मेरे एक लेखक मित्र को संपादक बनने का शौक चर्राया तो वह हिन्दी सेवा का व्रत लेकर एक लघु पत्रिका निकालना प्रांरभ कर दिया। पुश्तैनी जमीन बेची...
मेरे एक लेखक मित्र को संपादक बनने का शौक चर्राया तो वह हिन्दी सेवा का व्रत लेकर एक लघु पत्रिका निकालना प्रांरभ कर दिया। पुश्तैनी जमीन बेची, पत्नी के गहने बेचे, कुछ सहृदय मित्रों से आर्थिक सहयोग लिया और तलवार की धार पर संतुलन बनाकर चलने लगा। स्वाभिमानी आदमी थे। दुम हिलाने की कला उसे आती नहीं थी इसलिए कुछ ही समय में उसका दम फूलने लगा। हालत बिल्कुल कर्ज में दबे भारतीय किसान जैसी हो गई और कमर बस्ते के बोझ और पालकों की अपेक्षाओं तले दबे बचपन की कमर की तरह झुक गई। पर पाठकों का प्यार और हिन्दी सेवा का जुनून उसे सम्बल देता रहा।
एक दिन अचानक उनसे मुलाकात होने पर मैंने पूछा-‘‘मित्रवर! आपने यह कैसी हालत बना रखी है?‘‘ तो उसकी पीड़ा आँखों से आंसू बनकर बहने लगा। उन्होंने अपनी व्यथा प्रकट करते हुए कहा-‘‘भाई! कुछ लेखक सचमुच महान होते हैं क्योंकि वे एक लेखक होने के पहले एक नेकदिल इंसान होते हैं। पर कुछ लेखक महान तो नहीं पर महान टाइप के जरूर होते है। अब वे जन्मजात होते हैं या पूर्व जन्म से यह तो जानकारी नहीं है। पर विद्वानो का कहना है कि ऐसे महान टाइप के लेखकों का नाम साहित्य जगत में वैसे ही कुख्यात हो जाता है जैसे फिल्म शोले में डाकू गब्बरसिंह का नाम रामगढ़ में हो गया था। महान टाइप के लेखक का अवतरण इस जगत में संपादक और प्रकाशकों के कल्याण के लिए होता है। जब तक ऐसे लेखक अपनी रचना किसी प्रकाशक या संपादक को नहीं देते तब तक किसी के लिए भी लघु पत्रिका निकालना संभव नहीं हो पाता।
पता नहीं पिछले जन्म में मैंने कौन-सा अपराध किया था जो इस जन्म में हिन्दी सेवा करने की बुरी लत लग गइ्रर्। किस मनहूस घड़ी में मैंने लघु पत्रिका निकालने की जोखिम उठाने का फैसला लिया, यह तो अब मुझे भी याद नहीं है। लोग पत्रिका पसंद करने लगे थे तो गाड़ी पटरी पर दौड़ने लगी थी पर पता नहीं कुछ ही दिनों के बाद मेरी पत्रिका को किसकी नजर लग गई जो अंजान नम्बरों से मेरे पास फोन पर फोन आने लगे और पाठकों के पत्र भी कि जब तक आप महान टाइप के एक लेखक की रचना अपनी पत्रिका में नहीं छापेंगे। तब तक हम आपकी पत्रिका खरीदकर नहीं पढेंगे। आप हमारी वार्षिक सदस्यता शुल्क वापस कर दीजिए और सदस्यता समाप्त कर दीजिए। मैं परेशान हो गया। मन उस महान टाइप के लेखक से मिलने को व्याकुल हो गया। मेरा मन, मन तड़पत हरिदर्शन को मोर के स्टाइल में तड़पने लगा। इसी बीच डाक से मुझे एक अंजान लेखक की रचना मिली जिसमें लेखक के नाम के स्थान पर महानटाइप लेखक लिखा था। मैं खुशी से उछल पड़ा। प्रभु को धन्यवाद देते हुए मैं बार-बार यही जपता रहा कि प्रभु आपने मेरी सुन ली। मेरी पत्रिका बंद होने से बच गईं। मेरी पत्रिका में इस महानटाइप लेखक की रचना छपते ही सैकड़ों प्रति में बिकने वाली यह पत्रिका अचानक लाखों प्रतियों में बिकने लगेंगी। मैं मालामाल हो जाऊँगा। मुझे लगा, यह केवल महानटाइप के लेखक की रचना भर नहीं बल्कि मेरे लिए करोड़ों रूपये का चेक है। इस रचना के छपते ही मैं करोड़पति हो जाऊँगा। आज तक मैं एक जिम्मेदार पति भी नहीं बन सका था। अब करोड़पति बनते ही एक अच्छा पति बनने के लिए पुनः प्रयास करूँगा। मैं मुंगेली लाल की तरह हसीन सपने देखते हुए उस रचना को खुशी-खुशी प्रकाशित की। खुशी के मारे स्वयं समय निकालकर पत्रिका की एक प्रति लेकर महानटाइप के लेखक के पते पर पहुँचा। सोचा था, उस महानटाइप के लेखक की चरणधूलि अपने माथे पर लगाकर और उसका दर्शन लाभ लेते हुए अपने आप को कृतार्थ कर पत्रिका की एक प्रति ससम्मान उन्हें भेट करूंगा। उन्हें महान टाइप के लेखक कहना मुझे जरा लम्बा लगता था तो मैं उन्हें अपनी सुविधा के अनुसार केवल महान जी ही कहने लगा।
जब मैं महान जी के घर पहुँचा तो वे पेटभर भोजन कर डकार लेते हुए भूख पर रचना लिखने के लिए बैठे हुए थे। महानता के बुखार से उनका मस्तक तप रहा था। मैने जब नमस्कार महान जी कहा तो वे मुझे घुरकर ऐसे देखने लगे जैसे कहना चाह रहें हो कि मैं तुम्हे नमस्कार कहने लायक दिखता हूँ। वे अनमने ढंग से मुझे बैठने का इशारा किया। बैठते हुए मैंने कहा-‘‘ आपका नाम बहुत सुना था महान जी। आपकी रचना मिली तो मैं उसे सहर्ष अपनी पत्रिका में प्रकाशित कर आपके अवलोकनार्थ एक प्रति आपको सादर भेट करने के लिए लाया हूँ, लीजिए स्वीकार कीजिए।‘‘ महान जी तमतमाकर बोले-‘‘मेरी रचना छापने की तुम्हारी हिम्मत कैसे हुई?‘‘ मैंने कहा-‘‘महाशय! रचना तो आपने ही मुझे भिजवाई थी। आपकी रचना लेने मैं तो चलकर आपके पास नहीं आया था।‘‘ महान जी ताव खा गये, बिफरकर बोले-‘‘भिजवाई थी इसका मतलब क्या आप छाप ही देंगे।‘‘ मेरा जी तो चाह रहा था कि कह दूँ, रचना छपने के लिए नही ंतो क्या आचार डालने के लिए भिजवाई थी महाशय, पर मन मसोस कर रह गया। मुझे चुप देखकर महान जी बोले-‘‘वह तो मैंने अपनी महानता प्रदर्शित करने के लिए भेजी थी। आपको पता है, मैं पैदा होने से पहले ही बहुत अच्छा लिख रहा हूँ। जिस समय मैं महानता की सीढ़िया चढ़ रहा था, उस समय परसाई, जोशी, त्यागी और शुक्ल वगैरह गिल्ली-डंडा खेलने में मशगूल रहते थे। मार्कटवेन, शेक्सपियर, टालस्टाय और गोर्की को लेखन की बारीकियां मैंने ही सिखलाई थी। आज साहित्य मे जितने भी बड़े नाम है, वे सब मेरी ही कोंचिग क्लास की देन है। मैं ही साहित्य के सभी लधु पत्रिकाओं का मेरूदंड हूँ। असली लेखक तो केवल मैं ही हूँ बाकी सब कागज काले करने वाले क्या जाने कि लेखन क्या होता है। मै लिखना बंद कर दूँ तो संपादको के सामने रोजगार का संकट खड़ा हो जायेगा। वे सब सड़क पर आ जायेंगे। प्रकाशकों के सामने भूखों मरने की नौबत आ जायेगी। अभी जो प्रकाशक मेरी किताबे छाप रहें हैं वे पूर्व जन्म से ही मेरी किताब छापने के लिए मरे जा रहे हैं। बड़ी मुश्किल से उनकी बारी इस जन्म में आई है, इसीलिए मैं उनका हिसाब चुकता करने में लगा हूँ। उन प्रकाशकों का कहना है कि पहले जन्म में किसी अपराध के लिए ईश्वर ने उन्हे शाप दे दिया था। इस शाप से मुक्ति का उपाय पूछने पर भगवान के एजेन्टों ने उनसे कहा है, जब धरती पर एक महानटाइप के लेखक का जन्म होगा और तुम उनकी किताब प्रकाशित करोगे तभी तुम्हें इस शाप से मुक्ति मिलेगी। अपनी किताब की पाण्डुलिपि मैं उन्हें अपने प्रचार के लिए नहीं बल्कि शाप से मुक्ति दिलाने के लिए देता हूँ। अब जो प्रकाशक मेरी किताब छापना चाहेंगे उनको अगले जन्म तक इंतजार करना पडेगा। इस जन्म में मैंने केवल एक प्रकाशक को अपनी पाण्डुलिपि दी है। वह भी तब, जब वह मेरे पैरों पर गिरकर अपने बीबी-बच्चों की दुहाई दिया। मेरे इंकार करने पर मेरी चौखट पर ही आत्मदाह करने की धमकी दे डाली तब मेरा हृदय पसीजा और मैं द्रवित होकर बड़ी मुश्किल से उसे अपनी पाण्डुलिपि दे दी। देश के सारे लधु पत्रिकाओं के संपादक हजार बार मिन्नतें करते। मेरे घर के सामने घटों आपकी एक रचना का सवाल है बाबा कहते हुए खड़े रहते है तब मैं उन्हें अपनी रचना छापने की सौभाग्य देता हूँ और आप बिना मेरी अनुमति मेरी रचना छापने का दुःसाहस कर गये।, भुगतनी पडेगी, इसकी सजा बराबर भुगतनी पड़ेगी, समझे।
मैं महान जी के महानता से आतंकित हो गया। उनकी महानता का तेज मैं बर्दास्त नहीं कर पा रहा था। महान जी के सामने एक मिनट भी रूकना मेरी सहनशीलता से बाहर हो रहा था। मैंने वहाँ से उठते हुए कहा-‘‘क्षमा करें श्रीमान! मैंने आपका कीमती समय नष्ट किया। अब आप मुझे यहाँ से जाने की अनुमति प्रदान करे तो मैं आपका जीवन भर आभारी रहूँगा।‘‘ मेरा इतना कहना था कि महान जी अपना आपा खो बैठे। गुर्राते हुए बोले-‘‘शट-अप, बन्द करो ये बकवास। मुझे इन शब्दों से घोर एलर्जी है। इन शब्दों को सुनकर मुझे खुजली होती है। चापलूसी और चाटुकारिता की बदबू आती है मुझे इन शब्दो से, समझ गये?‘‘
मैं सोचने लगा, आखिर महान जी की आँखों में किस रंग का चश्मा चढ़ा हुआ है। जो आदरसूचक और शिष्ट व्यवहार में प्रयुक्त होने वाले शब्दों से इन्हें चाटुकारिता की बू आती है। यही सोचते हुए मैं बाहर निकल आया। मुख्य द्वार तक आया ही था कि एक और झोलाधारी इंसान से भेट हो गई। मैं समझ गया, यह भी अपनी ही बिरादरी का है। मैंने लपककर उनसे पूछा-क्या आप भी महान जी के दर्शनार्थ जा रहे है?‘‘ उन्होंने मुस्कराते हुए जवाब दिया-‘‘हाँ भाई! महान जी ने कृपापूर्वक एक रचना मुझे भिजवाई थी। मैंने वह अपनी पत्रिका में प्रकाशित की है और अब उसे महान जी को भेटकर उनके स्नेह का प्रसाद ग्रहण पाने जा रहा हूँ। मैं बुदबुदाया-‘‘ जाओ भाई! प्रसाद तो महान जी तबियत से देते हैं। ग्रहण करो और अपनी खैर मनाओ। बहरहाल, आपने उनकी कौन-सी रचना प्रकाशित की है। जवाब मिला -‘‘बहुत ही सुन्दर निबंध है भाई। शीर्षक है ‘शिष्ट व्यवहार कैसे करे‘ रचना की शुरूआत बहुत सुन्दर वाक्य से हुई है ‘शिष्टाचार मनुष्य का आभूषण है‘। जिसकी रचना इतनी सुन्दर वह कितना सुन्दर होगा बस इसी लालसा में महान जी से मिलने जा रहा हूँ।
मैं फिर बुदबुदाया-‘‘जाओ भाई! महान जी से मिलकर आपमें जो शिष्टाचार है, आप वह भी भूल जायेंगे। इन महानटाइप के लेखको को आप शिष्टाचार का फर्जी विश्वविद्यालय ही समझें।‘‘
महान जी के दरवाजे से लौटने के बाद मुझे लगा, शिष्टाचार कहने और लिखने भर की बातें है व्यवहार में अपनाने की नहीं। नये जमाने के शिष्टाचार का यह अध्याय आज तक मेरे दिमाग में उथल-पुथल मचाये हुए है।
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वीरेन्द्र -सरल‘
बोड़रा (मगरलोड़)
जिला-धमतरी (छत्तीसगढ़)
पिन-493662
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