद को रहा तरसता जलता हुआ
हूँ गवाह- उसके पैरों की बिवाइयों का,
ढलती उम्र की उँगलियों से फिसलता हुआ
सिमटा हुआ सा गिरा हूँ- आंहें लिये,
सीढ़ीनुमा खेत- किसी मेड पर संभलता हुआ
ढली उम्र; लेकिन मैं बिछुआ-
उसके पैर का अब भी हूँ; पहाड़ी नदी सा मचलता हुआ
रागिनी छेड़कर रंग सा बिखेरकर;
कुछ गुनगुनाता हूँ अब भी पहाड़ सा पिघलता हुआ
वृक्षों के रुदन सा भरी बरसात में;
आपदा के मौन का वीभत्स स्वर निगलता हुआ
मैं हराता गया- ओलों-बर्फ को, तपन-सिहरन को,
अंधियारे के गर्त से बाहर निकलता हुआ
चोटी पे बज रही धुन मेरे संघर्ष की,
गाथाओं के गर्भ में मेरा संकल्प पलता हुआ
१६- समर्पण
आजीवन पिया को समर्थन लिखूंगी
प्रेम को अपना समर्पण लिखूंगी l
निज आलिंगन से जिसने जीवन संवारा
प्रेम से तृप्त करके अतृप्त मन को दुलारा l
उसे आशाओं स्वप्नों का दर्पण लिखूंगी
प्रेम को अपना समर्पण लिखूंगी l
प्रणय निवेदन उसका था वो हमारा
न मुखर वासना थी; बस प्रेम प्यारा l
उससे जीवन उजियार हर क्षण लिखूंगी
प्रेम को अपना समर्पण लिखूंगी l
न दिशा थी, न दशा थी जब संघर्ष हारा
विकट-संकट से उसने हमको उस पल उबारा l
उसमें अपनी श्रद्धा का कण-कण लिखूंगी
प्रेम को अपना समर्पण लिखूंगी l
कौन कहता है जग में प्रेम जल है खारा
मैंने तो मोती-सीप सागर से ही पाया l
इस जल पे जीवन ये अर्पण लिखूंगी
प्रेम को अपना समर्पण लिखूंगी l
१७- विरह-व्यथा में
नि:शब्द रात्रि- मरुभूमि उर, पग-२ पर बिखरे शिलालेख
विरह- व्यथित हो रचती ही गयी; अश्रुपूरित गीत अनेक
ना निद्रा न स्वप्न कोई, मात्र प्रश्न, उत्तर की आस नहीं
मुंदी पलकें भूरी पुतलियाँ; जीवित- गति का आभास नहीं
प्रेम सुई टूटी; कच्चा- विश्वास धागा, गुंथी न स्वप्नमाला
यौवन- वृद्ध वृक्ष लाचार; जर्जर- प्रिय उपेक्षा ने कर डाला
पुनः–पुनः नभ से प्रणय निवेदन; धराशायी शुष्क धरा का
बदली ऋतु; बिन बदली गगन; प्रियतम दूर खड़ा ही रहा
कंटक बांहे प्रेम वृक्ष की मन प्यासे पंछी सा डोलता रहा
बूंदे-कोंपल-पुष्प-श्रृंगार नहीं कुछ; शेष- अनुत्तरित प्रतीक्षा
नि:शब्द रात्रि- मरुभूमि उर, पग-२ पर बिखरे शिलालेख
विरह- व्यथित हो रचती ही गयी; अश्रुपूरित गीत अनेक
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लेखिका परिचय
नाम- डॉ. कविता भट्ट
जन्म तिथि एवं स्थान – ०६ अप्रैल, १९७९, टिहरी गढ़वाल, उत्तराखंड
राष्ट्रीय महासचिव – उन्मेष : ज्ञान-विज्ञान विचार संगठन
प्रतिनिधि, भारत- हिंदी चेतना (अंतर्राष्ट्रीय त्रैमासिक हिंदी पत्रिका), हिंदी प्रचारिणी सभा, कनाडा, यू एस ए
शैक्षिक योग्यता- स्नातकोत्तर (दर्शनशास्त्र, योग, अंग्रेजी, समाजकार्य)
यू जी सी नेट – दर्शन शास्त्र एवं योग
पी एच डी (दर्शनशास्त्र)
डिप्लोमा- योग, महिला सशक्तीकरण
एवार्डेड- जे० आर० एफ०,आई सी पी आर, नयी दिल्ली
जी०आर०एफ०, आई सी पी आर, नयी दिल्ली
पी०डी०एफ० (महिला), यू जी सी, नयी दिल्ली
अध्यापन-अनुसन्धान अनुभव- क्रमश: सात/दस वर्ष, दर्शनशास्त्र एवं योग विभाग, हे०न० ब० गढ़वाल विश्वविद्यालय, श्रीनगर गढ़वाल, उत्तराखंड
प्रकाशित- चार पुस्तकें (योगदर्शन पर), दो पुस्तकें (बालसाहित्य), दो काव्य संग्रह, अनेक राष्ट्रीय-अंतर्राष्ट्रीय शोध-पत्रिकाओ/पत्रिकाओ/समाचार-पत्रों में लगभग पचास शोध पत्र/लोकप्रिय लेख, अनेक राष्ट्रीय-अंतर्राष्ट्रीय पत्रिकाओ में तथा ऑनलाइन अनेक लोकप्रिय हिंदी कविताएँ
शैक्षणिक/साहित्यिक/सामाजिक गतिविधियाँ- विभिन्न संगोष्ठियों में शोध-पत्रों और कवि सम्मेलनों में कविताओ का प्रस्तुतीकरण, योग शिविर आयोजन, आकाशवाणी से समकालीन विषयों पर वार्ताओं का प्रसारण, सदस्या- हिमालय लोक नीति मसौदा समिति
संपर्क सूत्र- mrs.kavitabhatt@gmail.com
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हार्दिक आभार, संपादक महोदय, रचनाकार, मेरी रचनाओं को स्थान देने हेतु
जवाब देंहटाएंSuperb mam I have no word to say that how much meaningfull ur poems r...Like always we feel ur poems r very near to our heart because it's a beautiful creation of ur deepest heart....Very true n heart touching....Keep it up our good wishes r always with u...
जवाब देंहटाएंहार्दिक आभार, प्रिय पंकज, आप स्नेहीजनों की सकारात्मक प्रतिक्रिया ही मेरी ऊर्जा है। भविष्य में भी अपनी आत्मीयता बनाये रखना। पुनः धन्यवाद।
हटाएंGreat kavita ma'm
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