अंतिम संस्कार मानसिक आरोग्यशाला के कर्मचारियों की हड़ताल चल रही थी. हड़ताल से फैली कुव्यवस्था के कारण एक ही रात में दस रोगियों की मृत्य...
अंतिम संस्कार
मानसिक आरोग्यशाला के कर्मचारियों की हड़ताल चल रही थी. हड़ताल से फैली कुव्यवस्था के कारण एक ही रात में दस रोगियों की मृत्यु हो गयी. हड़ताल के कारण आरोग्यशाला के रोगियों के जहां खाने तक की व्यवस्था नहीं थी. वहां मृत रोगियों के दफनाने की व्यवस्था कौन करे ? रोगियों की लाशें पड़ी रहीं.
एक ही रात में दस रोगियों की मृत्यु हो जाना चर्चा का विषय बन गया था. पास-पड़ोस की बस्ती वालों को कैसे न कैसे इस बात की जानकारी मिल गयी कि मृतकों में तीन मुसलमान भी शामिल हैं. बस्ती वाले मुसलमान थे. वे मुसलमान मृतकों को दफनाने के लिये उनकी लाशें अस्पताल से उठा ले गये.
[ads-post]
बचे हुए सात मृतकों में से दो के गले में होली-क्रास लटक रहा था. बात कानों-कान फैलती हुई चर्च वालों तक पहुंच गयी. चर्च से कुछ लोग आकर उन दोनों की लाशें दफनाने के लिये ले गये.
बाकी बचे हुए पांच मृतकों को पहचानने वाला कोई नहीं था. पहले वे पागल कहे जाते हैं, बाद में मृतक हो गये.
हड़ताल के कारण मानसिक आरोग्यशाला का मुख्य द्वार खुला पड़ा था. मैदान के एक कोने में मृत रोगियों की लाशें पड़ी हुई थीं. उनकी लाशों पर मक्खियां भिनभिना रही थीं. बाद में कीड़े लगने लगें. तीसरे दिन चील-कौवे भी आ गये. बिना कोई पहचान खोजे वे प्राणी मृतकों के अंतिम संस्कार में जुट गये थें.
--0--
अंधा और लंगड़ा
लंगड़ा को शहर तक जाना था. रास्ता काफी उबर-खाबर और टेढ़ा-मेढ़ा था. लंगड़ा होने के कारण टेढ़ा-मेढ़ा और उबर-खाबर रास्ते पर चलने में उसे कठिनाई हो रही थी. पैर घिसट-घिसट कर चलने से वह काफी थक भी गया था. तभी उसकी नज़र एक अंधे पर पड़ी. लंगड़ा ने झट से उस अंधे से दोस्ती कर ली.
अंधा और लंगड़ा की दोस्ती की कहानी अंधा सुन चुका था. उसे लंगड़े की दोस्ती अच्छी लगी. वह लंगड़ा को अपने कंधा पर बैठा कर उसके निर्देशानुसार चलने लगा.
काफी देर बाद शहर में पहुंचने के बाद अंधा के कंधा से नीचे उतर कर लंगड़ा ने कहा, ‘‘अच्छा, अब तुम थक गये होगे. थोड़ी देर आराम कर लो, तब तक मैं भी अपना काम कर लूं.’’
लंगड़ा की बात सुन कर बेचारा अंधा सड़क किनारे एक जगह बैठ गया. लंगड़ा लाठी के सहारे अपने गंतब्य की ओर चला गया.
--0--
अपना-अपना सुख
उसकी दिली इच्छा थी कि चारों ओर उजाला रहे. अंधेरा से उसे सख्त नफरत था. इसीलिये शाम होते वह जी-जान से अंधेरा के विरुद्ध लड़ना शुरू कर देता था. अपनी शक्ति के अनुसार आसपास के पूरे क्षेत्र को वह रोशन कर देता था.
पहले वह साफ-सुथरा था. रोशनी फैलाते-फैलाते उसका मुंह काला हो गया. धीरे-धीरे उसका भीतरी भाग भी काला हो गया. लेकिन वह खुश था कि उसके प्रकाश से आसपास का अंधकार दूर हो गया है. जल-जल कर प्रकाश फैलाने में भी उसे बड़ा सुख मिलता था. आसपास का पूरा वातावरण उसके प्रकाश से खुश था. इस कारण वह, एक अदना-सा दीपक सबकी प्रशंसा का पात्र बन गया था.
दीपक की यह उपलब्धि पवन को बड़ा नागवार गुजरा. उसने अपनी गति तेज कर दी. पास बैठा एक आदमी पवन की तेज गति के कारण झिलमिलाते हुए लौ को देख कर दीपक को अपनी हथेलियों की ओट में कर लिया. दीपक बुझने से बच गया.
इस पर पवन झुंझलाया और उसने अपनी गति और तेज कर दी. इस बार दीपक नहीं बच पाया, वह बुझ गया. लेकिन पवन के शांत होते पास का आदमी फिर से दीपक जला दिया. चारों तरफ उजाला फैल गया. दीपक बड़ा खुश हुआ.
लेकिन दीपक जितना खुश हुआ, पवन उतना ही नाखुश हो गया. उसने अपना रुख बदल लिया. गति तेज कर उसने तूफान का रूप ले लिया. इससे दीपक न केवल बुझ गया, बल्कि गिर कर तुरंत टूट भी गया. उसके दो टुकड़े होकर आसपास बिखर गये. बत्ती कहीं गिरी, तेल कहीं गिरा.
दीपक को पवन की इस बेरुखी से बड़ा दुख हुआ. उसे यह दुख अपने गिरने औेर टूटने का नहीं था. उसे दुख था बुझने का, जिससे आसपास फिर से अंधेरा ने अपना पांव पसार लिया था.
---0---
अपना-अपना ढंग
प्लेटफार्म पर घूम रहा भिखारी रेलगाड़ी में बैठे यात्रियों से भीख मांग रहा था. वह खिड़कियों के पास खड़ा हो कर कह रहा था, ‘‘दस पैसा दे दो ! बाबू, अंधा-लाचार को दे दो ! - - - -’’
रेलगाड़ी के अंदर यात्रियों का पैर-हाथ कुचलता ड्यूटी पर तैनात सिपाही घूम रहा था. जिन यात्रियों के पास विशेष सामान था, उन्हें वह तंग कर रहा था. वह कह रहा था, ‘‘एतना समान है, तीन रुपिया दो. - - - जल्दी करो, वरना समान नीचे उतार देंगे.’’
रेलगाड़ी के बाहर भिखारी और अंदर सिपाही - दोनों यात्रियों के आगे हाथ पसारे हुए थें. यात्रियों से मांगने के लिये भिखारी अपने को लाचार साबित कर रहा था और सिपाही यात्रियों को. दोनों अपने-अपने ढंग से यात्रियों से मांग रहे थे.
--0--
अपना-अपना हिन्दुस्तान
‘‘मेरा है.’’
‘‘नहीं, यह मेरा है.’’
‘‘तुम दोनों की यह मजाल ? मेरे ‘हिन्दुस्तान’ पर अपना हक जमाना चाहते हो ?’’
‘‘क्या कहा तुमने ? जरा फिर से तो कह कर देखो !’’
यह चौथे की आवाज थी, ‘‘हिन्दुस्तान’ मेरा है. यह तुम्हारा हरगिज नहीं हो सकता.’’
वे चार थे. कफी देर से लड़ रहे थे. बात जुबान से शुरू होकर हाथापाई पर आ गयी थी. एक-एक हाथ से ‘हिन्दुस्तान’ को पकड़े हुए वे दूसरे हाथ से एक-दूसरे से लड़ रहे थें. लड़ाई जब नियंत्रण से बाहर पहुंच गयी तो ‘हिन्दुस्तान’ उनके हाथ में नहीं रह सका. देखते-देखते वे गुत्थमगुत्थ हो गये. लड़ने वालों ने ‘हिन्दुस्तान’ को अखाड़ा बनाया हुआ था. किसी क्षण उसका चिथड़ा-चिथड़ा हो सकता था.
तभी उधर से एक यात्री गुजरा. लेकिन वे लड़ने में इतना मशगूल थें कि उन्हें यात्री के गुजरने या रुकने का कुछ पता नहीं चल सका. वह कुछ देर तक लड़ाई देखता रहा.
कुछ देर बाद यात्री ने धीरे से ‘हिन्दुस्तान’ अपने हाथ में ले लिया. यात्री अकेला था. फिर भी उसे चारों का कोई भय नहीं था. क्योंकि चारों एक नहीं, चार थे. चारों लड़ते रहे और उस अकेले यात्री ने ‘हिन्दुस्तान’ हथिया लिया.
--0--
अंकुश्री
प्रेस कॉलोनी, सिदरौल,
नामकुम, रांची-834 010
E-mail : ankushreehindiwriter@gmail.com
अंकुश्री का परिचय व कुछ अन्य रचनाएँ यहाँ देखें - http://www.rachanakar.org/2017/05/blog-post_32.html
COMMENTS