सम्पूर्ण देश में लोक पर्व भिन्न-भिन्न स्वरूपों में मनाये जाने की परम्परा है। इसी में से एक संजा लोक पर्व है जिसे संझा पर्व भी कहते हैं जो मध...
सम्पूर्ण देश में लोक पर्व भिन्न-भिन्न स्वरूपों में मनाये जाने की परम्परा है। इसी में से एक संजा लोक पर्व है जिसे संझा पर्व भी कहते हैं जो मध्य प्रदेश, राजस्थान,गुजरात एवं उत्तर प्रदेश के कुछ क्षेत्रीय हिस्सों से में अविवाहित कन्याओं द्वारा मनाया जाता है। यह विभिन्न प्रान्तों में अलग-अलग नामों से प्रचलित है। संजा पर्व श्राद्ध पक्ष में अर्थात भाद्रपद की पूर्णिमा से आश्विन कृष्ण पक्ष अमावस्या यानी सोलह दिवस तक घर की दीवारों पर गोबर से लीपकर तथा गोबर की ही आकृति बनाकर मनाया जाता है। शाम के समय सभी सहेलियाँ एकत्रित होकर गीत गाती हैं और प्रसाद का भोग लगाकर वितरीत करती हैं। संजा के गीत उन सभी घरों में गाये जाते हैं जहाँ संजा मांडी गयी है।अंतिम दिन यानी सर्वपितृ अमावस्या को सोलह दिवस तक बनाई गई सुखी आकृतियाँ दीवार पर से निकालकर नदी-तालाब ,कुओं में विसर्जित कर दी जाती है।
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इस पर्व में संजा माता गौरा का रूप होती है जिससे अच्छे पति को पाने की मनोकामना की जाती है। संजा को सांझी पर्व भी कहा जाता है।मुख्य रूप से मध्य प्रदेश के मालवा एवं निमाड़ अंचल का यह प्रमुख पर्व है जो ग्रामीण क्षेत्रों में आज भी उतने ही उत्साह एवं उमंग के साथ मनाया जाता है।शहरीकरण एवं आधुनिकता की अंधी दौड़ ने हमारे लोक पर्वों एवं लोकगीतों को बहुत नुकसान पहुँचाया है तथापि ग्रामीण क्षेत्रों ने इसे कुछ सीमा तक बचाया भी है।
इस पर्व पर घर की दीवारों और दरवाजों पर कुंवारी गाय का गोबर लेकर कन्याऐं विभिन्न आकृतियाँ बनाती हैं,उन्हें फूल,पत्तों एवं रंगीन कागज की पन्नियों से सजाती हैं और संध्या समय उनका पूजन किया जाता है। प्रतिदिन कन्याऐं घर-घर जाकर संजा के गीत गाती हैं और प्रसाद वितरण करती है।प्रसाद ऐसा बनाया जाता है जिसे दूसरा कोई बता नहीं सके अर्थात उसे गुप्त रखा जाता है और इस तरह से अन्य सखियों से प्रशंसा पाई जाती है। मालवा में मनाया जाने वाला यह लोकपर्व अनुठा है। अन्य क्षेत्रों में इसका स्वरूप कुछ भिन्न है लेकिन कमोबेश लोक चित्रकारी और गाये जाने वाले लोक गीतों में साम्य परिलक्षित होता है।
संजा पर्व के सोलह दिन सोलह वर्ष के प्रतीक हैं।पारम्परिक रूप से कन्या विवाह की आयु सोलह वर्ष ही मान्य की गई है, इसी कारण संजा पर्व पर कन्याऐं अपनी सखी संजा को सोलहवें दिन बिदा करती है। आजकल लोगों के मकान पक्के सीमेंट कांक्रीट के होने लगे हैं, अतः दीवार पर कागज के रेडीमेड संजा के चित्र चिपकाकर भी पर्व मनाया जाता है लेकिन इसमें वह मौलिकता कहाँ!इसमें औपचारिकता का भाव समाविष्ट हो गया है।
संजा यानी संझा के आकार दीवार पर बनाने के लिए तिथिवार अंकन किया जाता है तथा गोबर से ही उनके आकार उभारे जाते हैं। इन आकारों को फूलों,पत्तियों और रंगीन पत्तियों से सजाया जाता है।खासकर गुलतेवड़ी के फूल से सजाया जाता है। श्राद्ध पक्ष की पूर्णिमा से लेकर अमावस्या तक सोलह दिनों तक प्रतिदिन तिथिवार आकृतियाँ बनाई जाती है जिनमें चाँद,सूरज और ध्रूव तारा बनाना अनिवार्य होता है जिसमें से ध्रूव तारे को सूर्योदय के पूर्व मिटा दिये जाने की परम्परा है।
प्रथम दिन पूनम का पाटला बनाया जाता है, दूसरे दिन बिजौर, तीसरे दिन घेवर, चौथे दिन चौपड़, पाँचवें दिन पाँच कुंवारें, छठे दिन छबड़ी, सातवें दिन सातिया या सप्त ऋषि, आठवें दिन आठ फूल, नवें दिन डोकरा-डोकरी या आठ पत्तियों का फूल, दसवें दिन वन्दनवार, ग्यारहवें दिन केले का पेड़, बारहवें दिन मोर-मोरनी, तेरहवें दिन बन्दनवार और चौदहवें दिन किलाकोट, ये सभी आकृतियाँ किलाकोट के अंदर बनाई जाती है। किलाकोट अंतिम मांडना है।इनमें क्षेत्रवार कुछ परिवर्तन संभव है।
संजापर्व लोकचित्र का ही पर्व नहीं है बल्कि यह लोकगीत का भी पर्व है।तिथिवार संजा बनाकर संजा के गीत गाये जाते हैं। उत्सव के दौरान कन्याऐं संजा माता की आराधना करती है, गीत गाकर वे अपने मन की बात कहती हैं।
संजा पर्व जो कि एक लोकपर्व है,इसपर गाये जाने वाले लोकगीत बहुत ही मनभावन होते हैं। इन गीतों की कुछ पंक्तियाँ दृष्टव्य हैं-
“छोटी सी गाड़ी गुड़कती जाए,गुड़कती जाए,
जी में बैठ्या संजा बाई,घाघरो घमकाती जाए,
चूड़लो छमकाता जाए,बईजी की नथनी झोला खाए,
बताई दो वीरा पीयर जाए।”
“संजाबाई का लाड़ाजी,लूगड़ो लाया जाड़ाजी,
असो कई लाया दारिका,लाता गोट किनारी का।”
“संजा तू थारा घर जा,थारी माय मारेगी कि कुटेगी,
चांद गयो गुजरात,हरणी का बड़ा-बड़ा दाँत,
कि छोरा-छोरी डरपेगा भई डरपेगा।”
“संजा मांग हरो हरो गोबर,संजा मांग हरो हरो गोबर,
कांसे लंऊ बहण हरो हरो गोबर
संजा सहेलडी बाजार में हालेवा राजाजी की बेटी।”
“संजा तू बड़ा बाप की बेटी ,तू खाए खाजा रोटी
तू पेने मानक मोती,पठानी चाल चले,गुजराती बोली बोले।”
इसी तरह अन्य अनेक गीत हैं जो क्षेत्र,स्थान,बोली के अनुसार स्थानीय प्रभाव अनुरूप गाये जाते हैं और तदनुसार पर्व मनाया जाता है। आधुनिकता की अंधी दौड़ में हम अपनी सांस्कृतिक खुबियों को पीछे छोड़ते चले जा रहे हैं। ये पर्व एक दूसरे को जोड़ने ,आपसी समझ विकसित करने तथा किशोरावस्था से यौवनावस्था की ओर कदम रखने वाली नवयौवनाओं को एक संदेश भी देता है।परम्पराओं के क्षय को किसी समाज या देश की सांस्कृतिक चेतना की दृष्टि से उचित नहीं कहा जा सकता। अतः संजा पर्व को प्रोत्साहित किये जाने और संरक्षित किये जाने की आवश्यकता है। यह समाज और परिजनों का दायित्व है कि अपनी सांस्कृतिक विरासत को अक्षुण्य रखने के लिए अपनी संतानों को इसका ज्ञान बांटे और इसे आगे बढ़ाये।
डॉ प्रदीप उपाध्याय,१६,अम्बिका भवन,बाबुजी की कोठी,उपाध्याय नगर,मेंढकी रोड़,देवास,म.प्र.
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