देवेंद्र कुमार बंगाली गोरखपुर के कविता-क्षेत्र में एक अच्छा खासा नाम हैं. वह गामीण परिवेश के कवि हैं और शहरी परिवेश के भी. इनके दो संकलन मे...
देवेंद्र कुमार बंगाली गोरखपुर के कविता-क्षेत्र में एक अच्छा खासा नाम हैं. वह गामीण परिवेश के कवि हैं और शहरी परिवेश के भी.
इनके दो संकलन मेरे सामने हैं-“देवेंद्र कुमार की प्रतिनिधि कविताएँ” और “आधुनिक हिंदी कविता के पहले दलित कवि देवेंद्र कुमार बंगाली”. इन दोनों संकलनों को कवि देवेंद्र आर्य ने संपादित किया है.
आर्य ने इस दूसरे संकलन की एक विस्तृत भूमिका लिखी है. इस भूमिका में कवि के कवि-कर्म पर और उनका व्यक्तिगत परिचय देकर उनके दलित-संबंध पर चर्चा की गई है. इसमें उनके काव्यत्व पर एक हल्की समीक्षात्मक टिप्पणी भी है जिसमें उनके समूचे काव्य की चर्चा की गई है. कवि के व्यक्तित्व और कृतित्व की सुंदर और संतुलित विवेचना भी की गई है. इस विवेचना को निर्मम कहा जा सकता है. क्योंकि इसमें कवि की स्तुति ने समय न खर्च कर उनकी कविताओं की, उनके सृजित बिंबों की आलोचना की गई है. आज की आलोचना से अलग इसमें सूक्ष्मग्राही दृष्टि से काम लिया गया है.
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इस भूमिका का आधार लेकर, इस लेख में, आर्य की दृष्टि से देखे गए कवि के कवि-कर्म और व्यक्तित्व पर मैंने कुछ आलोचनात्मक टिप्पणी दी है.
गोरखपुर एक ऐसा जन-क्षेत्र है जहाँ के जन, कविता कवि सम्मेलनों में अधिक सुनते हैं, पढ़ते कम हैं. कविताएँ पढ़ता है प्रबुद्ध वर्ग. देहाती परिवेश के प्रति संवेदनशील होते हुए भी देवेंद्र कुमार प्रबुद्ध वर्ग के ही कवि जान पड़ते हैं.
कविता के क्षेत्र में देवेंद्र कुमार बंगाली का सत्तर के दशक में ही आविर्भाव हो गया था. उस समय (सन् 1966-68 में) मैं नीना थापा इंटर कॉलेज में था, मेरे अध्यापक मित्र सैयद असगर मेंहदी आपसी कविता-चर्चा के दौरान कभी कभी देवेंद्र कुमार बंगाली का नाम लेते थे, उनकी एकाध कविताएँ भी सुनाते थे. ये कविताएँ वे अपने रेल कर्मी पिता से पाते होंगे. देवेंद्र कुमार बंगाली भी रेल-कर्मी थे और मेंहदी के पिता भी. इनमें साहित्यिक रुचि भी थी. बंगाली की कविताएँ नयी शैली की होतीं थीं. तब कविता में वादों की आँधियाँ चल रहीं थीं. लेकिन देवेन्द्र कुमार किसी वाद से ग्रस्त होते सुनाई नहीं दिए. गोरखपुर से बाहर उनकी कविताओं की चर्चा कम ही हुई.
अस्सी के दशक में प्रबुद्ध वर्ग में उनकी कविताओं की चर्चा होने लगी थी. सन् 1972 में उनकी पहली कृति प्रकाशित हुई- ‘कैफियत’, और सन् 1980 में ‘बहस जरूरी है’. किंतु सन् 2016 के पुस्तक मेला में ही मुझे आर्य द्वारा संपादित उनकी एक प्रतिनिधि कविताओं का संकलन मिला. और दूसरा संकलन उसके कुछ ही समय बाद.
इस दूसरे संकलन की भूमिका पाँच खंडों में है. पहले खंड में कवि के संबंध में सामान्य बातें की गई हैं. कवि के व्यक्ति के संबंध में संपादक का आकलन है कि वह एक सहृदय, सरल-हृदय, संवेदनशील पर चुप्पा कवि थे. उन्होंने अपनी कविताओं में अपने परिवेश (सोच, समझ और जीने) के अनुभव को समेटा है.
भूमिका के तीसरे खंड में आर्य, कवि के संबंध में एक आलोचना योग्य बात कहते हैं-
“देवेंद्र कुमार बिना कहीं घोषित किए कि वे दलित रचनाकार हैं, साहित्य के ब्राह्मणवाद पर गहरी चोट
कर जाते हैं” (पृष्ठ 23).
इस उद्धृतांश के अध्ययन से अनुमान होता है कि देवेंद्र कुमार के मन में कहीं न कहीं दलित-कुंठा दबी पड़ी थी. वह भोले भाले थे पर सरल-हृदय नहीं थे. उनमें एक चतुर व्यक्ति का वास था. क्योंकि उनकी काव्योक्ति को ब्रह्मणवादी सीधे न समझ कर समझते समझते कहीं समझ सकते थे कि उनकी कोई खास कविता ब्राह्मणवाद पर कटाक्ष है और फौरी प्रतिक्रिया से बच सकते थे (यह कोई टिप्पणी नहीं, उस वाक्य का लक्ष्यार्थ प्रतीत होता है). उनके सहकर्मी जगदीश नारायण श्रीवास्तव बताते हैं कि वह अपने प्रति जातिसंज्ञक संबोधन से चिढ़ते थे.
आर्य पृष्ठ 24 पर कहते हैं- “चाहे जिस भी कारण से, उनकी लगातार उपेक्षा हुई और वे हिंदी के सवर्ण साहित्य परिसर में मुख्य धारा से काट दिए गए.”
भूमिका से लिए इस उद्धृतांश में शुरू का वाक्य बहुत विरोधाभासी है. संपादक आर्य के ही अनुसार देवेंद्र कुमार बंगाली गोरखपुर के अपने समय के वह नवोदित कवि थे जिनकी कविता धर्मयुग ने छापी, और वह प्रचार पाए. साप्ताहिक हिंदुस्तान ने भी छापी तथा अन्य और पत्रिकाओं ने भी छापी. फिर भी आर्य की यह उलाहना? जहाँ तक उनपर किसी आलोचनात्मक पुस्तक की बात है, शहर के कुछ नामचीनों को छोड़कर अभी भी कई कवि हैं जो इस दृष्टि से उपेक्षित हैं, और ये सभी दलित नहीं हैं. गणेश पाणडेय खुद अपनी जमीन बना रहे हैं. बंगाली किन्हीं कारणों से अपनी जमीन नहीं बना पाए यही कहना युक्तिसंगत है. देवेंद्र कुमार बंगाली जैसे स्वाभिमानी कवि के लिए परमुखापेक्षिता की बातें करना उचित नहीं लगता. अन्यों ने उनकी उपेक्षा कर दी इसलिए वे कम चर्चित हुए यह कहना भी ठीक नहीं. जायसी तो कई सौ बर्षो तक साहित्य जगत में उपेक्षित रहे. किंतु सूफी समुदाय में परम पूजित रहे. क्या ‘बंगाली’ दलित समाज में उतने ही सम्मान्नित थे? आर्य को इसपर भी विचार करना चाहिए था. मुझे तो नहीं लगता कि उनकी कविताएँ दलितों में बहुत लोकप्रिय थीं.
उक्त उद्धृतांश के परवर्ती वाक्य में किसी “सवर्ण साहित्य परिसर” का उल्लेख है. क्या हिंदी साहित्य जगत में वाकई सवर्ण साहित्य परिसर नाम की प्रत्यक्ष या अप्रत्यक्ष कोई संस्था है? धर्मयुग जैसी उक्त पत्रिकाओं के संपादक सवर्ण थे तो ये पत्रिकाएँ सवर्ण साहित्य परिसर का अंग हुईँ मान लिया जाए तो सवर्ण साहित्य परिसर में मुख्य धारा से उन्हें कहाँ काटा गया. वे मुख्य धारा की पत्रिकाएँ थी और उनने देवेंद्र कुमार की कविताएँ छापी थीं. आज दलितों में से भी हिंदी साहित्य जगत में प्रखर लेखक-विभूतियाँ हैं पर उनमें से किसी ने उनके काव्य पर अपनी लेखनी नहीं चलाई. आर्य यहाँ किसी तरह की कुंठा से पीड़ित दिखाई दे रहे हैं,
भूमिका में संकलन संपादक आर्य ने (पृष्ठ 17-18 पर) बंगाली के एक बिंब सृजन की अस्वाभाविकता को दिखाया है. बंगाली द्वरा वह सृजित बिंब है-
कविता को अच्छी होने के लिए
उतना ही संघर्ष करना पड़ता है
जितना एक लड़की को औरत होने के लिए
(यह वसंत : बहस जरूरी है)
आर्य यहाँ मान बैठे हैं कि कविता सायास लिखी जाती है (कवि भी यही संकेत करते है) और आयास के संघर्ष में विकसित होती कविता को किसी लड़की के औरत होने के प्रकृत विकास के साथ जोड़कर बिंब खड़ा करना त्रुटिपूर्ण है. बात तो पते की है, पर आर्य को इस तथ्य पर भी गौर कर लेना चाहिए था कि मिथुनरत क्रौंच पक्षी के जोड़े में से नर क्रौंच के मारे जाने पर मादा क्रौंच के चीत्कार से बाल्मीकि के हृदय में जो करुणा उमड़ी और वाणी से निःसृत हुई, उसने अनूठी कविता का रूप धारण कर लिया. यह कविता सायास नहीं थी स्वतःस्फुरित थी, किसी लड़की के औरत होने में नैसर्गिक विकास जैसी. बाल्मीकि की करुणा नैसर्गिक थी और वाणी भी.
अपनी उक्त आलोचना को और स्पष्ट करने के लिए आर्य ने उन्हीं की एक अन्य काव्य-पंक्ति उद्धृत की है-
धूप और अँधेरे की मिली जुली इच्छा है
कि मछलियाँ तालाब से बाहर आएँ...
अपने खाए जाने के खिलाफ
दबी जुबान से ही, मगर कुछ बोलें (परिसंवादः बहस जरुरी है)
और उनकी काव्य-दृष्टि पर टिप्पणी करते उक्त भूलभुलैया में फँस गए हैं-
“यह एक इतिहासविरोधी काव्य-दृष्टि है. एक तो धूप और अँधेरे की मिली जुली इच्छा नहीं हो सकती. एक यदि पक्ष है तो दूसरा उसका प्रतिकार. दूसरे व्यवस्था चाहती ही यह है कि मछलियाँ पानी से बाहर आकर विद्रोह करें ताकि उनका विद्रोह आत्महत्या में बदल जाए.“
उक्त काव्य-पंक्तियों की यह आलोचनात्मक व्याख्या बहुत अटपटी लगती है. इस क्षण विद्वद्जनों का कहना मुझे याद आ रहा है कि अभिव्यक्ति की भाषा दो प्रकार की होती है, एक तथ्यानुवर्तनी और दूसरी भावानुवर्तनी. काव्य में भावानुवर्तनी भाषा का प्रयोग होता है. भावानुवर्तन के वशीभूत होने से ही कवि काव्य में प्रतीकों और बिंबो तथा मानवीकरण का संयोजन करता है. काव्य में प्रतीक भी बोलते हैं, बिंब भी बोलते हैं और मानवीकरणकृत तथ्य भी बोलते और इच्छाएँ रखते हैं. राजेश जोशी के जिद काव्य-संकलन की कविता अँधेरे के बारे में कुछ वाक्य का अँधेरा और उजाला दोनों बोलते हैं और इच्छाएँ भी रखते हैं. और आर्य यहाँ धूप और अँधेरे का इच्छायुक्त होना इतिहासविरोधी बता रहे हैं (इतिहासविरोधी अथवा तथ्यविरोधी?). ‘मिलीजुली’ शब्द से संकेत मिलता है कि उनकी अकेली अकेली इच्छाएँ हो सकती है. अकेली अकेली हो सकती हैं तो मिलीजुली क्यों नहीं. भावानुवर्तन की भाषा में किसी की भी इच्छाएँ हो सकती हैं.
अपनी इस आलोचना में आर्य ने एक और उलझन पैदा कर दी है- वह धूप को पक्ष और अंधेरे को उसका प्रतिकार बता रहे हैं. उन्होंने इस बात का ख्याल नहीं किया कि अँधेरा का अपना कोई अस्तित्व है ही नहीं. अँधेरे का होना धूप के न होने से ही है. जबतक दीया जलता है अँधेरा पास फटकता नहीं, दीया बुझा अँधेरा हाजिर. फिर इनको पक्ष और उसके प्रतिकार (प्रतिपक्ष) का प्रतीक कैसे माना जा सकता है. पक्ष और प्रतिपक्ष दोनों अस्तित्ववान होते हैं. उन्होंने इसमें व्यवस्था को भी ला खड़ा किया है. लगता है उनपर मार्क्सवादी विचारधारा हाबी है. मछलियाँ पकृति की व्यवस्था में जल में रहती हैं. मछुआरा किसी मानवी व्यवस्था में अपने जीवन यापन के लिए उन्हें जल से निकालता है, जल से निकलते ही मछलियाँ मर जाती है. आर्य व्याख्या करते हैं कि मानवी व्यवस्था मछुआरों द्वारा मछलियों को जल से इसलिए निकलवाती है कि वे आत्महत्या कर सकें (या मनुष्यों के जीवन-यापन में सहयोग दे सकें?). आर्य की यह व्याख्या जबरदस्ती की है. अगर देवेंद्र कुमार बंगाली ने व्यवस्था को आततायी दिखाने के लिए यह बिंब सृजित किया
है तो यह त्रुटिपूर्ण है.
मेरे मन में एक प्रश्न उठता है कि क्या बिंब ऐसे नहीं होने चाहिए जिसमें कवि जो अर्थ संप्रेषित करना चाहता है, उसके कुछ अर्थ-संकेत उसमें हों. मुक्तिबोध ने अपनी अँधेरे में कविता में एक रक्तस्नात पुरुष का बिंब सृजित किया है. यह बिंब अभी भी आलोचकों के लिए एक पहेली है. सबने इस बिंब पर अपने अपने अर्थ आरोपित किए हैं.
देवेंद्र आर्य भूमिका में एक विवादास्पद बात भी करते हैं-
“देवेंद्र कुमार अपने को दलित मानते थे या नहीं, इससे ज्यादा महत्वपूर्ण यह है कि वे दलित थे या नहीं ?” (पृष्ठ 24).
देवेंद्र कुमार बंगाली दलित थे या नहीं, यह तय करना बहुत महत्वपूर्ण क्यों है. सरकारी फाईलों में तो ऐसा करना कई कारणों से जरूरी होता है किंतु साहित्य में भी ऐसा करना....यह जान लेने से क्या उनके काव्य-व्यक्तित्व में कोई निखार आ जाएगा, जिससे दलित न कहने से वह वंचित रह जाते? आर्य के इस तर्क के आधार पर तो अम्बेडकर को दलित महात्मा या रैदास को दलित संत कहना चाहिए. कुमार के स्वयं को दलित न मानने के पीछे कोई कारण रहा होगा. आर्य को उसे जानने की कोशिश करनी चाहिए थी. उनकी इच्छा के विपरीत उनके प्रति दलित विशेषण प्रयुक्त करना आर्य के किसी विशेष प्रयोजन की ओर ईशारा करता है. दलित शब्द एक राजनीतिक शब्द है. संभव है कुमार को दलित कहने के पीछे उनका कोई राजनीतिक उद्देश्य हो.
देवेंद्र कुमार बंगाली को दलित विशेषण से विभूषित करते हुए आर्य उन्हें आधुनिक हिंदी कविता का पहला दलित कवि कहते हैं. कवि को दलित कहने से आर्य का क्या उद्देश्य हो सकता है. इसका हल्का सा अनुमान उनकी इस पंक्ति में झलकता है- आखिर ऐसा क्यों हुआ कि आज जो दलित नहीं है, वह भी चाहता है कि उसे दलित साहित्यकारों में शुमार कर लिया जाए (पृष्ठ 21). शायद आर्य को यह भय हो गया लगता है कि कहीं इन दलित साहित्यकारों (में से कोई) दो पीढ़ी पुराने प्रमाण-पत्र पर स्वयं को (पहला दलित कवि) रेखांकित न करा ले (वही पृष्ठ). कैसा बेतुका भय है यह. आर्य शोध छात्रों के लिए भी कुछ नहीं छोड़ना चाहते. इसी पृष्ठ पर वह यह भी कहते हैं- स्वयं देवेंद्र कुमार ने कभी यह जाहिर नहीं होने दिया, न व्यक्तिगत बातचीत में न कविता में, कि वे जन्मना दलित हैं. आर्य ने उनकी मनस्थिति को जानने की चेष्टा नहीं की कि कवि ने ऐसा क्यों किया. वह केवल जिज्ञासा भर करके रह गए- देवेंद्र कुमार की इस मनस्थिति के पीछे कुंठा थी या उनकी प्रगतिशील-वाम चेतना? (पृष्ठ वही).
कवि को दलित विशेषण से अभिहित करने के पूर्व उन्हें उनके मन की स्थिति को जानने का प्रयास करना चाहिए था. हालाँकि वह इतना अवश्य कहते हैं- वे सबके प्रिय और आदरणीय बनना चाहते थे (पृष्ठ23). बस केवल इतना ही कारण था उनके अपने को दलित कहकर प्रकट न करने का? और ऐसा सोचना कोई गलत तो नहीं था.
इसी पृष्ठ 23 पर आर्य यह भी कहते हैं- देवेंद्र कुमार के लिए उनका मात्र कवि-रूप ही महत्वपूर्ण था, दलित कवि-रूप नहीं. उन्हें अलग से दलित-बैसाखी की जरूरत नहीं पड़ी. किंतु उनकी मृत्यु के उपरांत आपने उन्हें दलित-बैसाखी को पकड़ा ही दिया और अफसोस जताते हैं- काश! उन्होंने इसपर (दलित-बैसाखी ग्रहण करने पर?) सचेतन रूप से ध्यान दिया होता तो शायद कुछ मार्मिक कविताएँ हिंदी जगत को दे पाए होते. दलित-बैसाखी न लेने के कारण उन्हें वह प्रताड़ना नहीं झेलनी पड़ी थी जिसके चलते दलित साहित्य का अलग अस्तित्व सामने आया. तो आपने उन्हें दलित विशेषण देकर उनकी यह कमी पूरी कर दी?
मुझे यही समझ आ रहा है कि भले ही देवेंद्र कुमार ने आज के दलित-साहित्य जैसी मार्मिक कविताएँ न दी हों पर वह दलित कवि अर्थात दलितों में से एक कवि हैं और पहले कवि हैं यही बताना भूमिका लेखक की मंशा है.
‘दलित कवि’ से एक और अर्थ का द्योतन हो सकता है- दलितों के कवि या कहें दलितों के संबंध में सोच समझ रखने और उनके लिए कविता लिखने वाले कवि. एक तीसरा अर्थ भी लिया जा सकता है ‘दलित कवि’ का- दलित चेतना के कवि.
भूमिका में दलितों के प्रति उनकी सोच समझ या दलितों के लिए उनकी लिखी कविता का तो कोई जिक्र नहीं है पर दलित परिवेश को लेकर लिखी एकाध कविता का जिक्र अवश्य है. पर ऐसी कविताएँ तो दलित परिवेश से बाहर के कवि भी लिखते हैं और लिखे हैं. सन् 1929 में लिखी निराला की एक कविता है-
दलित जन पर करो करुणा
दीनता पर उतर आए प्रभु
तुम्हारी शक्ति वरुणा. (अणिमा)
इस कविता में दलित शब्द को व्यापक अर्थ में लिया गया है. जिसमें दीनता हो वे सभी दलित हैं चाहे वे किसी वर्ग से हों. आगे चल कर राजनीति में अम्बेडकर के डिप्रेस्ड क्लास को दलित कहा गया जो एक सीमित अर्थ देता है. इस सीमित में भी सीमित वर्ग (चमार या अछूत) के लिए आर्य ने दलित शब्द का प्रयोग किया है. आर्य की इस सोच ने थोड़ी देर के लिए मुझे सोच में डाल दिया कि बंगाली को उनकी जाति बताकर उन्हें दलित कवि कहने की उन्हें क्या आवश्यकता आन पड़ी, जबकि आर्य के अनुसार ही मृत्युपर्यंत वह अपने को दलित कहलाने को तैयार नहीं थे.
खैर, दलित कवि से आर्य का क्या यह भी मकसद हो सकता है- दलितों के कवि अथवा दलित चेतना के कवि- यह जानने के लिए एक अलग लेख तैयार करने की आवश्यकता जान पड़ती है. वह फिर कभी.
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(शेषनाथ प्रसाद श्रीवास्तव)
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