हिन्दू या मुस्लिम के अहसासात को मत छेड़िए। अपनी कुर्सी के लिए जज़्बात को मत छेड़िए। हममें कोई हूण कोई शक कोई मंगोल है। दफ़्न है जो बात अब उस...
हिन्दू या मुस्लिम के अहसासात को मत छेड़िए।
अपनी कुर्सी के लिए जज़्बात को मत छेड़िए।
हममें कोई हूण कोई शक कोई मंगोल है।
दफ़्न है जो बात अब उस बात को मत छेड़िए।
अदम गोंडवी की यह गज़ल आज के समय में पूरी तरह मौजू है। यही नहीं, अपनी रचनाओं के माध्यम से वे हमारे समय की उन चुनौतियों से दो-चार होते हैं, जो आने वाले समय में मानवता के भविष्य को तय करेंगी। दुष्यंत कुमार के बाद अदम गोंडवी वे पहले शायर हैं, जिन्होंने जनता से सीधा संवाद स्थापित किया। वे कबीर की परंपरा के कवि हैं, फक्कड़ और अलमस्त। कविता लिखना उनके लिए खेती-किसानी जैसा ही सहज कर्म रहा। अदम गोंडवी उन जनकवियों और शायरों में अग्रणी हैं, जिन्होंने कभी प्रतिष्ठान की परवाह नहीं की और साहित्य के बड़े केंद्रों से दूर रहकर जनता के दुख-दर्द को स्वर देते रहे, अन्याय और शोषण पर आधारित व्यवस्था पर प्रहार करते रहे। लगभग ढाई दशक पहले एक साहित्यिक पत्रिका में इनकी चंद ग़ज़लें प्रकाशित हुई थीं।
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‘काजू भुने प्लेट में व्हिस्की गिलास में।
उतरा है रामराज विधायक निवास में।
पक्के समाजवादी हैं तस्कर हों या डकैत।
इतना असर है खादी के उजले लिबास में।’
हिंदी ग़ज़ल में यह एक नया ही स्वर था। सीधी-सीधी खरी बात, शोषक सत्ताधारियों पर सीधा प्रहार।
प्राइमरी तक शिक्षा प्राप्त और जीवन भर खेती-किसानी में लगे अदम गोंडवी ने ज्यादा तो नहीं लिखा, पर जो भी लिखा वह जनता की ज़बान पर चढ़ गया। प्रसिद्ध आलोचक डॉ. मैनेजर पांडेय ने उनके बारे में लिखा है, “कविता की दुनिया में अदम एक अचरज की तरह हैं।” अचरज की तरह इसलिए कि हिंदी कविता में ऐसा बेलौस स्वर तब सुनाई पड़ा था, जब कविता मज़दूरों-किसानों के दुख-दर्द और उनके संघर्षों से अलग-थलग पड़ती जा रही थी। नागार्जुन-त्रिलोचन-केदार जैसे जनकवियों ने जो अलख जगाई थी, उस परंपरा को आगे बढ़ाने का काम अदम गोंडवी और गोरख पांडेय जैसे कवियों ने ही किया।
अदम गोंडवी के लिए कविता एक ऐसे अनिवार्य कर्म की तरह थी जो मनुष्य होने की अर्थवत्ता का अहसास करा सके। खास बात यह है कि जनता के शोषण के तंत्र को उन्होंने मार्क्सवाद की किताबों के माध्यम से नहीं समझा था, बल्कि अपने आसपास महसूस किया था। नीची जातियों पर सामंती अत्याचारों को उन्होंने स्वयं देखा था जो आज भी रोज ही गांवों-कस्बों में वंचित लोग झेल रहे हैं। तभी उनकी प्रसिद्ध नज़्म लिखी गई ‘चमारों की गली’, जिसने साहित्य की दुनिया में हलचल पैदा कर दी। आज भी निम्न जातियों के लोगों को रोज ही अपमान का सामना करना पड़ रहा है, स्त्रियों को सामूहिक बलात्कार का शिकार बनाया जा रहा है, भूख और बेबसी उनकी नियति बन चुकी है। ऐसे में, अदम गोंडवी ने लिखा –
“भूख के अहसास को शेरों सुखन तक ले चलो
या अदब को मुफ़लिसों की अंजुमन तक ले चलो।“
अदम ने वक़्त की चुनौती को साफ-साफ पहचाना और लिखते हैं –
“ग़ज़ल को ले चलो अब गांव के दिलकश नज़ारों में
मुसलसल फ़न का दम घुटता है इऩ अदबी इदारों में।
अदीबो, ठोस धरती की सतह पर लौट भी आओ
मुल्लमे के सिवा क्या है फ़लक के चांद-तारों में।”
अदम गोंडवी को जो दृष्टि मिली थी और उनका जो वर्ग-बोध था, वह किताबी नहीं, वास्तविक जीवन की स्थितियों से उत्पन्न था। उन्होंने अभाव, वंचना, भूख की पीड़ा और गरीबों पर धनिकों द्वारा किए जाने वाले जुल्म को अपनी आंखों से देखा और महसूस किया था। उनका सच कबीर की तरह ‘आंखिन देखी’ था, ‘कागद की लेखी’ नहीं। आज की राजनीतिक व्यवस्था के छल-छद्म को समझना उनके लिए कठिन नहीं था। सत्ता के लिए होने वाली साजिशों और वंचित वर्ग के संघर्षों को भटकाने वाली ताकतों की दुरभिसंधियों का उन्होंने खुलकर पर्दाफाश किया। उन्होंने लिखा –
“ये अमीरों से हमारी फैसलाकुन जंग थी
फिर कहां से बीच में मस्जिद व मन्दर आ गए
जिनके चेहरे पर लिखी है जेल की ऊंची फसील
रामनामी ओढ़कर संसद के अन्दर आ गए।”
आज की राजनीतिक परिस्थितियों में ये पंक्तियां पूरी तरह सच का बयान है। यह सच अदम गोंडवी के समग्र लेखन में बिखरा हुआ है, जो जनता को आगाह करता है और शोषक सत्ताधारियों को खुली चुनौती देता है। अदम की राजनीतिक चेतना अत्यंत ही प्रखर है। सत्ता में बैठे लोगों का चरित्र वे खोलकर सामने रखते हैं। उन्होंने लिखा है –
“जो डलहौजी न कर पाया वो ये हुक्काम कर देंगे
कमीशन दो तो हिन्दुस्तान को नीलाम कर देंगे।
ये वंदेमातरम् का गीत गाते हैं सुबह उठकर
मगर बाज़ार में चीज़ों का दुगना दाम कर देंगे।”
आज जो विकास की बातें कहकर अपनी राजनीति चमकाने में लगे हैं और जनता को झांसापट्टी देना चाहते हैं, उनके चरित्र को अदम ने ग़ज़ल-दर-ग़जल उजागर किया है। उनके बारे में उन्होंने लिखा है –
“मुफ़लिसों की भीड़ को गोली चलाकर भून दो
दो कुचल बूटों से औसत आदमी की प्यास को।
मज़हबी दंगों को भड़का कर मसीहाई करो
हर क़दम पर तोड़ दो इन्सान के विश्वास को।”
अदम गोंडवी क्रांति के कवि हैं, इंकलाब के कवि हैं। पाश की तरह ही इनके लिए कोई ‘बीच का रास्ता’ नहीं है। तभी तो ये कहते हैं –
‘जनता के पास एक ही चारा है बग़ावत
ये बात कह रहा हूं मैं होशो हवास में।’
अदम गोंडवी का जन्म उत्तर प्रदेश के गोंडा में 22 अक्टूबर, 1947 को हुआ था। मां-पिता ने इनका नाम रामनाथ सिंह रखा। शायर के रूप में अदम गोंडवी के नाम से विख्यात हुए। निधन 18 दिसंबर, 2011 को हुआ। इनकी कुल तीन कृतियां सामने आईं – ‘गर्म रोटी की महक’, ‘समय से मुठभेड़’ और ‘धरती की सतह पर’। सम्मान भी मिला – दुष्यंत कुमार सम्मान और मुकुट बिहारी सरोज सम्मान। पर जनता के दिलों में इन्होंने अपनी जो जगह बनाई और जो सम्मान पाया, वह किसी भी साहित्यिक सम्मान से बड़ा है।
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