बड़ी करामाती इन चरणों की धूलि नाथ, फाकाकश को ए खुशहाल कर देती है। जिसे तेरे चरणों की धूलि ये नसीब हुई, उसको तो क्षण में निहाल कर देती है। चर...
बड़ी करामाती इन चरणों की धूलि नाथ,
फाकाकश को ए खुशहाल कर देती है।
जिसे तेरे चरणों की धूलि ये नसीब हुई,
उसको तो क्षण में निहाल कर देती है।
चरण-शरण में जो 'कुसुमाकर' आया तेरी,
उस रंक को ये मालामाल कर देती है।
पग का तो प्रभु तेरेे कह सकता मैं नहीं,
पर पगधूली ये कमाल कर देती है।१।
सद्गुरु देव तुझे करता प्रणाम दास,
एक बात का तो नाथ खास ध्यान दीजिये।
भँवर में अटकी है बेड़ी मेरी कृपानाथ,
थोड़ी-सी तो कृपा इस अनाथ पर कीजिये।
पास में न पूँजी,घर माहि भूँजी भाँग नहीं,
अशरण शरण दया तो कुछ कीजिये।
चरण की धूली 'कुसुमाकर'सिर धार सके ,
परम दयालु इतनों तो कर दीजिये। २।
तेरे पगधूलि की तो चर्चा जहाँ में प्रभु ,
जाने जुग -जुगन से यहाँ दर - दर है ၊
एक बार पत्थर को नारी बनते है देखा ,
पग का ना नाथ, पग धूली का असर है।
बिना पग धोये नाथ नाव. पे चढ़ाऊँ नहीं ,
नारी बन जाये इसी बात का तो डर है।
'कुसुमाकर' दर आये , वाको बन्धन छुड़ाये,
नाथ तेरा पग पगधूली जादूगर है। ३।
बड़ी करामाती है चरण धूलि तेरी प्रभु ,
छूते ही ए पत्थर को नारी बना देती है।
अधम निषाद को भी पग धोते-धोते नाथ ,
स्वर्ग लोक का ए अधिकारी बना देती है।
पगधूलि माथे लगे मन निरमल होवे,
मित्र 'कुसुमाकर' दुनिया सारी बना देती है।
बड़े भाग्य वालों को ए सन्त सद्गुरु मिलें,
पगधूली भाग्य सुखकारी बना देती है।४।
कल तक दाने-दानेको जो मोहताज रहा,
आज फिर रहा जग माहि मालामाल है।
उस को भी तुमने सहारा दिया जगन्नाथ,
जिस का न यहाँ कोई पुरसिश-ए-हाल है।
'कुसुमाकर' चरण शरण तेरी पा के आज ,
सारा जग लग रहा कैसा खुशहाल है।
प्रभु दीनानाथ सर्वेश्वर जगतपाल ,
पग का नहीं ए पग धूली का कमाल है। ५।
तेरी पग धूली बस माथे से लगाये नाथ ,
कुल लेखा मिट गया , मिल गया ज्ञान है।
कट जंजाल गये ,बस माहि काल भये ,
सब दोष माफ हुये ,तू बड़ा महान है।
दिल माहि चैन नैन माहि पड़ी ठंड नाथ ,
अब भरमों में नहीं फँसती ये जान है।
माया में कमल सा निवास तेरी कृपा से है,
'कुसुमाकर' सद्गुरु महिमा महान है । ६ ।
जर्रे - जर्रे बीच तेरी सूरत दिखाई देती ,
पत्ते- पत्ते पर तेरा दिख रहा नाम है।
चारों ओर नाथ इक तू ही है दिखायी देता,
गन्ध बन चन्दन में करता मुकाम है।
गंगा माहि निर्मलता , शीतलता चन्दा माहि ,
रवि माहि तेज है प्रकाश, ताप ,घाम है।
सच्चा सद्गुरु तूही जगत का पालक है ,
कर रहा 'कुसुमाकर' लाखहूँ प्रणाम है। ७ ।
दयानिधि और दयानिधि की दया महान,
मन और बुद्धि जहाँ पहुँच न पाये है।
दया जो करे तू स्वामी ,रंक सुलतान बने,
बन सेवक सारा जहाँपीछे - पीछे आये है।
कृपा निरंकार करे ,बे पढ़ा विद्वान बने,
निज जन का कृपालु मान ही बढ़ाये है।
कृपा सद्गुरु करे , सेवक का नाम होय,
'कुसुमाकर' बड़े भाग्य , ऐसे गुरु पाये हैं। ८ ।
खेती चाहे जिसकी हो सूरज न भेद करे ,
रूप - कुरूप यह चन्द्रमा विचारे ना।
पानी है बुझाता प्यास ,ऊँच-नीच देखे बिना,
पवन भी छोटा बड़ा , कभी भी चितारे ना।
कृक्ष फल देते कभी , सोचते न ऊँच-नीच ,
फूल देते खुशबू है , किसी को निहारे ना।
सद्गुरु शरण आये ,को लगाये गले निज ,
'कुसुमाकर' देव दयालु कुछ विचारे ना' । ९ ।
वह बन्दा मृतक समान इस दुनिया में ,
जिसे याद कभी नहीं ,आता निरंकार है I
भले वह चलता औ' फिरता दिखाई देता,
नाम बिना जीवन को उसके धिक्कार हैं।
माया माहि लीन रह , चिढ़ता व कुढ़ता है ,
शान्ति से रहना तो उसे दुश्वार है।
विधि का लिखा है 'गर नहीं वो टलेगा टाले,
'कुसुमाकर' ऐसों को कहना बेकार है। १०।
आँखिन की पट्टी यह जल्दी से हटाओ भाई,
और ग्रहण कर लो सत्य कारोबार को।
आठों पहर माया का फिरता दीवाना बना,
दातों में पड़ा है और भूला है दातार को।
माता -पिता ,सुत-दारा दौलत न आये काम ,
छोड़ जायेंगे ये सब आखिरकार को।
मन कभी निर्मल न होगा बिना सद्गुरु,
'कुसुमाकर' शरण आजा,जानलो दातार को।११।
सारी दुनिया में आज झगड़ा लड़ाई ठनी,
रोज-रोज होते यहाँ दंगा फसाद है।
यह जग सारा बैर भाव की दुकान बना ,
पड़ती सुनाई चीख और फरियाद है।
बाँस -सी रगड़ मची आज इनसान माहि ,
जिससे कि आज इनसान बर्बाद है।
साँझे परमपिता का ,पता जो हो 'कुसुमाकर',
बिना सद्गुरु न ए बदले रुदाद है। १२ ।
अंग सँंग देखना है रब को अगर यहाँ ,
पूरे सद्गुरु को रिझा के प्यारे देख ले।
दर्पण में छाया जैसे , दूध में समाया है घी ,
देखने की दृष्टि पा ,गुरु सहारे देख ले।
खोज - खोज जग सारा , कर्म कर - कर हारा ,
व्यर्थ हुये उनके श्रम सारे देख ले।
'कुसुमाकर' ललकारे , आजा सद्गुरुद्वारे ,
जीवन सँवारने के भी नजारे देख ले'। १३ ।
सद्गुरु परम दयालु दया कर निज ,
चरणों से जोड़ा ,तोड़ा भरम भुलेखा सब | .
चिन्ता दिल की हटाई ,दिया प्रभु को दिखाई ,
मेट दिया शीघ्र जन्म -जन्मों का लेखा सब।
दुःखों ने मुँह फेरा ,सुखों ने आ डाला डेरा,
. ऐसा ए करिश्मा पहली बार है देखा सबI
सद्गुरु ने की दया , आना-जाना मिट गया ,
'कुसुमाकर' भूल गया जैसे ही देखा रब। १४ ।
कोई कहता है रब रहता है सन्निकट,
कोई कहता है रब रहे अति दूर है।
कोई कहे हरिअम्बरों पर निवास करे ,
कोई कहे बसता ए रब कोहेतूर है।
मन जब तक तेरा , साफ नहीं होगा प्यारे ,
अवगुण दिल से न होगा जब दूर है।
सद्गुरु का इशारा एक पाके' कुसुमाकर' ,.
नाम रंग चढ़ा मन हुआ नूरो - नूर है। १५ ।
कोई तन कोई मन कोई धन का है मानी ,
जिसने है दिया नहीं वा की पहचान है।
काया चार दिन की पा भूल गया हस्ती को ,
एक दिन तजना क्यूँ बना अनजान है।
चिडि़या गयीं जो चुग खेत , पछताये क्या हो?
अभी नहीं देर हुई , अभी तो विहान है।
मौका मिला है 'कुसुमाकर' गुरु शरण आजा ,
सद्गुरुदेव जी से ले लो ब्रह्मज्ञान है ।१६ । .
तन का हो पावन पुनीत , मन सच्चा होवे ,
होवे घर माहि धन नेकी की कमाई का।
दिल का हो अति कोमल , प्रभु पर आस्था हो ,
लेश मात्र भी न होवे अहम - बड़ाई का ।
सबर शुकर हो भरोसा होवे प्रभुजी का ,
किसी से भी नाम न हो झगड़ा लड़ाई का।
'कुसुमाकर' नाम बिना सब है बेकार 'गर ,
काम किया नहीं सद्गुरु ज्योति मिलाई का। १७ ।
जिसका हो मन राम नाम में सदा ही लगा ,
दरअसल जग माहि वही धनवान है।
दुनिया की सारी धन दौलत का गर्व नहीं ,
बल्कि उसे मानते वे धूल के समान हैं।
दुनिया है नश्वर ए बात कभी भूले नहीं,
आशिक हैं सिर्फ बका के जो वो महान है'।
पूरे गुरु से सच को जाने , झूठे नाते तोड़े ,
'कुसुमाकर'सद्गुरु देता ब्रह्मज्ञान है l १८ ।
सद्गुरु से ही गति पाके इस दुनिया में ,
मान के ऊपर मन काबू यह पाता है।
काम , कोध , मोह , लोभ आदि दुर्व्यसनों का ,
गुरुमति से ही यह पाश कट पाता है।
धैर्य अपनाता राम रजा में बिताता वक्त ,
तप , त्याग , सुमिरन नितअपनाता है ।
पूरा सद्गुरु मिल जाय . भाग्यशाली वह ,
'कुसुमाकर' मन वैरागी बन जाता है। १९I
जाति तो निरंकार की ही एक सच्ची यहाँ ,
बाकी जो भी हैं वे सभी यहाँ झूठी जातें हैं।
दाता देनहार अविनाशी एकमात्र तू ही ,
तेरा एक नाम सच्चा ,नाशवान दातें हैं।
बरसात उसकी है , जिसका है पति साथ ,
' परदेशपतिका ' की तो ए काली रातें हैं।
गृहस्वामी बिना घर 'कुसुमाकर' भावे नहीं ,
सद्गुरु द्वारा प्रभु से होती ए बातें हैं। २०।
हंसों का स्वाँग करता है यहाँ बावरे तू ,
पर छुप-छुप नित मेढक ही खाता है।
अपने ही मुँह से तू बनता है भौंरा नित,
पर गन्दी जगह पे नित प्रति जाता है।
खाल शेर की तू ओढ़ , नाम शेर रखवाया ,
जब निज बोली बोले , खर ही कहाता है।
'कुसुमाकर' शरण गुरु की, आजा बनना है ,
पदवी पाये जो खुद , खुदी को मिटाता है। २१ I
धन्य-धन्य सद्गुरु धन्य है तुम्हारी दया ,
पलक झपकते ही प्रभु को दिखाता है।
भ्रम को भगाया, भेद-भाव को भुलाया प्रभु ,
मेल को बढ़ाया , मन - मन से मिलाया है।
सहज ,सुमति, सद्भावना, सराहनीय ,
सबको ही सेवा - सत्कार सिखलाया है।
सारी खुशियों की सौगात' कुसुमाकर' बाँटे ,
सद्गुरु दयालु गले सबको लगाया है।२२ ।
पल-पल जगत को पालता जगतपाल,
करता है प्रभु सबकी ही देखभाल भी।
प्रभु को है सबसे अधिक ए मनुज प्रिय ,
इसलिए खुद करे इसकी सँंभाल भी।
'कुसुमाकर' जो भी सद्गुरु की शरण आये ,
उसका तो बढ़ जाता जोश भी , जमाल भी।
धन-धन निरंकार , धन - धन सद्गुरू
सन्त को करे तू मालामाल भी , निहाल भी।२३।
सच मेरी आरती है, पूजा सच ,सत्याधार ,
अपनाया सच्चे का ए सच ही विचार है।
सच ही मैं बाँटूँ , बरतूँ, सच से जुड़ा है तार. ,
सच्चा ही जीवन ए , सच कारोबार है।
रोम-रोम माहि नित सच ही समाया यहाँ ,
सच राह ,सच्ची हाट , सच व्योपार है।
यह सच्चा एक घट-घटवासी निरंकार ,
सद्गुरु पद 'कुसुमाकर' बलिहार है। २४ ।
स्वारथ भरे हैं सारे , रिश्ते नाते दुनिया के,
नहीं कोई बहन है , नहीं कोई भाई है।
जगत से प्रीति , नम्रता है हुई उड़न छू ,
यह सारी दुनिया ही. हुई दुःखदाई है।
भेंड़ चाल चलती है , दुनिया ये सारी यहाँ ,
रब क्या है? कहाँ है ? ए समझ न आई है।
'कुसुमाकर' प्यार नम्रता से भरी नगरी,
'बेगमपुर' जिसे सद्गुरु ने बसाई है। २५ ।
एक ज्योति की ही है उपज यह सारी सृष्टि ,
एक ही का फैला हुआ सकल पसारा है।
एक सर्वव्यापी प्रभु , हर दर व्याप रहा,
फिर भी ये दयावान, सबसे ही न्यारा है।
परम दयालु अंग - सँग है विराजमान ,
परम हितैषी सबका ही रखवारा है।
इसका रहस्य जानने के लिए 'कुसुमाकर',
सद्गुरु शरण आये जानन हारा है। २६ ।
भली कुटिया है चाहे घास-फूस की हो बनी,
गुरु मुख रहता पवित्र वह ठाँव है।
गुरमुख का तो हर बोल है सुहाना भला,
गुरु की जो बात करे वही ठण्डी छाँव है।
तीरथ समान वह स्थान जहाँ बैठता है ,
उठते-बैठते लेता सद्गुरु नाँव है |
धन्य है वो गुरुमुख' कुसुमाकर' जिसका कि ,
तीरथ स्थान सन्त सद्गुरु पाँव है। २७ ।
घास-फूस की भी गर कुटिया होवे सन्त की,
और उस में ही रह करता वो ध्यान है।
वह धरती पवित्र, स्थान भी सुहाना होवे ,
जहाँ बैठ कर सन्त करे गुणगान है।
यही तीर्थ राज यही संगम तुम्हारा प्यारे ,
यह सत' संगति सौ तीरथ समान है।
'कुसुमाकर' राजा -महाराजा भी न पायें सुख ,
जो कि कुटिया में दिया सद्गुरु महान है।२८।
चाहे होवे नीच या कुचाली जुयेबाज होवे ,
पापी औ' हत्यारा भी जो जग में कहाता है।
चुगलखोर, क्रोधी , लोभी , चोर बहुत होवे,
लालची , शराबी और कामी गिना जाता है।
भयंकर लुटेरा भी हो सन्त शरण आये ,
ज्ञान अन्तर्यामी परमात्मा का पाता है।
छूट जायें कर्म सब, नजर दया की होय,
'कुसुमाकर'सद्गुरु पाप भी मिटाता है। २९ |
जब - जब सन्तों पर भीर पड़ी तब प्रभु ,
स्वयं पधार कार्य उनका बनाये हैं।
सतयुग माहि नरसिंह बन आये हरि ,
खम्भाफाड़ भक्त प्रह्लाद को बचाये हैं।
त्रेता माहि राम बन रावण विनाश कियो,
द्वापर में कृष्ण महाभारत रचाये हैं।
कलयुग में नानक , बूटा सिंह , अवतार ,
सविन्दर हरदेव पार पहुँचाये हैं। ३० ।
श्वाँस-श्वाँस हरि का करे जो सुमिरन नित ,
जलती हुई दुनिया में ठण्ड दे वो सन्त है।
दूसरों का दुःख जो हरण करे पल माहि ,
कर्मों से दया. कर बचाता वही सन्त है।
हरि इन सन्तों से न्यारा कोई कहे नहीं ,
सन्त को हरी और हरी को प्यारा सन्त है।
'कुसुमाकर' अंग - सँग राम दिखलाता और ',
मुक्ति दिलाता सद्गुरु वही सन्त है'၊ ३१ ।
सच्चा धनवान वही रामधन जाके पास ,
ध्यान ए हमेशा जो कि नाम में लगाता है।
दुनिया की धन दौलत धूल समान लगे ,
''नाशवान दुनिया है'' ये न भूल पाता है।
बेपरवाह बने गीत गाये ईश्वर के ,
सन्त सद्गुरु देख मन हर्षाता है।
'कुसुमाकर' वही खुशहाल इस दुनिया में ,
झूठ छोड़ सत्य से ही जोड़ता जो नाता है।३२I
परमपिता को प्रिय लगता पवित्र प्रेम ,
प्रेम वशीभूत होके जग बीच आते हैं I
भूले -भटकों को सद्मार्ग दिखलाते सदा ,
सन्तजनों की नित बिगड़ी बनाते हैं।
करके कृपा कृपालु ने है नर देह दिया ,
किस लिये आये ? कितने वो कर पाते हैं।
'कुसुमाकर' सन्त सदगुरु है महान महा ,
शरण में आया उसे प्रभु से मिलाते हैं। ३३ ।
महल अटारी बेटी . बेटे यार -दोस्त भाई,
सभी नाशवान यह जगत ही माया है।
सुन्दर जवानी और सुघर सलोना रूप ,
सब कुछ फानी ढलती हुई ए छाया है।
'कुसुमाकर' इक दिन करना है कूच प्यारे ,
जो भी तनधारी इस जग माहिआया है।
कोई भी न देगा साथ , जानले ऐ बावरे तू ,
यदि तेरे सिर पर गुरु का न साया है।३४।
सुन्दर सलोना रूप , सुन्दर जवानी मिली ,
देख -देख माया प्यारे भरम भुलाया है।
महल अटारी ऊँची देख , ऊँची शान माने ,
जिससे ये शान मिली , याद भी न आया है ।
एक फूँक माहि फूला घूमता है यहाँ -वहाँ,
बन्दे यहाँ तू तो निज जान भी भुलाया है।
'कुसुमाकर' साथ में खड़ा हे तेरे दाता पर ,
जानेगा वही जो सद्गुरु दर आया है। ३५।
इधर-उधर जो कि घूमता है चक्की में ,
दाना वह पिसने से नहीं बच पाता है '၊
कीली से सटा जो रहे , छोड़ कहीं जाये नहीं ,
वह दाना पिसने से साफ बच जाता है।
दुःख-सुख रूपी दोनों पाटन के बीच जन ,
पड़कर अक्सर अति चकराता है।
'कुसुमाकर' जो भी सद्गुरु की शरण आये ,
वह तो चौरासी में जाने से बच जाता है। ३६ ।
तन ,मन, धन इन तीनों से बड़ी है सेवा ,
जो कि निष्काम निरिच्छित कहलाती है।
देश काल समय मुताबिक चलावे गुरु ,
. ' आज्ञा सिरधार शिष्य चले' गुरु भाती है।
जग में तो मान गुरुसिख को मिले ही मिले ,
दरगह में भी परवान करी जाती है।
'कुसुमाकर'ऐसे सन्त की तो इस दीनानाथ ,
सद्गुरु द्वारा रखवारी करी जाती है। ३७ ।
सबसे बड़ा है यह निरंकार जानो भाई ,
अब तक पारा वार किसीने न पाया है।
जोगी ,जती , ज्ञानी, ध्यानी सब पचहारे पर ,
इसका न भेद कोई जन जान पाया है।
सूरज, सितारे ,चाँद हुकुुम बजाते या को,
वायु , जीव , नभ पर इसकी ही छाया है।
'कुसुमाकर' आग ,पानी ,धरती भी माने आज्ञा,
इसका सारा भेद सद्गुरु ने बताया है। ३८ ।
रब मिल सकता ना बिना मन साधे यहाँ,
ऐसा दुनिया के लोग सब को बताते हैं ।
जब तक दिल यह साफ नहीं होवे भाई,
तब तक राम इसमें न बस पाते हैं।
मैले से मैले कपड़े जैसे धोबी साफ करे ,
यूँ ही पूरे गुरु पाप - दोष भी मिटाते हैं।
'कुसुमाकर' रूह गुरु चरणों की छोह पाये ,
दुःख बेहाली सद्गुरु खुद मिटाते हैं। ३९ ।
ज्यों ही छोड़ते हैं गर्व मान अहंकार हम,
त्योंही यह सत्य निरंकार मिल जाता है।
गुरुमति आगे अहंकार कभी टिकता ना,
गुरूर आगे नहीं सत्कार टिक पाता है।
चरणों में शीश ये झुकाया तब दीद हुई ,
खुशी से न मन तुझे देख के अघाता है
'कुसुमाकर'सद्गुरु पद में प्रणाम लाखों ,
भूले - भटकों को स्वामी रब से मिलाता है ၊ ४०၊
किसी का भी खानपान और पहिरावा देख,
मेरे भाई सोच यह तुझे क्यूँ न भाता है?
फूलता औ'फलता किसी को देख जलता क्यूँ ?
जात पाँत पंक में क्यूँ कपड़े डुबाता है?
छोड़ घर बार बन भागता क्यूँ मेरे यार ,
सच तो बता क्यूँ दुनिया से डर पाता है।
अब भी वक्त 'कुसुमाकर' गुरु शरण आजा,
सद्गुरु रब मिला पार पहुँचाता है | ४१ ।
मैं तो हूं अबोध कुछ जानता नहीं हूँ नाथ!
हाथ तूने पकड़ के चलना सिखाया है ।
एक-एक मानव में विद्यमान तूहीं एक,
तूने ही समस्त प्रभु सृष्टि ए बनाया है।
फल फूल, जीव जन्तु अन्न भी बनाया तूने ,
एक दूसरे के हित इस को सजाया है।
'कुसुमाकर' एहसान मन्द तेरी कृपा का है ,
सद्गुरु प्रभु तूने अपना बनाया है। ४२ ।
सारा जग स्वामी यह रचना तिहारी ही है,
अपनी ही इच्छा से ये जग प्रकटाया है।
जगत के संत पंथ ग्रन्थों ने बताया यही ,
हर एक मानव में तू ही तू समाया है।
सारे इनसान एक तेरी सन्तान दाता,
प्रेम से रहें ये प्रभु तूने सिखलाया है।
'कुसुमाकर अनारी , आया शरण तिहारी ,
कर कृपा तूने सद्गुरु अपनाया है।४३।
किसी के भी खान -पान पहरावे पर मन,
तनिक तो सोच तू है किसलिए जलता।
फूलता-फलता किसी को देखकर यहाँ ,
उससे तू भला किसलिए नित जलता।
ऊँच नीच जाति पाँति कीचड़ है मेरे मित्र ,
इसमें तू कपड़ा. ए किसलिए डालता' ।
सद्गुरु शरण में आ जा . 'कुसुमाकर' अब ,
मुक्ति का मार्ग गुरु पद से निकलता। ४४ ।
यह निरंकार है कृपालु सच्चा हरदम ,
इसका ही नाम दरअसल सच्चाई है।
था भी, है भी , होगा भी ए निकट भविष्य माहि ,
रचना अनोखी इस प्रभु ने रचाई है।
ऊँचा - ऊँंचा सबसे ऊँचा पाक मुकाम तेरा ,
सबको अपनाता तू , ये तेरी बड़ाई है।
नीचा 'कुसुमाकर' ऊँचा हो, जो ऊँचा जान ले ,
इसकी पहचान सद्गुरु ने कराई है। ४ ५ । .
सिर को झुकाया अभिमान को गँंवाया यदि,
पूरे गुरु शरण में जन जो भी आ गया।
चाहे निर्धन होवे, चाहे अनपढ़ होवे,
जिसकी है देन इस ईश को ही पाया है।
हरि के सहारे रह , झूठ से किनारे रह,
गुरु के इशारे रह' सब कुछ 'पाया है।
'कुसुमाकर'सद्गुरु से जो प्रभु जान लिया ,
दुनिया में जन वह सच्चा सुख पाया है। ४६।
सद्गुरू ने जो मुझे चरणों से जोड़ लिया ,
भरम व भ्रान्ति सब दूर भाग गई है၊
दिल में जो चिन्ता थी वो देखते ही भाग गई ,
अति खुशहाल यह जिन्दगानी भई है।
दुःखों ने है मुँह फेरा ,मुझे है सुखों ने घेरा ,
प्रभु एहसान तेरा , जिन्दगानी नई है।
गुरु ने कृपा दिखाई, 'कुसुमाकर 'मुक्ति पाई,
इक मेहरबाँ है तू दुनिया निर्दई है। ४ ७ ।
जानकर एक को हरेक घट अन्दर तू ,
एक-एक जनसे ही प्यार यार कीजिए।
इसी एक की ही छबिछाई है हरेक माहि,
सब का इसलिये सत्कार नित कीजिये।
गुण हम गायें इस , एक को रिझायें नित',
इस एक का ही तो दीदार नित कीजिये।
प्रभु सद्गुरु गुणगान नित किया करें',
श्वाँस-श्वाँस सुमिरन हर बार कीजिये।४८।
प्रभु नाम पास जिनके है इस जग माहि ,
.इस दुनिया में वही सच्चा धनवान है।
यह धन-दौलत और माल खजाना सब ,
उनकी नजर में ए धूल के समान है।
यह जग सारा नाशवान है अनित्य ही है,
नित्य है तो बस एक यही भगवान है।
'कुसुमाकर' पूरे गुरु से समझ के ये सच ,
गुरु गुण गायें जा की महिमा महान है। ४९ ।
पूरे सद्गुरु साथ जो भी जुड़ जाय यहाँ,
उसको जमाने मेंं कभी न कमी आती है।
अन्तस् बाह्य जिसका एक ही समान होवे ,
विपदा न कोई उसके सन्निकट आती है।
मन वाणी कर्म से , पर उपकार करे ,
उससे न किसी की बुराई ही हो पाती है।
'कुसुमाकर' हरक्षण ध्यान सद्गुरु का हो ,
सार्थक उसी की ही जिन्दगी कहाती है। ५०၊
गुरु सिख वो है जो पूरे गुरु की शरण ले,
अंग - संँग निरंकार को गुरु से जान ले।
तज अहंकार धारण करता विनम्रता को ,
झूठे पथ छोड़ , सच्ची राह पहचान ले।
गुरु की बताई बातों पर एतबार करे ,
गुरु आज्ञा माने, मीठा बोलने की ठान ले।
'कुसुमाकर' पल-पल गुरु रखवाली करे ,
जो गुरु का ध्यान करे ,इसे पहचान ले। ५१ ।
कर बिन जिसने बनाई है ए सृष्टि सारी
निहाँ है मगर ए बड़ा ही कारसाज है।
प्रकृति का कण-कण आज्ञा माने इसकी ही,
सब चराचर पर इसका ही राज है।
क्षण भर में ये चाहे , जगत तबाह करे ,
मारे ऐसी लाठी , नहीं जिसमें आवाज है।
तज अभिमान सद्गुरु की शरण आजा ,
'कुसुमाकर' बन जाये तेरा महाकाज है। ५२।
तेरा ही भरोसा , तेरी आशा मेरे दाता अब ,
तेरे चरणों का ही सहारा अब शेष है।
जगत में आग लगी ,जल रहे सब लोग ,
ईर्ष्या , घृणा है,अंहकार अरु द्वेष है।
जल तेरी कृपा का पड़ेगा जब तक नहीं ,
तब तक मिटने का ना कलह -कलेश है।
'कुसुमाकर' अर्ज करे प्रभु कल्याण करो ,
सद्गुरु खड़ा तेरे दर दरवेश है।५३।
नाम के समान कुछ और नहीं दुनिया में ,
नामी की उससे न कुछ कम बड़ाई है।
कण-कण माहि नाम यहाँ पे बसा है बन्धु ,
नाम से विहीन यहाँ एक हू न राई है।
सूरज, सितारे ,चाँद नाम से चमक पाये ,
आना-जाना लीला जग नाम की रचाई है।
'कुसुमाकर' मायाजाल में फँंसा है जग सारा ,
बचा वही सद्गुरू से जाने दृष्टि पाई है। ५४।
सन्त वह जो तेरे नाम के सहारे रहे,
हरि बिना जो न पल भर रह सकता।
दिन - रात सन्त सदा हरि गुणगान करे ,
हर ओर निज हरिको ही सदा तकता।
रबवालों को है एक नाम का सहारा यहाँ ,
खाते-पीते, आते-जाते गुरु नाम जपता।
सन्त हरी के सबसे अच्छे 'कुसुमाकर' रहे,
सद्गुरु शरण आ शुभ- शुभ कहता। ५५ ।
जितना सयाना होवे बन्दा कोई जग माहि,
उतनी ही मौत उस ,जन को डराती है।
जैसे-जैसे कदम बढ़ाती जाती करनी है ,
वैसे-वैसे प्यास प्रभु बढ़ती ही जाती है।
दिल की अगिन ठण्डी हो न, दरिया के जल ,
'कुसुमाकर' जायें जहाँ मौत पीछे आती है।
दुःख जाये ,सुख आये , नाम लिये निरंकार ,
सद्गुरु से ये दृष्टि दुनिया ही पाती है। ५ ६।
नाम के समान कुछ और ना जहान माहि ,
नामी की भी दुनिया में बड़ी ही बड़ाई है।
अगम , अनन्त , अगोचर , अथाह बन्धु ,
जिसने ये रचना भी खूब ही रचाई है।
कण-कण माहि यहाँ नाम ही बसा है और ,
नाम बिना यहाँं पे बची न एक राई है।
'कुसुमाकर' उत्तम औ' भाग्यवान जानो उसे ,
सद्गुरु से जिसने ए पाई बीनाई है। ५७ ।
प्यारे यह प्रकृति प्रभु ने है प्रदान किया ,
इसे तेरे मेरे जग हेतु ही बनाया है।
धरती सिखाती धैर्य , सहनशील बनने को ,
पानी से विनम्रता ले शीश नित झुकाया है।
वायु से ले गति , जलाया औगुण आग माहि ,
सद्गुण सब के सदैव अपनाया है ।
नभ से तू 'कुसुमाकर' कर ले हृदय विशाल ,
हर माहि हरि हेरि ,उन्हें अपनाया है। ५८ ।
हिन्दू ,मुसलमान ,सिख, पारसी , ईसाई सब ,
एक ही समान यहाँ सब इनसान है।
एक ही की देते हैं , दुहाई यहाँ मेरे भाई ,
चाहे गीता वेद हो , चाहे ग्रन्थ कुरान है।
एक ही है साँझा सबका प्रभु परमात्मा ए,
नाम हो मुहम्मद ईसा चाहे भगवान है।
'कुसुमाकर' मँगते सारे एक ही दर के हैं ,
एक ही है दाता , यह एक सुल्तान है। ५९ ।
एक यही जगत का सिरजनहार दाता ,
पुतली -सा सारे जग को नाच नचाता है।
मिट्टी के अन्दर भर साँस खिलवाता खेल ,
जग के प्रकाश रवि ,चन्द्र चमकाता है।
'कुसुमाकर'स्वयं ये है हाकिम जगत का ,
जग पर सदा यही हुकुम चलाता है।
'कौन खिलाड़ी , खेल किसका है यह सारा ?'
सद्गुरु से जाने ,वही खुशियाँ मनाता है। ६०।
जग का करैया याद ,आता रहे हरदम ,
फिर कोई गम भी ,दे पाता नहीं गम है।
मालिक यदि याद रहे ,कमी होती पूरी है ,
किसी की भी आँख यहाँ रहती न नम है।
तेरे ही सहारे नाथ , कायर बने है सूरा ,
तेरी है कृपा जो प्रभु तो काहे का गम है।
'कुसुमाकर' ज्ञान बिना, याद नही आता प्रभु ,
सद्गुरु मालिक ए सब का हमदम है। ६१ ।
गुरु का बचन मान जग में रहें जो हम ,
सारे ही जहाँ में गुरु कीर्ति हो जायेगी।
आते-जाते ,खाते-पीते , स्वतः सुमिरन होगा ,
दुर्गति कभी पास फटक न पायेगी।
गुरू का बचन ,ज्ञान गुरु का समझ प्यारे ,
निरंकार. नाम. सुधि हरदम आयेगी।
'कुसुमाकर'तेरी इच्छा ,पूरी होवे जगन्नाथ ,
सद्गुरू याद रहे मौत भाग जायेगी। ६२ ।
मिल जाये जिसको गुरु का ये इशारा प्यारे,
उसे एक अद्भुत घर मिल जाता है।
गुरु का इशारा मिलते ही इस दुनिया में ,
सन्तों में यश ढेर सारा मिल जाता है।
भरम - भुलेखे छूटें, खुशियाँ समीप आयें ,
दुःख व दरिद्रता का ,भार टल जाता है।
'कुसुमाकर' गुरु के इशारे पर पापी जन ,
भारी भवसागर से पार चला जाता है। ६३ ।
जिस रब का है फरमान ए चलाता नित ,
दिनकर चाँद और अनगिन तारों को।
धरातल रुका हुआ जिसकी है आज्ञामान,
चला रहा सतत यहाँ पे जलधारों को।
अम्बर के अन्दर है अगिनी बनाई हुई ,
मात'कुसुमाकर' करती है जो अंगारों को।
वायु , जीव , नभ को चलाता निज मरजी से ,
नित्य प्रति घुमा रहा इन नव द्वारों को । ६४ ।
इस की ही आज्ञा मान सूरज सितारे चाँद,
चक्कर लगाते यहाँ, नित बारी-बारी है।
निज आज्ञा से धरा रोक जलधारा बना ,
अम्बर से आग बरसाई अतिभारी है।
वायु ,जीव ,नभ ये चलाये निज आज्ञा से ही,
छिप कर के आप, नचाये लीलाधारी है।
ऐसा हरि जिस का ये सकल पसारा यहाँ ,
'कुसुमाकर' शीशझुकाये बारम्बारी है। ६५ ।
एक महा ज्योति से समस्त जग पैदा हुआ ,
जिसका है अंश तू उसे तो पहचान ले।
जिस करतार ने दिया है तुझे नर देह ,
परम दयालु सुखधाम को तो जान ले।
'कुसुमाकर' तज अभिमान गुरु शरण आ जा,
'असली स्वरूप तेरा क्या है' यह जान ले।
जीवन जीने का इक सुन्दर शऊर मिले ,
निज आतमाका भी तू कर कल्यान ले। ६६ ।
प्रभु मेरा सर्वव्यापी , अगम , अगोचर है,
कोई भी जगह इस प्रभु से न खाली है।
पत्ता - पत्ता देख लिया दर-दर , घूम-घूम ,
और मैं टटोल लिया हर इक डाली है।
उधर उखाड़े और इधर लगाये सदा ,
'कुसुमाकर' यह एक अद्भुत माली है।
बलि - बलि जाऊँ, सदगुरु ने दिखायी जोत,
रूप, रंग ,वेश हीन शान पर निराली है। ६ ७ ।
मीठा - मीठा बोलो और नम्र हो चलो तू यहाँ,
सद्गुरु यही हर शिष्य को सिखाता है।
पर हित हेतु नित करते प्रयास रहो,
यह ही तो मुर्शद, सबको पढ़ाता है।
हरि की इच्छा में रह , हरदम खुश रहें ,
दाता निस दिन सब को ए समझाता है।
'कुसुमाकर' भटके हुओं को देता सत्य ज्ञान ,
सद्गुरु सब को स्वधाम पहुँचाता है। ६८ ।
यह मन और तन ब्रह्म नहीं मेरे भाई,
पर ब्रह्म इसी तन माहिबैठ बोलता।
माया की ओट बैठ प्रभु ए नचाये नाच ,
एक-एक जन का ए हृदय टटोलता।
खुद है प्रभु इस मकान का निवासी बना ,
इस में ही रह भेद लामकाँ का खोलता।
सत्य की खोज में भटक रहा नित मानव,
'कुसुमाकर'सद्गुरु भेद सारे खोलता। ६९ ।
गुरुमुख के लिये तो गुरु की कृपा महान ,
बाकी धन -दौलत ये माटी के समान है।
हर्ष -शोक , मान-अपमान भी समान माने ,
एक-सा ही माने निरधन, धनवान है।
गुरु पद का ही सदा ध्यान रखता है शिष्य ,
'कुसुमाकर' सम राजा और दरबान है।
सुख-दुःख हानि-लाभ एक ही समान माने ,
सद्गुरु कृपा से वो पाता कल्यान है। ७० I
पतित अधम को पुनीत औ' पवित्र करे,
वह केवल तेरा पवित्र प्रभु नाम है ।
बेघर जनों को घर मिलता सुहाना यहाँ ,
जो है अति ऊँचा और निरमल धाम है।
जिसका है बैरी यह सारा ही जमाना बना,
उसका सहारा रखवारा सुखधाम है।
'कुसुमाकर' जिस पर करे तू दया की दृष्टि ,
उसके चरण माहि दास का प्रणाम है। ७१ ।
इसका स्वरूप कोई समझ न पाये बन्धु ,
जब तक यह खुद आके समझाये ना।
माया का ए परदा हटा के खुद दीनानाथ,
जब तक मानव समक्ष स्वयं आये ना।
इसका तो जलवा कभी न कोई देख सका ,
जब तक यह खुद आप ही दिखाये ना' ।
'कुसुमाकर' जब तक यह ना प्रसन्न होवे ,
तब तक दात कोई इसकी तो पाये ना।७२ ।
पहली पहल उस जन की है जिसने कि ,
पहले को पहले पहल पहचाना है।
इस इक के ही सँग इकमिक हो के रहे ,
आनन्द इस इक का ,जिसने भी जाना है।
जानकर 'कुसुमाकर' इस करनहार को ,
दूजे दर पर अब भूल के न जाना है।
अंग - सँग एक देख, एक की ही दीद करे ,
मस्त रहे सदा देख एक मस्ताना है।७३।
जिसने प्रदान किया , रूप ये सुहाना तुम्हें,
सुन्दर - सा यौवन, सुघर -सी जवानी दी।
खाने को फल-फूल, अन्न भरपूर दिया ,
पीने को रस और सुन्दर मीठा पानी दी।
मात-पिता, भाई-बन्धु , यार. दोस्त ढेर सारे,
सुन्दर सुघर मनभावन सी रानी दी।
'कुसुमाकर'सद्गुरु हमारा हित चिन्तक है ,
धन्यवाद जिसने नई सी ए कहानी दी। ७४ ।
माल -खजाना और यह धन-दौलत सब ,
आखिरी समय कोई साथ नहीं जायेगी।
जिस दुनिया से तेरी प्रीति लगी है प्यारे ,
बिदा के समय वो भी काम नहीं आयेगी।
कुटुम्ब -कबीला, बीवी -बच्चे और संगी -साथी,
सबको ही छोड़ तेरी रूह रानी जायेगी।
'कुसुमाकर' बख्शिश वाले, दाता को तू याद कर,
तेरी नैया भव जल पार तर जायेगी। ७५ ।
बेटे-बेटी ,संगी -साथी, औ' सगे- सम्बन्धी भी ,
इन को समझ प्यारे , ढलती -सी छाया है।
महला , दुमहला, अटारी , धन सम्पत्ति,
यह सब प्रलोभन और झूठी माया है।
श्वाँसों को न अपना समझ 'कुसुमाकर' प्यारे ,
तेरा नहीं कुछ भी है ,माल ए पराया है।
सतगुरु से जो ब्रह्म एक बार देख लिया ,
चौरासी वह फिर , फिर के न आया है। ७६ ।
गफलत माहि पड़ सो रहा हैआँख मूँद,
जाग , जाग , जाग अब हो गया बिहान है।
बीता हुआ समय ये वापस न पायेगा तू ,
पछतायेगा बहुत नर अनजान है ।
मानव जनम ए अमोलक मिला है तुम्हें,
मानव तन मिलना ए, नहीं आसान है।
'कुसुमाकर' खुद से स्वयं ही अनजान नर ,
सदगुरु से कर ले तू प्रभु पहचान है।७७।
जगत में रहकर जग से निभाओ नाते,
बेशक जमाने माहि ,करो कारोबार है।
बेटे-बेटी, रिश्ते -नाते साथी -सँहाती संँग में,
रिश्ते निभाओ और करो सबसे प्यार है।
लेकिन ये भूल न जा , कौन सा ठिकाना तेरा ,
लौटना तुम्हें है , चार दिन की बहार है।
'कुसुमाकर' सन्त सद्गुरु सम्मान करो,
हरदम अंग -सँग तेरे निरंकार है। ७ ८ ।
माया यह रंग बिरंगी है तिहारी नाथ,
पहले तो सब का ही मन बहलाती है।
सुख सब जगत के छाया है ए जानो भाई ,
माया छाया जाती तो कहर अति ढाती है ।
जो भी है नजर आ रहा , है सब नाशवान,
'कुसुमाकर' वस्तु कोई साथ नहीं जाती है।
सन्त संँग प्रीति करे ,सुख वह सारे पावे,
सन्त कृपा जो करे , मुक्ति मिल जाती है।७९।
तेरे दर आके प्रभु दुनिया का ध्यान नहीं ,
' मैं मेरी' ध्यान नहीं , सब बिक जाती है।
चारों ओर तू ही तू दिखाई देता मेरे नाथ ,
तेरे सिवा और कुछ नहीं दिख पाती है।
तेरी इस दुनिया में , जब से निवास हुआ ,
अपनी भी सुधि बड़ी मुश्किल से आती है।
'कुसुमाकर' नाथ कृपा इतनी बनाये रखो ,.
माया मन डिगा ना सके ये खुराफाती है।८० ।
अपने लगाये कभी प्यार नहीं लगता है ,
गुरु जो लगाये, वह झट लग जाता है।
बुझे हुये दीपक से मिलता प्रकाश नहीं ,
गुरु जो जगाये वह झट जल जाता है ।
बिना सद्गुरु कोई भव जलतरा नहीं ,
लाख हो श्रृंगार बिना पति नहींभाता है।
'कुसुमाकर'ज्ञानी वो जो अंग -सँग देखे हरि ,
पूरा सद्गुरु क्षण (में )ब्रह्म दिखलाता है।८१।
गुरु वो नहीं जो हरि दरश कराये नहीं ,
भाषण तो दे पै गुरुसिख जो बनाये ना।
देवे उपदेश पर स्वयं न पालन करे ,
कहे पर गृहस्थ वो, खुद अपनाये ना।
'कुसुमाकर' मूर्ख बन्दे, जन्म-जन्म दुःख झेलें ,
सच्चे सद्गुरु को वो जब तक पाये ना।
कबहुँ कृपालु कृपा कर खुद आते यहाँ ,
बिना प्रभु के तो कोई बिगड़ी बनाये ना। ८२ ।
इधर-उधर सदा घूमता रहे जो वह ,
दाना चक्की बीच अवश्य पिस जाता है।
कीली से सटा जो रहे ,चाहे जो भी हो जाये,
दाना पिसने से एकदम बच जाता है।
सुख-दुःख रूपी चक्की में सभी हैं चकराते ,
ऊँच- नीच में घिरा हरेक ठुकराता है।
'कुसुमा कर' गुरु चरणों में जो लगा ही रहे ,
चौरासी में जाने से वो साफ बच जाता है।८३।
दुःखिया भी सुखिया बनेगा क्षण माहियरि ,
अंग - सँग हरि को बेशक जान पायेगा I
माया का ए रंग कभी, उस पे चढ़ेगा नहीं ,
यम उस पर रब रंग चढ़ जायेगा।
निरंकार को जो भूले , सदा दुःख सहता है ,
जनममरण से न वह बचपायेगा।
ज्यूंँ-ज्यूँं करे कर्म अहंकार बढ़े 'कुसुमाकर',
मिले गुरु पूरा तो वो सहज समायेगा। ८४ ।
जिसे मिल जाये इस ईश का सहारा प्यारे ,
काम उसका न कहीं कोई रुक पाता है।
आधि होवे , व्याधि होवे , या कोई उपाधि होवे ,
कोई नहीं उसके समक्ष टिक पाता है।
कार्य सारे पूरे करे खुद जगदीश्वर ये ,
पल भर में भक्तों के धोने धो जाता है।
'कुसुमाकर' जिसका नामो ईसहारा यहाँ ,
उसका सहारा निरंकार सुखदाता है।८५।
जिसने न जाना निरंकार प्रभु को हे यहाँ ,
उसका तो जनम अकारथ ही जाना है।
माया चकाचौंध में, भुलाये हुये मानव का ,
है धिक् जीवन , धिक् पीना धिक् खाना है।
पाप की कमाई से ,जोड़े धन पे ऐंठता है,
'कुसुमाकर' इसका तो कोई ना ठिकाना है।
नाम बिना साथ तेरे कुछ भी न जाये प्यारे ,
कुरबान गुरु पर जासों रब जाना है। ८६ I
काहे नर व्यर्थ में , गँवाता समय सोचमें तू,
हरि को सुमिर तेरे काम यही आयेगा।
जिसका हुकुम चले रवि धरा जल पर ,
इसकी ही आज्ञा सारे प्राणियों प पायेगा।
जिसकी आज्ञा के बिना पत्ता तक हिले नहीं ,
आज्ञा बिना एक तिल भ नहीं तू पायेगा।
'कुसुमाकर'गुरु से जो मिल याके गुण गाये,
चिन्ता करेगा हर दुःख से बचायेगा। ८७ ।
द्वैत भावना कभी भी किसी को नका करे ,
जिस बन्दे को प्रभुपे पूर्ण विश्वास है।
जीवन सकल निज सौंपे परमात्मा को,
सबकुछ भूल रखे इसकी ही आस है।
भली -बुरी हर शै में, इसका दीदार करे,
जग क्या बिगाड़े उसका. प्रभु जाके पास है।
'कुसुमाकर' बन जिज्ञासु गुरु पास आये ,
द्वैत भाव जाये ऐसा मुझे एहसास है। ८८ ।
तेरी कुदरत का दयालु कहीं अन्त नहीं ,
गीता वेद ग्रन्थों ने भी तेरा यश गाया है।
अनुपम अमरदाता गुणों से है बाहर तू
छिपा भले जग से तू, भक्तों ने पाया है ।
रूप जवानी का दे ,चकमा चलाये चक्कर,
तेरे ही हुकुम से ए दाता तेरी माया है।
'कुसुमाकर' भक्तों ने तुझे पहचान लिया ,
सद्गुरु से जिसने तेरा ज्ञान पाया है। ८ ९ ।
मानव है जगत में आया किस काज हेतु,
यह सब ग्रन्थ पंथ सन्तों ने बताया है।
करके कृपा कृपालु ने है नर देह दिया,
इसमें ही हरि मिले , यह समझाया है।
अपने प्रभु को इस जीवन में ही जानले,
इसीलिए ईश्वर ने मनुज बनाया है ।
'कुसुमाकर' जिसने भी निज प्रभु जान लिया ,
उसका ही जीवन सफल कहलाया है। ९० ।
हिन्दू ,सिख ,मुसलिम ,पारसी ,ईसाई सभी ,
एक जैसे इनसान ईश ने बनाया है।
गीता, वेद ,ग्रन्थ ,पुराण औ'कुरान में भी ,
एक ही की सबने दुहाई दुहराया है।
एक ही है सिरजनहार सारे जगत का ,
पुतली- सा नाच यह सबको नचाया है।
'कुसुमाकर' कौन खिलाड़ी, खेल किसका है,
राज जाने जाना वह खुशियाँ मनाया है९१ ।
बड़े भाग्य नर तन पाया इस जग माहि,
इसकी संभार मेरे यार कर लीजिये।
परम प्रभु की सन्तान सब भाई-भाई ,
सबसे ही मित्र यहाँं प्यार कर लीजये।
हर दिल में है दिलदार बसा अपना ही ,
इसका 'कुसुमाकर'सत्कार कर लीजिये।
सन्त सद्गुरु की चरण धूलि शीशधर,
तन तरणी को भवपार कर लीजिए |९२ I
बिन धरती के काम चले किसी का यहाँ ,
और धरती हित आसमान जरूरी है।
तीर चढ़ाना है तो सुन ले नावक प्यारे ,
उसके लिए तो इक कमान जरूरी है।
जीवन की खातिर है प्राणी को जमाने माहि,
'कुसुमाकर' बेशक ए प्राण जरूरी है।
इन्सानी जामे माहि भगवान मिलता है ,
गुरु से जो मिलता है दान वो जरूरी है। ९३ ।
मानवता का जो बढ़ाये सम्मान यहाँ,
वह जन जगती के हित वरदान है।
मानवता से जो जन गिर जाये वह ,
पशु से भी गया बीता मृतक समान है।
युगों - युगों से सन्त सज्जनों ने दुनिया में ,
मानव को सत्य की कराई पहचान है।
प्रेम से ही रहना सिखाया हमें सद्गुरु ने ,
किया'कुसुमाकर' यही प्रेरणा प्रदान है।९४ ।
मधुरबचन , तन मन हो पवित्र मित्र ,
भूलें नहीं हम सुमधुर व्यवहार को।
एक ईश जाने और एक ही को माने सदा,
एक हो के जियें मानें एकता विचार को।
'कुसुमाकर' जो भी मिली दात हैदातार से ही ,
भूलें नहीं सन्त सद्गुरु सत्कार को।
छोटा ना बड़ा है कोई सब है समान यहाँ ,
ए है दरबार जग सिरजनहार को। ९५।
निरंकार को जो पहचाने इस दुनिया में ,
उसकी तो शान सारे जग से निराली है।
यह है दयालु दान करता दया का सदा,
इसकी दया से जग माहि खुशहाली है |
ऐसे ही प्रभू के बन्दे जगत निरोग करें ,
भक्तजनों की बेड़ी पार लगाली है।
'कुसुमाकर' सबकी करे है परवाह यही ,
पल-पल , क्षण - क्षण करे रखवाली है। ९६ ।
जैसे खम्भा छत का उठाता सारा बोझ प्यारे ,
वैसे मानव मन गुरु से सहारा पाता है ।
जलते हुये दीपक से जैसे हो अँधेरा दूर ,
वैसे गुरू दर्शन से मन चमकाता है।
जैसे अंधेरे माहिदीपक दिखाता पथ ,
सद्गुरु क्षण माहि ब्रह्म दिखलाता है।
'कुसुमाकर' करुणाकर की है महिमा महान ,
सन्त सज्जनों का तो हमेशा से ही नाता है। ९७।
ठौर ठिकाना और मंजिल के ज्ञान बिना ,
राही जैसे राह माहि अति घबराता है।
जानलेवा भय और सहम विषैला वह ,
घिरा हुआ हरदम सिर पर पता है।
कहीं जाना , कैसे जाना , कुछ भी है आश नहीं ,
पग-पग उसे इक बोझ-सा बुझाता है।
मंजिल का ज्ञाता देवेतनिक इशारा यदि ,
'कुसुमाकर' भ्रम भय रहित हो जाता है।९८।
कहाँ लिखा तज दे जगत और धूनी ताप,
कहाँ लिखा घर छोड़ संताप सहना।
तज परिवार वेशधार कर साधु बन,
दर-दर भटकते धक्के खाते रहना।
तजकर माया मोह धन को लुटाना कहाँ,
लिखा निज बलि चढ़ा कष्ट आदि सहना।
ग्रन्थ 'कुसुमाकर 'कहें गुरु पद शीश झुका ,
गुरु से प्रभु को पाके सदा खुश रहना। ९९ ।
जिसके हुकुम से ए सूरज सितारे चाँद,
चमक दिखाते चढ़ते औ' छुप जाते हैं।
किसकी आज्ञा को मान अम्बर में लाखों तारे ,
किसके लिए ए लगातार जगमगाते हैं।
कौन है जो हमें वस्त्र भोजन प्रदान करे ,
कौन कान मुख दिया सुनते-सुनाते हैं।
'कुसुमाकर'सद्गुरु परम दयालु प्रभु ,
आत्मा जो भटकी है रब से मिलाते हैं। १०० I
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एक अच्छी काव्य रचना है। प्रयास स्तुत्य है।
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